कहानी समकालीनः कन्यादान-अर्चना के. शंकर

बड़ा सा घर सजा हुआ था गुलाब और बेला के मिले जुले फूलों से| रंगबिरंगी रौशनी से फूलों की खूबसूरती और बढ़ रही थी| घर बड़ा था लेकिन बाहर से रंग रोगन तो छोड़ो, ईंटों पर सीमेंट की परत भी नहीं चढ़ी थी| ये घर था किन्नरों का और आज मौका था बेटी के ब्याह का| बेटी के ब्याह का! किन्नरों की बेटी! जाने कितने सवाल आपके मन में आ रहे होंगे, आना वज़ीब भी है| आगे बढ़ने से पहले बता दूँ, ये कहानी सत्य घटना पर आधारित है|

शादी की पूरी जम के रौनक लगी, किन्नरों की मुखिया जिन्हे सब कमला अम्मा कहते, वो यहां वहां भाग रही थी|

“ऐ सन्नो! बारात के नाश्ते का व्यस्था देख लिया ना एकदम चकाचक होना चाहिए और सुन कोल्ड ड्रिंक ठंडे होने को रखवाये कि नहीं?”
“ऐ ऐश्वर्या! जा देख तो उस मुई ब्यूटी पार्लर वाली ने बिटिया को ढंग से सजाया है कि नहीं? नहीं तो एक अठन्नी भी ना धरूँगी उसकी हथेली पर| ”
” और सुन जाते जाते रिंकी को भेज तो यहाँ! ”

कमला अम्मा पसीने से भीगी हुई परेशान सी घूम रही थी जैसे आम माता पिता परेशान होते हैं अपनी बेटी की शादी में |

एकदम बेचैन कदमों से बेटी के कमरे की तरफ बढ़ी पहुँची तो देखा बेटी चाँद का टुकड़ा लग रही विधाता ऐसा रूप भी तो दिया था उसे! हिरनी सी बड़ी बड़ी आँखे, तीखी सी लंबी नाक, दूध सा उजला रंग, मानो ईश्वर जब इसे गढ़ने बैठा था तो बहुत फ़ुर्सत और सकून में था!

कमला बेटी के पास पहुँची| बेटी के मासूम से मुखड़े को अपने भारी और सशक्त हाथों से थामा और ऊपर उठाया तो दुल्हन के रूप में देख आँखे गीली हो मुस्कुराती हुई बेटी के कान के पीछे काजल का एक टिका लगा दिया|

और झटके से बाहर आ गई आँखे गीली थी होंठ कांप रहे थे अपने आप को संभालते हुए चिल्लाई|

“ऐ राज़ी! जरा नजर तो उतार तो बच्ची की| मरी इतनी भीड़ है जाने किसकी नजर छू जाए बिटिया को।”

कह के निकल गई बरामदे में एक खंभे से टिक कर बैठ गई बेटी की विदाई को सोच उसका दिल जैसे बैठा जा रहा था|

आज जाने क्यों वो दिन याद आ गया जब नन्ही सी बेटी को अपने हाथों में थामा था| उस दिन सुबह बहुत हलचल सी दिखी| झाड़ियों की तरफ़ कमला अम्मा भी गई उधर देखने तो देखा एक नवजात बच्ची झाड़ियों में पड़ी थी| बच्ची के होंठ सूखे हुए थे और रोते रोते कंठ भी।

सभी इधर उधर की बातें कर रहे थे तभी कमला आगे बढ़ी और बच्ची को अपने गोद में ले लिया| उस दिन इस नन्ही सी बच्ची का स्पर्श ने जैसे कमला के अंदर छुपी माँ के हृदय में जैसे मातृत्व का दीपक जला दिया|

ऐसे तो जाने कितने बच्चों को अपनी गोद में लेकर आशीष दे चुकी थी वो लेकिन आज ऐसा क्या था समाज और ईश्वर द्वारा उपेक्षित कमला अम्मा के मन ऐसी हलचल मच गई|

मैं इसे पालेगी ये मेरी बेटी है आज से| अपने दमदार आवाज में कमला ने कहा तो वहां खड़े सभी अवाक् थे|

जिसको भगवान ने सृजन की शक्ति दी वो ऐसे गुनाह करता है| हम सुखी सी धरती ही अब इस नन्हे पौधे को जीवन देंगी| जानती भी हूँ कि ये किस घर की बच्ची है लेकिन कहूँगी नहीं नहीं तो इस बच्ची के अस्तित्व का अपमान होगा|
कहकर निकल गई भीड़ से अम्मा|
और उस दिन से बेटी को राजकुमारी से पालन पोषण करने लगी सभी मिलकर| नाम दिया गया मृगमई| छोटी सी मृगमई जब कमला को माँ कहती तो जैसे उसे सारे व्यक्तित्व को पूर्णता मिल जाती, जाने कितने युगों की अतृप्त समाज आए उसके हृदय को शीतलता मिल जाती|

मृगमई सभी की जान थी कृष्ण के पास तो दो माँ मृगमई के पास तो इतनी| धीरे धीरे सभी का प्यार पाकर मृगमई खिल सी गई
शहर के सबसे अच्छे स्कूल सबसे अच्छे कॉलेज में पढ़ी उनकी बेटी समय के साथ बेटी शादी के लायक हुई और उसके ही पसंद के लड़के से उसकी शादी तय कर दी गई|
आज वो दिन आ गया है जब किन्नरों को वो अधिकार मिलने जा रहा था जो समाज ने और ईश्वर ने उन्हे दिया ही नहीं, आज वो कन्या दान करने जा रही थी|

अपने सामर्थ्य से बढ़कर शादी में खर्च किया बेटी को अपनी खरीदी गाड़ी में विदा करने का फैसला किया गया| आभूषण से और कपड़ों की वो तैयारी जो किसी राजकुमारी की हो|

कमला जिज्जी बारात आने को है चलो कपड़े तो बदल लो प्रितों ने कहा तो जैसे कमला को नींद से झकझोर के जगा दिया हो| कैसे वो सब कुछ भूल अतीत की गलियारे में बिचारने लगी थी|

अपने आँखो में आई नमी को आँचल से पोंछते हुए कमरे की तरफ़ भागी|
“हाँ प्रितो! बस आई तू जाकर बाहर देख और सुन सब तैयार हो गए? अरे हाँ गुरु अम्मा को भी थोड़ा तैयार होने में मदद कर देना जानती है ना बिचारी के हाथ पाँव अब नहीं चलते| मैं बस अभी आती है। ”
सभी तैयारियां पूरी हो गईं, बारात दरवाजे पर थी| सारी रस्मों के बाद कन्यादान का समय आया, गुरु के साथ कमला अम्मा बैठी और सारे किन्नरों ने एक दूसरे के आँचल को थाम एक शृंखला बना ली| आज इतनी माताओं का आशीर्वाद मिल रहा था| कन्यादान करते करते सभी की आँखें गीली थीं, लेकिन होंठो पर एक स्निग्ध मुस्कान थी|
आज शायद कोई किन्नर और पूरा किन्नर समाज कन्यादान कर रहा था और वो समाज मूक दर्शक बन खड़ा था बिल्कुल मौन| मौन शायद अपने कर्म का था, अपने बौने कद पर जो इन किन्नरों के सामने लगने लगा था| विधाता ने जिससे सृजन का अधिकार छीन लिया था, आज वही एक युगल को सृजन का अधिकार और आशीष दे रहे थे|

विधाता ने जिसे घोंसला बनाने से महरूम कर दिया था वो आज एक युगल का हाथ पकड़ गृहस्थी के पथ की राह दिखा रहे थे|
दोस्तों मेरी नई कहानी उम्मीद है कि आप सभी को पसंद आएगी|
आपकी|

अर्चना के. शंकर (अर्चना पाण्डेय) भदोही ज्ञानपुर
इंडिया (उत्तर प्रदेश)

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