माह की कवियत्रीः आतिया दाऊद


एटमी धमाका

सहाई मेरी बेटी
लता के गीत सुनते सुनते
सो रही है

ख्व़ाब में मुस्कराते न जाने क्या क्या सोच रही है

वह क्या जाने! हिन्द क्या है? सिन्ध क्या है?
कश्मीर की हसीन वादी पर
उड़ते परिन्दों का मज़हब कौन सा है?

नूरजहां किसकी और लता किसकी उत्तराधिकारी हैं

वह, न तो अख़बार पढ़ सकती है
और न टेलीविज़न की प्रचारी ख़बरें समझ सकती है
वह तो ‘डिश’ के जरिये माधुरी संग
हम रक्स हो जाती है

हिन्दू-पाक की सियासत से बेख़बर
हर वक्त शाहरूख़ खान से मिलने के
सपने देखती है

और आज ढोलक की ढम ढम पर
एटम बम की तस्वीर को नचाते देखकर
बाग़ों में फूलों के बीच
चाग़ी पहाड़ का मॉडल देखकर
पूछती है कि यह क्या है?

फूल पत्थर, खुशबू वाली
मौसीकी और एटम बम का आपस में
क्या रिश्ता है?

क़ादिर खान से ज़्यादा मुश्किल मेरा काम है

माँ के सीने से लफ़्ज़ों का होंठों तक का सफ़र पेचीदा है
हाँ, तुम जैसे करोड़ों मासूमों के
क़ीमे से बनता है चाग़ी का पहाड़

आशा और इक़बाल बानू की आवाज़
रेत बनकर उड़ती है
एटमी धमाका मुबारक
एटमी धमाका मुबारक
कहने वालों की आत्मा भी
सदियों तक रक्स करती रहेगी
हिरोशिमा और नागसाकी जैसी धरती पर!

चाइल्ड कस्टडी
कौन यह जानता था
लज़्ज़त के लम्हों में
मेरे वजूद में
औलाद का बीज बोने वाला
एक दिन मेरी झोली में,
मेरी नसों से ख़ून भींचकर
ज़िन्दगी का लुत्फ़ लेगा
मेरे ही वजूद का हिस्सा
मुझसे छीनकर अलग किया जायेगा
दर्द की इन्तहा से गुज़रकर
जो जीवन मैंने जिया है
अदालत के कटघरे में खड़े होकर
फैसला सुनने के लिये
मुझे अपने कान पराये करने पड़ेंगे
जनम से मुझे बताया गया था कि
अल्लाह की नाफ़रमानी करने पर
अज़ाब टूट पड़ेंगे
क़ब्र इतनी संकीर्ण बन जायेगी
जिस्म की हड्डियाँ भी चटक जायेंगी
बिच्छू, साँप, बलायें जिस्म से चिपके होंगे
मर्द की नाफ़रमानी के एवज़
बच्चे को बिना देखे
कितने सूरज बुझ गए हैं
ममता की जुदाई की क़ब्र में
ऐ खुदा! तुमने कभी झाँका है
तुम्हारी ओर से नाज़ल की गई
सभी आसमानी पन्नों में दर्ज
मुक़र्रर किये हुए अज़ाबों की व्याख्या
टीका बनकर, शर्मिंदगी के मारे
गर्दन झुकाए खड़ी है
अगर वो एक बार सर ऊपर उठाकर
माँ के नयनों में देखे
तेरी क़सम
ख़ाक बन जाये
तुम्हारी जज़ा और सज़ा से
वह माँ अब क्या डरेगी
जो कोर्ट के कटघरे तक पहुँचने के लिये
पुलीस, प्रेस और वकीलों के
गलीज़ वाक्यों के बिच्छुओं जैसे डंकों से
रूह तक डसी हुई है!


काश मैं समझदार न बनूँ
तजुर्बेकार ज़हन गर सब समझ जाये
ज़हन में सोचों को बंद करके
ताला लगा दूँ
चालाक आँखें जो सब कुछ ताड़ जाती हैं
उन पर लाइल्मी के शीशे चढ़ा दूँ
अपनी ही हसास दिल को
कभी गिनती में ही न लाऊँ
माज़ी की सारी तुलना और तजुर्बा
जो ज़हन पर दर्ज है
उसे मिटा दूँ
मेरी अक़्ल मेरे लिये अज़ाब है
काश, मैं समझदार न बनूँ!
तुम्हारी उंगली पकड़कर
ख्वाबों में ही चलती रहूँ
तुम्हारे साथ को ही सच समझकर
सपनों में उड़ती रहूँ
तुम जो भी मनगढ़ंत कहानी सुनाओ
बच्चे की तरह सुनती रहूँ
मेरे ज़हन को पतंग बनाकर
जिस ओर उड़ाओगे, उड़ती रहूँ
मेरी अक्ल मेरे लिये अज़ाब बनी
काश, मैं समझदार न बनूँ!

लाइल्मी-Ignorance / हसास-भावुक
सिंध की लेखिका- अतिया दाऊद

हिंदी अनुवाद –देवी नागरानी

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