कहानी समकालीनः ईश्वर अगर है तो -डा. रमाकांत शर्मा

किशोरवस्था में वे अपने खाली समय में यहीं इसी बांध के पास इन्हीं पत्थरों पर आकर बैठ जाते थे। यहीं बैठ कर वे तीनों स्कूल, टीचरों, खेलों, टीवी सीरियलों, नई रिलीज हुई पिक्चरों और अपने भविष्य की बातें करते या उन किताबों पर बहस करते जिन्हें उन्होंने हाल ही में पढ़ा था। उन्हें इस सब में अनोखा आनंद मिलता था। यह आनंद ही उन्हें एक-दूसरे से बांधे रखने की मजबूत कड़ी बना हुआ था।
उस दिन जब वे वहां इकट्ठे हुए तो थोड़ा उदास थे। समय कितनी जल्दी गुजर गया था। उन तीनों ने ही बारहवीं क्लास पास कर ली थी और अब उन्हें आगे की पढ़ाई करने के लिए अलग-अलग शहर चले जाना था। पता नहीं वे फिर कब मिलेंगे या मिलेंगे भी या नहीं, यह बात तीनों को अंदर ही अंदर साल रही थी। उन्हें पता था कि जो भी लोग आगे की पढ़ाई के लिए यह कस्बा छोड़कर गए थे, पढ़ाई पूरी करने के बाद नौकरी के चक्कर में उन्हीं शहरों में या फिर किसी और शहर में बस गए थे।
वे तीनों एक-दूसरे को दिलासा दे रहे थे। पहले ने कहा था – “चिंता क्यों करते हो यार, ईश्वर हम तीनों को एकसाथ फिर मिलाएगा।“
दूसरे ने कहा था – “छोड़ो यार, कहां है ईश्वर। किस कोने में छुपा बैठा है वह। अगर वह होता तो कहीं दिखाई तो देता।“
उसने तो यह बात बस यूं ही कह दी थी, पर इस पर जबरदस्त बहस छिड़ गई कि अगर ईश्वर है तो फिर वह दिखाई क्यों नहीं देता। पहले ने कहा था – “दिखाई तो देता है, पूरी धरती, आकाश और पाताल तक में जो सौंदर्य बिखरा है, वही तो उसका प्रतिरूप है।“
दूसरे ने उससे सहमति तो जताई, पर कहा – “चलो, हम तो इस सबको देख रहे हैं, इसलिए कह सकते हैं कि इस रूप में ईश्वर हमारे सामने है, पर कोई जन्मांध जो इस सबको देख नहीं देख सकता, तुम्हारी बात पर कैसे और क्यों विश्वास करेगा?”
तीसरा उन दोनों की बात बहुत ध्यान से सुन रहा था। उसने अपनी बात रखते हुए कहा – “गीता में लिखा है कि जब-जब धर्म की हानि होती है, वह अवतार लेता है। राम, कृष्ण, ईसामसीह, गुरुनानक और अन्य कितने ही रूप में ईश्वर इस धरती पर अवतरित हुआ है। मोहम्मद साहब को उन्होंने अपने पैगंबर के रूप में धरती पर भेजा। एक जन्मांध भी रामायण, गीता, बाइबिल, गुरुग्रंथ साहब और कुरान सुनकर इस सृष्टि के स्वामी के स्वरूप को समझ सकता है। बताओ, मैं गलत कह रहा हूं क्या?”
पहले और दूसरे ने उसकी बातों पर गौर किया, पर उनका समाधान नहीं हो पाया। वे इस बात से सहमत नहीं हो पा रहे थे कि अगर ये सब भगवान थे तो फिर मनुष्यों की तरह मर क्यों गए। भगवान को तो अजर, अमर और सर्वव्यापी कहा जाता है। अगर ईश्वर है तो मंदिरों, मस्जिदों, चर्चों और गुरुद्वारों जैसी जगहों में चलता-फिरता और हमसे बातें करता क्यों नहीं दिखाई देता।
दूसरे ने तर्क दिया – “कहते हैं, ईश्वर तो हमारे अंदर ही बैठा है, बल्कि हम सब ईश्वर का ही अंश हैं तो खुद को शीशे में देख लो ईश्वर दिख जाएगा।“
पर, पहला और तीसरा दोनों उससे बिलकुल सहमत नहीं थे। अगर ईश्वर हमारे अंदर बैठा है तो हमारे मन में बुरे विचार क्यों आते हैं? क्यों लोग बेईमानी, लूट, डकैती, हत्या और ऐसे ही जघन्य अपराध करते हैं? कैसे मान लें कि हमारा रूप ही भगवान का रूप है?
मजाक में शुरू हुई बात गंभीर रुख अपना चुकी थी। इसे हलका बनाते हुए दूसरे ने कहा था – “छोड़ो यार, हम भी कहां की बात ले बैठे। ईश्वर के स्वरूप को जब हिमालय में घोर तपस्या करने वाले ऋषि-मुनि नहीं समझ पाए तो हम किस खेत की मूली हैं। चलो, हमें बहुत सी तैयारियां करनी हैं, हमें निकलना चाहिए। ईश्वर है या नहीं, यह तो हम नहीं जानते, पर इस बात का वादा कर सकते हैं कि जिंदगी में कम से कम एक बार तो हम तीनों एकसाथ मिलेंगें और हमारे मिलने की जगह यही होगी।“
आज करीब सात वर्ष बाद ऐसा मौका आया था जब वे तीनों एकसाथ फिर वहीं उन्हीं पत्थरों पर बैठे थे। उनमें से एक लेक्चरर, दूसरा इंजीनियर और तीसरा व्यवसायी बन गया था। तीनों बहुत गर्मजोशी से मिले थे और अपने-अपने गुजरे समय के बारे में एक-दूसरे को बहुत उत्साह से बता रहे थे। हर कोई चाहता था कि वह सात वर्षों के अपने अनुभवों को क्षण भर में दूसरों के साथ बांट ले। कुछ ही देर में वे चुका हुआ महसूस करने लगे और उनके बीच चुप्पी छा गई।
तभी पहले ने कुछ क्षणों की उस चुप्पी को तोड़ते हुए कहा – “याद है, जब हम आज से सात वर्ष पहले यहां बैठे हुए थे तब ईश्वर के अस्तित्व और उसके स्वरूप पर चर्चा कर रहे थे। आज जब सोचता हूं तो इस बात पर हैरत होती है कि उस कच्ची उम्र में हम उस गंभीर विषय पर कितनी गंभीरता से सोच रहे थे। हर कोई ईश्वर के बारे में बातें करता है, उसे मानने वाले भी और न मानने वाले भी। पर, कभी सोचा है कि जब भी कोई मुसीबत में होता है तब वह जाने-अनजाने भगवान से क्यों प्रार्थना करने लगता है? क्यों उसे लगता है कि बस वही आखिरी सहारा है। इन सात वर्षों में ऐसे अनेक अवसर आए हैं, जब गाढ़े समय में मैंने ईश्वर को याद किया है और स्वयं को उनके बहुत नजदीक महसूस किया है।“
दूसरा बोला – “तुम सच कह रहे हो। ऐसे अवसर मेरे जीवन में भी आए जब मैंने ईश्वर के अस्तित्व को और उनकी शक्ति को महसूस किया।“ उसकी बात खत्म होने से पहले तीसरे ने भी यह माना कि उसके अनुभव भी उनसे अलग नहीं हैं।
पहला बोला – “मैं तुम्हें अपना एक ऐसा ही अनुभव सुनाता हूं। तुम्हें तो पता है, मैं एक ट्रेनिंग कॉलेज में पढ़ाता हूं। उस दिन मेरा सुबह दस बजे एक ऐसे कार्यक्रम में लेक्चर था जिसमें सभी प्रशिक्षणार्थी बाहर के शहरों से आए थे और कॉलेज के हॉस्टल में ठहरे हुए थे। मेरा घर कॉलेज से बहुत पास तो नहीं था पर बीच की एक शॉर्टकट गली से मैं पैदल ही वहां आया-जाया करता था। उस दिन मैं ठीक समय पर घर से निकला। अभी उस गली में पहुंचा ही था कि अक्समात् बादल घिर आए और घनघोर बारिश होने लगी। कड़कती बिजली और तेज बारिश से बचने के लिए मैं तुरंत ही पास के एक अधबने मकान में घुस गया। दूर-दूर तक कहीं कोई नजर नहीं आ रहा था।
लेक्चर का समय होता आ रहा था। छाता न लाने के लिए मैं खुद को कोस रहा था। हॉस्टल में ठहरे सभी प्रशिक्षणार्थी क्लास में पहुंच चुके होंगे, यह सोच-सोच कर मेरा तनाव बढ़ता जा रहा था। कॉलेज तक जाने के लिए तुरंत निकल पड़ने का मतलब पूरी तरह भीग जाना और कीचड़ में सन जाना था। इस स्थिति में लेक्चर लेना कैसे भी संभव नहीं था। उस सूनी गली में किसी खाली टैक्सी के निकल आने की झूठी आशा लिये बेबस सा खड़ा था। उस अधबने मकान में मैं जिस जगह खड़ा था, वहां तक किसी की नजर जाना और मुझे देख पाना भी लगभग असंभव था। पता नहीं कब मेरी आंखें बंद हुईं, हाथ प्रार्थना के लिए जुड़े और मैं स्वयं को भूल कर ईश्वर से मदद के लिए प्रार्थना करने लगा। उधर बारिश थमने या कम होने के बजाय और तेज होती जा रही थी। मैं बेखबरी में उस अज्ञात शक्ति से प्रार्थना कर रहा था – हे भगवान, बस कुछ देर के लिए बारिश रोक दो।
कुछ क्षण डूबकर प्रार्थना करने के बाद जब मैंने आंखें खोलीं तो देखा उस अधबने मकान के बाहरी हिस्से में बने लोहे के छोटे से दरवाजे को पार कर एक आदमी, बारिश के धुंधलके में जिसका चेहरा दिखाई नहीं दे रहा था, बड़ा सा छाता लिये मेरी तरफ चला आ रहा था। आते ही बोला – “आपको कहां जाना है? आइये मैं पहुंचा देता हूं।“
“मैं समझ नहीं पाया कि उस अंधेरी और बारिश में दूर से न दिखाई देने वाली जगह पर मैं उसे कहां से नजर आ गया था और उसे कैसे पता था कि मैं कहीं जाने के लिए वहां खड़ा बेचैनी से बारिश के रुकने का इंतजार कर रहा था। लेकिन, सोचने का वक्त नहीं था। मैं उस बड़े से छाते में उसके साथ हो लिया। उसने एक हाथ से छाता पकड़ा हुआ था और दूसरे हाथ से मुझे पकड़ कर अपने पास खींच लिया ताकि बारिश के छींटों से मैं बच सकूं।
कॉलेज वहां से ज्यादा दूर नहीं था। धीरे-धीरे चलते हुए कुछ ही देर में हम कॉलेज पहुंच गए। कॉलेज के प्रवेश द्वार के अंदर छोड़कर वह मुड़ा और बिना कुछ कहे उस बारिश में तेजी से चलता चला गया। मेरी पैंट के पांयचे ही कुछ गीले हुए थे, बाकी मैं पूरा सूखा खड़ा था। उसे मैं धन्यवाद भी नहीं दे सका था। जब मैं क्लास में पहुंचा तब ठीक दस बज रहे थे। सोचता हूं, किसने मेरी प्रार्थना सुनी थी, कौन छोड़ गया था मुझे?
दूसरा बोला – “सच कह रहे हो तुम। मेरे साथ भी ऐसे कई वाकये हुए हैं। मैं एक छोटी सी घटना तुम्हें सुनाता हूं। मुझे एक जरूरी मीटिंग के लिए राजधानी जाना था, जिसकी अध्यक्षता स्वयं हमारे विभाग के मंत्री करने वाले थे। सुबह 10 बजे शुरू होने वाली उस मीटिंग में मुझे ही प्रेजेंटेशन करना था, इसलिए वहां पहुंचना और समय पर पहुंचना नितांत जरूरी था। बस से हमारे शहर से राजधानी तक का कुल तीन-सवा तीन घंटे का सफर था। इसलिए मैंने तय किया कि सुबह छह बजे की डीलक्स बस से निकल कर आराम से मीटिंग में शामिल हो जाऊंगा। मैंने उस बस में अपना रिजर्वेशन भी करा लिया।
सुबह तैयार होकर जब घर से बाहर निकला तब सवा पांच बज रहे थे। सर्दियों के दिन थे चारों ओर घुप्प अंधेरा छाया हुआ था। कड़कड़ाती सर्दी में शायद अभी लोगों की सुबह नहीं हुई थी। सड़क पर दूर-दूर तक कोई नजर नहीं आ रहा था। मैं यह देख कर परेशान हो गया कि चौराहे पर हमेशा खड़े रहने वाले रिक्शे या किसी अन्य सवारी का कहीं कोई नामोनिशान नहीं था। जैसे-जैसे समय गुजर रहा था, मेरा तनाव बढ़ता जा रहा था। थोड़ी देर इंतजार करने के बाद मैंने यह सोच कर पैदल ही चलना शुरू कर दिया कि रास्ते में कोई न कोई सवारी तो मिल ही जाएगी, पर काफी चलने के बाद भी कोई सवारी नजर नहीं आई।
बस छूटने में सिर्फ बीस मिनट बचे थे, अगर कोई रिक्शा मिल जाता तो मैं भाग-दौड़ कर बस पकड़ सकता था। मुझे पता था उसके बाद दो घंटे तक कोई सीधी बस नहीं थी जो मुझे मीटिंग के समय तक वहां पहुंचा दे। जगह-जगह रुक कर चलने वाली बसें तो चार-साढ़े चार घंटे का समय ले लेती थीं। नौकरी पर बन आने की संभावना से उस सर्दी में भी मेरे पसीने छूटने लगे थे। ऐसे में मैं भगवान से कातर स्वर में प्रार्थना करने लगा। मेरी आंखों में आंसू भर आए थे और मैं उनसे कह रहा था – हे भगवान, मेरी मदद करो। यह बस पकड़ना मेरे लिए बहुत जरूरी है, मेरी नौकरी का सवाल है, प्रभु।
तभी स्टेट रोडवेज की एक बस सनसनाती हुई मेरे पास से निकल गई। सुबह की उस खाली सड़क पर वह तेजी से जा रही थी। वह मुझसे लगभग सौ गज आगे निकल चुकी थी। मुझे उसकी टेल लाइटें दूर जाती नजर आ रही थीं। अचानक वे लाइटें मुझे पास आती नजर आने लगीं। मैं आंखें मल कर देखने लगा, वह बस उल्टी चल कर मेरी तरफ आ रही थी और कुछ ही क्षणों में मेरे पास आकर रुक गई। बस का कंडक्टर आधा दरवाजा खोल कर मुझसे पूछ रहा था – ‘बाबूजी, बस अड्डे जाना है क्या?’ मेरे हां कहते ही उसने दरवाजा पूरा खोल दिया और मैं यंत्रवत सा बस में चढ़ गया।
मेरे चेहरे पर सवाल देख कर कंडक्टर बोला – ‘बाबूजी, यहीं पास ही में रोडवेज का सर्विस सेंटर है। हमारी बस सर्विसिंग के बाद बस अड्डे जा रही है। सात बजे हमें नागौर के लिए निकलना है। आपको ड्राइवर साहब ने कंधे पर बैग लटकाए चलते देखा तो बोले शायद बाबूजी बस अड्डे जा रहे होंगे। इस सर्दी में तो कोई सवारी भी नहीं मिलेगी, चलो उन्हें ले लेते हैं। मेरे मना करने पर भी वह उल्टी गाड़ी चला कर आपके पास पहुंचे।‘ यह कह कर वह हंस दिया।
बस ने सात मिनट में बस अड्डे पहुंचा दिया। मैं उन दोनों को कुछ पैसे देना चाहता था, पर उन्होंने इनकार करते हुए कहा – ‘हम यहीं तो आ रहे थे। बिलकुल खाली बस में आपको भी ले आए तो कौन सी बड़ी बात हो गई।‘ मैं उन्हें धन्यवाद देकर बस से उतरा और अपनी बस की ओर भागा। मेरे बैठने के कुछ क्षणों बाद ही बस चल दी। आज तक मैं यही सोच रहा हूं कि रोडवेज बसों के ड्राइवर और कंडक्टर तो वैसे ही अपने व्यवहार के लिए बदनाम होते हैं। स्टॉप पर भी बस बड़े एहसान से रोकते हैं। फिर, सौ गज आगे निकल कर सिर्फ मुझे बैठाने के लिए बस को उल्टा चलाकर लाने की प्रेरणा उन्हें कहां से मिली होगी। यह बड़ी छोटी सी घटना है, पर ईश्वर के होने और उसे महसूस करने के लिए काफी है।“
तीसरा बोला – “तुम दोनों के अनुभव सचमुच हैरत में डालने वाले हैं। इन्हें सिर्फ संयोग कह कर दरकिनार नहीं किया जा सकता। मैंने शायद कभी इतनी शिद्दत से भगवान से प्रार्थना नहीं की। पर, मैं भी एक ऐसी ही घटना का गवाह जरूर बना हूं। मैं अपने व्यवसाय के संबंध में दूसरे शहर गया हुआ था और अपने रिश्तेदार के घर रुका था। उनका घर तीसरी मंजिल पर था। दोनों कमरों के आगे छतें फैली थीं। कमरों से कुछ हट कर एक ऊंचे से चबूतरे पर उनका रसोईघर था। चबूतरे के तीन ओर चौड़ी दीवार उठी थी, जिस पर आसानी से बैठा जा सकता था। गर्मियों के दिन थे। शाम को हम दीवार से बनी डौलियों पर बैठ जाते और वहीं रसोईघर से बन कर निकलते चाय-नाश्ते या फिर खाने का आनंद लेते।
उस रिश्तेदार का लगभग दस साल का एक लड़का था जो पतंगों का बहुत शौकीन था। उनकी छतों पर हर-दिन एक-दो पतंग कट कर आती ही थीं और वह उन्हें उड़ा कर मजे लेता था। उस दिन वह निराश था क्योंकि कोई पतंग कट कर उनकी छतों पर नहीं आई थी। मैंने उससे कहा चलो मैं तुम्हें बाजार से पतंग दिला लाता हूं तो उसने मना कर दिया। बोला- “देखना अंकल, कोई न कोई पतंग तो कट कर जरूर आएगी, रोजाना आती है।“
धीरे-धीरे शाम उतर आई और उसी के साथ हलका अंधेरा छाने लगा। आसमान से एक-एक कर सभी पतंगें उतर गईं। हम सभी रसोईघर की उस डौली पर आकर बैठ गए। वह लड़का भी डौली के दोनों ओर पैर लटका कर बैठा था। मुझे यह देख कर आश्चर्य हुआ कि उसके दोनों हाथ जुड़े थे, उसकी आंखें बंद थीं और वह जोर-जोर से भगवान से प्रार्थना कर रहा था – “हे भगवान, मम्मी कहती हैं तुम सब कुछ दे सकते हो। मैं तो तुमसे कब से बस एक पतंग ही मांग रहा हूं। रोज तुम इतनी सारी कटी पतंगें मुझे देते हो। आज बस एक पतंग दे दो न भगवान।“
भोलेपन में की जा रही उसकी यह प्रार्थना सुनकर वहीं आसपास बैठे हम सभी हंसने लगे। आकाश में कोई पतंग दिखाई नहीं दे रही थी और अंधेरा उतर आया था। पर, वह हमारी उपस्थिति और हंसी से बेखबर उसी तल्लीनता से प्रार्थना करता रहा। कुछ ही क्षणों में उसने आंखें खोलीं तो उसकी मम्मी ने उसके सामने खाने की प्लेट रख दी। वह चुपचाप खाने लगा।
कुछ मिनट ही गुजरे थे कि वह अपने बांए कान के पास हाथ ले जाकर उसे इस प्रकार हिलाने लगा जैसे मच्छर भगा रहा हो। तभी वह अचानक उठ कर खड़ा हो गया और बोला – ‘पापा-मम्मी देखो मेरे कान के पास डोर है, मैंने इसे पकड़ लिया है।‘ हम सभी चौंक कर उसकी ओर देखने लगे, उसके हाथ में सचमुच डोर थी और वह दोनों हाथों से पकड़ कर उसे खींच रहा था। डोर काफी लंबी थी, वह उसे खींचता जा रहा था और घूम-घूम कर छत पर फैलाता जा रहा था। हमारे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा जब कुछ ही क्षणों में उस डोर से बंधी एक पतंग नजर आई और वह खुशी से चींखते उस बच्चे के हाथों में आ समाई। ऐसा लगता था जैसे काफी ऊंची उड़ती पतंग किसी की चरखी में डोर खत्म हो जाने पर उसके हाथ से छूट गई थी और कहीं दूर से उड़ती हुई यहां आ गई थी। उसकी डोर ने ही उस लड़के के कान को छुआ था और उसने उसे पकड़ लिया था।
हम सभी हैरान थे। किसने उस अंधेरे में उस बच्चे के कान के पास पतंग की डोर छुआई थी। क्या उसके निश्च्छल मन से निकली प्रार्थना को उस सर्वव्यापी ने सचमुच सुना था?
पहला बोला – “यार कमाल की बात है, पिछली बार की तरह इस बार भी हम ईश्वर के होने या न होने की गंभीर बहस में उलझ गए हैं। हां, इस बार हम थोड़ा आगे बढ़ गए हैं। ईश्वर अगर है तो सामने क्यों नहीं आता की जगह हम यह बात कर रहे हैं कि कोई अदृश्य शक्ति है जरूर जो अपने होने का अहसास कराती रहती है।“
दूसरे ने कहा – “ इसी बात पर चलो, हम उससे सच्चे मन से प्रार्थना करते हैं कि वह हम तीनों को जल्दी ही एकसाथ फिर मिलाए।“
तीसरे ने उठ कर उन दोनों से हाथ मिलाते हुए कहा – “ईश्वर अगर है तो वह हमें अवश्य मिलाएगा।“
आदतवश कहे गए उसके इस वाक्य पर तीनों ठठा कर हंस पड़े और फिर से मिलने का दृढ़ विश्वास लिए वहां से उठ कर चल दिए।


डा. रमाकांत शर्मा,
402-श्रीराम निवास,टट्टा निवासी हाउसिंग सोसायटी,पेस्तम सागर रोड नं. 3, चेंबूर, मुंबई-400089
मोबाइल – 9833443274

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