‘नाग सैला’- न्याय की आस लिए एक लोक नृत्यः अखिलेश ‘दादूभाई’

लोक संस्कृति, लोक जीवन, लोक नृत्य लोक सहित्य ये सभी हमारे मस्तिष्क में आदि काल के वासियों की ऐसी छवि अंकित करते हैं जिनका जीवन, प्रकृति के आस-पास, उसके उपादानो के मर्यादित उपयोगों के साथ, आत्मिक अन्विति स्थापित करता है। सदियों से शब्द-शिल्पियों ने अपनी-अपनी विधा में
इनके शब्द-बिंब उकेरे हैं। यदा-कदा इन्हें प्रशासनिक सांत्वना भी प्राप्त हो जाती है। ‘सांत्वना’ इसलीए कहा कि यदि परिणामोन्मुखी कार्ययोजनाओं का निष्पक्ष क्रियान्वयन होता तो महाकौशल क्षेत्र के ‘नाग-सैला’ जैसे लोकप्रचलित, अद्भुत नृत्य पर विलुप्ति की कुदृष्टि नहीं पड़ती।

दोष किसे दें…? मानव स्वभाव का विहंगावलोकन करें तो पाएँगे कि कभी भी सम्पन्नो ने विपन्नो के दारिद्र-हरण के स्थाई प्रयास नहीं किए। तथाकथित नगरीय सभ्यता ने ग्रामीण उन्नयन के लिए प्रश्नचिह्नित प्रयास ही किए जो हमारी सामाजिक, सांस्कृतिक, राष्ट्रीय मननशीलता पर गंभीर चिंतन दायित्व उत्पन्न करता है।

न्यायोचित संरक्षण की आस लिए यह रिपोर्ताज जनापर्ण है कि जो लोग अपने दैहिक-दैविक-भौतिक दुखों अर्थात ‘दुःखत्रय’ को भुला कर इस प्राचीन लोक-नृत्य ‘नाग-सैला’ को जीवित रखे हैं उन्हें पहचान मिले, मान मिले।

नृत्य ने हमारी सांस्कृतिक भावनाओं पर बड़ा गहरा प्रभाव छोड़ा है। नौ रस भी नृत्य के माध्यम से अभिव्यक्त होते हैं। संस्कृति जनक महादेव शिव एवं योगयोगेश्वर कृष्ण दोनो ही नृत्य के सनातन देव हैं। भारत जैसे धरोहर-धरणी राष्ट्र में एक से बढ़ के एक लोक नृत्यों का वृहद कोष छिपा है। इनमें से कई संरक्षित भी हैं; जैसे- बहुरूपिए, गरबा, बिहू, करमा, पांडवनृत्य, घूमर, राउत, कालबेलिया, चेरी, अहीरी, गौंडी, भगोरिया, सुआ, सैला इत्यादि। इन सभी नृत्यों में बहुरंगी विविधताओं के साथ एक समानता भी है कि ये सभी लोक-नृत्य किसी न किसी जाति विशेष, वर्ग विशेष अथवा भूषा विशेष को धारे हुए लोगों द्वारा किए जाते हैं। इनके विपरीत यह अति महत्वपूर्ण बात है कि ‘नाग-सैला’ एकमात्र ऐसा नृत्य है जो सभी पंथ, जाति, समुदाय के लोगों द्वारा किया जाता है। ‘इसमें किसी प्रकार का कई जाति, वर्ग, भाषा, वेश-भूषा इत्यादि का बंधन नहीं है।’

स्मरण करा दूँ, राजस्थान का कालबेलिया नृत्य, सपेरनो द्वारा काले घेरदार वस्त्र पहन, गोल-गोल घूम के किया जाता है। यह सरकार द्वरा संरक्षित है; ऐसा मेरे ज्ञान में है। इसके विपरीत नाग-सैला पूर्णतः नाग की सजीवता का प्रतीकात्मक प्रस्तुतिकरण है। इसे हर हाल में न केवक संरक्षण अपितु धरोहर की स्वीकरोक्ति मिलना चाहिए।

भाद्रपद-शुक्लपक्ष-पंचमी अर्थात ‘ऋषी पंचमी’! इस बात का स्मरण मुझे तब हुआ जब कलैंडर में कुछ आवश्यक कार्य चिह्नित कर रहा था। ऋषि पंचमी ऐसा त्यौहार है, जिसमें हम सभ्यता और संस्कृति के पोषक ‘सप्त ऋषियों’ की आराधना करते हैं, जिससे षडरिपुओं से विनिर्मुक्ति तथा सुख-सौभाग्य की प्राप्ति हो। सर्प-दंश झाड़ने वालों के लिए तो यह अति महत्वपूर्ण दिवस है जो नाग-सैला की पीठिका है।

उसी नाग-सैला नृत्य का आनंद लेने चलिए मेरे साथ।

आज मौसम स्वच्छ है, इसबात का साक्षात प्रमाण, चमकते नभोमणि के स्पष्ट दर्शन हैं। वैसे, भोर की पूर्व बेला में, मेघज बूँदों ने मेदनी-से आलिंगन कर अपना नाभिनाल संबंध जता दिया था। संभवतः इसीलिए यत्र-तत्र नम धरती की सौंधी सुगंध फैली है। इसके स्वागत में पंछियों का कलरव विशिष्ट भूमिका निर्वहन कर रहा है। मैं तो इस सौंधी सुगंध को ‘प्रकृति प्रदत्त इत्र’ की उपमा दूँगा। खेती-किसानी के दृष्टिकोण से यह समय बढ़ा महत्वपूर्ण है क्यों कि इस समय फ़सलों को खरपतवार से बचाना होता है। कुछ यों समझें; जैसे- युवा होते बच्चों को उनके पथभ्रष्ट नए मित्रो से बचाना। कह सकते हैं, कृषि पालन और संतान पालन समान महत्व के हैं।

कृषि-कार्यों के अवलोकनार्थ मैं अपने कृषि ग्राम ‘टिकारी’ के लिए निकला। प्रवेश चौक पर भीड़ देख कुछ अशुभ आशंका जागी, पर परमात्मा की कृपा-से सब मंगल है। क्या करें ! हमारी सोच परिस्थितिजन्य होती है, जो वर्तमान में बहुत चिंतनीय है। अभी किसी से पूछने जा ही रहा था तभी एक काका जी हाथों में धतूरा लिए आते दिखे। मैने परिहास किया- “क्यों काका, ये धतूरे की लत कब से पाल ली आप तो रगड़ा-तम्बाखू वाले हो !” मुस्कुराते हुए उन्होंने कहा, “भैया जी ऐसी बात नहीं है, आज नाग-सैला होगा, ये शिवजी के चढ़ावन हैं।” मेरा मन, उत्फुल-प्रसन्न हो उठा ! नाग-सैला…! लंबे समय-से प्रयासरत था इस मन आह्लादन नृत्य का चक्षु-साक्षी बनने के लिए। आज वह शुभ घड़ी है। धीरे-धीरे जन पारावार बढ़ रहा है, आन गाँव के लोगों का हुजूम भी पान-गुटका खाता, अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहा है।

हमारे, याने दादू साहब के पारिवारिक देवी मंदिर के सामने वाले खलियान में बिना छत की एक नाग-नागिन मढ़िया है। इसी मढ़िया में आज नाग मंत्र का सिद्ध व्यक्ति, पुजारी की भूमिका में है। उसके सहयोग के लिए तीन आदमी साथ खड़े हैं। ये चारों सामान्य से विरत भाव-भंगिमाओं के साथ, सिंदूर, चाँवल, नींबू, धतूरा, बिल्वपत्र, दोना, करेला, दूध, धूप, दीप, घंटे इत्यादि के साथ नागदेव के रूप में पूजित ‘बासंग देव’ की पूजा कर रहे हैं। उनकी भाषा भी ग्रामीण हिंदी मिश्रित लोक-भाषा है, जो अटपटी सी प्रतीत हो सकती है।

मित्रो ! मैं यह सोच कर रोमांचित हो उठा कि यदि ये नाग देव अनुप्राणित हो जाएँ तो…! नाग हमारी धारणाओं में वैज्ञानिक और तकनीकी तर्कों को परास्त कर अलौकिक दृश्य बिंबित करता है। बाल्यकाल से सुनते आए हैं मणिधारी नाग, इच्छाधारी नाग, नेत्रो में रिपुछवि अंकित करने वाली प्रतिशोधी नागिन और भी अनेक विचित्र कथाएँ। नाग का आदिकाल से मानव के साथ संबंध रहा है। समुद्र मंथन, कालिया दहन, विष-विद्या इत्यादि। पौराणिक काल में तो एक अलग नाग प्रजाति ही थी जिसका संकेत आज भी ‘नाग’ उपनाम के रूप में मिलता है। मेरा विचार है मिस्र भी प्रारंभिक काल का नागलोक हो सकता है।चलिए छोड़ें ये बातें कभी और करेंगे, अभी वापास नाग-सैला स्थल चलते हैं।

नाग मढ़िया के समीप खड़े युवक-से मैने अन्य पुरोहित सहायकों के बारे में पूछा तो उसने बताया- “ये लोग यादव काका याने प्रधान मंत्र साधक के शिष्य हैं जो सर्प-दंश झाड़ने का मंत्र सिद्ध कर रहे हैं। ये तीनो एक माह से बड़ा संयमित जीवन जी रहे हैं। भूमि पर सोते हैं, करेला, कुंदरू, भटा, पान, मिर्च, दूध वाली चाय का सेवन नहीं करते।” उसके विश्वास के समक्ष मैं अनुरंजित था। तभी समीप खड़े एक वृद्ध बीच मे बोल उठे-“भैया जी ! बीते बरस जिन लोगों को कीड़े ने काटा था उनके विष को झाड़ने के बाद अभिमंत्रित पानी-से कलाई मे जो बंधन बाँधे गए थे, आसो, पँचमी में उन्हें खोला गया है।” ध्यान दें गाँव में साँप या नाग के संबोधन के लिए ‘कीड़े’ शब्द का प्रयोग किया जाता है। इनका मानना है कि उसका नाम नहीं लेना चाहिए’।

आज का वातावरण बहुत कौतूहल पूर्ण है। नीले गगन के तले जनसमूह की हर्ष-लहर इतनी तीव्र है कि घड़ी भर पूर्व हुई मेघगर्जना को लोगों ने अनसुना कर दिया। प्रतीत होता है, मानो लोगों की इस अनदेखी-से रुष्ट हो कर ही वर्षा मेघ नहीं बरसे अन्यथा उनके आँचल-से जलकण तो छलक रहे थे ! वह देखिए तो, सामने टोला पार से कुछ लड़के साइकिल के निकले पुराने टायर को चलाते हुए भारत के भविष्य होने की उपमा-से कोसों दूर इधर ही आ रहे हैं। वह चाक इनकी अल्पवय धींगड़-मस्ती का आपत्ति शून्य साथी है। दूसरी ओर यह दुकान है जहाँ मैं खड़ा हूँ। मूलतः पान की दुकान है; परंतु संचालक ने व्यापारिक कौशल दिखाते हुए चाय-नाश्ते और जनरल स्टोर को भी समुचित स्थान दिया है। कह सकते हैं कि यह ग्रामीण मल्टी स्टोर है। यहीं से फुटाने ले, रुखे-उलझे बालों वाली, शालेय गणवेश में ग्राम बालिकाएँ भी नृत्यारंभ की प्रतिक्षा में अप्रतिद्वंद्वि निश्चिंतता से खड़ीं हैं। मुझे ऐसा आभासित हुआ कि ये बालिकाएँ उन लोगों को मुँह चिड़ा रही हैं जो वातानुकूलित कक्ष में बैठ कर नारी विमर्श के नाम पर ऊल-जलूल टिप्पणियाँ करते हैं।

लीजिए ! नाग मढ़िया-से पूजा पूर्ण करने के पाश्च्यात अब विधिवत पट-पूजा आरंभ हो रही है। बीचों बीच सैला-पट मढ़ा है, जिसमें नाग-नागिन एवं शिव का चित्र अंकित है। इसी की आराधना के साथ शुरू हो रहा है, मानव का नाग के प्रतीकात्मक रूप में परिवर्तन का एक अविश्वसनीय, अकल्पित, अद्भुत नृत्य- ‘नाग-सैला’।

सभी नृतक एक के पीछे एक पंक्तिबद्ध एक दूसरे की क़मर में बंधे गमछे को पकड़ के बिल्कुल नाग की भाँति खड़े हो गए। सबसे आगे एक युवक नाग-फन के प्रतीक रूप में ‘सूपा’ पकड़ा है जबकी सबसे पीछे वाले के हाथ में एक झाड़ू है जो नाग की पूँछ का प्रतिनिधित्व कर रही है। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि सामने एक विशाल नाग फन उठाए खड़ा है। ये लोग नाग को शिव का जनेऊ मानते हैं, इसीलिए शिव प्ररिक्रमा के साथ नृत्य प्रारंभ हुआ।

बहुश्रुति है कि पट पूजा के साथ सूपे में स्वतः भार आ जाता है। इस नृत्य के नियमों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण दो विधान हैं। प्रथम, जहाँ से सूपा निकलेगा वहीं से पुरी पंक्ति एक-दूसरे को पकड़े-पकड़े उसी स्थान से निकलेगी। द्वितीय, जैसे ही सूपा, झाड़ू-से मिलेगा (छू जाएगा) नृत्य समाप्त माना जाएगा। ध्यातव्य है, व्यवहारिक रूप-से ऐसा नृत्य के अंत में ही होता है।

वो सुनिए…! डुगडुगी की डुगडुगाहट…! इसकी थाप पर इन लोगों के पाँव और धड़ कैसे थिरक उठे ! देखते-देखते पंद्रह-बीस लोगों की नाग रूपी यह टोली ऐसे झूमने लगी मानो कोई विशाल नाग यहाँ-वहाँ लहराते हुए डोल रहा हो ! चित्त को आनंदित करने वाला दृश्य मेरे सम्मुख है और मैं अपने पाठकों के लिए शांत चित्त हो संजय दृष्टि रखा हूँ। हम सभी इस मानव निर्मित नाग लहरों में खोए थे कि अचानक एक स्त्री को भाव आ गए, उसके बंधे केश खुल गए और बेसुध हो भूमि पर गिर गई, इसीलिए अब उसके सुरक्षार्थ तीन-चार महिलाएँ साथ चल रहीं हैं।

भाव ! आस्था मिश्रित आनंद की वह चर्म स्थिति है, जिसमें व्यक्ति सुध विहीन हो जाता है। मैं इस स्त्री को समीप-से देख ही रह था कि आभास हुआ कोई मेरे पास-से पैर पटकते हुए निकला। मैं चौंका! देखा, सूपा लिए मुँह-से फुफकार की आवाज़ निकलते, नाग-सैला टोली बाजू-से निकली। सच स्वीकार है, मैं डर गया था।

ये लोग कभी बैठते-उठते, कभी किसी पत्थर पर चढ़ते-उतरते, कभी एक-दूसरे के हाथों के नीचे से निकलते हुए ध्वनि संग गीत पर नाग की ही भाँति झूम रहे हैं। सहसा, सूपा थामा व्यक्ति पास पड़ी एक खटिया के नीचे से निकल गया, देखते ही देखते पूरी सैला पंक्ति भी वहीं से निकली। यह देख जन समूह बहुत रोमांचित हो उठा। अच्छा…! तनिक इधर तो ध्यान दीजिए ! जिस डुगडुगी ने अभी तक अकेले वाद्य-ध्वनि का दायित्व वहन किया है, एक ग्रामीण के उत्साह पूर्वक ढोलक बजाते ही उसका एकाकी पन दूर हो गया। अब दो सखियाँ मिल, नृत्य को ध्वनि प्रदान कर रहीं हैं। चारों ओर हर्ष, उल्लास के साथ मिल मुदित वातावरण निर्मित कर रहा है। हर क्षण आनंद-से भरा। संभव है, ऐसे ही सुंदर क्षणों के लिए पद्मश्री कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ ने ‘क्षण बोले कण मुस्काए’ की रचना की हो !

मित्रो ! गगन को देख ऐसा लग रहा है कि दोपहर-विदा की सूचना ले साँझ-धूप आई है। मौसमी भंगिमाएँ भी सद्यस्नाता-सी हो रहीं हैं। आसमान के शुष्क कंठ की प्यास बुझाने के लिए वर्षा-मेघ अभी-अभी स्वयं वरुण देव छिटका गए हैं। हल्की श्यामल बदली के आगमन से अभी तक प्रकाशित मेदनी भी श्याम रंग में रंग गई, मानो अंधियारा अपना स्थान सुरक्षित करना चाहता है। मौसम की इस चंचलता-से अनभिज्ञ सभी कलाकार नाग भंगिमाओं के साथ एक अलग ही लोक में विचरण कर रहे हैं। ये एक गीत भी गुनगुना रहे हैं। लोक भाषा में होने के कारण यह टूटा-फूटा समझ में आया। यथा-

“ईश्वर चरावे नाग कौन…
सौ अंडा फोड़ें…
लकड़ी समेटे….
सात अंडा फोड़ें…
एक अंडा फोड़ें…”

प्रतीकों के माध्यम से प्रकृति के साथ जुड़ने का सुंदर माध्यम है- ‘नाग-सैला’। लोक संस्कृति की विशेषता है कि सार्वजनिक आयोजनों में मेला दर्शन अवश्य होता है; ऐसा यहाँ भी हुआ। एक रिक्त-भूखंड में प्लास्टिक की दुकाने, लकड़ी के चर्र-चर्र घूर्णन ध्वनि वाले झूले, हाथ ठेले में चलित चाय-नाश्ते इत्यादि की दुकाने सजी हैं। ‘नाश्ता-चाय-पान’ तो ग्राम्य आयोजनों की शान हैं। इसी भावना-से प्रभावित मैने एक समौसा, दो चाय और दो पान का स्वाद अपनी जिवह्या को लेने का अधिकार दे डाला। यह बात अलग है कि गृह वापसी पर उदर विकार मुक्ति चूर्ण के शरणागत होना पड़ेगा…!

इन अनंदायी क्षणों के मध्य अचानक एक व्यक्ति के आगमन से लोगों का ध्यान बँटा। लखनादौन परिक्षेत्र-से एक सपेरा आया, उसने दावा किया, वह गाँव के सारे सर्पों को एक स्थान में बुला सकता है। ग्राम वासियों द्वारा उसके दावे की सत्यता परीक्षण किए बिना ही यथोचित सम्मान दे उसे विदा कर दिया गया। यह सही निर्णय था; परंतु लोगों के मन-से उसे विदा न कर सके। बाद तक लोगों की चर्चा का विषय वही सपेरा था। देखिए न, मैं भी आपसे उसी की बात कर रहा हूँ।

कार्यक्रम अपनी गति-से पूर्णता की ओर अग्रसर है। लोक-नयन, लोक-चित्त में, लोक-नृत्य के अलौकिक बिंब सुरक्षित कर रहे हैं। भरनी-से शुरू हुआ नृत्य, नाग-सैला गान की समाप्ति के साथ पूर्ण हुआ। इसी समय सूपा, झाड़ू-से जा मिला और नाग-सैला नृत्य का विधिवत समापन हुआ। ठीक इसी समय जल कण समेटे समीर ने तीव्रता से दौड़ लगाई। भाद्रपद की इस नैसर्गिक क्रिया को भी लोक आस्था ने दैवीय कृत्य से जोड़ लिया। ठीक ही तो है, इन विश्वासों से आस्था दीप प्रज्ज्वलित रहते हैं।

भीड़ धीरे-धीरे छटने लगी और पीछे छोड़ गई केवल यादें। नम मिट्टी में उछले लोगों के पैरों के निशान, फेंके हुए फूल-पत्ते, पैकेट्स, अबीर इत्यादि। कल पंचायत इसे साफ़ करवाएगी। यहाँ एक गीत के बोल समीचीन जान पड़ते हैं- ‘याद, याद, याद बस याद रह जाती है।’

इन्हीं यादों को शाब्दिक चित्र प्रदान करने के उद्देश्य-से मैने प्रधान मंत्र साधक लखन लाल यादव को अपने बाड़े में आमंत्रित किया। मेरे बहु उद्देशीय प्रश्नो के इन्होंने लघु उत्तर दिए। कारण पूछने पर जवाब आया- “भैयाजी ऊ की बात, बखत-बेबखत करना ऊ को बुलाना है।” अतः मैने यही सोच कर संतुष्टि कर ली कि लेखकीय सिसृक्षा के लिए दो शब्द भी पर्याप्त हैं। यह मेरी संतुष्टि की अनिवार्यता है अन्यथा प्रश्न तो अभी शेष हैं।

विडंबना ही है कि भारतीय राजनीति (जो मूलतः लोकनीति कहलाना चाहिए) धर्म, जाती, पंथ पर आश्रित है जबकि ये पूर्णतः नागरिकों के व्यक्तिगत विषय हैं न कि राजनैतिक। अपवादों को छोड़ दें तो अनेक जनप्रतिनिधि, लोकतंत्र के मंदिर में अल्प शिक्षित रूप-से, अशुद्ध उच्चारणो एवं भाषा दोष के साथ, संकल्पविहीन, निज उत्थान की लालच में, दंभ-से भरे, सलाम साधकों से घिरे, भाग्य वश प्राप्त पद के सदुपयोग से विमुख, जागे-जागे, सोए-सोए समय व्यतीत करते हैं। उफ़…! हमारा राष्ट्रीय दुर्भाग्य।

गृह-वापसी के समय मैने पल भर के लिए आँखें बंद कीं तो स्मृति पटल में आज का पूरा दिवस-चित्र घूम गया। सत्य है, ‘मानव स्मृति जीवी है।’ हमें न्यायिक दृष्टि के साथ चिंतन करना है कि हम ‘नाग-सैला’ लोक नृत्य के साथ न्याय करें या धृतराष्ट्र की अन्याय-सभा के पाषाणी हृदय सद्स्य बनें ! स्मरण रखना होगा, सर्व शक्तिमान, आश्चर्यों के जनक ‘समय’ द्वारा अवश्य ही न्याय किया जाएगा। कहीं उस समय हम निरुत्तर, निःशब्द, लज्जित- से न खड़े रहें…! उत्तर हमें देना है क्यों कि दायित्व हमारा है।

वंदे…!

-अखिलेश सिंह श्रीवास्तव ‘दादूभाई’
कथेतर लेखक
मो- 7049595861

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