जा तेरे स्वप्न बड़े हों।
भावना की गोद से उतर कर
जल्द पृथ्वी पर चलना सीखें।
चाँद तारों सी अप्राप्य ऊचाँइयों के लिये
रूठना मचलना सीखें।
हँसें
मुस्कुराएँ
गाएँ।
हर दीये की रोशनी देखकर ललचायें
उँगली जलाएँ।
अपने पाँव पर खड़े हों।
जा तेरे स्वप्न बड़े हों।
घंटियों की आवाज़ कानों तक पहुँचती है
एक नदी जैसे दहानों तक पहुँचती है
अब इसे क्या नाम दें, ये बेल देखो तो
कल उगी थी आज शानों तक पहुँचती है
खिड़कियां, नाचीज़ गलियों से मुख़ातिब है
अब लपट शायद मकानों तक पहुँचती है
आशियाने को सजाओ तो समझ लेना,
बरक कैसे आशियानों तक पहुँचती है
तुम हमेशा बदहवासी में गुज़रते हो,
बात अपनों से बिगानों तक पहुँचती है
सिर्फ़ आंखें ही बची हैं चँद चेहरों में
बेज़ुबां सूरत, जुबानों तक पहुँचती है
अब मुअज़न की सदाएं कौन सुनता है
चीख़-चिल्लाहट अज़ानों तक पहुँचती है
लफ़्ज़ एहसास-से छाने लगे, ये तो हद है
लफ़्ज़ माने भी छुपाने लगे, ये तो हद है
आप दीवार उठाने के लिए आए थे
आप दीवार उठाने लगे, ये तो हद है
ख़ामुशी शोर से सुनते थे कि घबराती है
ख़ामुशी शोर मचाने लगे, ये तो हद है
आदमी होंठ चबाए तो समझ आता है
आदमी छाल चबाने लगे, ये तो हद है
जिस्म पहरावों में छुप जाते थे, पहरावों में-
जिस्म नंगे नज़र आने लगे, ये तो हद है
लोग तहज़ीब-ओ-तमद्दुन के सलीक़े सीखे
लोग रोते हुए गाने लगे, ये तो हद है
मेरे स्वप्न तुम्हारे पास सहारा पाने आयेंगे
इस बूढे पीपल की छाया में सुस्ताने आयेंगे
हौले-हौले पाँव हिलाओ जल सोया है छेडो मत
हम सब अपने-अपने दीपक यहीं सिराने आयेंगे
थोडी आँच बची रहने दो थोडा धुँआ निकलने दो
तुम देखोगी इसी बहाने कई मुसाफिर आयेंगे
उनको क्या मालूम निरूपित इस सिकता पर क्या बीती
वे आये तो यहाँ शंख सीपियाँ उठाने आयेंगे
फिर अतीत के चक्रवात में दृष्टि न उलझा लेना तुम
अनगिन झोंके उन घटनाओं को दोहराने आयेंगे
रह-रह आँखों में चुभती है पथ की निर्जन दोपहरी
आगे और बढे तो शायद दृश्य सुहाने आयेंगे
मेले में भटके होते तो कोई घर पहुँचा जाता
हम घर में भटके हैं कैसे ठौर-ठिकाने आयेंगे
हम क्यों बोलें इस आँधी में कई घरौंदे टूट गये
इन असफल निर्मितियों के शव कल पहचाने जयेंगे
हम इतिहास नहीं रच पाये इस पीडा में दहते हैं
अब जो धारायें पकडेंगे इसी मुहाने आयेंगे
दुष्यंत कुमार