..अंधेरे को रौशनी पर जरा उछालकर तो देखो फिर नदी बोली समंदर से , तक आते-आते तो पूरी तरह से भीग और डूब गया था मन उन गीतों में। 90 के दशक के अंतिम वर्ष थे वे जब पहली बार कुंवर बेचैन जी को सुना था। फिर तो अक्सर ही उनके गीत कार में सुनते रहने की आदत-सी पड़ गई थी। एक बार दिल्ली में आपने पूछा था कि मुझे आपकी कौनसी ग़ज़ल सबसे अच्छी लगती है? एक हो तो कहूँ- कई अच्छी हैं और बहुत अच्छी हैं…गहरी सोच और मधुर कंठ के साथ । मस्तिष्क में गीतों की मानो लाइन सी लग गई थी। भले ही हममे रंग रूप का भेद हो, अलग-अलग भेष हो, अलग-अलग हो बोलियाँ पर गुलाब तुम, गुलाब हम। …या फिर आती जाती सांसें दो सहेलियाँ हैं…मैं कुछ कहूँ इससे पहले ही आपने अपना वह दारुण गीत बदरी, बाबुल से कहियो…ये न ? पूछा था मुझसे और मैं चुप खड़ी मुस्कुराती रह गई थी। क्योंकि कई और दूसरे थे जो उससे बहुत ज्यादा अच्छे लगते थे और अभी तो हमें आपसे ढेरों और भी नए गीत और ग़ज़ल सुनने थे कुंवर बेचैन जी। ‘मेरे साथ था तुझे जागना, तेरी आँख कैसे झपक गई’ बशीर बद्र की ये पंक्तियाँ सिर में हथौड़े सी गूंज रही हैं खबर पर विश्वास ही नहीं हो रहा। पर एक यहीं तो बस नहीं चलता, सिवाय एक मूक दर्शक के कुछ भी तो और नहीं हम सब।… कब बचपन से यौवन और यौवन से बुढ़ापे की तरफ चल पड़ते हैं और कब अपने आप से भी बेगाने से होने लगते हैं, पता ही नहीं चल पाता।
सूखे पत्ते सा उड़ता… यथार्थ की जमीं और सपनों के आकाश की दुर्लभ दूरियां नापता यह जीवन, इन बातों का लेखा-जोखा तक रखने की फुरसत नहीं देता। और तब बेबस और ‘ नुक्तांचीं गमे दिल’ ही तो है जो कभी बात न कह पाने के गम में तो कभी ‘बात बनाए न बने’ की उलझन में डूबा, कितना-कितना हंसाता और रुलाता है। और यहीं से तो शुरु होता है शब्द और भावों में रचा बसा यह कल्पना का संसार… गीत-संगीत का लगाव और साथ। कुंवर बेचैन जी निश्चय ही वर्तमान गीत आकाश के सबसे उज्जवल, सबसे चमकते सितारे थे। कोमल और भावपूर्ण गीतों का जो खजाना वह हमारे लिए छोड़ गए हैं उसके लिए हम हिन्दी भाषी और हमारी आने वाली कई-कई पीढ़ियाँ उनकी ऋणी रहेंगी।
लेखनी परिवार की तरफ से अश्रुपूरित विनम्र श्रद्धांजलि गीतों के इस राजकुंवर को, जो अपने गीतों के साथ सदा हमारे साथ रहेंगे।
बंद होंठों में छुपा लो
—————-
बंद होंठों में छुपा लो
ये हँसी के फूल
वर्ना रो पड़ोगे।
हैं हवा के पास
अनगिन आरियाँ
कटखने तूफान की
तैयारियाँ
कर न देना आँधियों को
रोकने की भूल
वर्ना रो पड़ोगे।
हर नदी पर
अब प्रलय के खेल हैं
हर लहर के ढंग भी
बेमेल हैं
फेंक मत देना नदी पर
निज व्यथा की धूल
वर्ना रो पड़ोगे।
बंद होंठों में छुपा लो
ये हँसी के फूल
वर्ना रो पड़ोगे।
जिन्दगी यूं जली
———–
ज़िंदगी यूँ भी जली, यूँ भी जली मीलों तक
चाँदनी चार क़दम, धूप चली मीलो तक
प्यार का गाँव अजब गाँव है जिसमें अक्सर
ख़त्म होती ही नहीं दुख की गली मीलों तक
प्यार में कैसी थकन कहके ये घर से निकली
कृष्ण की खोज में वृषभानु-लली मीलों तक
घर से निकला तो चली साथ में बिटिया की हँसी
ख़ुशबुएँ देती रही नन्हीं कली मीलों तक
माँ के आँचल से जो लिपटी तो घुमड़कर बरसी
मेरी पलकों में जो इक पीर पली मीलों तक
मैं हुआ चुप तो कोई और उधर बोल उठा
बात यह है कि तेरी बात चली मीलों तक
हम तुम्हारे हैं ‘कुँअर’ उसने कहा था इक दिन
मन में घुलती रही मिसरी की डली मीलों तक
शाख़ पर एक फूल भी है
——————-
है समय प्रतिकूल माना
पर समय अनुकूल भी है।
शाख पर इक फूल भी है॥
—————–
घन तिमिर में इक दिये की
टिमटिमाहट भी बहुत है
एक सूने द्वार पर
बेजान आहट भी बहुत है
लाख भंवरें हों नदी में
पर कहीं पर कूल भी है।
शाख पर इक फूल भी है॥
विरह-पल है पर इसी में
एक मीठा गान भी है
मरुस्थलों में रेत भी है
और नखलिस्तान भी है
साथ में ठंडी हवा के
मानता हूं धूल भी है।
शाख पर इक फूल भी है॥
है परम सौभाग्य अपना
अधर पर यह प्यास तो है
है मिलन माना अनिश्चित
पर मिलन की आस तो है
प्यार इक वरदान भी है
प्यार माना भूल भी है।
शाख पर इक फूल भी है॥
नदी बोली समन्दर से
—————–
नदी बोली समन्दर से, मैं तेरे पास आई हूँ।
मुझे भी गा मेरे शायर, मैं तेरी ही ही रुबाई हूँ।।
मुझे ऊँचाइयों का वो अकेलापन नहीं भाया;
लहर होते हुये भी तो मेरा मन न लहराया;
मुझे बाँधे रही ठंडे बरफ की रेशमी काया।
बड़ी मुश्किल से बन निर्झर, उतर पाई मैं धरती पर;
छुपा कर रख मुझे सागर, पसीने की कमाई हूँ।।
मुझे पत्थर कभी घाटियों के प्यार ने रोका;
कभी कलियों कभी फूलों भरे त्यौहार ने रोका;
मुझे कर्तव्य से ज़्यादा किसी अधिकार ने रोका।
मगर मैं रुक नहीं पाई, मैं तेरे घर चली आई;
मैं धड़कन हूँ मैं अँगड़ाई, तेरे दिल में समाई हूँ।।
पहन कर चाँद की नथनी, सितारों से भरा आँचल;
नये जल की नई बूँदें, नये घुँघरू नई पायल;
नया झूमर नई टिकुली, नई बिंदिया नया काजल।
पहन आई मैं हर गहना, कि तेरे साथ ही रहना;
लहर की चूड़ियाँ पहना, मैं पानी की कलाई हूँ।
(1 जुलाई सन 1942 से 29 अप्रैल 2021)