बीते हुए दिन
एक मॉल में अचानक उसे देखकर मैं दंग रह गया और बिना एक क्षण गँवाए बोल पड़ा, ‘‘माला, तुम यहाँ… अचानक… इस शहर में और वह भी इतने वर्षों बाद ?’’
वह हँस पड़ी। उसके साथ चल रहा युवक हैरानी से हम दोनों को देखने लगा।
अपनी हँसी संभालते हुए वह बोली, ‘‘अंकल, मैं माला नहीं, उसकी बेटी अनामिका हूँ।’’
फिर उसने युवक से परिचय कराया, ‘‘इनसे मिलिए, ये मेरे पति राजीव हैं।’’
यह सुनते ही जैसे मुझे होश आया। मैं तो गलती से पैंतीस वर्ष पूर्व की अपनी युवावस्था में पहुँच गया था।
काम-धाम
प्लस-वन, प्लस-टू की डिंगी लाँघते हुए जैसे-तैसे खींच-खिंचाकर मनोहर सिंह कॉलेज के द्वार तक तो पहुँच गए पर उसे टाप नहीं सके और प्रथम वर्ष में ही कटी पतंग की तरह आम के गाछ में टंगा गए। फिर एक डेढ़ साल इधर-उधर धूल फाँका और अपने बाप का पैसा फाँकी मारते हुए यार- दोस्तों में उड़ाते रहे। अच्छी-खासी पुश्तैनी जमींदारी उसके वश की थी नहीं। सो, एक दिन बाबू जी ने लताड़ ही दिया, ‘‘रे मनोहरा, काहे को अपनी जिनगी मटियामेट करने पर तुला है। लौंडे-लपाड़ों के साथ जिनावर की तरह यहाँ-वहाँ मटरगश्ती करते फिरते हो। कुछ काम-धाम काहे नहीं कर लेता ? कल घर में बहूरिया भी आ जावेगी। कइसे पार लगेगा रे तेरा ? अबहूँ चेत ले। कुछ लाज-शरम बाकी रख छोड़े हो तो जा के बिनेसरिया से मिल लो। कहीं किसी नौकरी-चाकरी में टंगड़ी फँसवा देंगे। जमींदारी तो तोहरे से होने से रहा, उ तो हम देखबे कर रहे हैं।’’
मनोहर सिंह को बाबू जी की सलाह जंच गई। रिश्ते में बिंदेशरी काका इन दिनों मंत्री जी के खासमखास हैं। कहीं कोई नौकरी-वौकरी दिलवाना उनके बायें हाथ का खेल है। अतः सजधजकर एक दिन पहुँच गए राजधानी।
‘‘का रे मनोहरा, का हाल है तेरा ? देखते हैं खूबे रंग चढ़ा है तो पर। चीकन-चोपड़ हीरो बने फिर रहे हो। कहीं कोई फिलिम-विलिम में चांस तो नहीं मिल गया रे ?’’ बिंदेशरी काका ने पान का रसपान करते हुए उसे टिहोका।
‘‘अरे काका… आप भी लगे मजाक करने। फिलिम लाइन में आजकल कौन पूछता है ? शत्रुघन सिन्हा और धर्मेन्दर का टाइम कुछ और था। अब तो इस लाइन में भी साला भारी कंपटीशन है। उहाँ भी माँ-बाप का स्थान उनके बचवा लोगन के लिए आरक्षित है।’’
बात-बात में बेमतलब का ठहाका लगाने वाले बिंदशरी काका जब ग्राम-गंज का हालचाल पूछ बैठे तो मनोहर ने अपने आने की मंशा जाहिर की—
‘‘काका, हम आपके पास दरअसल नौकरी की खातिर आए हैं। आजकल आपकी मंत्री जी के साथ खूब छन रही है। कहीं एगो नौकरी दिलवा दीजिए ना… हमरी बेकारी के कारण बाबू जी भी बहुते कुढ़े हुए हैं हम पर।’’
‘‘लो, इ भी कोई कहने की बात है ? कितना पढ़े हो ?’’
‘‘बस काका, कॉलेज का मुँह देखबे किए हैं । पढ़ाई-वढ़ाई अब होने से रहा।’’
‘‘ठीक है, ठीक है। काहे चिंता करते हो। दो-एक दिन में किसी बढि़या प्राइवेट फरम में चेप देते हैं तेरे को…’’
सुनकर मनोहर सिंह हड़बड़ा गया। वह बीच में ही फट पड़ा—-
‘‘ना-ना काका, काम-वाम अपने वश का नहीं। हमरा खातिर कवनो सरकारी नौकरी देखिएगा…’’
अपना-अपना धर्म
मुहल्ले में माली का काम करने वाला अधेड़ रामासरा शहतूत की पेड़ की बेतरतीब बढ़ी शाखाओं को काट रहा था ताकि मकान में रहने वाले लोगों को आने वाली ठंड में पर्याप्त धूप मिल सके। तभी बगल के मकान से एक महिला निकली और उस से पूछा, ‘‘हमारे घर के पिछवाड़े जमे पीपल की कुछ टहनियाँ काट दोगे ?’’
‘‘हम पीपल नहीं काट सकते बीबी जी। किसी मुसलमान से कहिए, वह काट देगा।’’
‘‘तुम्हारी जान-पहचान का है कोई?’’
‘‘हमारी जान-पहचान का तो कोई नहीं, पर कूड़ा उठाने वाले से कहिएगा, वह मुसलमान है।’’
दोपहर कसे घर-घर से कूड़ा इकट्ठा करने वाले व्यक्ति से उस महिला ने गुजारिश की, ‘‘भइया, हमारे पीछे एक पीपल का पेड़ है। उसकी कुछ शाखाएं हमारे घर की ओर झुक रही हैं, उन्हें काट दोगे क्या?’’
‘‘माली तो काटता रहता है पेड़ों की टहनियाँ। उससे क्यों नहीं कहतीं?’’
‘‘वह कहता है कि हिंदू होने के कारण वह नहीं काट सकता।’’
‘‘तो हम भला कैसे काट सकते हैं बीबीजी। ज़रा आप ही सोचिए।’’कहकर कूड़ेवाला दूसरे मकान की ओर बढ़ गया।
अखबार में चिपकी चीखें
इस शहर के एक फ्लैट में वह रहता था। एक निजी फर्म में अच्छी-भली नौकरी करने के साथ-साथ फोटोग्राफी का भी बेहद शौक था उसे। कैमरे से उतारे गए उसके कलात्मक चित्रों की कुछ प्रदर्शनियाँ भी लग चुकी थीं। पुरस्कृत भी हुआ था और एक अलग पहचान बन गई थी उसकी। उसके छाया-चित्र पत्र-पत्रिकाओं की शोभा बढ़ाते रहे हैं।
आज मुँह अंधेरे वह कैमरा संभाले अपनी कार से लगभग डेढ़ सौ किलोमीटर दूर एक दूसरे ऐतिहासिक शहर में पहुँचा ही था कि धरती काँप उठी। बहुमंजिला मकान, आसमान को छूती ऐतिहासिक मीनारें और शिखराकार मंदिर उसकी आँखों के सामने हवा में डोलते नज़र आने लगे। उसके लिए यह एक अद्भुत मंजर था। अगले पल क्या होने वाला है, इससे बेखबर वह खुद भी काँपता हुआ कैमरे को क्लिक करता चला गया। थोड़ी ही देर में कैमरे की आँख के सामने मकान ताश के पत्तों की मानिन्द बिखरने लगे। वह मूर्त्तिवत् कैमरे का बटन दबाता रहा। चारों ओर से उठी लोगों की चीख-पुकार के साथ मलबों में बदलते मकानों की तस्वीरें उसके कैमरे में समाते चले गए। फिल्म की रील खत्म होने पर उसकी चेतना लौटी तो पाया कि अचानक आए भूकम्प ने उसके आस-पास बहुत कुछ लील लिया है।
अपने शहर में लौटकर उसने फिल्में प्रिंट करायीं और उनमें से कुछ तत्क्षण स्थानीय एक समाचार-पत्र में दे आया।
दूसरे दिन के समाचार-पत्र में उसके छाया-चित्र मुखपृष्ठ पर विशेष रूप से छपे थे। मलबों के नीचे दबे और चीखते-पुकारते लोग समाचार-पत्र में रंगीनी से चिपके पड़े थे।सुबह-सुबह अपने कमरे में बैठा वह इन हृदय विदारक चित्रों को आतंक की की स्थिति में निहार रहा था कि फोन की घंटी घनघना उठी। फोन पर उसके द्वारा उतारे गए चित्रों की माँग थी। उसे एक के बाद एक फोन निरंतर आते रहे। उसने सबसे एक ही बात कही—– ‘दस बजे आकर फोटो ले जाँय।’
दस बजे उसके कमरे में कई लोग जमा थे। उसके द्वारा खींचे गए रंगीन छाया-चित्र एक मेज पर बेतरतीब पड़े हुए थे और गले में फंदा लगी उसकी देह पंखे से झूल रही थी।
चमत्कार
नशा-विरोधी संस्था के संयोजक हरिमोहन जी ने एक कार्यक्रम आयोजित किया ताकि लोगों को नशे के दुष्परिणाम के प्रति जागरूक किया जा सके, उन्हें नशे से होनेवाली मानसिक और शारीरिक हानियों से अवगत कराया जाय। इस कार्यक्रम में उन्होंने विशेष अतिथियों को भी आमंत्रित किया, जिनमें हरिमोहन जी के एक पुराने मित्र भी थे जो इन दिनों राज्य में एक मंत्री-पद को सुशोभित कर रहे थे।
मंत्री जी ने नशे के विरोध में बड़ा सारगर्भित और लोगों को प्रभावित करने वाला भाषण दिया। बार-बार बजती तालियों की गड़गड़ाहट इस बात का संकेत दे रही थी।
संध्या समय अपने मंत्री-मित्र के सम्मान में हरिमोहन जी ने उन्हें अपने घर पर दावत दी। भोजन के दौरान हरिमोहन जी ने कहा, ‘‘यार, तुम्हारे कारण कार्यक्रम अत्यन्त सफल रहा। नशे के विरोध में दिए गए तुम्हारे भाषण ने अन्त तक लोगों को बाँधे रखा।’’
मंत्री महोदय चुपचाप मुस्कुराते रहे। अब वे अपने मित्र को कैसे बताएँ कि यह भी नशे का ही चमत्कार था। मंच पर पहुँचने के पूर्व ही वे दो-तीन पैग ले चुके थे।
रतनचंद ‘रत्नेश’
जन्मः 20 अगस्त 1958
प्रकाशित पुस्तकें : – सिमटती दूरियां (कहानी-संग्रह ), एक अकेली (कहानी-संग्रह ), झील में उतरती ठंड (कहानी-संग्रह)
– उन्नीस-बीस (लघुकथा-संग्रह )
– बचपन (बालगीत)
– बांग्ला की श्रेष्ठ कहानियां (अनुवाद)
– पेड़ और मनुष्य (अमर मित्र की बांग्ला कहानियों का अनुवाद)
– जेल में तीस वर्ष (बांग्ला से अनुवाद)
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