कोडई कनाल एक मूर्त कविता , स्वर्णिम जैसलमेर- उर्मिला जैन

कोडईकनाल : एक मूर्त कविता
मैं अपने को बेहद खुशकिस्मत मानती हूँ कि मैने सच-मुच एक मूर्त कविता देखी है – अपनी ही धरती पर, अपने ही देश में। प्रकृति की कृतज्ञ हूं कि उसने हर ऋतु में फूलों द्वारा, फलों द्वारा विविध रंग छीटकर, घूमने फिरते बादलों द्वारा भोर में, गोधूलि में अमूर्त आकृतियां बनाकर एक वृहद काव्य रच डाला है. मानसून में इन मौन आनंददायी चाक्षुष द्श्यों में मधुर संगीत भर जाता है. प्रकृति वर्षा में इसकी धुन पर थिरकने लगती है – पहाड़ियों पर यह उच्छृखल हो जाती है जब यहां के जीवजंतु अपने-अपने ढंग से इस संघर्ष में संलग्न हो जाते हैं – कुछ चुपचाप, कुछ अपने स्वरों सहित। कोडईकनाल पहुंचने पर इस बांकपन को मैंने स्वयं देखा, महसूस किया, भोगा।
तमिलनाडु में सागर से 2133 मीटर की ऊंचाई पर पालानी पहाड़ियों पर कोडईकनाल स्थित है। वहां इतिहास पूर्व आदिवासी जातियों के रहने के साक्ष्य मिले अवश्य हैं पर पहली बार 19 वी शताब्दी के पूर्वार्ध में अंग्रेजो द्वारा इसकी खोज की गई थी। यहां बारिश के जल को सहेजने हेतु एक झील खोदी गयी धी जो बाद में एक आकर्षक पर्यटक स्थल बन गया।
दक्षिण भारत के अन्य राज्यों की तरह यहां भी वर्ष में दो बार वर्षा होती है। खूब तड़के जब हमारी गाड़ी टेढी-मेढी चाल से कोडाई रोड पर आगे बढ़ी तो हम जादुई आनंद की अनुभूमि से भर उठे।
अंधेरे को चीरती हुई जब सूरज की प्रथम किरणों ने पाइन, साल तथा अन्य वृक्षों से छन-छन कर झांका तब प्रकृति ने धीरे-धीरे अपने सौंदर्य के अकूत खजाने बिखेरना आरंभ कर दिया॰ जब सूरज कांतिमय हो उठा तब पहाड़ी की ढलान अपने विभिन्न हरे रंगो की विभिन्न रंगत में स्पष्ट हो उठी। अपने गंतव्य तक पहुंचने के रास्ते में थोड़ी देर रुककर हमने कासकेड झरने के अदभुत नजारे की हमने उन्मुक्त मन से सराहना की।
इस लोकप्रिय हिल स्टेशन पर हमारी मुलाकात कई तरह के पर्यटकों से हुई। कुछ ऐसे लोग मिले जो पहाड़ी के नीचे स्थित शहर मदुराई में ख्यात मीनाक्षी मंदिर के दर्शन करने आए तो यहां भी चले आए । कुछ लोग छुट्टियां बिताने आए हुए थे. हम भी ऐसे ही पर्यटकों में से एक थे। इसलिए हमलोग यहां के कई दिलचस्पी वाली जगहों पर गए। स्थानीय लोगों द्वारा पिकनिक मनाते देखना भी रोचक था। बारिश में पहाड़ियां पर कभी-कभी भूस्खलन होने लगता है, जिससे मार्ग अवरुद्ध हो जाता है, इसलिए बहुत से लोग वर्षा ऋतु में पहाड़ियों की अनदेखी करते हैं पर कोडईकनाल का भूविज्ञान ऐसा है जहां इस तरह की दुर्घटनाएं शायद ही होती है। पर हमें पहाड़ो पर मानसून के मौसम में जाना पसंद है क्योंकि पहाड़ों की ढनान वर्षा में आकर्षक हो उठती है.
हम मानसून में गए थे जब कोडईकनाल पानी से तरबतर था, हरियाली और रंग बिरंगे फूलों से सुसज्जित था दिन में चमकीले सूरज ने हमारा स्वागत किया पर गोधूलि होते-होते काले-काले बादल मंडराने लगे। और पहली रात्रि में ही हम बारिश का सुख उठाने लगे।
यहां मोर को आने की जल्दी नहीं होती। वह धीरे-धीरे, कुछ देर से सुस्ती के साथ आता है।
ऊपर घूसर आकाश होता है और पास के छोटे कुंज से चिड़ियां की चहचहाहट तथा मौरों के गुंजन बेहद कर्णप्रिय थे। अविरल होने वाली घनघोर बारिश ने प्रकृति की किताब में कई कविताएं लिख दी। रेनकोट और कैमरे सहित मैं फूलों को देखने बाहर निकल गई। में एक पगड़ंडी द्वारा ऊपर की तरफ तब तक चलती रही जब तक मैंने एक समतल हराभरा क्षेत्र नहीं देखा जो अनेक सुंदर रंग-बिरंगे फूलों से भरा था.
ऐसा लगा जैसे यह स्वर्ग का बगीचा हो। इसने मुझे फूलों की घाटी की याद दिला दी। इसका चाक्षुष सौंदर्य बारिश से भीगी मिट्टी की सुगंध, वृक्षों की तीव्र महक तथा फूलों की असाधारण खुशबू से मिल जाने के कारण और भी शानदार हो उठा था। वहां हल्के बैजनी रंग का कुरिंजी फूल था, जो 12 वर्ष के बाद खिला करता है। इसे देख पाना एक आश्चर्य ही था। एक लता धागे जैसी पंखुडी दिख रही थी, जो सचमुच आश्चर्यचकित करने वाली थी क्योंकि उसकी बनावट से ऐसा लगता था जैसे इसके केंद्र में आधुनिक कला की संरचना हो गई हैं। कुछ डिजाइनों से तो सीधे-सीधे ईअररिंग बनाये जा सकते थे। टहनियों तथा पंखुरियों पर पड़ी बारिश की बूंदे मोतियों की तरह दिख रहीं थीं।
चिड़ियां एक पेड़ से दूसरे पेड़ पर फुदक रही थी और सीटियां बजाकर प्यार प्रदर्शित करती अपने साथियों को रिझा ऱही थीं। कोडईकनाल में हमें चार दिन बेहद कम लगे। हमने तय किया कि हम फिर यहां आयेंगे लेकिन इसके लिए हमें अगले मानसून की प्रतीक्षा करनी थी। कारण हमें यहां की बारिश ने, पहाड़ियो ने हरीतिमा ने पुष्पों ने भरमा लिया था। इसलिए हम मानसून में ही आना चाहते थे। यहां आकर शहरी जीवन की आपाधापी से परे हम नवस्फूर्ति से भर गए । यहां मुझे कई-कई बार तुलसी गीतावली की निम्म पंक्तियां याद आती रहीः
वन उपवन नव किललय, कुममित नाना रंग।
बोलत मधुर मुखर खग, पिकवर गुंजत भृंग

–0–


स्वर्णिम जैसलमेर
जैसलमेर पहुंच कर ऐसा लगा कि यह एक ऐसा शहर है जिसका अस्तित्व मात्र कल्पना में ही होना चाहिए। लगा कि यह किलों, वास्तुकला, सांस्कृतिक इतिहास की अलिखित शोभायात्रा है। भारत में दूर-दूर तक कोई ऐसा जादूई शहर नहीं है, जिसे ‘गोल्डेन सिटी’ माना गया है, क्योंकि सूर्यास्त के समय इसकी पथरीली सुनहरी इमारतों से स्वर्णाभा बिखरने लगी । शहर के बीचोबीच स्थित बड़ा सा किला मरुभूमि से निकल कर ऊपर की तरफ स्वर्ग में जाता सा लगा। इस सुनहरे किले ने हमारी दृष्टि को अपनी परिधि और शक्ति से झकझोर कर हमारी आत्मा को इसके अतीत ने प्रभावित कर लिया। यह जादू इसकी दीवारों के समीप पहुंचने पर भी समाप्त नहीं हुआ। जब हम पर्यटकों की भीड़भाड़, गायों और रिक्शों की पों-पों में शामिल होकर इसका पर्यवेक्षण करते रहे, लगता था, पत्थर बोल रहे हैं। भूतकाल के रहस्य हवा में तिर रहे थे और इतिहास ने स्वयं ही अपने अवयवों को पसार दिया तथा इसके लम्बे हाथ हमारे वर्तमान तक पहुंच गए।
हम विश्व के प्राचीनतम किले में थे जो आज भी आबाद है। क्षरण होते हुए भी बेहद मजबूत और अभिभूत करने वाला है। विविध रंगो वाला है तथा भीतर कुछ अस्त-व्यस्त है। टावरों का कोलाज अरेबियन नाइट स्टाइल में कंगूरे और परकोटा जो हमने देखा वह सब संकरी सड़को के भूलभुलैया में परिवर्तित हो गया, जिस पर हवेलियां और महारावल महल अपनी सूक्ष्म उत्कीर्ण महत्ता सहित स्थापित है। वहां सुनहरा सैंड स्टोन नहीं है।
हमने देखा कि वहां की संकरी गलियों में नकली साधु तस्बीर खिंचवाने के लिए पैसे मांगते रहते हैं और घूंघटवालियां अपने को भूतपर्व राज- कुमारियां बता रही थी। इस दुनिया में जहां वास्तविकता और कल्पना असलियत को धूमिल बनाये रहती हैं, वहां किले में चहलकदमी करना एक षडयंत्र-कारी आनंद था।
चार दरवाजों वाले इस किले में 99 गढ़ हैं जो प्रतिरक्षात्मक वास्तुकला की उत्तम रचना हैं और बढ़ते हुए शत्रुओं पर खौलते हुए तेल तथा विशाल प्रस्तर खंडो की बारिश कर देते होंगे।
किसी को भी मोहित करने वाला यह किला 1156 ई. में महारावल जैसल सिंह द्वारा बनवाया गया था। किसी का भी मन यहां से जल्दी जाने का नहीं होता क्योंकि यहां सूक्ष्म नक्काशी की हुई बालकनी है, एक दीवार है जो मूर्तियों से भरी पड़ी है, ऊपर नजर उठाओ तो दिखते हैं तीन उर्ध्वमुखी जैन मंदिरों के घने नक्काशी किए हुए ऊंचे-ऊंचे शिखर। हवा में भजन के स्वर तरह-तरह के स्वरों से मिले हुए लहरा रहे थे । जब में एक मंदिर के अंदर गई तो देखा वहां हरे शेड रंग वाली साड़ीं पहने सैकड़ों महिलाएं पूजा-पाठ में संलग्न थीं। एक ही रंग के शेड वाली साड़ियां इसलिए कि कोई ग्रूप से अलग भी हो जाए तो उसे पहचाना जा सके, वह खोने न पाए। संयोग से उस दिन मैनें भी हरे रंग की साड़ी पहन रखी थी। अतः मुझे भी दल का एक सदस्य समझ लिया गया इसलिए जब मैं वहां से पहले ही बाहर जाने लगी तो मुझे टोका गया-रोका गया।वैसे भी मैं जैन तो हूं ही।
जगह-जगह कई गाइड अपनी अम्यस्त कहानी उगल रहे थे और पर्यटक ओह-ओह करते सारतत्व अवलोक रहे थे, ग्रहण कर रहे थे। सचमुच जैसलमेर का किला एक अलिखित शोभायात्रा है। एक दृश्यमान ऊबड़-खाबड़ काव्य।
जैसलमेर में व्यापार की एक धनी गंध है क्योंकि हर आदमी या तो कुछ खरीदता लगता है या बेचना लगता है। रंग-बिरंग रग, कार्पेट, चांदी के जेवरात, विचित्र-विचित्र कलाकृतियों आदि सारे सामान सूर्य प्रकाश में अलाउद्दीन की गुफा के खजाने की तरह झिलमिलाते रहते हैं।
लग रहा था इस मीठी राजस्थानी जगह के अंदर और इर्द-गिर्द समय स्थिर हो गया है, फिर भी निकला जा रहा है। विसंगतियां एकत्र है, टकरा रही हैं और प्रमुदित करती घंटियां बार-बार टुनटुना रही हैं। 12 मील की दूरी पर स्थित अपने होटल सूर्यगढ़ की ओर जब हम ड्राइव कर रहे थे तो रास्ते में बाइसिकल पर सवार गड़रिये अपने पशुओं के झुंड को ले जाते दिखे। सफेद साड़ियां में आवृत्त, नंगे पैरों जाती जैन साध्वियां छड़ी तथा अपना साजो-सामान एक गठरी में बांध कर ले जाती दिखीं। सुसज्जित ऊँट मरुस्थल में गुजरते रहे जो अपने उटहारों द्वारा ले जाये जा रहे थे, उनमें से कुछ अपने मोबाइल पर बात कर रहे थे जबकि लग रहा था कि उनके झीने वस्त्र, कड़ी हवा के लिए अपर्याप्त हैं। कहीं-कहीं सरसों के खेत धूप में फहरा रहे थे तथा क्षितिज पर नक्काशीदार मंदिर और किला दिख रहे थे। रास्ते में दिखा एक उजड़ा गांव दिखा। यह उजाड़ क्यों हुआ ? कहा जाता है कि जैसलमेर के तब के प्रधानमंत्री सलीम सिंह की लालसा से अपनी एक स्त्री को बचाने के लिए ग्रामीण रातोरात भाग गए थे। तब से ही यह गाँव उजाड़ पड़ा है।
थोड़ी ही देर में वह पुराना किला होटल से देखने पर क्षितिज पर दिखने लगा, जो एक लुप्त होती मरीचिका की तरह झिलमिला रहा था। सूर्यगढ़ जैसलमेर का पहला बुतीक होटल है जो हाल तक शहर में पर्यटकों की मांग को सीमित रुप में ही पूरा कर पाता था। किले में गेस्ट हाउस और शहर में बाजिब कीमत वाले होटल हैं तो लेकिन वे पड़ोसी गुजरातियों और बैकपैर्क्स से भरे रहते हैं।
सूर्यगढ़ होटल अन्य होटलों से भिन्न है- जैसे शुष्क मरुभूमि में एक स्वप्न साकार हो गया हो। लगता है, यह धनाढ्य पर्यटकों को प्राचीन राजपूताने के शानो-शौकत तथा शोभा में सम्मिलित होने के लिए बुला रहा हो.।
इस प्रकार यह एक साधारण होटल नही वरन,आधुनिक काल में एक किला जैसा वास्तविक उत्सवधर्मी हो सकता है, उसके करीब है, जिसके प्रवेश द्वार पर सतियों की हथेलियों के छाप हैं (पुराने किले में ऐसी महिलोओं की हथेलियां के छाप हैं, जिनके पति युध्दभूमि में शहीद हो गए थे। )
जैसलमेर के खूबसूरत बलुआही पत्थर (सैंड स्टोन) से बनी इमारतों के बाहरी भाग पर केशारियां झंड़े तथा पताकांए लहराती दिख रही थी। अंदरुनी हिस्से में तत्कालीन स्मृति चिन्ह जगह-जगह दिखते हैं- नक्काशीदार दरवाजे, खजाने भरी पेटियां और प्राचीन चित्र । यहां 21 वीं शताब्दी का ताम-झाम और प्राचीन का एक सुरुचिपूर्ण मिलन पीले रंग के टाइल से बने लंबे गलियारे में दिखा, जहां गेरुए रंग की दीवारों पर प्राचीन काल के पेंटिंग लगे हैं। इसके 62 कमरे बहुत अच्छी तरह से फर्नीचर से सुसज्जित हैं और आधुनिकतम सुख-सुविधाओं से पूर्ण है जबकि अंदर का आंगन, असंख्य छज्जे और थार का दृश्य ऐसा अवलोकन कराते हैं जैसे किले के चारो ओर एक धूल-धूसरित स्कर्ट फैला हो. हमने तरह-तरह के सुस्वादु भोजन को भकोसा, काँलोनियल स्टाइल के बार में कोल्ड ड्रिंक लिया, सोपान मंडप में सांस्कृतिक कार्यक्रम देखा यहां तक कि सुस्वादु पकवानों सहित एक भव्य चाय समारोह का आनंद भी एक निर्जन बालू के टीले पर उठाया।
एक नारंगी कैनोपी में, जिसे हल्की सूर्यकिरणों से बचाने के लिए घेर रखा गया था, एक मसनद पर हम प्राचीन राजाओं की तरह टेक लगा कर उठंग गए । वहां एक स्थानीय सितार वादक अपना रावन-हट्टा बजाने लगा, जिसकी मंत्र-मुग्ध करने वाली मीठी धुन मरुभूमि की उस हवा में तिरने लगी। रेगिस्तान में हाई टी सचमुच एक अतियाथार्थवादी गुणवत्ता वाली थी – खीरे का सैंडविच, तरह-तरह के पकवान,चमचम रसगुल्ले जैसी मिठाइयां और गरम-गरम भाप उठाती चाय। दूरी पर सुकोमल बालू मशरुम के समान बादलों में चक्राकार दिख रही थी। सुसज्जित ऊंट अपनी अभिमानी रुपरेखा में फोटो खिंचवाने के लिए प्रस्तुत थे जबकि हम इस अदभुत दृश्यावली में खोए हुए थे।
रेगिस्तान में परिपूर्ण वैभव, मौन का संगीत, अंतहीन स्थान का विस्तार था या प्राचीन काल का ऊँटों का एक काफिला, जो लड़खड़ाते हुए क्षितिज की ओर बढ़ा जा रहा हो और पूर्व और पश्चिम का —– स्पाइस रुट—- हो।

उर्मिला जैन
जन्म : ४ मार्च १९४० आरा (बिहार)
शिक्षा : एम.ए. (स्वर्णपदक), डी.फिल. इलाहाबाद
प्रकाशन : आधुनिक हिन्दी काव्य में क्रान्ति की विचारधाराएँ
साहित्य के नये सन्दर्भ
मानव अधिकार और हम
देश-देश में गाँव-गाँव में
बुलाते हैं क्षितिज
देश दर देश
अफ्रीका रोड अथा अन्य कहानियां
प्यार बोत्सवाना की बारिश जैसा है (अफ्रीकी कहानियाँ )
ईश्वर के परिंदे
गुनगुनी धूप का एक कतरा (कविता संग्रह)
ट्रेमोन्टाना (मारखेज की कहानियों का अनुवाद)
हिंदी की प्रायः सभी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित
प्रसारण : बी.बी.सी. तथा आकाशवाणी से
सम्पादन : नई आजादी (मासिक), जैन बालादर्श (मासिक)
सम्प्रति : रचना उत्सव (अनियमित)
विदेश यात्रा : अबतक एशिया, अफ्रीका,यूरोप और अमेरिका के ५० से अधिक देशों की यात्रा
संपर्क : ‘सन्दर्भ’, ८ए बंद रोड, एलेनगंज, इलाहाबाद – २११००२
67 Inkerman Drive, Hazlemere, High Wycombe HP15 7JJ Bucks. U.K.
दूरभाष : ०५३२-२४६६७८२ मो. ०९४१५३४७३५१
ई-मेल : mrjain150@gmail.com

error: Content is protected !!