उत्तराखंड के तीर्थ तथा पर्यटन स्थलः शशि काण्डपाल

भारत एक बहुत खूबसूरत देश है। जहां आप सारे मौसम,हर भौगोलिक स्थिति,संस्कृतियों का दर्शन एक ही समय काल में कर सकते हैं। यदि नवंबर दिसंबर के जाड़ों में दक्षिण भारत चले जाएँ तो गर्मी पा सकते हैं तथा मई जून की गर्मियों में पहाड़ी इलाकों में घूमने जाएँ तो ठंड महसूस कर सकते हैं। आप चाहें तो समुद्र देखें या पहाड़ भारत में सब उपलब्ध है। चाहें तो बरसात का मौसम सूखे ठंडे रेगिस्तान लद्दाख में गुजारें जहां बारिश नहीं होती या वेस्टर्न घाट घूमें जो बारिश में बेहद खूबसूरत हो जाते हैं। जबकि विश्व के ज़्यादातर देश या तो गरम हैं या ठंडे और बदलते मौसम उनमें थोड़ा बहुत ही बदलाव ला पाते हैं।
भारत हर तरह की विभिन्नता का देश है, इस के हर प्रदेश,क्षेत्र की अपनी विशेषता है। कुछ प्रदेश अपने समंदर के बेहतरीन किनारों के लिए प्रसिद्ध हैं तो कुछ प्रदेश पहाड़ों के लिए। कुछ मंदिरों के लिए विख्यात हैं तो कुछ अपने झरनों,आकर्षक प्रकृति के लिए लेकिन उत्तर भारत में स्थित उत्तराखंड अपने पर्यटक स्थलों तथा तीर्थस्थान दोनों के लिए प्रसिद्ध है। आप यहाँ चाहें तो चार धाम की यात्रा करें या उनके आसपास के पहाड़ों की ट्रेकिंग, चाहें तो पैरा ग्लाइडिंग और रिवर रैफ्टिंग का शौक पूरा करें। अन्य कई रोमांचक खेल भी पर्यटकों को लुभाने के लिए देखने को मिल जाएंगे। यहाँ के कई तीर्थ ट्रेकिंग करते हुए पूरे किए जा सकते हैं और पहाड़ों के सौंदर्य का मजा भी उठाया जा सकता है। अब होमस्टे एक नया आकर्षण लेकर आए हैं जो कि पहाड़ों के घर जैसा एहसास दिलाने के साथ साथ गाँव की संस्कृति,भोजन,रहन सहन तथा शोर,भीड़ से दूर आसपास के अद्भुत अनदेखे स्थानों से भी परिचय कराते हैं।
आइये ऐसी ही एक शृंखला का अवलोकन करते हैं जो भक्ति,रोमांच,प्रकृति के सौंदर्य,कठिनाइयों,यातायात के साधनों,रास्तों तथा कभी न भूल पाने वाले अनुभवों से भरी है, जो आपको सौंदर्य के साथ ऐतिहासिकता तथा स्थानीय विश्वासों से भी परिचय करवायेगी और इस भूभाग को ऐसे ही देवभूमि नहीं कहते!
श्रीनगर
यात्रा का आरंभ श्रीनगर से करूंगी। श्रीनगर पौड़ी गढ़वाल में एडुकेशन हब और अलकनंदा के किनारे बसा बद्रीनाथ, केदारनाथ के रास्ते में पड़ने वाला सुंदर शहर है। यहाँ भारत के ज़्यादातर उच्च शिक्षा संस्थान हैं जिनमें उत्तराखंड का मेडिकल कालेज मुख्य है। यहाँ इस क्षेत्र का बेस हॉस्पिटल भी है। हम यहाँ 2 दिन रुके ताकि पहाड़ी जलवायु में ढल सकें तथा आगे की यात्रा की तैयारी कर सकें। अभी तक की यात्रा हमने ट्रेन से “लखनऊ से देहरादून” तक तथा “देहरादून से श्रीनगर” बस द्वारा की थी लेकिन अगले 10 दिनों के लिए टॅक्सी श्रीनगर से लेना निश्चित हुआ था। चार धाम यात्रा के दौरान श्रीनगर शहर रास्ते में ही पड़ता है। यहाँ चिकित्सा,खरीददारी तथा रुकने की अच्छी व्यवस्था है। अलकनंदा नदी के किनारे बसा शहर सुबह और शाम को बहुत खूबसूरत लगता है।पर्यटकों के देखने के लिए आसपास काफी स्थल हैं लेकिन हमने अपनी यात्रा से पहले आराम करना जरूरी समझा तथा अलकनंदा के किनारे घूमना,श्रीनगर शहर पैदल नापना,बाजार, पुरानी इमारतें देखना पसंद किया लेकिन यहाँ के सुप्रसिद्ध मंदिर कमलेश्वर महादेव के दर्शन करना नहीं भूले।
“कमलेश्वर महादेव” मंदिर के बारे में कहा जाता है कि यहां भगवान विष्णु ने महादेव की स्तुति की और आशीर्वाद स्वरूप सुदर्शन चक्र प्राप्त किया। ये भी चर्चित है कि उस घटनाक्रम के दौरान एक दंपत्ति जो कि पुत्र प्राप्ति हेतु इस मंदिर में तपस्यारत थे वो इस घटना के साक्षी बनें।
उस तपस्यारत दंपत्ति ने शिव जी के प्रकट होने पर अपने लिये भी एक पुत्र की कामना की और पार्वती ने शिव से वरदान देने को कहा तब से यहाँ संतान होने पर पत्थर पर बने चरण मंदिर के प्रांगण में चढ़ाने की परंपरा है।
शिवरात्रि में शिवभक्त बहुत बडी संख्या में मंदिर में आते हैं लेकिन अचला सप्तमी,बसंत पंचमी के विशेष त्यौहार के अगले दिन शिवलिंग को घी के साथ साथ बावन व्यंजन चढ़ाने की,पूजा अर्चना करने की परंपरा है। पुत्र प्राप्ति हेतु स्त्रियाँ सारी रात जलता दीपक लेकर खड़ी रहती हैं और उनकी कामना पूर्ण भी होती है।

हिमालये तू केदारम
10 अक्तूबर 2018

उत्तराखंड वासी होते हुए भी केदारनाथ के दर्शन ना कर पाने कि टीस हमेशा बनी रहती सो वहाँ जाने के सपने देखा करती। लोंगों के अनुभव पढ़कर रोमांचित होती क्योंकि कुछ लोग तो करीब हर साल ही वहाँ दर्शन करने जाते हैं। सुना है एक रात वहाँ जरूर रुकना चाहिए क्योंकि रात में कैलाश दर्शन,भजन,मंदिर,आकाश,प्रकृति सब कुछ दिव्य हो जाता है,स्वप्नलोक में बदल जाता है।
यात्रा से पहले बेटे ने सलाह दी की यदि आप लोग मई जून के भीड़ वाले सीजन की बजाय अक्तूबर प्रथम सप्ताह में यात्रा करें तो होटल,वाहन की सुविधा रहेगी। बारिश में होने वाली लेंड स्लाइड्स का भी खतरा कम होगा वरना कब मार्ग बंद हो जाएँ पता नहीं चलता। दूसरा दर्शनार्थियों की भीड़ भी कम होगी और ये बहुत अच्छा सुझाव था।

यात्रा 7 अक्टूबर 1918 लखनऊ से शुरू हुई। श्रीकोट/ श्रीनगर, पौड़ी गढ़वाल में बेटे के पास दो दिन ठहरने के बाद 10 अक्टूबर की सुबह साढ़े चार बजे हम गौरीकुंड के लिये रवाना हो गए जिसकी दूरी करीब 128 से 150 किलोमीटर बताई जाती है। रास्ते में धारीदेवी,नरकोटा,मन्दाकिनी/अलकनंदा का संगम रुद्रप्रयाग ,अगस्त्यमुनि,चंद्रापुरी होते हुए करीब साढ़े ग्यारह बजे गुप्तकाशी पहुंचे। वहाँ चाय नाश्ते के दौरान कई वापस आए यात्रियों से बातचीत हुई ख़ासकर वो जो पैदल यात्रा करके आए थे। वो सभी काफी थके और खिन्न लगे क्योंकि पूरे दो दिन लगाने के बाद अब इतना थक चुके थे कि कहीं जाने मे घबरा रहे थे। इस बात ने हमें भी सोचने पर मजबूर किया कि पैदल केदारनाथ मार्ग जो कि गौरीकुन्ड से 18 से 22 किलोमीटर की दूरी का बताया जा रहा है,पैदल जाया जाये कि नहीं क्योंकि हमें तुंगनाथ भी जाना था। मौसम की भी कोई गारंटी नहीं थी कि बर्फ़ीला पानी नहीं बरसेगा आखिर गौरीकुन्ड न जाकर “फाटा” से आगे “सिरसी” में हेलिकॉप्टर के टिकिट की लाइन में लग गए। ( फाटा के बजाय सिरसी मे टिकट 1000 रुपये सस्ता है ) और बारह बजे दोपहर को केदारघाटी के लिये उड़ान भरी, 30 किलोमीटर का हवाई रास्ता 7 ही मिनट मे पूरा हो गया।
मंदिर के नीचे हेलीपेड पर उतरते ही लगा हम दूसरी दुनिया में आ गए हैं। चारों तरफ चमकती बर्फ़ीली चोटियाँ, उजला सूरज जो कि चमक दे रहा था गर्मी नहीं, इतना दिव्य, इतनी सुंदर,अलौकिक जगह जो कि शांति और प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर थी। एक किनारे गिरती दूधगंगा और आराध्य के दर्शनों हेतु चिरप्रतीक्षित मंदिर की भव्यता ने धन्यवाद स्वरूप आंखे नम कर दीं। आज शारदीय प्रथम नवरात्रि भी थी।

चौरीबारी हिमनद के कुंड से निकलती मन्दाकिनी नदी के समीप, केदारनाथ पर्वत शिखर के नीचे,समुन्द्र तल से 3562 मीटर ऊंचाई पर, कत्यूरी शैली में ये शिव धाम बना है। मंदिर का वास्तु तथा निर्माण का ऐतिहासिक महत्व भी अभूतपूर्व है जिसे 2500 से लेकर 1000 साल तक पुराना बताया जाता है, छह फिट ऊंचा मंदिर का चबूतरा बड़े बड़े पत्थरों को इंटरलौक करके कैसे बनाया गया होगा जो 2013 की त्रासदी में भी अछूता रहा ये आधुनिक विज्ञान के लिये भी एक पहेली है। एक मान्यता है कि द्वापर युग में यह मंदिर पांडवों के वंशज जनमेजय द्वारा बनवाया गया था जिसका 8 वीं शताब्दी में आदि शंकरचार्य ने जीर्णोद्धार करके वर्तमान मंदिर बनवाया। मंदिर का उल्लेख भोज कार्यकाल में भी आया है। पांडवों द्वारा बनाया गया मंदिर वर्तमान मंदिर के बगल में है। मंदिर के पीछे शंकरचार्य की समाधि है। । मंदिर के पीछे के कुंड में आचमन तथा तर्पण किया जा सकता है।
मंदिर के अहाते में प्रवेश पूर्व, बायीं ओर मन्दाकिनी, दाईं ओर सरस्वती उमड़ घुमड़ कर स्वागत करती सी लगती हैं। वैसे ये पंच नदियों का संगम है। आप बड़ा सा चौबारा पार कर जैसे ही मंदिर की सीढ़ियाँ चढ़ते हैं इस स्थान के विशेष होने का आभास होने लगता है। मंदिर गर्भ गृह की शान्तिदायक शीतलता, मंत्रौच्चार,भक्तों का इतनी दूर आकर खुशी से विह्वल होना असीम शांति दायक है। यहाँ आपके पहुँचते ही आपके क्षेत्र,कुल के पंडे आपको मिल जाएंगे। पंडे से पूजा कराना आवश्यक नहीं है,आप चाहें तो ऐसे भी दर्शन कर सकते हैं। यहाँ शिव का प्रतीक शिवलिंग नहीं बल्कि महिष के पीठ के आकार की एक शिला की पूजा होती है। उस पर घी का प्रलेपन कर पंचगव्य चढ़ते हैं और धूप,दीप,पुष्प अर्पित करते हैं।
मंदिर के पुजारी “मैसूर के जंगम ब्राह्मण” हैं। प्रांगण में नंदी अपने आराध्य की तरफ मुंह कर विराजमान हैं। अंदर स्थापित शिवलिंग स्वयंभू है तथा चार हाथ लंबा और डेढ़ हाथ चौड़ा तिकोना शिवलिंग है। मंदिर में सिर्फ दीयों के प्रकाश में भोलेनाथ के दर्शन होते हैं। भक्त सामने की ओर से जल और दूसरी ओर घी मलते हैं।

इस मंदिर की कहानी भी रोचक है। “कहा जाता है पांडव अपने ही बांधवों के वध से ग्लानि महसूस कर, भगवान कृष्ण के आदेशानुसार अपना संताप मिटाने, शिव दर्शनों को काशी गये तो शिव जो कि पांडवों को दर्शन देने से कतरा रहे थे, गुप्तकाशी चले गए। उनके पीछे पांडव भी गुप्तकाशी पहुंचे लेकिन असफल रहे और निराश होकर पांडव केदारखंड की यात्रा करते करते केदारघाटी पहुँच गये। शिवजी तब तक भाग भाग कर थक चुके थे सो पांडवों के पीछा करने से खिन्न शिव एक महिष का रूप बना कर वहाँ घास चर रहे बाक़ी जानवरों के बीच बैठ गये। भीम उन्हें प्रथम दृष्टि में ही पहचान गए और “महिष भोलेनाथ” को पकड़ने दौड़ पड़े। भीम को अपनी ओर आता देख शिव ने धरती में धंसना शुरू कर दिया। भीम के काफी फुर्ती दिखाने के बावजूद उसके हाथ सिर्फ भोलेनाथ की पीठ आई और सर नेपाल के पशुपतिनाथ में जाकर प्रकट हुआ। पांडवो की भक्ति से प्रसन्न हो शिव ने उन्हें मोक्ष पाने का वरदान दिया।
केदारनाथ मे उसी पृष्ठ भाग की पूजा होती है। बाकी भुजाएँ तुंगनाथ,मुख रुद्रनाथ,नाभि मद्यमहेश्वर,जटाएँ कलपेश्वर में प्रकट हुईं और यही पंच केदार कहलाए।

केदारनाथ पंच केदार में प्रथम, बावन धाम में से तीसरा और बारह ज्योतिर्लिंगों मे से हिन्दू धर्म का सर्वप्रथम धाम माना गया है। यहाँ बाबा केदार कहलाने वाले भोलेनाथ की घी,पिठ्या,जल,भृंगराज के दुर्लभ फूलों की माला से आराधना होती है,अक्षय तृतीया के शुभ मूहूर्त पर खुलने वाला ये धाम दीपावली के बाद भाईदूज पर बंद हो जाता है, बर्फ से ढ़क जाता है…….

कहते हैं भगवान शिव को सारे संसार का भ्रमण के बाद यहीं स्थान अच्छा लगा सो वो यहीं बस गए। इस धाम के आसपास प्रकृति भी अति प्रचुरता से विद्यमान है। आसपास तेरह सरोवर, तेरह ताल, बटुक भैरव, कैलाश पर्वत,अलकनंदा,मन्दाकिनी,स्वर्ग द्वारि, मधुगंगा,क्षीरगंगा कुल मिलकर पंचगंगा हैं। गांधी सरोवर और वासुकि ताल अत्यंत सुंदर स्थल हैं। ।
केदारनाथ धाम में छः महीने मनुष्य और छः महीने देवता शिवजी की आराधना करते हैं।
शीतकाल में प्रभु की पंचमुखी प्रतिमा उखीमठ में विराजमान रहती है जिसे मंदिर खुलने की तिथि की घोषणा के बाद सम्मान के साथ डोले मे श्रद्धालु साठ किलोमीटर की यात्रा कर केदारनाथ धाम वापस लाते हैं।
2013 की विपदा के समय भी बाबा का धाम सुरक्षित रहा उसके लिए चन्द्र्शिला को जिम्मेदार माना जाता है, कहते हैं कि प्रलय के समय वो विशाल शिला ठीक मंदिर के पीछे आकर रुक गई और ऊपर से आता तेज पानी दो धाराओ में बंट मंदिर के इधर उधर बहने लगा जिससे मंदिर गृभ गृह में छुपे भक्त और मंदिर दोनों सुरक्षित रहे। अब मंदिर का पुनः निर्माण प्लान मैप के साथ किया गया है ताकि ऐसी विपदा में निपटा जा सके।
केदारनाथ धाम यात्रा के लिए विदेशी भी काफी संख्या में आते हैं। वो वाराणसी या हरिद्वार में गुरु से दीक्षा लेते हैं और किसी हिन्दू से ज़्यादा ज्ञान समेट कर घूमने आते हैं। ऐसे ही एक अंग्रेज़ के साथ हमें हेलीकॉप्टर की प्रतीक्षा तथा यात्रा करनी थी। मुझे जानना था कि वो केदारनाथ क्या करने जा रहे हैं? बातें चली और मैं मंत्रमुग्ध सी उनकी बातें सुनती रह गई। हालांकि उनका संस्कृत का उच्चारण उतना स्पष्ट नहीं था, मुझे अपना पूरा ध्यान लगाना पड़ रहा था लेकिन वो किसी आम भारतीय से ज्यादा भारतीय थे, किसी हिन्दू से ज़्यादा हिन्दू। उन्हें वेद पुराण,आयुर्वेद चिकित्सा, योग के सार मुंहजबानी याद थे। गुरु का नाम आते ही उनके हाथ स्वतः उनके कान तक चले जाते थे। ये सनातन धर्म का ही आकर्षण था कि वो पर्यटक से ज़्यादा एक श्रद्धालु बनकर आए थे। उनकी एक फ़ोटो लेने के आग्रह पर उन्होंने उस बोर्ड पर उंगली उठा दी जहां इस बात के लिए मनाही थी।
हम करीब सवा 12 बजे हेलिपेड़ पर उतरे थे और शाम 4 बजे नीचे आने का टाइम दिया गया था। ठंड दिन दो बजे से ही काफी बढ़ गई थी,तेज हवाए चल रही थीं सो गरम कपड़े जरूरी हैं। इस बीच कुछ बुजुर्ग जिन्हें ऑक्सीज़न की कमी से परेशानियाँ हो रही थीं उन्हें ऑक्सीज़न रूम में बिठाया जा रहा था और जो ठंड से बीमार हो रहे थे उनकी चिकित्सा के भी इंतजाम थे।
यदि कोई पैदल यात्रा करना चाहे तो उसके पास समय का होना बहुत जरूरी है क्योंकि गौरीकुन्ड से पैदल यात्रा करीब सोलह से अठारह किलोमीटर लंबी है। ऊपर चढ़ने का एक दिन तथा नीचे आने का दूसरा दिन। अगर आप अपनी गाड़ी से भी यात्रा कर रहे हैं तो भी आपको सोनप्रयाग में अपना वाहन छोड़ कर शेयर टॅक्सी से गौरीकुंड आना होगा तब आगे की यात्रा शुरू होगी। यात्रा आप पैदल,घोड़ा ,पोनी,डोली या टोकरी से कर सकते हैं। आपको हर तरह के मजदूर या सवारी मिल जाएगी। रास्ते में खाने के होटल तथा पीने के पानी की कोई कमी नहीं है। रास्ते भर जगह जगह बारिश से बचने के लिए शेल्टर बनवाए गए हैं लेकिन गरम कपड़े,छाता या रेन कोट तथा अपनी आवश्यक दवाई रखना न भूलें। रास्ते में भीमबली,जंगलचट्टी,बड़ी लिंचोली,छोटी लिंचोली,रामबाड़ा आदि पड़ाव आते रहते हैं जहां से केदारखंड के अभूतपूर्व प्रकृति के दर्शन होते हैं।( ये अनुभव अपने ड्राइवर से लिया था जो सिर्फ एक महीने पहले दर्शन करके आया था)
यहाँ चलने वाली दुकानों का एक नियम है कि जिनके पूर्वज सेवा करते आयें हैं वही यहाँ अपना कारोबार चला सकते हैं कोई भी बाहर से आकर यहाँ किसी भी तरह का धंधा शुरू नहीं कर सकता। केदारनाथ परिसर में खाने के लिए होटल हैं और रात में ठहरने के लिए उचित व्यवस्था भी है,कारीडोर हैं लेकिन व्यवस्था बहुत अच्छी है।
यायावरी जरूरी है ख़ासकर अनुभव बटोरने और नया सीखने के लिए लेकिन मेरी इस बार की यात्रा तीर्थयात्रा में बदल गईं जिसके लिए मैं ईश्वर को धन्यवाद देती हूँ।
शिव सबका कल्याण करें।

(हेलिकॉप्टर के टिकिट के दाम में बदलाव होते रहते हैं सो ऑनलाइन देखें और बुक करें, पीक टाइम में टिकट काउंटर पर ही जाकर लेने की भूल न करें।)

तुंगनाथ

11 October 2018
पहली नवरात्रि को केदारबाबा के दर्शन कर वापस आ जाने से हम उत्साहित तो थे लेकिन कहीं ना कहीं तीर्थ यात्राओं के दौरान हुए कष्ट को लेकर कहावतें हमें कचोट रही थीं कि तीर्थयात्रा शरीर के लिये जितनी कठिन हो उतनी फलदायी होती है और हम तो कुल 14 मिनट में आने जाने की यात्रा पूरी कर आए थे और शायद इतनी सरल यात्रा हमको पच नहीं रही थी।
केदारनाथ की यात्रा के बारे मेँ अपने ससुर जी के सुनाए रोमांचक किस्सों से महरूम रह जाने का भी दुख था। वो बताते थे कि कैसे वो अपनी ज़िम्मेदारी पर गाँव से पूरा जत्था लेकर चलते थे,राशन पानी कंधों पर लदा होता था, रुकने,खाने, पकाने के लिए साधुओं द्वारा स्थापित चट्टियों में बर्तन,बिस्तर मिल जाता था। व्यापार वाली कोई बात न थी बस दानी लोगों और साधुओ द्वारा प्रदत्त ये सुविधा सर्वसुलभ थी बस प्रयोग के बाद साफ सफ़ाई से चीजें वापस वहीं रख दो और चलते रहो।
उनके बताए अनुसार रास्ते में मिलते जानवर,नदियां,पहाड़ों के बदलते रंग,हिम की ठंडक,पाँवों के छाले,गीत,भजन सब याद आ रहे थे सो रामबाड़ा से आगे पहाड़ कैसा दिखता होगा ये इच्छा अधूरी सी रह गई।
फिलहाल केदारनाथ से वापस आकर रात उखीमठ के होटल मेँ विश्राम किया। उखीमठ के आसमान मेँ चटक तारे छिटके हुए थे और मन अब तुंगनाथ के रोमांच मेँ डूबा था। सोने से पहले ड्राइवर को ताकीद की गई कि एकदम सुबह निकल जाएंगे और तुंगनाथ के दर्शन पश्चात नाश्ता करेंगे।
छह बजे दैनिक कार्यक्रम से निपट चाय पीकर हम चौपता के लिए रवाना हो गए। ठंड अच्छी ख़ासी थी, वही मेरे लिए एक अतिरिक्त आकर्षण था लेकिन मौसम बादलों वाला था सो फोटोग्राफी में अड़चन साफ दिख रही थी। मैं यात्रा के दौरान बादलों से वापस जाने की गुहार मन ही मन दोहरा रही थी ।

तुंगनाथ पंचकेदारों में तीसरा धाम है। तुंगनाथ श्रद्धालुओं तथा पर्यटकों में समान रूप से प्रसिद्ध है। यहाँ मई से नवंबर माह में मंदिर खुले होने के दौरान ही नहीं बल्कि जनवरी फरवरी में जब कपाट बंद होते हैं और मंदिर बर्फ़ से आच्छादित रहता है तब भी ट्रेकर्स तथा प्रकृति प्रेमी यहाँ की यात्रा पर आते हैं। बुग्याल को इतनी कम चढ़ाई पर देखना,पाना सिर्फ तुंगनाथ की ट्रेकिंग में ही संभव है वरना बुग्याल समुन्द्र तल से काफी ऊंचाई तथा लंबी यात्रा के बाद ही देखे जा सकते हैं।
तुंगनाथ मंदिर विश्व में सबसे ऊंचाई पर बना शिव मंदिर है। इसकी ऊंचाई समुन्द्र तल से 3460 से लेकर 3680 मीटर तक बताई गई है। ये उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र के रुद्रप्रयाग जिले के अंतर्गत आता है। मंदिर टोंगनाथ पर्वत शृंखला में स्थित है। टोंगनाथ अर्थात चोटियों (पर्वत शृंखलाओ का स्वामी)। टोंगनाथ चोटी तीन धाराओं का श्रोत है जिनसे अक्षयकामिनी नदी बनती है तथा मन्दाकिनी तथा अलकनंदा की घाटियों का निर्माण होता है। तुंगनाथ अवस्था की दृष्टि से केदारनाथ तथा बदरीनाथ के ठीक बीच में स्थित है।
इस मंदिर को करीब 5000 साल पुराना बताया जाता है। व्यास ऋषि की सलाह अनुसार जब पांडव शिव दर्शन को उन्हें खोजने लगे तो केदार में पकड़ तो पाये लेकिन सिर्फ पीठ और उनके अन्य अंग विभिन्न केदारों मे परिलक्षित हुए सो पांडवों ने हर अंग को समर्पित यात्राएं कीं और देवस्थान बनवाए,ये भी उन्हीं द्वारा निर्मित है यहाँ शिव जी की बाहु की पूजा होती है।
मंदिर यात्रा/ ट्रेकिंग का आरंभ चौपता से होता है। यहाँ से तुंगनाथ मंदिर की दूरी करीब तीन किलोमीटर है तथा उससे भी दो किलोमीटर आगे “चन्द्र्शिला” के दर्शनों हेतु जाया जाता है। चौपता की सुंदरता के बारे में ब्रिटिश कमिश्नर “एट्किंसन” का कहना था कि “जिसने अपने जीवन काल में चौपता का प्राकृतिक सौंदर्य नहीं देखा उसका पृथ्वी पर जन्म लेना बेकार है।“ यानि चौपता हर ऋतु में एक अलग छटा के साथ दिखता है। आप चाहें तो मई में पट खुलने से लेकर नवंबर पट बंद होने तक दर्शनों हेतु जाएँ और बुरांश की बहार देखें या जनवरी फरवरी में “विंटर ट्रेकिंग” पर जाएँ और खूब स्नो देखें बस भगवान तुंगनाथ के दर्शन नहीं होंगे।
तुंगनाथ मंदिर हिंदुओं की आस्था का बहुत बड़ा स्थान है। इसके साथ पौराणिक प्रमाण तथा मान्यताएं भी जुड़ी हुई हैं। तुंगनाथ से न सिर्फ भक्त पांडव,आराध्य भगवान शिव जुड़े हैं बल्कि श्रीराम की कथा भी जानी जाती है। जैसे कि मान्यता है कि महर्षि वेदव्यास के सुझाव पर पांडव अपने राज्य को छोडकर,कुरुक्षेत्र युद्ध से उपजी आत्मग्लानि से छुटकारा पाने के लिए शिवजी की तपस्या करने लगे और केदारनाथ में जब भोलेनाथ को महिष रूप में पकड़ पाये तो उनके महिष पाँच अंग, पाँच जगहों पर दृष्टिगोचर हुए। उनके सभी अंगों के दिखने के स्थान पर पांडव मंदिर बनाने लगे। यहाँ तुंगनाथ में बाहु/खुर के दर्शन हुए सो यहाँ पांडवों ने मंदिर बनाकर पूजा अर्चना की तथा मंदिर शिव जी के भक्तों को समर्पित कर आगे बढ़ गए।
यहाँ अयोध्या के राजा “श्रीराम” का नाम भी जुड़ा है। कहते हैं लंका युद्ध की मानसिक अशांति से शांति पाने के लिए श्रीराम भी यहाँ आए थे और मंदिर से दो किलोमीटर आगे स्थित चन्द्र्शिला पर ध्यान,मनन किया था। आज भी ज़्यादातर लोग वहाँ तक जाते हैं और वहाँ से प्रकृति के अद्भुत नजारे देखे जा सकते हैं। हालांकि हम नहीं जा पाये थे क्योंकि मौसम काफी खराब हो गया था तथा स्थानीय दुकानदार ने वहाँ जाने को खतरा मोल लेने की संज्ञा दे डाली थी सो चन्द्र्शिला अनदेखी रह गई।
तुंगनाथ में उत्तराखंड के अन्य धामों की तरह दक्षिण भारत का पुजारी न होकर स्थानीय मक्कुमाथ के मैथानी ब्राह्मण पूजा अर्चना संभालते हैं, पुजारी कभी कोई दक्षिणा नहीं मांगते,आपकी जो श्रद्धा हो उसी में संतुष्ट रहते हैं। जाड़ों में जब यहाँ पट बंद होने का मूहूर्त आता है तो पुजारी प्रभु मूर्ति को मुक्कूमाथ गाँव, निकट उंखीमठ ले आते हैं और वहीं पूजा अर्चना होती है।
तुंगनाथ न सिर्फ श्रद्धा के तौर पर बल्कि प्रकृति दर्शन के तौर पर भी अत्यन्त सुंदर है।चौपता से ट्रेकिंग शुरू करते ही आपको वन विभाग द्वारा रखे गए एक रजिस्टर में अपना ब्योरा दर्ज़ करना होता है ताकि यात्रियों का लेखा जोखा रखा जा सके तथा दुर्घटना होने पर सहायता पहुंचाई जा सके। पानी,एनर्जी ड्रिंक का इंतजाम रखें। चौपता से आप चाहें तो ऊपर चढ़ने के लिए स्टिक, बारिश हो तो बरसाती आदि किराए पर ले सकते हैं। रास्ता चढ़ाई वाला है लेकिन मनमोहक भी है। बड़े बड़े हिमशिखर जैसे नंदादेवी चोटी,पंचाचुली, बंदरपूंछ, केदारनाथ चोटी,चौखंभा,नीलकंठ शिखर आपको इतना सम्मोहित कर लेते हैं कि आप इन नजारों की सुंदरता में सुध बुध खो बैठते हैं। दूसरी तरफ़ दिखने वाली गढ़वाल घाटी की सुंदरता आपको यहीं बस जाने की प्रेरणा देती है। चलते चलते जब छोटे छोटे मंदिर, बुग्याल,खच्चरों के झुंड तथा सपनों में देखे से गाँव पार करते हैं तो लगता है कहीं ये स्वप्न तो नहीं ! इतना कलात्मक ! इतना सुंदर! गढ़वाल युनिवेर्सिटी का “हाइ अल्टीट्यूड बोटिनीकल स्टेशन” भी यहाँ बना है। यहाँ कस्तूरी मृग घूमते देखे जा सकते हैं।
तुंगनाथ चौपता से सड़क मार्ग से जुड़ा हुआ है। आप चाहें तो ऋषिकेश से गोपेश्वर बस से आ जाएँ और गोपेश्वर से चौपता 40 किलोमीटर किसी शेयर टॅक्सी से। आप गोपेश्वर,उखीमठ या चौपता कहीं भी ठहर सकते हैं सभी जगह रुकने की सुविधाएं हैं। हाँ अगर विंटर ट्रेकिंग पर आ रहे हों तो इंतजाम से आयें,होटल एडवांस में बुक कर लें क्योंकि ऑफ सीजन की वजह से कुछ मुश्किल हो सकती है। साधन सीमित हो सकते हैं।
ट्रेकिंग/तुंगनाथ दर्शन के दृश्य स्वर्गिक आनंद देने वाले थे। मैं कल्पनाओं में खो ही गई कि किस तरह पांडवों ने शिव जी की तलाश और अपना अपराधबोध मिटाने के लिए कठिनतम यात्राएं कीं। हमारे लिए भी मुकाम छोड़े जिन्हें पूरा करना अपने आप में एक संतुष्टि दायक यात्रा है,आपके शरीर तथा फेफड़ों का स्वास्थ्य फ्री मेँ टेस्ट भी हो जाता है। अक्सर नेट पर दी गई जानकारी में दूरी या ऊंचाई के बारे में कई बार अंतर मिला है लेकिन इस बार मैं अपनी ट्रेकिंग वॉच के साथ सब कुछ वॉच कर रही थी सो ये आना जाना 8 किलोमीटर का है यदि आप चंद्र शिला तक जाएँ तो 3 किलोमीटर और जोड़ लें।
ये ट्रेक पूरा करके रात को करीब 7 बजे तक बदरीनाथ धाम पहुँच गए थे।
बदरीनाथ
12 अक्तूबर 2018

बहुनि सन्ति तीर्थानी दिव्य भूमि रसातले ।
बदरी सदृश्य तीर्थं न भूतो न भविष्यतिः।।

क्या आपको पता है की बद्रीनाथ या बद्री विशाल को बदरीनाथ / बदरी विशाल उच्चारित किया जाना चाहिए क्योंकि वहाँ पहले बदरी फल यानि कि बेरों का जंगल हुआ करता था और उसी वजह से भगवान विष्णु बदरीनाथ कहलाए l
पंच बदरी में 1-योगध्यान बदरी,2-आदि बदरी,3-वृद्ध बदरी,4-भविष्य बदरी में से बदरीविशाल सर्वप्रथम हैं। नर और नारायण पर्वत के बीच,अलकनंदा नदी के किनारे, चमोली जिले में आने वाला बदरी एक क्षेत्र जो कभी बेरों की झाड़ियों से भरा हुआ था लेकिन आज उसमें एक भी बेर की झाड़ी नहीं पाई जाती, हिंदुओं का एक पवित्र धर्म स्थल है।
कहावत है कि भगवान विष्णु आसन लगा ध्यान करने बैठ गए,लक्ष्मी जी निकट ही थीं और हिमपात होने लगा तो लक्ष्मी जी एक बड़ा सा बेर का पेड़ बन सारा हिम अपने ऊपर झेलने लगीं। तपस्या पश्चात आँख खुलने पर लक्ष्मी जी को विष्णु जी के साथ ही पूजित होने का वरदान मिला और विष्णु भगवान बदरीनाथ कहलाए।
वैदिक ग्रंथो में भी यहाँ के प्रधान देवता बदरीनाथ का विभिन्न नामों से उल्लेख मिलता है,लेकिन बदरी नाथ मंदिर का कोई उल्लेख नहीं मिलता। इसका कारण ये बताया गया कि आठवीं शताब्दी तक ये भवन एक बौद्ध मठ था(जो कि उसके बनावट,रंगों के संयोजन से लगता भी है)नवीं शताब्दी में शंकरचार्य द्वारा इसे हिन्दू मंदिर में परिवर्तित कर दिया गया क्योंकि मान्यता ये थी कि ये हिन्दू मंदिर था जिसपर बौद्ध अपना अनाधिकार जमा बैठे थे। वहीं अलकनंदा में आदि शंकराचार्य को ये “विष्णु नारायण” स्वरूप की मूर्ति प्राप्त हुई जिसे उन्होने तप्त कुंड,नारद गुफा में स्थापित कर दिया। शंकराचार्य यहाँ छह साल तक रहे ऐसी मान्यता है|
कालांतर में गढ़वाल के राजा ने सोलहवीं शताब्दी में रामानुजाचार्य के हाथों मूर्ति को विस्थापित कर तप्त कुंड से वर्तमान मंदिर में प्राणप्रतिष्ठा कराई।
ये मंदिर प्राकृतिक आपदाओं में कई बार टूटा,बनाया गया तब कहीं ये वर्तमान स्वरूप में दिखता है।
करीब एक मीटर ऊंची विष्णु भगवान की मूर्ति, शालिग्राम पत्थर की बनी हुई है जिसके भाल पर हीरा जगमगाता है। मूर्ति चतुर्भुज ध्यानावस्था में बदरी वृक्ष के आगे, सोने की छतरी के नीचे रखी गई है। सुबह के वक़्त भीड़ काफी कम थी सो दर्शन बहुत तसल्ली से हुए। एकाध बार स्वयंसेवी ने ठेला भी लेकिन मुझे वो रूप आँखों में भरना था जिसके सामने जाते ही इंसान भव्यता से अभिभूत हो नतमस्तक हो जाता है सो दो बार ठेलने के बाद ही हटी,आखिर इतने अमूल्य दर्शन से कोई कैसे इतनी जल्दी विमुख हो?
जब प्रातः हम मंदिर पहुंचे तो हर पहाड़ पर घाम सोना बिखेर रहा था। कटीली ठंडी हवा, बजती घंटियाँ,दमामे, गूँजते श्लोक एक सम्पूर्ण धाम की अनुभूति करा रहे थे। साधुओं के जत्थे , सजी दुकानें, बहती अलकनंदा, चढ़ाने को बिकती तुलसी दल की मालाएँ, तप्त कुंड में नहाते स्त्री पुरुष, पहाड़ी फूलों के गुलदस्ते सब कुछ बहुत ताजा, खूबसूरत था! बदरीनाथ की तुलसी भी उतनी अनोखी और प्रसिद्ध है।
मंदिर परिसर में पंद्रह और मूर्तियाँ भी स्थापित हैं आश्चर्य कि सभी शालिग्राम पत्थर से ही निर्मित हैं।
मंदिर में ही नीचे कि ओर तप्त कुंड है जिसके गरम पानी में नहा कर दर्शन करने की परंपरा है।
यहाँ के प्रमुख पुजारी रावल कहलाते हैं जो कि केरल के नंबूदरी ब्राह्मण होते हैं, प्रसाद में मेवा,चने की दाल,नारियल, तुलसीदल आदि चढ़ता है। आप चाहें तो काउंटर से प्रसाद खरीद भी सकते हैं जो कि बहुत खूबसूरत डिब्बे में पैक,चन्दन टीका की आरती सहित मिलता है।
कहते हैं यहीं व्यास जी ने महाभारत की रचना की थी।
मुझे यहाँ बस एक ही चीज खराब लगी कि लोगों को घर बनाने की आज्ञा मंदिर से दूर रहकर देनी चाहिए थी, आसपास की बस्ती मंदिर की खूबसूरती को घेरे हुए है |
ब्रहमकपाल क्षेत्र में पिंडदान किया जाता है क्योंकि पांडवों ने यहाँ अपने स्वजनों का तर्पण किया था सो यहाँ पिंडदान पश्चात पूर्वजों के प्रति किसी भी कर्मकांड की जरूरत खत्म हो जाती है।
यहाँ मुझे ट्रेकिंग करते कई ग्रुप दिखे जो माणा होते हुए वसुधारा, स्वर्ग रोहिणी की तरफ जा रहे थे। यहाँ रहने,खाने की कोई असुविधा नहीं है,पैदल कम चल पाने वाले लोग भी आराम से दर्शन कर सकते हैं।
एक बार दर्शनों से बार बार जाने की इच्छा होती है सो फिर से दर्शनों कि आकांक्षा के साथ इति बदरी नाथ दर्शनम गाथा….

माणा गाँव

12-10-2018
बदरीनाथ धाम से मात्र 3 किलोमीटर की दूरी पर भारत का अंतिम गाँव “माणा” है उसके बाद तिब्बत की सीमा शुरू होती है। माणा अपने आप में बहुत अनोखा गाँव है, कहते हैं बदरीनाथ के ब्रहमकपाल नामक स्थान पर अपने स्वजनों का तर्पण करने के बाद पांडवों ने स्वर्ग का रास्ता पकड़ा जो कि माणा गाँव से होता हुआ अलकापुरी की ओर जाता है।
इस गाँव की सांस्कृतिक विरासत तो अनूठी है ही पौराणिक महत्व भी बहुत है। यहाँ के निवासी रडम्पा जनजाति के लोग हैं,जिनका पहनावा,ज़ेवर,रंग संयोजन बहुत खास है। ये कितना भी रंगीन वस्त्र क्यों न पहन लें उसपर काला और सफ़ेद फटका खास तरह से जरूर पहनते हैं। पहले लोग इनके बारे में कम जानते थे लेकिन पक्की सड़क और स्थानीय लोगों ने इसे अच्छा खासा प्रसिद्ध गाँव बना दिया है ऊपर से ये अफवाह भी है यदि आपके पास पैसे नहीं बचते तो माणा गाँव घूम लें,पैसे बचने लगेंगे!
अब बताइये पैसे किसके पास बचे हैं आजतक??
मैं इस पूरे गाँव में घूमीं,गाँव पुरातन बनावट का होते हुए भी अब आधुनिकता की ओर अग्रसर है।हर घर में स्वरोजगार चलता है। ऊन कातना, दन/कालीन बुनना या स्वेटर,टोपी तथा अन्य उपयोगी सामान बुनना। जड़ी बूटी से तैयार चाय तथा रोज़मर्रा की दवाइयाँ भी बनाते हैं। इन सब सामानों को बेचने के लिए काफी दुकानें भी हैं। मैं माणा गाँव के लोगों के जीवट और जन्मभूमि के लिए इनके प्रेम को सल्यूट करती हूँ क्योंकि जाड़ों के छह महीने गोपेश्वर,चमोली जाकर रहना पड़ता है और छह महीने माणा गाँव में।अपना बसा बसाया घर, पशु, बच्चे और सामान लेकर कैसे सफर करते होंगे सोचने की बात है।
अक्तूबर महीने के अंत से लोग निकलना शुरू कर देते हैं। बदरीनाथ मंदिर बंद होने के बाद तो सिर्फ़ भारतीय सैनिकों के और कोई इस क्षेत्र में नहीं रह जाता यहाँ तक कि खुद भगवान जोशीमठ में निवास करते हैं।
गरमियाँ आते ही बदरीनाथ धाम के द्वार खुलते हैं और माणा वासी भी लौट आते हैं। तब तक इनके आँगन में लगे दाख,आड़ू,खुमानी में फूल खिल जाते हैं और वापस गाँव आते ही आलू बो दिया जाता है। यहाँ हिमालयी कीमती जड़ी बूटियाँ पाई जाती हैं, ऊन के कपड़े और चुटूके बनाए जाते हैं। घर घर भेड़ की ऊन का कारोबार चलता है। बिकने वाले सामान में जख्या,ब्रह्म तुलसी,बालछड़ी,पीपी जड़ प्रमुख है। सब्जियाँ वहाँ मुझे नहीं मिली हाँ अखरोट मिल रहे थे।
माणा गाँव के जरा से ऊपर व्यास गुफा है जहां वेद,पुराण लिखे गए। पूरे भारत में सरस्वती नदी का उद्गम सिर्फ़ माणा में दिखता है। जब पांडव अलकापुरी की ओर जा रहे थे तो उमड़ती सरस्वती नदी को पार करने का कोई उपाय ना देख भीम ने एक विशाल शिला दो पहाड़ियों को जोड़ कर रख दी वही भीम पुल के नाम से प्रसिद्ध है। भीमकाय पत्थर और सरस्वती दोनों विलक्षण हैं।
यहाँ से आठ किलोमीटर दूर वसुधारा है जहां कहते हैं अष्ट वसुओं ने तपस्या की थी वहाँ ऊंचाई से जो झरना गिरता है उसके मोती पापियों पर नहीं पड़ते, हमारा जाना संभव ना था सो छोडना पड़ा।
जाने वाले सतो पंथ तक जाते हैं जहां से युधिष्ठिर सदेह स्वर्ग में प्रवेश हुए जबकि चारों पांडव द्रौपती सहित हिम में गल देह छोड़ चुके थे।
माणा में यदि उत्सव था तो पलायन भी था। पर्यटक भी थे लेकिन उनकी चकाचौंध वाला सामान ना था। लोग गांवों में जाकर मॉल सा सामान ढूंढते हैं और भोलेभाले ग्रामीणों को शर्मिंदा करते हैं जबकि ग्रामीणों का सम्मान होना चाहिए कि उन्होंने अपनी धरोहर,गाँव,अपने सम्मान और अनूठेपन को जीवित रखा है।
मैंने एक नवयुवक को पकड़ा जो कि पूरे गाँव की बुनी हुई गरम टोपियाँ,मोजे,स्वेटर,शाल,मफ़लर,बच्चों के कपड़े बेचता था। उसने ग्राम देवता के दर्शन कराये जो कि बदरी विशाल के प्रमुख सेवक कहलाते हैं और उनके दर्शन बिना बदरी
विशाल प्रसन्न नहीं होते। उसने ये भी बताया कि पैसे ना बचते हों तो माणा गाँव घूम लेना चाहिए। मेरे काउंटर क्वेस्चन कि तुम्हारे पास कितने हैं पर देर तक हँसता रहा। लोग अभी भी स्वर्ग जाने की अभिलाषा में चुपके से अलकापुरी का रास्ता पकड़ते हैं इस पर हम दोनों ने ठहाके लगाए।
मैंने उससे जी भर के गरम कपड़े खरीदे ताकि माणा की यादों से सन्दूक भरा रहे और उन्हें प्रोत्साहन मिले लेकिन बोझा देखते ही पति को जेब खाली होने का एहसास हुआ जिसे मैंने अनदेखा कर दिया क्योंकि जो लड़का 7 साल दिल्ली
की सड़ी गर्मी में रह हमेशा के लिए स्वच्छ,निर्मल स्वर्ग, पहाड़ लौट आया हो और मुझे माणा की एक एक खूबी बता रहा हो उसको इतना प्रोत्साहन तो मैं दे ही सकती थी!
रास्ते में व्यास गुफा के पास किसी डॉक्यूमेंटरी फिल्म की शूटिंग चल रही थी। लड़कों के स्टडी ग्रुप आए थे जो आंखोंदेखी को रिकॉर्ड कर रहे थे। चार जवान मोटर साइकल से लखनऊ से आए थे उनसे भी सूचनाओं का आदान प्रदान हुआ और हमने उनकी हिम्मत की दाद दी।
माणा गाँव की सीमा पर आते ही एक वृद्धा स्थानीय सब्ज़ी को खरीद लेने के आग्रह के साथ बहुत पीछे पड़ गई। हम मजबूर थे क्योंकि अभी काफी यात्रा बाकी थी सो सब्ज़ी कहाँ ढोते लेकिन मना करना बहुत बुरा लग रहा था। आखिर पति ने भाषा न आने के अभाव में 50 का नोट देकर इशारे से कहा कि हम नहीं ले सकते। उसने नोट लेकर उल्टा पुलटा और “मैं दूसरा गाहक देख लूँगी” कह कर वापस पकड़ा गई। न जाने कितनी जरूरत हो सोचकर मन द्रवित हुआ लेकिन गाइड ने हंसते हुए बताया कि आप जाएँ,उसकी सब्ज़ी बिक जाएगी। वो रोज बेचती है लेकिन सहायता न कर पाने का मलाल हमें रहा।
अपने स्नेही माणा गाइड विनोद जो कि अभी तक मेरे ख़रीदे गए कपड़ों के पैकेट को ढो रहा था और माणा की सीमा तक आ गया था, का शुक्रिया अदा किया और औली के लिए प्रस्थान किया।
माणा तुम्हें कभी भुला ना सकूँगी!
जब भी याद आओगे मुझे एक स्वच्छ हवा का झोंका तरोताजा कर जाएगा।
हमेशा आबाद रहना !!

जोशीमठ

12-10-2018
माणा से निकल हमें जोशीमठ आना था ताकि औली जा सकें और उससे पहले लंच भी कर सकें। अचानक याद आया कि जोशीमठ में नरसिंघ भगवान का मंदिर और शंकराचार्य जी कि गद्दी भी है जहां भगवान बदरीनाथ जी कि लाठी और गद्दी शीतकाल में विराजती है।
बदरीनाथ से जोशीमठ तक के बेहद खूबसूरत नजारों, ( हालांकि बद्रीनाथ के रास्ते में पंचधारा के पास रास्ता बहुत खतरनाक है और वो गाँव वालों के अपने विवाद की वजह से फंसा हुआ है और आए दिन तीर्थयात्रियों की जान पर बन आ रही है,इसका खुलासा इस पार आने के बाद चाय कि दुकान पर हुआ) साथ आती,छुपती अलकनंदा को देखते हम जोशीमठ समय से पहले आ गए।
आदिगुरु शंकराचार्य ने हिन्दू धर्म को उन्नत करने हेतु देश के चार कोनों मे चार मठ बनाए,
1-पूर्व में पुरी
2-पश्चिम में द्वारिका
3-दक्षिण में शृंगेरी
4- उत्तर में जोशीमठ
इस दृष्टि से भी जोशीमठ एक अत्यन्त पवित्र स्थान है। भौगोलिक स्थिति और नैसर्गिक सौंदर्य तो बहुत ही मनमोहक है। जोशीमठ में ही भगवान नरसिंघ के सौम्य दर्शन होते हैं,कहा जाता है जब वो हिरण्यकश्यप वध के पश्चात भी रौद्र रूप में रहे तो दुनिया डरने लगी। एक भक्त प्रह्लाद ही उनके सामने जा क्रोध त्याग देने की प्रार्थना कर सकते थे सो उनकी प्रार्थना सुन वो जब नरसिंघ विचरण करते जोशीमठ पहुंचे तो शांत हो गए। विष्णु के चौथे अवतार और भक्तों के रक्षक की सौम्य रूप में पूजा यहाँ होती है।
यहाँ प्रभु की मूर्ति कमल पर विराजमान दिखाई गई है और शालिग्राम से निर्मित है। मान्यता ये भी है कि नरसिंघ भगवान की मूर्ति की एक भुजा लगातार पतली हो रही है जिसदिन वो गिर जाएगी नर नारायण पर्वत एक हो जाएंगे और बद्रीनाथ धाम अवरुद्ध हो जाएगा तथा यहाँ से 22,23 किलोमीटर दूर स्थित “भविष्य बदरी” नया धाम बनेगा। आश्चर्य कि भौगोलिक स्थिति को देखते हुए वैज्ञानिक भी इस बात से सहमति रखते हैं।
पुराने मंदिर के स्थान पर दक्षिण भारत कि तर्ज पर भव्य नया मंदिर बन चुका है और मूर्ति की प्राणप्रतिष्ठा भी वहीं की गई है लेकिन आदिगुरु की गद्दी का स्थान जस का तस है, कुछ पुराने मंदिर का भाग भी सुरक्षित रखा गया है लेकिन मुझे वही पुराना,रंगों भरा, पहाड़ी तर्ज का मंदिर दिखने की अभिलाषा थी जो कि अब इंटरनेट पर ही देखा जा सकेगा।
एक दक्षिण भारतीय युगल इतनी दूर से नरसिंघ भगवान के दर्शन करने आए थे। उनकी कोई संतान ना थी सो अपने घर की मूर्ति को एक बच्चे की तरह तौलिये में लपेट,तमाम पूजा सामाग्री के साथ लगातार विशुद्ध मंत्रोचार से मंदिर की शोभा बढ़ा रहे थे। आगे बद्रीनाथ जाना था उन्हें।
कहते हैं प्रथम नरसिंघ के दर्शनों से पश्चात बदरी नारायण दर्शन सफल होते हैं…

ओली

12-10-2018
हमने 12 अक्तूबर को एकदम सुबह भगवान बदरी नाथ के दर्शन किए। फिर लगे हाथ माणा देखा और 2 घंटे बाद जोशीमठ की तरफ मुड़ लिए। जोशीमठ में खाना भी खाना था और जब तक ऑर्डर का खाना तैयार हो जल्दी से नरसिंघ मंदिर देख आए। मंदिर दूरी पर नहीं है सो इसीलिए दर्शन संभव हो पाये। अगला प्रोग्राम रोपवे से औली जाने का था। अगर समय हो तो आप पैदल घुमाव दार रास्ते से प्रकृति को निहारते हुए आराम से जा सकते हैं। आइये जानते हैं औली क्या है?
आश्चर्य कि पूरा नाम यही है!!
औली दरअसल एक बुग्याल था लेकिन उसे स्कीइंग स्पॉट,तमाम पर्वतों के नजदीक से दर्शन,कृत्रिम खूबसूरत झील, एशिया का सबसे लंबा रोपवे, चेयर लिफ्ट,बेहतरीन फ़ाइबर कॉटेज,कई खूबसूरत रिसॉर्ट्स और बढ़िया सड़क से संवारा गया।
पर्यटन रिसर्च टीम द्वारा यहाँ मनाली,शिमला, गुलमर्ग से भी अच्छी संभावनाएं पाईं गईं। स्कीइंग स्लोप बनाए गए। एक पचास मीटर लंबी और पच्चीस मीटर चौड़ी कृत्रिम झील का निर्माण भी किया गया जिसका पानी कड़ाके की ठंड में भी जमता नहीं है और बर्फ ना पड़ने पर भी मशीनों द्वारा इसके पानी से बर्फ बना कर एडवेंचर,विंटर स्पोर्ट्स कराये जाते हैं ताकि इसकी खूबसूरती को देखने के लिए आने वालों को निराश ना लौटना पड़े।
ये भारत का स्विट्जरलेंड कहलाता है। जोशी मठ से करीब सोलह किलोमीटर दूर नंदादेवी,माना पर्वत,त्रिशूल,कमेत,दूनागिरी,बैठातोली,नीलकंठ आदि पर्वतों को हाथ बढ़ा कर छू लेने सा एहसास कराने वाला एक अद्भुत बुग्याल है।
पूरा क्षेत्र कोनिफर,ऑक और देवदार के पेड़ों से आच्छादित है। समुन्द्र तल से ऊंचाई करीब 3000 मीटर सो ठंड हमेशा रहती है लेकिन सर्दियों में पारा माइनस में और सीजन चरम पर रहता है। होटल पहले ही बुक करा लें वर्ना जोशीमठ में रहना पड़ेगा।
एशिया की सबसे लंबी केबल कार का गर्व भी औली का है जिसे गोंडोला के नाम से जानते हैं। जिसकी चार किलोमीटर की दूरी आप 22 मिनट में पूरी करते हैं किराया है 750 रुपये।
आप चाहें तो रोड द्वारा भी आ सकते हैं। करीब एक घंटे में, सोलह किलोमीटर की दूरी तय करके लेकिन वाहन खुद का हो तो ज्यादा सुविधाजनक रहेगा या शारीरिक रूप से मजबूत हों तो पैदल जाएँ वरना केबल कार ही सबसे रोमांचक और अच्छा विकल्प है।
औली स्पॉट पर पहुँच कर प्रकृति का स्तब्ध कर देने वाला सौंदर्य आपको विमुग्ध कर देता है। ठंडी,स्वच्छ हवा सुकून देती है। मेरा ठंड के मौसम में औली जाने का अनुभव नहीं है लेकिन केबल ऑपरेटर से बात करके पता चला कि ठंड आते ही सांस लेने की फुर्सत नहीं मिलती। औली पर्यटकों से गुलजार हो जाता है और केबल कार से आने जाने का नंबर काफी देर बाद आता है। हमें भी एक घंटा इंतजार करना पड़ा था क्योंकि आने जाने वाली केबल का समय एक ही होता है। रोप वे के दस टावर तथा दोनों को एक एक कर साथ में पार करने होते हैं इधर और उधर से वाकी टाकी द्वारा तारतम्य रख कर ताकि बेलेन्स बना रहे और ढ़लान भी बेहद तीखी है। गंडोला सबसे उन्नत तकनीक है और जर्मनी से ख़रीदी गई है जिसका पूरा ब्योरा केबल के केबिन के अंदर पढ़ा जा सकता है । इसकी पुष्टि एक जर्मन नागरिक ने भी की।
औली स्पॉट से करीब डेढ़ किलोमीटर ऊपर गुरसों बुग्याल,छत्रा झील के लिए जा सकते हैं लेकिन दिया गया टाइम और गाइड की कमी की वजह से उसे दूसरी बार की ट्रिप के लिए छोड़ना पड़ा। राज्य सरकार की इकाई “गढ़वाल मण्डल विकास निगम” इसकी देखभाल करती है और “उत्तराखंड विकास निगम” यहाँ शीतकालीन स्पोर्ट्स करवाता है।
औली को शब्दों में बांधना असंभव है हाँ तस्वीरों में थोड़ा बहुत देखा जा सकता है।उसे आत्मसात करने के लिए वहीं जाना होगा और वो अनुभव बहुत अविस्मरणीय है।
कर्णप्रयाग
13-10-1019
दिन भर खूब आपाधापी में घूम हम 12 तारीख़ की रात्रि विश्राम हेतु कर्णप्रयाग पहुँच गए। प्रयाग मतलब जहां नदियों का संगम हो। उत्तराखंड में पाँच प्रयाग हैं। विष्णु प्रयाग,नन्द प्रयाग,देव प्रयाग,रुद्र प्रयाग और कर्णप्रयाग। कर्णप्रयाग में दो नदियां अलकनंदा तथा पिंडर मिलती हैं। पिंडर का एक नाम कर्ण भी है अतः ये कर्णप्रयाग कहलाया। ये चमोली जिले का एक कस्बा है। इसकी भौगोलिक स्थिति अत्यंत सुंदर है। पिंडारी ग्लेशियर से आई पिंड़ारी नदी जब अलकनंदा से मिलती है तो ये कस्बा पवित्र हो जाता है। उन्नत खड़ी नन्दा देवी चोटी तथा जगमगाती चोटियाँ जैसे त्रिशूल,द्रोणागिरी,नन्दा घुंटी तथा अन्य चोटियों से घिरे होने की वजह से बेहद महत्वपूर्ण,दर्शनीय भी हो जाता है।
पौराणिक कथा है कि महाभारत युद्ध में कर्ण को अर्जुन मार नहीं पा रहा था। अर्जुन का हर वार खाली जा रहा था क्योंकि खुद धर्म की देवी, कर्ण की रक्षा कर रही थी। कृष्ण ने उपाय ढूंढा और कर्ण के पास ब्राह्मण वेश में जाकर दान मांगा। दान था कर्ण द्वारा किए गए सारे पुण्य! कर्ण ने अपने जीवन काल में इतने दान धर्म किए थे कि खुद महादेव भी शायद उसे न मार पाते सो ये छल वांछनीय हो गया था। कर्ण द्वारा अपने पुण्य दान करते ही कृष्ण ने अपने विराट स्वरूप का दर्शन देकर कर्ण को धन्य किया और अपने सारे पुण्य दे देने के बाद अब वो साधारण मानव हो चुका था। उसने कृष्ण से वचन लिया कि मेरा अंतिम संस्कार आप ही करें और ऐसी पवित्र भूमि पर करें जहां कोई न हो। कृष्ण युद्ध रथ पर वापस आए और अर्जुन से अंतिम आघात करने को कहा। कृष्ण के द्वारा कर्णप्रयाग ही वो जगह थी जो कर्ण के अंतिम उद्धार के लिए उपयुक्त जगह पाई गई और कर्णप्रयाग नाम पड़ा। ये कस्बा एक ऐसा सेंटर है जहां उत्तराखंड की विभिन्न दिशाओं से लोग आते हैं और चार धाम यात्रा को जाने वाले रास्ते पकड़ते हैं,अल्मोड़ा,नैनीताल,बद्रीनाथ तथा जिम कार्बेट के लिए यहीं से रोड पकड़ सकते हैं।
हम सुबह जल्दी तैयार हो जाते हैं ताकि सुप्त शांत शहर का जायजा ले सकें सो किचन में रात में ही बता दिया कि सुबह पाँच बजे के बाद कभी भी चाय पहुंचा दें और अल्ल सुबह चाय हाजिर थी ! हम तैयार थे सो चाय पीकर कर्णप्रयाग देखने निकल पड़े। यहाँ छोटा सा पुल पार करते ही मां उमा देवी का मंदिर है। मंदिर की स्थापना आठवीं सदी में शंकराचार्य द्वारा हुई लेकिन मूर्ति उससे भी पहले से स्थापित थी ऐसा कहा जाता है । मंदिर में सभी भगवानों की मूर्तियों को स्थान दिया गया है।
कर्णशिला तथा कर्ण मंदिर भी हैं। नदियों के संगम तक अच्छे से घूमा जा सकता है जो कि एक अद्भुत अनुभव है। आसपास के अन्य स्थान भी काफी महत्वपूर्ण हैं हालांकि हम अन्य योजना के चलते जा नहीं पाये लेकिन कर्णप्रयाग से 20 किलोमीटर दूर नौटी गाँव है जहां से हर 12 साल बाद नन्दा राज जात की ऐतिहासिक यात्रा प्रारम्भ होती है। माँ नन्दा उमा का ही रूप हैं और कुमाऊँ,गढ़वाल दोनों में समान रूप में पूज्यनीय हैं। चांदपुरी गढ़ी,आदि बदरी भी अगले बार के लिए छूट गए।
कहते हैं यहाँ स्वामी विवेकानंद ने अपने दो गुरु भाइयों के साथ 18 दिन तक ध्यान क्रिया की थी। यहाँ जब भी आयें गढ़वाल मण्डल विकास निगम के गेस्ट हाउस की बेहतरीन सेवाओं को अग्रिम बुक करा लें,वैसे होटल बहुत हैं ठहरने की कोई समस्या नहीं है।
मंदिर,संगम से वापस आकर बेहतरीन नाश्ता किया ताकि दिन भर के लिए ऊर्जा मिल जाए फिर अच्छी चाय या खाने की मनपसंद चीजें सब जगह उपलब्ध भी कहाँ होती हैं? यहाँ से हम करीब दस बजे निकल लिए और आज रात हमारा कौसानी रुकने का इरादा था साथ में सूर्यास्त देखने का भी!

बागेश्वर धाम
13-10-2018

कर्णप्रयाग से सिमली,उमादेवी मंदिर, पिंडर नदी के किनारे किनारे चल कर नारायण बगड़ आए और थराली होते हुए लालटी गाँव पार कर, बैजनाथ में थोड़ा दम लिया। हम करीब साढ़े नौ बजे चले थे और अभी दोपहर का एक बज रहा था। हम बैजनाथ के आसपास थे। आगे का रास्ता पूछने से पहले ड्राइवर को एक होटल में दिन का भोजन कराया। हमने चाय पीते हुए स्थानीय लोंगों से बात की तथा बागेश्वर धाम जाने का रास्ता पूछा। अगला पड़ाव उनके बताए रास्ते के अनुसार बैजनाथ से 20 किलोमीटर दूर, गागरी गोल पुल पार कर, बागेश्वर धाम का था। यहाँ सड़कें बहुत अच्छी बनी हैं और गरुड़ घाटी काफी उपजाऊ तथा हरी भरी समृद्ध है।

मुझे याद आया कि मेरी इस मंदिर के दर्शनों की अभिलाषा काफी पुरानी है। कोई भी काम हो जिसे पूरा होने में शंका हो,किसी प्रकार की दुविधा हो तो मेरी सासु माँ घर से इतनी दूर ठीक बागेश्वर देवालय की दिशा की तरफ हाथ जोड़ अरज लगा देतीं कि “बाघनाथ महाराज सब आपके हाथ है, रक्षा करना” और उनकी प्रार्थना पूरी होती। उठते बैठते,सोते जागते उनकी जुबान पर बाघनाथ रहते। मेरी बड़ी इच्छा थी कि जिन्होंने हमेशा मेरी सास की प्रार्थना सुनी,उसे पूरा किया वो कहाँ रहते हैं और कैसे दिखते हैं आखिर उन्होंने मुझे भी मिलने का आदेश दिया और दुर्लभ दर्शन प्राप्त हुए।
बाघनाथ/बाणेश्वर/भैरव नाथ देवालय/ बागेश्वर मंदिर समूह, बागेश्वर जिला मुख्यालय में गोमती और सरयू नदियों के संगम पर स्थित धार्मिक और पुरातात्विक दोनों ही दृष्टि से अति महत्वपूर्ण और अति सुंदर स्थान है। इसे मार्कन्डेय मुनि की तपोस्थली माना जाता है। कहा जाता है कि शिवजी यहाँ ब्याघ्र रूप में विचरते थे सो यहाँ का नाम ब्याघ्रेश्वर पड़ गया जो कालांतर में बिगड़ कर बागेश्वर हो गया।
नागर शैली के वर्तमान बाघनाथ देवालय का “चंद्र वंशी राजा लक्ष्मी चंद” द्वारा सन 1502 में निर्माण करवाया गया था। इसके अहाते में स्थित लघु देव कुलिकाएं बाद की कृतियाँ हैं जिसके अंदर छोटी छोटी सीढ़ियाँ बनी हैं और भक्त उन सीढ़ियों पर उँगलियों से चढ़ देवस्थान तक जाते हैं तब प्रतिमा को प्रणाम करते हैं ना कि सामने खड़े हो हाथ जोड़ कर सीधे प्रणाम। प्रभु को अभिवादन की बहुत अलग परंपरा है जिसका वहाँ के पुराने लोग अभी भी पालन करते हैं।
पास में ही बाणेश्वर मंदिर वास्तुकला की दृष्टि से समकालीन लगता है लेकिन भैरव नाथ मंदिर आधुनिक है। लगभग सातवीं सदी से लेकर सोलहवीं सदी तक की अनेक महत्वपूर्ण प्रतिमाएँ इस शिवालय में विद्यमान हैं। उमा महेश्वर,पार्वती,महिषासुर मर्दिनी, एक मुखी और चतुर्मुखी शिवलिंग,त्रिमुखी शिवलिंग,गणेश,विष्णु,सूर्य तथा सप्त मातृका,दशावतार पट आदि की प्रतिमाएँ इस बात को सिद्ध करती हैं कि यहाँ एक भव्य मंदिर रहा होगा।
मकर संक्रांति के अवसर पर यहाँ उत्तरायनी का मेला हर साल लगता है। मंदिर से जरा सा नीचे जाने पर सुंदर संगम की छटा है। साफ सुथरे घाट बने हैं और मेले के हिसाब से काफी लंबी चौड़ी जगह को पक्का बनवाया गया है।बहुत सारे शिव साधक बाबाओं का दल भी जुटा मिलता है, बाजार भी ठीकठाक है और बीच बाजार एक भव्य कलश बागेश्वर की पहचान बन गया है जो दिखने में बहुत सुंदर लगता है।
हमने मंदिर के बाहर प्रसाद लिया, दुकानदार से विनती की कि वो अपने पैसे ले और पूजा के बाद हम थाली वापस रख जाएंगे लेकिन वो ढ़ेर सारा प्रसाद हमें पकड़ा अंदर जाने को कहता रहा। उन्होंने जल,पुष्प,लोटे का भी इंतजाम किया और “पहले पूजा फिर पैसा” कह हमें विदा किया। हमें अंदर की भीड़ का पता ना था, न ही ये पता था कि मंदिर कितना बड़ा है या दर्शनों में कितना समय लग जाएगा। ढलती दोपहर का वक़्त था सो भीड़ नहीं थी। पुजारी जी की बेटी वहाँ व्यवस्था संभाल रही थी। दर्शन करो,खुद पूजा करो, प्रसाद पाओ। कोई मांग, पंडा, पुजारी नहीं। शांत मन पूजा कर बाहर आए तो देखा जिनसे सामान लिया था वो दुकानदार ठेला छोड़ गायब है। हम नीचे संगम देखने चल दिये। कुछ लोगों से बातें की, संगम देखा। यहाँ काशी की तरह मृत्यु पश्चात क्रिया करने की भी महत्ता है। अक्सर धनी मानी लोग बागेश्वर घाट पर अंतिम गति की चाहना रखते हैं। सुख और दुख का अजीब संगम है ये घाट। अब हमें कौसानी के लिए निकलने की जल्दी थी क्योंकि शाम होने वाली थी और हमें सूर्यास्त देखना था। आसपास पूछा तो दुकानदार फिर न मिले सो अंदाज से उनके ठेले पर थाली के नीचे 100 रुपए दबा कर जब हम चलने लगे तो रावल जी भागते हुए आए और 10 रुपए वापस लौटाते हुए बोले आइंदा ऐसे ज्यादा पैसे छोड़, पाप ना चढ़ा दें भाई लोग…ये बागनाथ की भूमि है जहां बेईमानी बड़ी महंगी पड़ती है तुम तो चले जाओगे भुगतेंगे हम! हम भौचक्क!
फिर मुस्कुरा कर सोचा भोले भण्डारी के सेवक भी भोले हैं इस कलयुग में भी॥

कौसानी

13-10-2018
(कौसानी जहां मैं जड़ होकर बैठी रही कि प्रकृति पता नहीं कब कौन सा रंग दिखा दे!!)

बागेश्वर दर्शन पश्चात हमारी अगली मंजिल कौसानी का सूर्यास्त देखना था सो गरुड़ घाटी के सुंदर खेत और सोमेश्वर घाटी के नजारे पार कर कौसानी आ पँहुचे। कौसानी जो कि पहले अल्मोड़े जिले में आता था अब बागेश्वर के अंतर्गत आता है, की खूबसूरती के बहुत चर्चे मैंने सुने,पढे थे। प्रिय कवि सुमित्रा नन्दन जी की जन्मभूमि जिसके बारे में कहते हैं कि कौसानी ने ही पंत जी के कवित्व को इतना हृदयग्राही बनाया।
महात्मा गांधी अपनी यात्राओं के दौरान यहाँ आए और इसकी बेहद खूबसूरत प्राकृतिक अनुपम छटा को देख इसे “भारत का स्विट्जरलेंड” नाम दिया। गांधी यहाँ 14 दिन रहे और अपनी किताब “अनासक्ति योग ” की टीका पूरी की, कालांतर में उनके सम्मान में यहाँ एक आश्रम बनाया गया और नाम दिया गया अनासक्ति आश्रम।
सुंदर बगीचा, प्रार्थना सभा हाल, पुस्तकालय, गांधी जी से संबन्धित साहित्य और उनकी शिक्षाओं तथा जीवन से संबंधित टिप्पणियाँ यहाँ उपलब्ध हैं। ये अब एक शोध संस्थान में बदल गया है। कौसानी का सूर्यास्त या सूर्योदय देखने की सर्वोत्तम जगह भी यही है।
हालांकि अब अनासक्ति आश्रम आने के रास्ते में बहुत से आधुनिक होटल खुल गए हैं जो पुराने आश्रम तक जाने में बाधक हैं और अपने होटल में ठहराने के लिए हर संभव कोशिश करते हैं।
अगर आप उस पुरातन परंपरा,इतिहास,आश्रम की पवित्रता,सुंदरता को नजदीक से महसूस करना चाहते हों तो बिना अनासक्ति आश्रम जाए ना रुकें। वहाँ ठहरने,शाकाहारी ताजे भोजन की व्यवस्था है। कमरों में गरम पानी की व्यवस्था स्वयं सेवा द्वारा 2 मिनट में की जा सकती है जो कि सोलर सिस्टम से गरम पानी हर कमरे के बाहर 24 घंटे उपलब्ध है,अन्य सभी सुविधाएं कमरे में हैं।
खाना खाने आपको नीचे रसोईघर में बुलावा आने पर जाना होगा हाँ चाय सुबह 4 बजे भी कमरे में उपलब्ध होगी जो हम जैसे जल्दी उठने वालों के लिए वरदान से कम नहीं।
अपने कमरे से निकल आप सीधे त्रिशूल,नंदादेवी,पंचाचुली से आँखें मिला सकते हैं बस मौसम साफ हो। पहाड़ों के चाँद के तो क्या कहने यदि चाँदनी रात हो। दूर पहाड़ों पर जगमगाती रौशनियाँ, साफ दिखते तारे, शुद्ध स्वच्छ ठंडी हवा किसे ना मोह लेगी??
हमारी चाय हालांकि 6 बजे मिल पाई थी क्योंकि रात भर रसोई के बड़े से पटागण में सुना बाघ हुंकारता रहा और बिसन सिंह चाय का लोटा ले उसके जाने या उजाला होने का इंतजार करता रहा। हालांकि हम लोग साढ़े तीन बजें से अपने दैनिक कार्यकलापों में बेधड़क लगे थे और तैयार होकर सूरज की उजास का दिव्य नज़ारा आत्मसात कर रहे थे,फेफड़ों में उस शुद्ध हवा को भर रहे थे।
हमको सुबह जल्दी निकलना था सो रात में ही सारी पेमेंट और कार्यवाही पूरी करने ऑफिस में गए। वहाँ हर चीज आपको एक अलग एहसास कराती है यदि कहूँ 40,50 साल पीछे ले जाती है तो आपको सुकून ही महसूस होगा। अजीब सी शांति! आश्रम में खिले नरगिस के फूल यहाँ की विशेषता हैं। यदि आपने गांधी को पढ़ा है तो आप शायद कौसानी बार बार जाना चाहेंगे ।
वहाँ आश्रम की व्यवस्था श्री झा संभालते हैं,उनसे प्रार्थना का समय पूछते ही झल्लाते हुए बोले “इतनी जगह तो लेखें हैं फिर भी लोग बाग पूछता है”। मुझे हंसी आ गई कि जो पहली बार आश्रम में कदम रखेगा वो पहले हर चीज से रूबरू होना चाहेगा। यदि कुछ दिन यहाँ रहेगा तो खुद ब खुद प्रार्थना में आएगा क्योंकि रोज थोड़े ना सूर्यास्त देखेगा?

आपने कोई सूचना या निर्देश भी प्रसारित नहीं किया न कोई घंटी या प्रार्थना बजी तो हम कैसे शामिल होते? मैंने मज़ाक के लहजे में ये बात उन तक पहुंचाई तो उन्होने रजिस्टर में लिखना छोड़ मुझे घूरा।
मेरी बात उन्हें शायद लग गई और बोले प्रार्थना का ढिंढोरा पीटना जरूरी है क्या? पढे लिखे लोग हो पढ़कर निर्देश पालन करो। मैंने उन्हें समझने की कोशिश की कि ऐसा तो नहीं बिहार से इतनी दूर कौसानी में रहने का फ्रस्ट्रेसन निकाल रहे हों। मैंने यही रफ़नेस विवेकानंद आश्रम कोलकाता, मायावती आश्रम चंपावत और अब कौसानी में महसूस की। एकदम खादी जैसे खुरदुरे लेकिन बहुत केयर करने वाले झा जी।
हम बागेश्वर से चले थे कि सूर्यास्त इत्मीनान से देखेंगे लेकिन 10,15 मिनट के हेरफेर से लगा कि अब सूर्यास्त नहीं मिलेगा और जब तक भागते हुए अनासक्ति पँहुचे सच में सूरज डूब रहा था साथ में मेरा दिल भी।
मैं थोड़ा पहले से डूबते नजारे को देखना चाहती थी ताकि उसे अंगूठी के आकार का कैद कर सकूँ लेकिन ये हो ना सका।
फिर हम कमरे की फोर्मेलिटी में लग गए, सामान गाड़ी से निकाल शिफ़्ट कर ही रहे थे कि सामने पहाड़ों पर सुनहरा प्रकाश दिखा! जो कि डूबते सूरज के बाद का उजास था, मैं सब फेकफांक कैमरा लेने भागी। सामने की सारी चोटियाँ सुनहरी हो चुकी थीं और पहाड़ एकदम बैगनी !!पहाड़ों पर अक्सर ये नजारा दिखेगा कि सूरज डूबने के कुछ मिनटों बाद एक जादू और होता है, सूर्यास्त के बाद रंगों की रंगत! जब तक पहाड़ सफ़ेद नहीं हो गए मैं अपलक निहारती रही।
और लगा कौसानी आना सफल रहा।
आश्रम के ही नजदीक लक्ष्मी आश्रम है जो गांधी जी की शिष्या सरला बेन द्वारा स्थापित है और महिलाओं की सहायता के लिए संचालित होता है, पंत संग्रहालय भी देखने लायक है, वहाँ हर साल सुकोमल कवि का जन्मदिन धूमधाम से मनाया जाता है।
इति कौसानी दर्शनम गाथा।

अल्मोड़ा

14-10-2018
अल्मोड़ा मेरा घर है। अब जब उत्तराखंड की यात्रा पर निकले थे तो घर जाना लाजिमी था। अल्मोड़ा उत्तराखंड का अति महत्वपूर्ण शहर है। कौसानी का सूर्यास्त तो खास पकड़ न आया था लेकिन सूर्योदय के लिए सुबह चार बजे से ही तैयारियां शुरू हो गईं थी। हम दैनिक काम कर अपना बोरिया बिस्तर बांध चुके थे ताकि सूर्य के पूरा चमकते ही सीधे घर से निकल लें और ठंडी,सुनसान सड़कों पर प्रकृति का भरपूर आनंद उठाएँ।
अल्मोड़ा, कुमाऊँ हिमालय शृंखला की, एक पहाड़ी के, दक्षिणी किनारे पर स्थित है। अल्मोड़ा के दृश्य आपको मोह लेते हैं। चीड़,देवदार के वृक्ष और चारों तरफ़ दिखता हिमालय पर्वत। अल्मोड़ा कुमाऊँ के चंदवंशीय राजाओं की राजधानी थी। नगर अपनी ऐतिहासिक विरासत के साथ प्राकृतिक सुंदरता के लिए भी प्रसिद्ध है। आप यहाँ सबसे अच्छे पेनोरमा शॉट्स ले सकते हैं क्योंकि खूब विस्तार से पहाड़ दिखते हैं। यहाँ एक तरफ़ चंदकालीन किले तथा मंदिर हैं तो ब्रिटिश कालीन चर्च तथा पिकनिक स्थल भी हैं। यहाँ पर्यटकों के लिए हर तरह की सुविधा उपलब्ध है। अल्मोड़ा के आसपास कई स्थल ऐसे हैं जिन्हें देखा जाना चाहिए जैसे कसार देवी,जागेश्वर,चितई,कटारमल सूर्य मंदिर, बिनसर आदि।
चितई- आस्था का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं बस वो जनमानस में गहरे पैठी होती है। बाला जी का अकूत चढ़ावा हो या काशी विश्वनाथ मंदिर में भक्तो की चीटियों सी कतारें ,पुरी में भगवान जगन्नाथ के रथ पर हाथ लगाने भर को जान देते लोग हों या दर्शनों का इंतज़ार करते भक्तों का साईं दरबार। कोलकाता की काली बाड़ी हो जहाँ ढंग से प्रसाद चढाने में आधा दिन लग जाये या माँ वैष्णोदेवी का डेरा!!
अल्मोड़ा चितई मंदिर में लटकी लाखों अर्जियां आपको आश्चर्य में डाल सकती हैं। ढेर के ढेर जिन्हें आम इंसान देखकर चकरा जाए। अभी भी वहाँ गोलू देवता के नाम पर देश विदेश से न्याय पाने के लिए अर्ज़ियाँ आती हैं। आप चिट्ठी में सिर्फ गोल ज्यू देवता,अल्मोड़ा भर लिख दें चिट्ठी ठीक ठिकाने पर पहुंचेगी। इतनी चौकस न्याय व्यवस्था है,ऐसी श्रद्धा है। जो लोग हर जगह से निराश हो जाते हैं वो ग्वेल देवता को पत्र में अपनी समस्या लिख कर भेजते हैं। मुराद पूरी होने पर पीतल की घंटी चढ़ाने की परंपरा है। मंदिर में इतनी घंटियाँ हैं कि गिनती नहीं हो सकती तथा उन्हें टाँगने की जगह भी नहीं मिलती। ये छोटा सा मंदिर आस्था का भरपूर प्रमाण है। हर तरफ़ कौल पूरा होने की घंटियाँ ही घंटियाँ। ग्वेल/गोलू देवता न्याय के देवता हैं। अल्मोड़ा से आठ किलोमीटर दूर पिथोरागढ़ हाई वे पर ये मंदिर स्थित है। सड़क से चंद कदमों की दूरी पर एक तप्पड़ पर भव्य प्रांगण तथा मंदिर बना है। मंदिर के अंदर घोड़े पर सवार,धनुष बाण लिए भगवान की प्रतिमा विराजमान है,इन्हें शिव का अवतार माना जाता है। ये मंदिर 19वीं शताब्दी का बताया जाता है। कहा जाता है यदि कोई नवविवाहित जोड़ा दर्शनों को आए तो उसका रिश्ता सात जन्मों तक बंध जाता है। यहाँ मंदिर में काफी शादियाँ भी होती हैं। जहां मनोकामना पूरी हो वही पूज्य है ,वही सत्य है…जिसे दिल मान ले वही भगवान् है.

जागेश्वर धाम

जागेश्वर धाम जाने की कल्पना ही अवर्चनीय सुख देने वाली है। दारू वन,असीम शांति,हवा भी मानो शिव नाम का जाप करती हो। सिहरन और बेहद खूबसूरत प्रकृति!
अल्मोड़ा से 35 किलोमीटर दूरी पर ये धाम स्थित है। ये छोटे-बड़े 224 क एक ही जगह पर मंदिर समूह है। कत्यूरी राजाओं के काल में कुमाऊँ क्षेत्र में 400 से भी ज़्यादा मंदिरों का निर्माण हुआ जिसमें 250 जागेश्वर में ही हैं। पुरातत्व विभाग इन्हें तीन कालों में बना बताता है,कत्यूरी काल,उत्तर कत्यूरी काल तथा चंद्र काल। मंदिरों का निर्माण पत्थर की बड़ी-बड़ी शिलाओं से हुआ है। दरवाजों की चौखटें पर देवी देवताओं की प्रतिमाएं उकेरी गई हैं।तांबे की चादरें तथा देवदार की लकड़ी भी उपयोग हुई है।
पौराणिक मान्यता अनुसार ये संसार के पालन करता भगवान विष्णु द्वारा स्थापित बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है।पतित पावन जाटगंगा के किनारे समुन्द्र तल से करीब 6200 फिट की ऊंचाई पर बना जागेश्वर धाम की नैसर्गिक सुंदरता शब्दों से परे है। पुराणों के अनुसार शिवजी तथा सप्त ऋषियों ने यहाँ तपस्या की थी। आठवीं शताब्दी में आदि शंकराचार्य यहाँ आए तथा शिवलिंग को कीलित किया ताकि किसी दूसरे के विनाश के लिए मांगी गई कामना पूरी न हो,यहाँ केवल यज्ञ तथा अनुष्ठान से मंगलकारी मनोकामनाएँ ही पूरी होती हैं। मुख्य मंदिर एमआरएन आप अपने परिवार के नाम से अनुष्ठान या पाठ करा सकते हैं। प्रसाद में रुद्राक्ष मिलते हैं।जो एक बार जागेश्वर धाम जाता है वो बार बार वहाँ दर्शनों के लिए जाना चाहता है।
मंदिर से चंद कदमों की दूरी पर जागेश्वर म्यूजियम बना हुआ है, शोध या ज़्यादा जानकारी के लिए वहाँ संपर्क कर सकते हैं तथा पूरा इतिहास तस्वीरों द्वारा जान सकते हैं।

कटारमल सूर्य मंदिर

अल्मोड़ा,उत्तराखंड से सिर्फ सत्तरह किलोमीटर दूरी पर स्थित कटारमल सूर्य मंदिर एक विलक्षण मंदिर है जिसे कत्यूरी राजा कटारमल्ल ने निर्मित करवाया था। कहा जाता है कि इसका निर्माण एक रात में कराया गया था, इसके मंदिर का शिखर खंडित है और इसके पीछे कहा जाता है कि शिखर स्थापित करते समय सूर्य उदित होने लगा सो काम रोक दिया गया और वो शिखर अभी भी वहीं देखा जा सकता है। मंदिर में विष्णु जी,शिव जी, पार्वती, गणेश लक्ष्मी नारायण, नरसिंघ, कार्तिकेय आदि देवताओं को समर्पित 44 छोटे मंदिरों का समूह भी निर्मित है। मान्यता है कि सभी देवी देवता भगवान बड़ादित्य की आराधना करते थे। कहानी ये भी है कि पर्वतों पर तपस्या करने वाले साधु संत असुरों द्वारा बहुत परेशान किए जाते थे तो उन्होंने कोसी नदी के तटपर एक साथ मिलकर तपस्या की और सूर्य भगवान से असुरों से अभयदान मांगा। सूर्य प्रसन्न हुए और अभयदान देते हुए अपना तेज एक वट कुंद पर स्थापित कर गए। आगे चलकर राजा कटारमल ने इसी जगह पर सूर्य मंदिर का निर्माण किया। मंदिर की दीवारों पर भी बेहद जटिल और खूबसूरत नक्काशी देखने को मिलती है। मंदिर की देख-रेख,सुरक्षा की ज़िम्मेदारी पुरातत्व विभाग ही निभाता है। अगर ट्रेकिंग करते हुए आयें तो मंदिर कोसी गाँव से सिर्फ 2 किलोमीटर की दूरी पर है लेकिन अब मंदिर के नीचे तक सड़क भी बन गई है। अल्मोड़ा रानीखेत मार्ग पर कटारमल के लिए अलग से रोड बनाई गई है। मंदिर का विशाल स्वागत गेट है जहां गाड़ियों की पार्किंग की व्यवस्था है। रोड से आधा किलोमीटर ऊपर जाकर मंदिर मिलता है और पक्का रास्ता बनाया गया है। क्योंकि रास्ता कटारमल गाँव के बीच से होते हुए मंदिर तक जाता है सो गाँव की बढ़ती आबादी और बसाहट मंदिर के आसपास मुझ जैसे पर्यटकों को अच्छी नहीं लगी लेकिन दूर दिखने वाले पहाड़, पारंपरिक ढलवा छतों वाले घर,हरियाली,हवालबाग,कोसी गाँव देखने में मन मोह लेते हैं। मंदिर परिसर के बाईं तरफ का रास्ता मंदिर के दर्शनों हेतु जाता है जबकि दायें तरफ वाले से दर्शन करने के बाद बाहर आया जाता है। मंदिर में पहुँच कर मंदिर की दिव्यता और भव्यता का एहसास होता है।
ये मंदिर अपने खूबसूरत कत्यूरी वास्तु के लिए जाना जाता है।प्रांगण में साक्ष्य हैं कि इसमें 9वीं शताब्दी से लेकर 13वीं शताब्दी तक विभिन्न कत्यूरी राजाओं ने निर्माण कराया। ये भारत में स्थित कोणार्क,उड़ीसा में स्थित सूर्य मंदिर के बाद दूसरा महत्वपूर्ण सूर्य मंदिर है। कहा जाता है कि किसी भी पहाड़ पर पाया जाने वाला ये इकलौता सूर्य को समर्पित मंदिर है। यह मंदिर बड़ादित्य अथवा सूर्य का बड़ा मंदिर के नाम से जाना जाता है। यह मंदिर इस क्षेत्र के सबसे ऊंचे मंदिरों में है। मुख्य सूर्य मंदिर के अलावा पहाड़ की ढलान पर चबूतरे पर कई लघु देवालय बनाए गए हैं जिन पर पूर्व दिशा से जाती हुई सीढ़ियों से प्रवेश किया जाता है। जैसे कि पहाड़ी क्षेत्रों की परंपरा रही है कि मेले लगने या मुख्य त्यौहार आने पर मंदिर प्रांगण में ही शिवलिंग तथा आँय देवता पूजे जाते हैं। गर्भगृह या मुख्य मंदिर में सिर्फ दर्शनार्थ जाया जाता है। पूर्वाभिमुखी मुख्य मंदिर में त्रि-रथ गर्भगृह है। जब सूर्य उत्तरायण( जनवरी,फरवरी) में होते हैं तो यहाँ प्रातः दिवाकर की प्रथम रश्मि सीधे मूर्ति पर पड़ती है और सूर्य मंदिर में इन्द्र धनुष उगने सा आभास होता है। सूर्यमूर्ति जिस पर प्रकाश पड़ता है उसे वृद्धआदित्य के नाम से जाना जाता है और मंदिर बंद होने का वक़्त भी सूर्यास्त से निर्धारित किया गया है।
एक बार यहाँ चोरी होने के बाद से सूर्य की अष्टधातु की मूर्ति और लकड़ी से निर्मित दरवाजा वर्तमान में राष्ट्रीय संग्रहालय नई दिल्ली में प्रदर्शित है और उसे वापस यहाँ प्रतिष्ठित करने की कोशिश की जा रही है। स्थल से प्राप्त पकी ईंटों के खंडों से ये अंदाजा लगता है कि प्रारम्भ में यह मंदिर ईंटों और लकड़ी से मिलकर बना था जिसे बाद में 12वीं, 13वीं शताब्दी में पत्थरों से निर्मित किया गया। यहाँ उपलब्ध अन्य लघु देवालय इस तथ्य की पुष्टि करते हैं कि कटारमल में इसके बाद भी निर्माण कार्य हुआ है। गर्भगृह में अनेक हिन्दू देवी देवताओं की पत्थर की मूर्तियाँ हैं। सूर्य की पत्थर की मूर्ति के अलावा लकड़ी की भी जीर्ण शीर्ण अवस्था की मूर्ति है जिससे अनुमान लगता है कि वर्तमान रूप में आने से पहले से यहाँ मंदिर में पूजा होती थी।
मंदिर में लगी शिलाओं पर दर्शकों की जिज्ञासाओं का समाधान लिखा है। कटारमल मंदिर एक विशाल प्रांगण में बनाया गया है जिसमें मुख्य मंदिर के साथ 44 छोटे-छोटे मंदिर बने हुए हैं। फिलहाल इनमें कोई मूर्ति स्थापित नहीं है और मुख्य मंदिर का मुंह पूर्व दिशा की तरफ है।
कटारमल जाएँ तो चितई ग्वेल देवता का प्रसिद्ध मंदिर,कसार देवी मंदिर, जागेश्वर धाम, रानीखेत, कौसानी आदि भी अवश्य देखें। भविष्य में लेजर तकनीक से दर्शकों को यहाँ के दृश्य दिखाये जाने का प्रस्ताव है। परिक्रमा पथ को बहुत अच्छा बनाया गया है और स्वच्छ पानी के लिए भी एक दर्शनीय मंदिर-सा कुंद बनाया गया है। स्थानीय मान्यता है कि इस मंदिर में मांगी गई इच्छा पूर्ण होती है और व्यक्ति अपने संताप, कष्ट को यहीं भूल कर प्रफुल्लित मन से मंदिर परिसर से बाहर आता है। मंदिर के चारों तरफ के दृश्य आपको इस मंदिर की याद हमेशा दिलाते रहेंगे।

बिनसर
15-10-2018
अगर कोई मुझसे पूछे कि मुझे बिनसर क्यों जाना है तो मैं कहूँगी कि बिनसर से जो चौखंभा,नन्दा देवी,नन्दा कोट,पंचाचुली और केदारनाथ चोटियों के नजारे मिलते हैं वो कहीं और से दिखते हैं क्या?? बिनसर से आप 300 किलोमीटर तक का पेनोरेमिक व्यू देख सकते हैं!!
बिनसर वाइल्ड लाइफ सेंचुरी है। प्रकृति अपने सबसे अद्भुत दृश्य के साथ यहाँ दृष्टिगोचर है। यहाँ हर साल लेखक,चिंतक,प्रकृति प्रेमी तथा रोमांच के प्रेमी बड़ी संख्या में आते हैं। बिनसर के चाहने वालों में बहुत बड़े बड़े नाम हैं। ये चंद राजाओं की ग्रीष्म कालीन राजधानी थी जिन्होने ग्यारहवीं से लेकर अठारहवीं सदी तक कुमाऊँ पर शासन किया। बिनसर का क्षेत्र 1988 में ओक प्रजाति के पेड़ जो कि मध्य हिमालयन क्षेत्र में कम हो रहे थे, तथा इसी के साथ जो 200 पक्षियों की प्रजातियाँ ख़तरे में थीं उन्हें बचाने के लिए इसे जीव अभ्यारण घोषित कर दिया गया।
बिनसर हिमालय के झंडी धार चोटी पर बसा है और करीब 45 से 47 किलोमीटर तक फैला है। इस क्षेत्र में अनुमानतः 25 तरह के पेड़, 24 तरह की झाड़ियाँ और 7 तरह की घास पाई जाती हैं। वन ज़्यादातर ओक,देवदार,चीड़ और बुरांश के पेड़ों से ढका हुआ है। सुबह 11 बजे की चटक धूप में भी सड़क तक सूरज की रोशनी नहीं आ पा रही थी। यदि आप मार्च,अप्रैल में यहाँ जाएँ तो हर तरफ़ लाल बुरांश के खिले फूल आपको बेहद खूबसूरत आश्चर्य में डाल देंगे और ये नजारा दूर से भी दिखाई देता है।
बिनसर से नीचे वापस आते समय हमारे साथ एक घटना घटी। पतली लेकिन खूबसूरत सड़क के दोनों ओर की हरियाली हमें स्तब्ध किए थी और मैं अपने पति से कह रही थी कि हम गाड़ी से बेकार में आए। हमें तो दोपहिया वाहन से आना चाहिए था ताकि पूरी खूबसूरती खुल कर देख पाते। अचानक लगा की कार की बाईं तरफ कोई मंथर चाल से साथ साथ चल रहा है। मैं फ्रंट सीट पर बैठी थी और जब उस पर नजर पड़ी तो दिल धक्क और जबान गूंगी हो गई। साथ चलने वाला और कोई नहीं, हट्टा कट्टा तेंदुआ था! जिसकी पीठ का गिरता उठता उभार मुझे हिलता डुलता दिख रहा था। अचानक वो अपनी फुर्ती से आगे हो सड़क के नीचे जाने वाली अपनी परिचित पगडंडी पर उतर गया। मेरी इतनी घिघ्घी बंध चुकी थी कि न मोबाइल निकाल पाई न कैमरे का ध्यान रहा,यहाँ तक कि ड्राइवर को भी सूचित नहीं कर पाई थी कि गाड़ी के समानान्तर तेंदुआ भी चल रहा है और जब अचानक ड्राइवर ने ठीक कार के सामने तेंदुए को सामने से क्रॉस करते देखा तो उसने हड़बड़ी में ब्रेक लगा दिये। तेंदुआ 5 फिट से कम लंबा तो नहीं था या भय के कारण हमें बहुत बड़ा लगा। हम सब झांक झांक कर नीचे पगडंडी में हिलती लंबी लंबी घास को देख पा रहे थे। तेंदुआ अपने ठिकाने पर मंथर चाल से जा रहा था। इतनी मस्त,निडर,बेबाक चाल थी कि मानों बाकी संसार उसके लिए कोई मायने ही नहीं रखता लेकिन हम डर से कई किलोमीटर तक सामान्य नहीं हो पाये। उसकी खूबसूरती हमेशा के लिए आँखों में बस गई।
यहाँ न सिर्फ़ तेंदुए बल्कि हिमालयन गोरल,कस्तूरी मृग, सीरो,जंगली बिल्ली,सूअर,नेवले की एक प्रजाति पाइन मार्टेन, लाल लोमड़ी, बड़ी उड़ने वाली गिलहरी, लंगूर,काकड़, काले भालू के अलावा भी और कई पशु पाये जाते हैं इसकी पूरी जानकारी आप म्यूजियम से प्राप्त कर सकते हैं।
पूरे जंगल में घूमते समय आपको टिट/ चंदुल चिड़िया की कुहुक मोहती रहेगी इसके अलावा यहाँ उत्तराखंड का राज्य पक्षी मोनाल, फोर्कटेल,श्यामा पक्षी, यूरेशियन पक्षी, तोते,चीलें,कठफोडवा,फाख्ता जैसे कुछ अत्यंत दुर्लभ 200 प्रकार की प्रजातियों के पक्षी मिलते हैं। इसे महत्वपूर्ण बर्ड एरिया (IBA) घोषित किया गया है सो बर्ड वाचिंग भी यहाँ सबसे बढ़िया होती है। धूप निकलते ही जंगल में रंगबिरंगी सैकड़ों तितलियाँ आपके चारों तरह घूमती कुछ देर तक आपका मनोरंजन कर सकती हैं और आपकी इस यात्रा को अविस्मरणीय बना सकती हैं। ऐसे में कैमरा याद नहीं रहता इंसान प्रकृति के जादू में खो जाता है और उसके बाद जादू ये जा,वो जा!!
यहाँ खली स्टेट नाम से एक खूबसूरत हेरिटेज होटल है जिसे सर हेनरी रामसे जो कि कुमाऊँ के कमिश्नर थे और ब्रिटिश इतिहासकर उन्हें कुमाऊँ के राजा के तौर पर संबोधित करते हैं ने ये बंगला बनवाया था। ये बंगला उनका घर तथा कार्यालय दोनों हुआ करता था। अब हेरिटेज होटल है। इसमें विजय लक्ष्मी पंडित भी रहा करती थीं और इन्दिरा गांधी,जवाहर लाल तथा महात्मा गांधी भी आए थे।
आम पर्यटकों के रहने की भी अच्छी व्यवस्था है बस अग्रिम बूकिंग अवश्य करा लें। बिनसर आप कई तरीकों से देख सकते हैं। चाहे तो खुद रहने की बुकिंग करा कर अपने वाहन से चले जाएँ या जंगल ट्रैक,जीप सफारी जैसे पैकेज बुक करें। आप सबसे खूबसूरत याद बनाना चाहें तो करीब 17 किलोमीटर की हाइकिंग पर जाएँ।
प्रवेश पूर्व आपको टिकट लेना होगा। टिकट गेट पर लगा सूचना पट्ट ध्यान से पढ़ें क्योंकि ये कोई पिकनिक स्पॉट नहीं बल्कि जीव संरक्षण अभ्यारण है। छोटी सी लापरवाही भारी पड़ सकती है। टिकट स्पॉट गेट से 10 किलोमीटर बाद बिनसर में रहने खाने के होटल-ठिकाने मिलेंगे। अपना सामान रखिए और वहाँ से करीब पैदल चलकर 3 किलोमीटर दूर आपको जीरो पॉइंट मिलेगा जहां का सूर्यास्त और सूर्योदय दोनों लाजवाब हैं। जीरो पॉइंट पर एक ऊंचा मचान बनाया गया है और इसकी सीढ़ियाँ चढ़ते ही आप जो नजारे देखते हैं वो आजीवन याद रहते हैं बस कोहरा या बादल न हों। लेकिन हमने वही सूर्यास्त 35 किलोमीटर दूर जाकर अपने घर अल्मोड़ा के आँगन से देखा। हम सुबह 9 बजे जाकर शाम 6-7 बजे तक घर लौट आए थे।

खर्च का ब्योरा नहीं दिया जा रहा क्योंकि ये यात्रा कोरोना पूर्व की है और अब नियम,ख़र्च में बदलाव आए होंगे।

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शशि काण्डपाल

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