मयंक श्रीवास्तव से अवनीश सिंह चौहान की बातचीत

हिन्दी की प्रतिष्ठित साप्ताहिक पत्रिका— ‘धर्मयुग’ और इसके यशस्वी सम्पादक आ. धर्मवीर भारती से साहित्य जगत भलीभाँति परिचित है। कहते हैं कि इस पत्रिका में रचनाओं के प्रकाशित होते ही उन दिनों देश-भर में साहित्यिक चर्चाएँ प्रारंभ हो जाया करती थीं। ऐसी ही एक रचना, जिसकी पृष्ठभूमि में भारत-चीन युद्ध (1962) और भारत-पाकिस्तान युद्ध (1965) से उपजी भूख, गरीबी, लाचारी, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार और इनसे पीड़ित करोड़ों भारतीयों की मार्मिक व्यथा-कथा है, ‘धर्मयुग’ में 13 सितम्बर 1980 को प्रकाशित हुई— “अपनी तो इस मँहगाई में डूब गयी है लुटिया बाबू/ लेकिन कैसे बने तुम्हारे ऊँचे ठाठ मुगलिया बाबू” और देश-भर में इस ग़ज़ल के रचनाकार मयंक श्रीवास्तव की चर्चाएँ होने लगीं।

ग़ज़ल लिखते-लिखते मयंक जी कब गीत लिखने लगे, यह उतना जरूरी नहीं जितना यह कि अब तक उनके छः गीत संग्रह— ‘सूरज दीप धरे’ (1975), ‘सहमा हुआ घर’ (1983), ‘इस शहर में आजकल’ (1997), ‘उँगलियाँ उठती रहें’ (2007), ‘ठहरा हुआ समय’ (2015) और ‘समय के पृष्ठ पर’ (2019) और एक गीतिका संग्रह— ‘रामवती’ (2011) प्रकाशित हो चुके हैं। कारण यह है कि उनकी ग़ज़लों में गीत का ही ‘परिविस्तार’ दिखाई पड़ता है। कहने को तो यह भी कहा जा सकता है कि उनके गीतों में नवगीत का ‘परिविस्तार’ दिखाई पड़ता है। कुछ भी हो, यह रचनाकार स्वयं ग़ज़ल-गीत-नवगीत आदि के भेद में कभी नहीं पड़ा— जो मन-भाया सो पढ़ लिया, जो मन आया सो लिख लिया। जो भी पढ़ा उससे वह अनुभव-समृद्ध हुए और जो भी लिखा उससे आंचलिकता एवं नगरीयता जैसी विशेषताओं के समन्वय से उदभूत युगीन चेतना उनकी रचनाओं में व्यंजित होती चली गयी। यानी की भावक जिस रूप में उनकी रचनाओं को देखना चाहे, देख ले और अपनी सुविधानुसार उनसे अर्थ ग्रहण कर ले— “जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी” (कवि-कुल कमल बाबा तुलसीदास)।

उ.प्र. के आगरा जिले की तहसील फिरोजाबाद (अब जिला) के छोटे से गाँव ‘ऊंदनी’ में 11 अप्रेल 1942 को जन्मे जाने-माने गीतकवि मयंक श्रीवास्तव 1960 से माध्यमिक शिक्षा मंडल, म.प्र., भोपाल में विभिन्न पदों पर कार्य करते हुए दिसंबर 1999 में सहायक सचिव के पद से सेवानिवृत्त हुए। सेवानिवृत्ति के बाद उन्होंने छंदबद्ध कविता को प्रकाशित-प्रशंसित करने के उद्देश्य से भोपाल के साप्ताहिक पत्र ‘प्रेसमेन’ (2007 से 2009 तक) में समीर श्रीवास्तव के साथ बतौर साहित्य संपादक कार्य किया। उनके कुशल संपादकत्व में इस पत्र ने छंदबद्ध कविता पर केंद्रित कई संग्रहणीय विशेषांक निकाले, जिससे देश में छंदबद्ध कविता का माहौल बनने लगा। ‘प्रेसमेन’ की तुलना ‘धर्मयुग’ से होने लगी। जो साहित्यकार ‘धर्मयुग’ में छप चुके थे, उनको इस पत्र में छपना उतना ही सुखद और गौरवशाली लगने लगा और जो लोग ‘धर्मयुग’ में छपने से रह गये थे, उन्हें भी इसमें छपकर वैसा ही सुख और संतोष हुआ। ऐसा इसलिए भी हुआ क़ि मयंक जी ने संपादन-कार्य में सदैव अपनी साहित्यिक समझ और समायोजन शक्ति का संतुलित और सार्थक उपयोग किया। वह बड़ी साफगोई से कहते भी हैं— “साहित्य सृजन एवं संपादन मनुष्य और समाज को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए, किसी कुत्सित और मानवताविरोधी विचारधारा को केंद्र में रखकर नहीं।”

वरिष्ठ गीतकार के रूप में महामहिम राज्यपाल (म.प्र.) द्वारा सार्वजनिक रूप से सम्मानित मयंक श्रीवास्तव के रचनाकर्म पर अब तक भोपाल की दो पत्रिकाओं— ‘संकल्प रथ’ (2015, सं. राम अधीर) एवं ‘राग भोपाली’ (2016, सं. शैलेंद्र शैली) द्वारा विशेषांक प्रकाशित किये जा चुके हैं। उनकी रचनाधर्मिता पर अन्य पत्रिकाओं— ‘अक्षरा’, ‘गीत गागर’, ‘मध्य प्रदेश सन्देश’, ‘पहले-पहल’ आदि ने भी कई महत्वपूर्ण आलेख प्रकाशित किये हैं। अपने स्थापना-वर्ष से ही ‘साहित्य समीर’ पत्रिका (सं. कीर्ति श्रीवास्तव) भी अपने ढ़ंग से उनको अक्सर ‘स्पेस’ देती रहती है। भोपाल ही नहीं, देश के तमाम साहित्यकार, यथा— देवेंद्र शर्मा ‘इंद्र’, विद्यानंदन राजीव, दिनेश सिंह (अब सभी कीर्तिशेष), यतीन्द्र नाथ राही, गुलाब सिंह, मधुसूदन साहा, वीरेंद्र आस्तिक, जहीर कुरैशी, प्रेम शंकर रघुवंशी, सुरेश गौतम, शिव अर्चन, महेश अग्रवाल आदि उनका जिक्र अपने लेखों, संस्मरणों आदि में बड़े स्नेह और सात्विकता के साथ करते रहे, यह भी विदित ही है। कहने का आशय यह कि सहज, सौम्य और शालीन स्वभाव के मयंक जी एक बेहतरीन रचनाकार के रूप में उतने ही प्रतिष्ठित हैं, जितने कि एक कुशल संपादक के रूप में। — अवनीश सिंह चौहान

अवनीश सिंह चौहान— “अपनी तो इस मँहगाई में डूब गयी है लुटिया बाबू/ लेकिन कैसे बने तुम्हारे ऊँचे ठाठ मुगलिया बाबू”, आपकी यह रचना धर्मयुग में 13 सितम्बर 1970 को प्रकाशित हुई थी। क्या कारण रहा कि ‘धर्मयुग’ जैसी लोकप्रिय पत्रिका में प्रकाशित इस युवा रचनाकार पर नवगीत के पुरोधा राजेन्द्र प्रसाद सिंह और शम्भुनाथ सिंह की दृष्टि नहीं पड़ी?

मयंक श्रीवास्तव— यह सच है कि 13 सितंबर 1970 के ‘धर्मयुग’ में मेरी महंगाई पर केंद्रित उक्त रचना प्रकाशित हुई थी और पूरे देश में चर्चा के केंद्र में भी रही। उस समय इस रचना के संबंध में मुझे अनेक पत्र भी मिले थे। किन्तु, किसी भी पत्रिका में जो रचना प्रकाशित होती है, उसे संपूर्ण देश के रचनाकार पढ़ लें, यह आवश्यक नहीं है। संभवतः राजेंद्र प्रसाद सिंह और डॉ शंभूनाथ सिंह का ध्यान उक्त रचना के कलमकार पर केंद्रित इसलिए न हो पाया हो क्योंकि ‘धर्मयुग’ में प्रकाशित उक्त रचना नवगीत न होकर हिंदी गजल थी। हाँ, समीक्षकों की राय में मेरी गजलें मेरे गीतकार रूप का ही परिविस्तार हैं तथा इनमें नवगीत की गंध बसी हुई है। यहाँ मैं यह भी बताना चाहूँगा कि जब ‘नवगीत दशक’ की योजना पर डॉ शंभूनाथ सिंह काम कर रहे थे तब नवगीतकार राम सेंगर के साथ वे दो बार मेरे आवास पर आए थे तथा रात्रि निवास भी किया था। किन्तु उस समय ‘नवगीत दशक’ में मेरे गीतों के प्रकाशन के संबंध में उन्होंने मुझसे कोई बात नहीं की थी और मैंने भी इस संबंध में उनसे किसी प्रकार की बात करना उचित नहीं समझा था।

अवनीश सिंह चौहान— आपका जन्म कब और कहाँ हुआ? उस समय आपके परिवार की स्थिति कैसी थी?

मयंक श्रीवास्तव— मेरा जन्म उत्तर प्रदेश के जनपद फिरोजाबाद के ग्राम ऊँदनी में 11 अप्रैल 1942 को पिता स्व. देवीशंकर एवं माता स्व. श्रीमती रामश्री के यहाँ हुआ। उन दिनों एक ओर देश में स्वंत्रता प्राप्ति के लिए आग धधक रही थी, तो वहीं मेरा परिवार जैसे-तैसे अपनी गुजर-बसर कर रहा था। हमें आजादी मिली किन्तु परिवार की स्थितियाँ जस-की-तस थीं। उसी समय एक विकट स्थिति उत्पन्न हुई। हुआ यह कि उत्तर प्रदेश के पटवारियों ने, शायद 1952 में, वेतन वृद्धि की मांग को लेकर हड़ताल कर दी और मामला इतना आगे बढ़ गया कि सभी पटवारियों ने अपने इस्तीफे दे दिए, जिन्हें तत्कालीन सरकार द्वारा स्वीकार भी कर लिया गया। यह घटना हमारे परिवार के लिए बहुत दुखद थी— मेरे बड़े भाई पटवारी थे और उनका इस्तीफा भी स्वीकार कर लिया गया। मेरे बड़े भाई एवं बहन शादी के योग्य थे। पिताजी पर घर चलाने की जिम्मेदारी थी ही; अतः वे पास के गाँव जेवरा के सरगना अहीर की दुकान से राशन आदि लाने लगे। शायद उन्होंने लिख कर दिया होगा कि कर्ज नहीं चुका सके तो खेत सरगना का होगा। सरगना अहीर बहुत चालाक था। उसने पटवारी से मिलकर खेत अपने नाम करा लिया। रोटी के लाले पड़ना ही थे। इसलिए सच कहूँ तो मैंने गरीबी की भयावह स्थिति को बहुत नजदीक से देखा है। गरीबी के कड़वे और तीखे तीर सहे हैं। भूख, अपमान, तिरस्कार, उपेक्षा का सामना किया है। गाँव में अन्य परिवारों की गरीबी, पीड़ा और उत्पीड़न को खुली आँखों से देखा है। शायद इसीलिये मैंने अपने गीतों में इन सभी विषम स्थितियों को गाया है। गीत को अभिव्यक्ति का माध्यम इसलिए बनाया, क्योंकि मुझे लगता है कि गीत के माध्यम से ही अपने एवं समाज के दुख-दर्द को अभिव्यक्त कर सकता हूँ।

अवनीश सिंह चौहान— आपने कब और कहाँ से शिक्षा-दीक्षा प्राप्त की? इस हेतु आपको किस प्रकार का श्रम एवं संघर्ष करना पड़ा? आप मध्य प्रदेश माध्यमिक शिक्षा मण्डल में कब चयनित हुए और कब सेवानिवृत्त हुए?

मयंक श्रीवास्तव— निकटस्थ ग्राम सड़ामई की प्राथमिक शाला से प्राथमिक परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद मैंने जूनियर हाई स्कूल, साढ़ूपुर में छठवीं कक्षा में प्रवेश लिया, किन्तु छठवीं कक्षा के बाद दो साल स्कूल जाना नहीं हुआ, क्योंकि मेरी पढ़ाई के लिए मेरे पिताजी के पास खर्च उठाने की सामर्थ्य नहीं थी। अतः न चाहते हुए भी दो साल मुझे घर पर ही बैठना पड़ा। दो साल बाद फिर उसी विद्यालय में प्रवेश लेकर मिडिल परीक्षा उत्तीर्ण की। परीक्षा उत्तीर्ण हुई तो पिताजी ने साहस करके डी.ए.वी. इंटर कॉलेज, फिरोजाबाद में मुझे प्रवेश दिलवा दिया। तभी एक समस्या और उत्पन्न हो गई। समस्या यह कि फिरोजाबाद में रहकर पढ़ना मेरे लिए संभव नहीं था, क्योंकि शहर में रहने का व्यय पिताजी वहन करने की स्थिति में नहीं थे। इसलिए हमने विचार किया कि गाँव में रहकर ही फिरोजाबाद आया-जाया जाय। कुछ रास्ता नंगे पाँव पैदल चलकर और कुछ सफर ट्रेन से — मेरा गाँव निकटतम रेलवे स्टेशन (मक्खनपुर) से लगभग डेढ़ कोस दूर था। मक्खनपुर से सुबह सात बजे ट्रेन फिरोजाबाद जाया करती थी और वही ट्रेन फिरोजाबाद से रात सात-आठ बजे मक्खनपुर वापस आ जाया करती थी। इसलिए सुबह डेढ़ कोस पैदल चलकर मेरा मक्खनपुर से सात बजे वाली ट्रेन से फिरोजाबाद जाना होता था और उसी ट्रेन से रात को वापस आना भी होता था। उन दिनों इस प्रकार से यात्रा करने में मुझे बेहद श्रम एवं संघर्ष करना पड़ा, किन्तु 1960 में डी.ए.वी. इंटर कॉलेज, फिरोजाबाद से जब मैंने हाई स्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण की तो उम्मीद की एक नयी किरण मिल गयी। हाईस्कूल परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद ही वर्ष 1960 में मध्य प्रदेश माध्यमिक शिक्षा मण्डल में नौकरी लग गई तो भोपाल आ गया। किन्तु वर्ष 1999 में अस्वस्थता के कारण मैंने उक्त विभाग से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले ली। सेवानिवृत्ति के बाद शब्द-साधना करने में लग गया और आज भी बस यही कर रहा हूँ।

अवनीश सिंह चौहान— क्या आप आध्यात्मिक है? नहीं तो आपका समय कैसे बीतता है? काव्य लेखन का संस्कार आपको कहाँ से मिला ?

मयंक श्रीवास्तव— मेरी रुचि आध्यात्मिक कभी नहीं रही। इसका अर्थ यह भी नहीं कि मैं आध्यात्मिक नहीं हूँ। मगर मंदिर जाना-आना खास अवसरों पर ही होता है। शनिवार एवं मंगलवार को हनुमान चालीसा का पाठ अवश्य कर लेता हूँ। मेरा ज्यादा समय स्वाध्याय एवं सृजन में ही बीतता है। वैसे तो कविता में रुचि बचपन से ही थी, किन्तु विशेष रुचि का विकास उस समय हुआ जब मैं जूनियर हाईस्कूल का छात्र था। उन दिनों हमारे जूनियर हाईस्कूल में अंताक्षरी का आयोजन प्रति शनिवार को हुआ करता था। उस आयोजन में मैं भी भाग लिया करता था। कविता के प्रति विशेष लगाव यहीं से प्रारम्भ हुआ। धीरे-धीरे छंद-विधान, तुकों आदि का ज्ञान होने लगा, जिसका परिणाम अब आप सभी के सामने है।

अवनीश सिंह चौहान— क्या आपने गीत के शाश्वत प्रतिमानों को केंद्र में रखकर अपनी सर्जना प्रारम्भ की थी? यदि नहीं, तो क्या आपको जो ठीक लगा वह समयानुसार आपने लिख-पढ़ लिया? आपकी प्रथम कृति— ‘सूरज दीप धरे’ (1975) की रूप-रेखा कब और कैसे बनी और क्या उस समय आप गीत और नवगीत के बीच अंतर को जानते-समझते थे?

मयंक श्रीवास्तव— गीत लेखन में मेरी रुचि प्रारंभ से ही रही है और इसलिये इस विधा में यथासंभव सहयोग भी देता रहा हूँ। प्रत्येक लेखक के अपने प्रतिमान होते हैं जो समय और उम्र के साथ बदलते रहते हैं। प्रतिमानों को केंद्र में रखकर कोई रचना लिखी गयी या रचना को केंद्र में रखकर कोई प्रतिमान गढ़ा गया, यह कहना बहुत मुश्किल है। किन्तु इतना अवश्य कह सकता हूँ कि प्रत्येक रचनाकार की यह प्रबल इच्छा रहती है कि उसने जो सृजन किया है उसका पुस्तक रूप में प्रकाशन भी हो। ‘सूरज दीप धरे’ का जब प्रकाशन हुआ था तब मेरी उम्र लगभग 33 वर्ष रही होगी। चूँकि उस समय मैं भी अपने गीतों को संग्रह के रुप में देखना चाहता था, अतः प्रकाशन की रूपरेखा कुछ मित्रों के सहयोग से स्वयं बना ली।

यहाँ एक बात और स्पष्ट करना चाहता हूँ कि जब मैंने गीत लिखना प्रारंभ किया उस समय में गीत एवं नवगीत के भेद को नहीं जानता था। प्रारंभ में मैं रामावतार त्यागी से बहुत प्रभावित रहा, जिसका प्रभाव मेरे लेखन पर भी पड़ा। परिणामस्वरूप पारंपरिक गीतों का संग्रह- ‘सूरज दीप धरे’ आप सभी के समक्ष है। मेरे मन पर पड़े संस्कार तत्कालीन (समकालीन) परिवेश, मेरी व्यक्तिगत परिस्थितियाँ, भोगे हुए दर्द की कुलबुलाहट आदि ने मेरे गीत सृजन को गति प्रदान की। ‘सूरज दीप धरे’ के गीत वैयक्तिक होते हुए भी, संपूर्ण समाज की सामूहिक अभिव्यक्ति रही। किन्तु ‘सूरज दीप धरे’ के प्रकाशन के बाद मेरे गीत लेखन के शिल्प, शैली, सोच, छंद विधान में नैसर्गिक रूप से परिवर्तन आया। अतः मैंने मानवीय जीवन संघर्ष के साथ समयगत सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक परिवर्तन एवं समय सापेक्षता को ध्यान में रखते हुए गीत लिखे, जो ‘सहमा हुआ घर’ में प्रकाशित हुए।

अवनीश सिंह चौहान— ‘सूरज दीप धरे’ (1975)— इस आशावादी, भावुक एवं सुखद शीर्षक के बाद के तीन शीर्षक— ‘सहमा हुआ घर’ (1983), ‘इस शहर में आजकल’ (1997) और ‘उँगलियाँ उठती रहें’ (2007) कमोवेश आंचलिकता, नागरिकता, सामाजिकता, आर्थिकता, सांस्कृतिकता जैसी विशेषताओं के समन्वय से उदभूत युगीन चेतना को व्यंजित करते हैं, यह सब कैसे बन पड़ता है?

मयंक श्रीवास्तव— ‘सूरज दीप धरे’, जो 1975 में प्रकाशित हुआ था, की रचनाएँ उस समय की सामाजिक परिस्थितियों एवं भोगे हुए यथार्थ को दृष्टिगत रखते हुए लिखी गई थीं। जैसे-जैसे समय बदलता जाता है, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक स्थितियों में निश्चित रूप से परिवर्तन होता चला जाता है, जिसका प्रभाव प्रत्येक रचनाकार की रचनाओं में स्वाभाविक रूप से अभिव्यक्त होता है। यही वजह है कि 1983 में प्रकाशित ‘सहमा हुआ घर’, 1997 में प्रकाशित ‘इस शहर में आजकल’ एवं 2007 में प्रकाशित ‘उंगलियां उठती रहे’ के गीतों में आंचलिक बोध, नागरिक बोध, सामाजिक परिवेश, राजनैतिक एवं आर्थिक मूल्य के साथ नैतिक मूल्यों में गिरावट आदि को अनुप्राणित किया गया है। चूँकि उपरोक्त वस्तुस्थिति स्वाभाविक रूप से उपस्थित हुई है, इसलिए इनमें युगीन चेतना और जन कल्याणकारी भावना का समावेश नैसर्गिक रूप से उपस्थित हुआ है।

अवनीश सिंह चौहान— आपके दो नवगीत-संग्रह— ‘ठहरा हुआ समय’ (2015) और ‘समय के पृष्ठ पर’ (2019) जहाँ समय के पृष्ठ पर ठिठककर खड़े दिखाई पड़ रहे हैं, वहीं तत्कालीन खुरदरे यथार्थ से सार्थक संवाद करते भी दिखाई पड़ रहे हैं। कहीं यह रचनाकार के अंतर्लोक में ‘प्रलय से लय की ओर’ या ‘लय से प्रलय की ओर’ जैसी किसी यात्रा का संकेत तो नहीं?

मयंक श्रीवास्तव— ‘ठहरा हुआ समय’ वर्ष 2015 में प्रकाशित हुआ, जबकि ‘समय के पृष्ठ पर’ 4 वर्ष बाद 2019 में प्रकाशित हुआ। इन 4 वर्षों में हमारे समाज में नैतिक मूल्यों, चारित्रिक मूल्यों, राजनीतिक मूल्यों आदि के स्तर पर जो टकराहट होती रही है, उससे स्वाभाविक रूप से मेरे मानस-पटल पर गहरा दबाव बना। इसलिए इन गीत संग्रहों में ‘खुरदरा यथार्थ’ की उपस्थिति को नकारा नहीं जा सकता। हाँ, यह सच है कि इनकी सर्जना के दौरान मेरे मस्तिष्क में ‘प्रलय से लय की ओर’ या ‘लय से प्रलय की ओर’ जैसी कोई प्रतिछवि विद्यमान नहीं थी।

अवनीश सिंह चौहान— आप नवगीत का जन्म पारम्परिक गीत की कोख से मानते हैं। नवगीत नवगीत की कोख से जन्म न लेकर गीत की ही कोख से जन्म क्यों लेता है? ऐसे में क्या गीत को नवगीत की ‘सरोगेट मदर’ कहना उचित है?

मयंक श्रीवास्तव— मेरा मानना है कि गीत और नवगीत की पीड़ा में कोई विशेष फर्क नहीं होता है। समयानुसार साहित्य में रचनाओं की भाषा, शब्द, संवेदना आदि में स्वाभाविक रूप से परिवर्तन देखा जाता रहा है। इसलिए गीत अपने समय के अनुसार अपना स्वरूप स्वतः ही ग्रहण कर लेता है। सामाजिक परिवर्तन गतिशील होता है, मानवीय परिस्थितियाँ भी परिवर्तित होती रहती हैं। जब गीतों में समय और स्थितियों के अनुसार लेखन को महत्व दिया जाता है तब नया कथ्य, शिल्प आने पर भी वर्तमान में लिखे जा रहे गीत पारंपरिक हो जाते हैं। अतः यह माना जा सकता है कि पारंपरिक गीत से ही नवगीत का जन्म हुआ है; नवगीत गीत के विकास का ही सोपान है; नवगीत पारंपरिक गीत का ही परिष्कृत रूप है। यानी कि नवगीत ने गीत को रूढ़िग्रस्त होने से बचाया है और उसकी अस्मिता की रक्षा की है। इस हेतु हमें नवगीतकारों का कृतज्ञ होना चाहिए। जहाँ तक गीत के ‘सरोगेट मदर’ होने का प्रश्न है, मेरी दृष्टि में ‘सरोगेट मदर’ शब्द ही प्रासंगिक नहीं लगता है, क्योंकि यह कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। जो भी हो गीति साहित्य के इतिहास में नवगीत को स्वर्णाक्षरों में रेखांकित किया जाएगा, ऐसा मेरा विश्वास है।

अवनीश सिंह चौहान— “नया भाव-बोध, नया शिल्प, नयी शैली, नयी विषय-वस्तु, नया छंद लेकर लिखा गीत ही नवगीत का रूप ले सकता है। नवगीत में भी लय-भंग किसी भी स्तर पर स्वीकार नहीं की जा सकती। नयी पीढ़ी के गीतकारों को इस पर ध्यान देना जरूरी है”— ‘समय के पृष्ठ पर’ कृति में आपको यह सब कहने की आवश्यकता क्यों पड़ गयी?

मयंक श्रीवास्तव— ‘समय के पृष्ठ पर’ कृति का सृजन जिस समय हुआ था वह समय आज भी उसमें मौजूद है। वह उस समय के अनुरूप नये विषय, नये छंद और नयी संवेदनाओं के साथ उपस्थित हुआ है, जिसमें गीतों का अपना मौलिक व्याकरण है। यह सत्य है कि जहाँ गीतों की बात होती है, वहाँ गीतों के लयात्मकता की उपेक्षा नहीं की जा सकती, उसमें लय और तरंग को शामिल होना चाहिए। लय तो गीतों की प्राण होती है, इसलिए लय के बिना गीत की कल्पना नहीं की जा सकती। गीत या नवगीत में गीतात्मकता, परिपक्व छंद विधान, लय प्रवाह आवश्यक है। गीत की मूल चेतना रागात्मक है, अतः उपरोक्त बिंदुओं को नकारा नहीं जा सकता। जहाँ तक यह लिखने की आवश्यकता की बात है, मैं प्रसंगवश आपको बताना चाहता हूँ कि बिहार से प्रकाशित एक समवेत नवगीत संकलन में एक गीतकवि के कुछ गीत प्रकाशित किए गए, जिनमें न तो छंदानुशासन का ध्यान रखा गया और न ही लय का। जब मैंने संपादक महोदय से फोन पर बात कर उनका ध्यान इस ओर आकर्षित करने की कोशिश की, तब उनका उत्तर कि कथ्य तो है। मेरा मत है कि अगर कथ्य पर ही ध्यान देना है, तो छंदमुक्त कविता लिखनी चाहिए। इससे नवगीत का स्वरूप भी ख़राब नहीं होगा।

अवनीश सिंह चौहान— भोपाल जैसे बड़े शहर में रहते हुए भी आप सदैव अपने गाँव— ‘ऊँदनी’ को याद करते रहे है। अपने गीतों में ग्रामीण परिवेश पर इतने सलीके से बात करने के पीछे कोई ख़ास वजह तो नहीं?

मयंक श्रीवास्तव— मेरा जन्म गाँव में हुआ है, जहाँ की मिट्टी और पानी की गंध मेरे भीतर समाहित है। गाँव में लोग आर्थिक अभावों, बीमारियों और आपसी संबंधों में टकराहटों के साथ अन्य कई तरह की पारिवारिक, राजनीतिक संकटों से गुजरते हैं। दबंगों एवं धनपतियों द्वारा कमजोर वर्ग का शोषण, भूख-गरीबी आदि के दृश्य मैंने अपनी आँखों से देखे हैं। गाँव में जन्म होने के कारण ही मेरे गीतों में ग्रामीण-बोध के साथ सामाजिक-आर्थिक हालातों का ‘प्रजेंटेशन’ एवं शहरी जीवनशैली और उनके नैतिक, चारित्रिक, राजनीतिक बोध का प्रतिबिंब होना स्वाभाविक है।

मेरा भावनात्मक लगाव ‘ऊँदनी’ से आज भी कम नहीं हुआ है, यह सच है। मेरा यह भी विचार है कि शहरों की अपेक्षा गाँव में सच्चाई, अपनापन, संवेदना अधिक विद्यमान है। आम आदमी का मौलिक स्वरूप गाँव में ही देखने को मिलता है और इसलिए ग्रामीण जीवन को केंद्र में रखकर लिखे गए मेरे तमाम गीत आम आदमी के गीत हैं। इस संबंध में भोपाल के वरिष्ठ ग़ज़लकार जहीर कुरैशी ने अपने एक आलेख में लिखा भी है— “मयंक जी के समग्र लेखन में ग्राम ‘ऊँदनी’ बीज रूप में निरंतर मौजूद रहता है और संभवतः इसीलिए उनके गीतों में गाँव के बिम्ब बहुतायत में मौजूद हैं। मयंक जी मानते भी हैं कि नई सदी के बदलाव के बावजूद गाँव में अभी भी थोड़ी संवेदना, सच्चाई और सादगी बची हुई है।”

अवनीश सिंह चौहान— ‘संकल्प-रथ’ (दिसम्बर 2017) के अंक— ‘गीत-कवि मयंक श्रीवास्तव पर एकाग्र’ में राम अधीर ने अपनी सम्पादकीय में आपके (नव)गीतों के छंद-विधान पर बात करते हुए कहा है कि आपके अधिकांश (नव)गीत 24 और 32 मात्राओं से रचे गये हैं। यदि यह सच है, तो इसके पीछे क्या वज़ह रही? यदि नहीं, तो आप अपने (नव)गीतों में किन छंदों का प्रयोग प्रमुखता से करते आये हैं?

मयंक श्रीवास्तव— (नव)गीत स्वाभाविक रूप से मेरे भीतर से निकलते हैं। मैं जिस विषयवस्तु को लेकर अपने (नव)गीत लिखता रहा हूँ उसमें मैंने न तो कभी मात्राओं पर ध्यान दिया और न ही कभी किसी छंद विशेष का आग्रही रहा हूँ, क्योंकि यह एक नैसर्गिक रचना-प्रक्रिया है, जो स्वतः अपनी भाषा, शब्द, स्वरूप विषय के अनुरूप ग्रहण कर लेती है। यह हो सकता है कि राम अधीर ने मेरे गीतों के छंद-विधान, मात्राओं आदि के संबंध में आकलन किया हो।

अवनीश सिंह चौहान— आपने अपनी ग़ज़लों में सीधी-सपाट एवं इकहरी जुबान का प्रयोग कर आज की लाइलाज व्यवस्था पर करीने से चोट की है। ग़ज़लों की ओर आपका झुकाव कब और कैसे हुआ?

मयंक श्रीवास्तव— रचनाकार किसी एक विधा से बंधा हुआ हो, यह आवश्यक नहीं है। वह स्वतंत्र, किन्तु स्वाभाविक रूप से अपनी रचना-प्रक्रिया करता रहता है। इसलिए मैंने भी किसी मापदंड को रखकर अपनी गजलों (गीतिकाओं) का सृजन नहीं किया। हो सकता है मेरी गजलों (गीतिकाओं) की भाषा इकहरी और सपाट हो, किन्तु उनका अपना आकर्षण है। जहाँ तक गजलों की ओर झुकाव का प्रश्न है तो मैं यही कहना चाहूँगा कि जब मेरा गीत संग्रह— ‘सूरज दीप धरे’ आया, उस समय दुष्यंत कुमार का गजल संग्रह— ‘साये में धूप’ आया था। उनकी गजलों की चर्चा ‘धर्मयुग’, ‘सारिका’, ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ आदि पत्रिकाओं में प्रमुख रूप से हो रही थी। उनकी गजलों की लोकप्रियता के कारण ही देश के कई गीतकवि गजल विधा में अपनी संभावनाएं तलाश रहे थे। यह एक तरह से हिंदी गजलों के स्वर्णयुग की शुरुआत थी, जिससे, आंशिक रूप से ही सही, मैं भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका। अतः मैंने भी कुछ गजलें (गीतिकाएँ) लिखीं, परंतु यह विधा मेरे लेखन के केंद्र में कभी नहीं रही। मैं पहले की तरह गीत ही लिखता रहा और आज भी गीत ही लिखता हूँ।

अवनीश सिंह चौहान— एक समर्थ गीतकवि और श्रेष्ठ ग़ज़लकार होने के नाते आप गीत और ग़ज़ल के मर्म को भलीभाँति जानते हैं। (नव)गीत और ग़ज़ल में बुनयादी अंतर क्या है? और क्या इस अंतर में (नव)गीत को सशक्त या अशक्त के चश्मे से देखना उचित है?

मयंक श्रीवास्तव— कुछ लोग मानते हैं कि गीत और गजल गीति-वृक्ष की ही दो शाखाएँ हैं, किन्तु मैं लोगों के इस विचार से सहमत नहीं हो पाता। वस्तुतः गजल हमारी जमीन की उपज नहीं है। गजल की प्रकृति, प्रवृत्ति एवं स्वरूप अलग है और इसका कारण मूलतः भारतीय न होना है। गजल अरबी से चलकर फारसी और उर्दू के रास्ते हिंदी में आई है। इसकी रचना-प्रक्रिया और छंद विधान गीत से एकदम अलग है। दोनों का व्याकरण, शिल्प, शैली अलग है। दोनों का स्वभाव अलग है। इसलिए समानता के आधार पर दोनों की तुलना नहीं की जा सकती। गीत में एक ही भावानुभूति का निर्वाह अंत तक करना होता है, व्यक्त भाव को टूटना नहीं चाहिए, जबकि गजल का दो पंक्तियों का शेर अलग-अलग अर्थ एवं भाव प्रदान करता है। गीत का अपना फॉर्मेट है और ग़ज़ल का अपना फॉर्मेट, इसलिए गीत को गजल के फॉर्मेट में ढाला नहीं जा सकता। मैं गीत को गजल के साथ जोड़कर देखने का पक्षधर नहीं हूँ। गीत मूलतः और मुख्यतः जीवन की जीवंत अभिव्यक्ति है। गीत तो भारतीय संस्कारों से संपृक्त संगीतमय मांगलिक उद्गार है। इसे सशक्त या अशक्त के चश्मे से देखना भी उचित नहीं है।

अवनीश सिंह चौहान— हिंदी पत्रकारिता (खासकर काव्य के क्षेत्र में) में कभी-कभी बेहद महत्वपूर्ण कार्य हुए हैं— ‘नये-पुराने’ पत्रिका के ‘छः गीत विशेषांक’ और ‘प्रेसमेन’ के छंदबद्ध कविता पर केंद्रित तमाम अंक। ‘प्रेसमेन’ के यशस्वी साहित्य संपादक के रूप में ‘संपर्क, संपादन, प्रकाशन एवं प्रसारण’ से सम्बंधित आपके क्या अनुभव रहे?

मयंक श्रीवास्तव— दुर्भाग्य से कीर्तिशेष कवि एवं आलोचक दिनेश सिंह द्वारा संपादित ‘नये-पुराने’ पत्रिका के ‘गीत विशेषांक’ मुझे देखने को नहीं मिल सके (यद्यपि इन महत्वपूर्ण अंको की चर्चा उन दिनों पूरे देश में हो रही थी)। मेरा उनसे परिचय बहुत बाद में बना और जब बना तो उन्होंने बड़े मनोयोग से मेरे एक गीत संग्रह की धारदार समीक्षा लिखकर मुझे भेजी। उन दिनों वे अपने सहयोगी (अवनीश सिंह चौहान) के साथ ‘नये-पुराने’ पत्रिका का ‘कैलाश गौतम स्मृति अंक’ तैयार कर रहे थे। वैसे साहित्यिक पत्रकारिता का अपना इतिहास रहा है और इस इतिहास को खँगालने पर पता चलता है कि समय-समय पर गीत विशेषांकों में प्रकाशित गीति-साहित्य की चर्चा साहित्य जगत में होती रही है। सो मैंने भी ‘प्रेसमेन’ के छंदबद्ध कविता पर कई विशेषांक निकाले। प्रकाशन के लिए सामग्री की दिक्कत कभी नहीं आई, क्योंकि रचनाकारों ने कभी निराश नहीं किया। एक बात और स्पष्ट कर दूँ कि ‘प्रेसमेन’ का साहित्य संपादक होने के नाते केवल प्रकाशन सामग्री जुटाना और उसे प्रकाशन के लिए भेजना ही मेरा काम था। ‘प्रेसमेन’ के संपादक एवं मालिक अलग थे। अतः मुझे कभी भी आर्थिक या किसी अन्य प्रकार की समस्या का सामना नहीं करना पड़ा। ‘प्रेसमेन’, जिसके अंक केवल छांदस रचनाकारों को ही यथासंभव प्रेषित किए जाते रहे हैं, के कार्यकारी संपादक समीर श्रीवास्तव प्रसारण आदि का उत्तरदायित्व संभाल ही लेते थे। इससे मेरा काम और भी आसान हो जाता था।

अवनीश सिंह चौहान— आप ताउम्र मंचीय गठजोड़ और प्रकाशकीय हथकण्डों से कौसों दूर रहे। एक सिद्धहस्त (नव)गीतकार, ग़ज़लकार एवं कुशल संपादक (प्रेसमेन) के रूप में आप ‘साहित्य में राजनीति’ और ‘राजनीति में साहित्य’ को किस प्रकार से देखते हैं?

मयंक श्रीवास्तव— आजकल साहित्य में राजनीतिक हस्तक्षेप कुछ अधिक देखने को मिल रहा है। किसी भी रचनाकार के बारे में प्रायः यह देखा जाने लगा है कि राजनीतिक रूप से वह किस विचारधारा का है— लेखक वामपंथी है या राष्ट्रवादी, समाजवादी या निरपेक्ष भाव का है। तमाम पत्र एवं पत्रिकाएँ राजनीतिक विचारधारा के अनुसार प्रकाशित हो रही हैं। आज लेखन राजनीतिक विचारधारा के अनुसार हो रहा है और उनके विषय भी विचारधारा के अनुसार तय किए जा रहे हैं। विचारधारा के अनुसार लेखक संघ का गठन हो रहा है। साहित्य सम्मेलन भी विचारधारा के अनुसार हो रहे हैं, जिनमें विचारधारा के अनुसार राजनीतिज्ञ भी आने लगे हैं। अतः साहित्य में राजनीति एवं राजनीति में साहित्य ने प्रवेश कर लिया है। मैं इसे मानव समाज के लिए सही नहीं मानता, साहित्य सृजन मनुष्य एवं समाज को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए। यदि मनुष्य दुखी या पीड़ाग्रस्त है तो उसमें छिपे कारकों की पहचान और पड़ताल होना आवश्यक है। साहित्य का कार्य उन कारकों को इंगित करना तो है ही, आवश्यकता पड़ने पर उन्हें तर्जनी दिखाना भी जरूरी है। वर्तमान साहित्य मानवीय संवेदनाओं से अत्यंत समीपता से जुड़ा है और पूरी ईमानदारी से यथार्थ के परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत हो रहा है, इस दृष्टि से भी इसे देखना चाहिए।

अवनीश सिंह चौहान— स्त्री सशक्तीकरण को लेकर (नव)गीत में बहुत कुछ लिखा-पढ़ा जा रहा है। किन्तु ऐसा क्या कारण है कि (नव)गीत में अक्सर स्त्री की देह (रूप आदि) को केंद्र में रखा गया है, उसकी मेधा को नहीं?

मयंक श्रीवास्तव— स्त्री लेखन एवं पुरुष लेखन की अपनी मर्यादा है, जिसमें एक-दूसरे को महत्व देने का प्रश्न उपस्थित नहीं होता। अपनी रचना-प्रक्रिया में प्रत्येक रचनाकार भिन्न-भिन्न स्थितियों से गुजरता है। उस समय उसके दिमाग में स्त्री-पुरुष लेखन की अपनी तरह की प्रतिछवि होती है, इसलिए स्त्री सशक्तिकरण अथवा उसके देह रूप को देखना उचित प्रतीत नहीं होता। समाज में रचनाकार पर स्त्री की जो छवि ज्यादा छाई रहती है, वह उसी को अपनी रचना की विषयवस्तु बनाता है। उसमें कोई बौद्धिक छवि हो, तो भी वह एक सामान्य जीवन शैली है, जिसको लेखन के लिए आवश्यक विषयवस्तु माना जाय, यह जरूरी नहीं।

अवनीश सिंह चौहान— संवेदनशील मनुष्य होने के नाते आप निश्चय ही अपनी साहित्यिक यात्रा में अपने प्रिय, सम्माननीय एवं वरिष्ठ रचनाकारों-मित्रों के काल-कवलित होने पर आहत हुए होंगे। अब आप उन्हें किस प्रकार से याद करते हैं?

मयंक श्रीवास्तव— एक रचनाकार होने के नाते हमेशा ही अपने वरिष्ठ रचनाकारों का सम्मान करता हूँ। इनमें से कई साहित्यकार मेरे प्रेरणास्रोत भी रहे हैं, जिनकी याद आने पर अपनी पीड़ा से बड़ी मुश्किल से समझौता कर पाता हूँ। सच कहूँ तो अपने प्रिय जब इस संसार को छोड़ते हैं तब आहत होना स्वाभाविक है। ऐसी स्थिति में मुझे अपने प्रिय रचनाकार की रचनाओं को पढ़ना सबसे अधिक शांति प्रदान करता है।

अवनीश सिंह चौहान— आज प्रिंट की बड़ी पत्रिकाएँ जहाँ गीत-नवगीत को ‘स्पेस’ नहीं दे पा रही हैं, वहीं लघु पत्रिकाएँ दम तोड़ रही हैं। ऐसे में इंटरनेट पर साहित्यिक पत्रिकारिता का भविष्य कैसा है और पाठकीयता पर इसका किस प्रकार का असर देखने को मिल रहा है?

मयंक श्रीवास्तव— साहित्य की हर विधा में उतार-चढ़ाव आता ही रहता है। कभी गीतों को महत्व मिलता है, तो कभी कविता को अधिक महत्व मिलता है— और यह सब समय की रूचि तय करती है। किसी पत्रिका के प्रकाशन में आर्थिक स्थिति महत्वपूर्ण होती है, किन्तु हमेशा ही पत्रिका की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ रहे, यह आवश्यक नहीं है। लघु पत्रिकाओं के सामने आर्थिक संकट प्रायः बना ही रहता है। कुछ लघु पत्रिकाएँ सरकारी विज्ञापनों से प्रकाशित होती हैं। सरकारी विज्ञापन भी हमेशा नहीं मिल पाता। अतः बहुत-सी पत्रिकाएँ या तो समय से नहीं निकल पाती या कुछ समय बाद उनका प्रकाशन ही पूरी तरह से बंद हो जाता है। ऐसी स्थिति में साहित्य में रुचि रखने वाले पाठकों के सामने संकट उत्पन्न हो जाना स्वाभाविक है। जहाँ तक इंटरनेट की साहित्यिक पत्रिकाओं का प्रश्न है, इंटरनेट पर साहित्यिक पत्रिकाओं का चलन अभी काफी बढ़ा है। किन्तु अभी भी आम पाठक उनसे पूरी तरह से जुड़ नहीं पाया है। यह भी देखने में आ रहा है कि ज्यादातर रचनाकार ही इंटरनेट पर साहित्यिक पत्रिकाओं को देखते, पढ़ते, प्रकाशित होते हैं; आम पाठक को इंटरनेट या प्रिंट की साहित्यिक पत्रिकाएँ सुलभ नहीं हैं। इसलिए वेब पत्रिकाओं का भविष्य कैसा रहेगा, यह कहना अभी उचित नहीं लगता— यह तो आने वाला समय और परिस्थितियाँ ही तय कर सकेंगी।

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