सच कहूँ तो यह कहानी कहाीं की भी हो सकती है , दुनिया के किसी भी कोने की, जहाँ लोग लड़ रहे हैं जीने को। मर रहे हैं बेवजह ही, अपनी ही बेबस छटपटाहट में। कभी खुद अपनी, तो कभी दूसरे की क्रूरता के शिकार हो रहे हैं, भूलकर कि जिन्दगी खूबसूरत है और जीने के लिए है, विनाश के इस निरंतर के तांडव को नहीं।
परिस्थितियों और उनकी असह्य जटिलता, न बुझने वाली भूख से लड़ता इन्सान शीघ्र ही संवेदनाहीन और पत्थर का हो जाता है। और औरतों को तो कई बार घर से बाहर तक जाने की जरूरत नहीं पड़ती। बेहद साधारण और घरेलू …एक बेदखल जिन्दगी जीते-जीते भी तरह तरह के दबाव हैं इन्हें संज्ञा शून्य कर देने को। पर उनसे कोई खबर नहीं बनती और ना ही इन घटनाओं से कोई विचलित ही होता है सुन या पढ़कर। इतने आदी हो चुके है हम इनके प्रति बर्बरता के।…
काश्मीर में उसका भी एक गांव था, जहाँ उम्र भर रही थी वह, पर कभी जान नहीं पाई कि उसका अपराध क्या था, कि वह भारत की थी या फिर पाकिस्तान की ?…बस कैसे भी जिन्दा ही तो थी वह आज पाषाणी बनी, गौरा और शबनम दोनों को ही अपने अंदर संजोए-संभाले हुए। जी भरकर जी पाए इतना तो जिन्दगी ने कभी मौका ही नहीं दिया। बस जीती रही थी वह, कैसे भी जरूरतों को पूरा करती, जिम्मेदारियाँ निभाती, दूसरों के सपने और ख्वाइशों को ही अपना मानती और जानती। खुद जिन्दगी ने अपनाया ही नहीं उसे।
सुना है धरती और नारी दोनों के अंतस में आग रहती है, जो हर हाल में जिन्दा रखती है इन्हे। पर एकदिन अचानक ही यह आग बुझ जाए तो, …पर यहीं तो कहानी है हमारी पाषाणी की भी… जो पाषाणी नहीं गौरा थी कभी, फिर शबनम नाम मिला उसे और फिर… पर यह बात इतनी भी तो पुरानी नहीं कि हम इसे भूल जाएँ।
…
उसका गांव उसकी नज़र में दुनिया का सबसे खूबसूरत गांव था…कहने को तो धरती पर स्वर्ग, पर हमेशा ही एक आग में धधकता… जहाँ पर किसी भी बात की आजादी नहीं, बस बन्दूकों का असंतुष्ट शोर ही था चारो तरफ… कभी किसी बहाने तो कभी किसी बहाने।
पर उसके लिए तो वह जीवन भी सामान्य ही था, क्योंकि वह गांव ही सबकुछ था उसका और रहता भी…अगर एकदिन अचानक ही सब बदल न जाता।…
धांय-धांय…दो गोलियों की ही आवाज सुनी थीं उसने और किसी बड़े अनिष्ट की आशंका से कांपती, बावरी-सी दौड़ी बाहर दरवाजे पर आ खड़ी हुई थी वह। कंधे पर दुपट्टा नहीं, पैरों में जूती नहीं…फटी-फटी आँखें और बिखरे-बिखरे बालों संग , बदहवास, किसी बड़े अनिष्ट की आशंका से डरती-कांपती-सी ।
अभीतक तो जैसे-तैसे बचाकर रखा था उसने अपनी छोटी-सी दुनिया को…खुद को और अपने शौहर को इन राजनीतिक और धार्मिक तूफानों से, पर लगता है आज सब भरभाकर बिखरने वाला था… दोबारा। और वह भी उसकी भयभीत आँखों के आगे।
क्षोभ, क्रोध और भय के साथ घटनाओं के इस आकस्मिक सैलाब में टिके रहना जब असंभव हो चला तो दरवाजे की चौखट से फालिज मारी-सी खड़ी पल भर को तो हक्की-बक्की-सी देखती ही रह गई थी वह, मानो कांच के बुरादे से मुंह भर गया हो। एकबार फिर बचने के सारे रास्ते छीन लिए गए थे उससे। धमाकों की वह अनिष्टकारी आवाज सड़क के उस पार से नहीं, उसके अपने दरवाजे पर थी इसबार और खुद उसकी अपने घर की छत ही नहीं, होशो-हवास तक ले उड़ी थी । मदद के लिए चीखना चाहा तो भय और दुःख ने टेटुआ भींच दिया। फिर मदद भी किससे और कैसी…बन्दूक ताने और काले कपड़े से मुंह छुपाए वे लड़के अड़ोस-पड़ोस के ही तो थे, शायद यही सच था…लड़के कल तक जो उससे पढ़ने आते थे, उसे शब्बो काकी कहते नहीं अघाते थे।
उसी की तरह हालात का का मारा था शाहिद भी , अनाथ और अकेला पर बेहद सहनशील और समझदार, एक कोमल मन का मालिक। किसी के रगड़े-झगड़े में नहीं । बस अपने काम से काम। पर दूसरों की मदद को हरदम तैयार। विश्वास रहा है उसे शाहिद पर हमेशा उस छोटी-सी उम्र से ही। फिर उसके साथ ही ऐसा क्यों… शाहिद ने तो कभी किसी को निराश नहीं किया । किससे मदद मांगे, कैसे अब वह उसका सहारा, बुझते जीवन दीप का तेल बने इस कठिन और कठोर पल में…परिस्थितियाँ वाकई में भयावह थीं। वक्त नहीं था उसके पास । घायल शाहिद को तुरंत उपचार चाहिए था। बेहद असमर्थ, असहाय और अकेली महसूस कर रही थी शब्बो उन दरिंदों के आगे। बिना शाहिद के तो कुछ भी संभव ही नहीं अब उसके जीवन में, इतनी आदत पड़ चुकी थी उसे शाहिद की। वही तो था उसकी ढाल और तलवार। और शौहरों से अलग, हिम्मती और धैर्यवान । कोई जोर-जबर्दस्ती नहीं की कभी उसके रहन-सहन या जीने और सोच के तरीके पर। मन से इज्जत- आदर करता था हर धर्म, हर इन्सान की। चूनर उढ़ाना और बात है और तन-मन दोनों से ही जुड़ जाना कुछ और…वरना आज इस तरह से यूँ न छटपटा रही होती वह उसके इस लाल बहते दर्द के दरिया में।
सबके सामने अपनी व्याहता कहकर मिलवाया था शाहिद ने उसे जमात से। वलीमा बगैरह सब हुआ था। उसकी चूनर ओढ़ ली है और अब उसके घर में ही रहेगी , ऐसा भी कहा था सबसे। और अब वही देखभाल भी करेगा उसकी, यह भी। आज के आगे वह सिर्फ उसकी और उसी की जिम्मेदारी है, बहुत प्यार और आश्वासन के साथ उसकी तरफ देखते हुए बताया था शाहिद ने सभी को बारबार।
किसी को कोई एतराज भी नहीं हुआ था तब गरीब मुसलमान लकड़हारे के इस एलान से।
शायद उसी दुस्साहस की यह सजा दी है आज, खुद उसकी अपनी जात बिरादरी ने उसे यूँ चालीस साल बाद और नकाब पोश वे खूनी दरिंदे उनमें से ही थे या फिर बाहर कहीं और से आए थे, वाकई में नहीं जान पा रही थी वह।
पर तबतो मौलवी साहब ने सबके सामने उसकी डबडबाती आँखों को देखकर एक नया खूबसूरत-सा नाम दिया था उसे-‘शबनम’। और प्यार से हाथ भी फेरा था उसके सिर पर !
शब्बो को भी कोई एतराज नहीं था उन परिस्थियों में इस नए नाम से…फूलों पर कांपती शबनम को जब-जब देखती, तो आंचल में भरकर सीने से लगाने लगजाती। मानो उसने खुद अपनी आंखेों के सारे आँसू पोंछ डाले हो, मानो उन दोनों की पहचान ही नहीं , सुख दुख भी साझे हों चुके थे अब… सबकी आंखों के आगे चमकते-कांपते रहते फिर भी अनाम और अर्थहीन तो थे वे अश्रुकण, तभी तो देखने वाला सब जान-समझकर भी चुपचाप अनदेखा करता-सा बगल से निकल जाता है। संभलना और बहलना तो खुद ही पड़ता है।
फिर , क्या रखा है इन नामों में, चाहे उसे गौरा पुकार लो या फिर शबनम ही कह लो!
समझा ही लिया था उसने खुद को कैसे भी। जान चुकी थी कि वह तो वह ही रहेगी हमेशा, पुकारने मात्र से तो बदल नहीं जाएगी। फिर खुदको खुद रखना खुद हमारे अपने हाथ में है , दूसरों के तो नहीं। और इस तरह से बिल्कुल सड़क के किनारे-किनारे खिलते इन खूबसूरत नरगिस के पूलों की तरह ही वह भी जीती रही थी, हर दुख में भी हँसती-मुस्कुराती। हर आँधी-पानी को अपनी पूरी सामर्थ से झेलती। दूसरे मुल्क और दूसरी भाषाओं में इनके भी तो जाने क्या-क्या और-और नाम हैं, बाबा बताया करते थे उसे बचपन में, पर इनका रंग रूप और पहचान तो नहीं बदली। राम और रहीम भी तो एक ही ईश्वर के दो नाम , दो पोशाकें मात्र हैं।
उसने उन्हें अलग कभी नहीं माना, जैसे उसके बापू और नूरा चाचा ने कभी नहीं माना।
साथ-साथ शतरंज खेलते थे वे, साथ-साथ मंदिर में माथा टेकते थे और साथ-साथ मस्जिद भी जाया करते थे। शारदा पीठ में नौरात मनानी हो या मजार पर चादर चढ़ानी हो, दोनों ने नियम से मिलकर ही किए थे सारे काम। दोस्ती इतनी गहरी कि उग्र भीड़ के आगे साथ-साथ ही सीने पर गोली भी खाई थी उस दिन।
सब जानते समझते थे कि घर के पौहों की देखभाल करने वाले शाहिद को उसने अपनी परिस्थितियों की मांग और जरूरत मानकर ही वर लिया था तब। अब वही उसकी देखभाल करेगा। ऐतराज नहीं था उसे इससे भी। पौहों में भी तो वही जान है आखिर, जो उसमें है। इस खूंखार वक्त में बड़े कोमल मन का आदमी है शाहिद, जानती थी गौरा यह भी।
दीवारें गिराते और जोड़ते, अपने लिए एक आरामदेह घर बनाते पर बरसों गुजर गए थे दोनों के … शाकाहारी ब्राह्मण की बेटी के लिए शाहिद ने मांस-मच्छी, सब छोड़ दिया था। और खाती नहीं थी तो क्या दुपट्टे से नाक-मुँह ढांपकर शाहिद के लिए सबकुछ बनाने लगी थी शबनम भी। पर क्या फायदा हुआ , मिनटों में ही सब यूँ तहस-नहस मिट्टी में …बेबसी में आँसू तक चुभ रहे थे अब तो उसकी रीती-जलती आँखों में।
ऐसा क्यों? क्यों हुआ दोबारा ऐसा उसके साथ! उसने तो कभी किसी का बुरा नहीं चाहा। किसी से कुछ नहीं मांगा। अच्छाई और बुराई दोनों के ही साथ समझौते पर समझौते ही किए हैं बस। फिर यह सब क्यों…वह भी उसके अपने मुल्क में जहाँ वह सुरक्षित रहेंगे …यही समझाया था उसके शाहिद ने उसे , इसी जगह पर खड़े होकर ऐसी ही एक खूनी तांडव करती रात में चालीस साल पहले। हर डर से मुक्ति दिलाने का वादा भी किया था । तभी तो, चुपचाप उसकी हर बात मानकर, उसपर पूरा भरोसा करके चौदह वर्ष की उस अबोध उम्र में भी बिना कुछ अधिक सोचे-समझे एक पल में ही, उस अनाथ और गरीब के घर में एक डरी कबूतरी-सी आ छुपी थी वह और उसे ही अपना सबकुछ जान-मान, उसकी कोठरी में ही पूरे तीन दिन निकाल दिए थे गौरा ने। याद आने पर भी पलटकर नहीं देखा था मां-बाप या पीछे छूटे संसार की तरफ। ज्यादा फर्क तो नहीं रह गया था अब उसमें और शाहिद में। उसीके समान उसका भी तो सब लुट चुका था और वह भी तो अनाथ ही थी ।
एक ही बार रंभाने पर जैसे पौहों का दर्द समझ जाता था शाहिद और बहुत प्यार से और धीरे-धीरे उनके घावों पर मरहम लगाता था, खिलाता-पिलाता था, वैसे ही उसे भी तो संभालता रहा था उम्र भर उसका शाहिद । पर क्या आज वह उसे बचा पाएगी…है इतनी काबलियत और साहस उसमें…डटी रह पाएगी इन बन्दूक धारियों के आगे।
माना उस वक्त बस आभारी थी वह उसकी इस दया की, पर अब सुरक्षित पाती थी खुदको वह उसके साथ। आज चालीस साल बाद पूरी तरह से जुड़ चुकी थी उसके हर सुख-दुःख से। दो शरीरों के बावजूद एक ही तो थे वे। उसकी असली कीमत तो अब समझ में आ रही थी , जब उसका मजबूत हाथ, उसके हाथों से फिसलता जा रहा था ।
सामने पड़ा घायल शाहिद खून में लथपथ, मौत से जूझ रहा था। … चिथड़े-चिथड़े हुई बांई टांग रहरहकर दर्द से तड़प रही थी … लगातार रहरहकर झटके खा और दे रही थी।
शबनम उसे यूँ तड़पते देख खुद उसके दर्द से चिरने लगी। घायल शाहिद का बहता खून मानो खुद उसकी अपनी रगों को निचोड़ रहा था। फिर भी उसने होश नहीं खोए। जान तो चुकी थी कि परिस्थिति गंभीर हैं और सामने चारो बंदूक धारी मुंह पर काला कपड़ा बांधे अभी भी खड़े हैं। गए नहीं हैं वहां से और घायल शाहिद की जान से खतरा अभी भी टला नहीं है । पर हार नहीं मानी उसने जानते हुए भी कि जाति और धर्म-परिवर्तन जैसे सारे शब्द आज भी बेहद खूंखार और उग्र हैं , और रहेंगे हमेशा । लोग…समाज….उनकी यह सभ्य और विकसित दुनिया…इससे लड़ना और फरियाद करना दोनों ही बातें पत्थर से सिर फोड़ने जैसी ही तो है…जाने कैसे पता चल गया था कि शाहिद के घर में रहकर भी उसने अपने कपड़ों की अलमारी में एक छोटा-सा शिवलिंग छुपा रखा था। रोज सुबह नहा-धोकर हाथ जोड़ती थी वह और 11 बार ओम नमः शिवाय भी जपती थी मन-ही-मन प्रातःकाल में। बचपन से ही यही आदत जो रही थी उसकी।
शाहिद को भी कोई एतराज नहीं था उसकी इस आदत से। प्यार करता था वह उससे , पर ये नहीं। इन्हें एतराज था और रहेगा। बड़ा एतराज…इतना बड़ा कि जान लेने आ पहुँचे थे उसके दरवाजे पर… पर दोनों वक्त नमाज भी तो उसने उसी लगन और श्रद्धा के साथ ही पढ़ी थी हमेशा।
जिन्दगी घुमा-फिराकर बस यही एक पाठ क्यों पढ़ाना चाहती है … ना मानो तो जान से हाथ धोओ और मान लो तो खुद को कुचल-भूलकर, मौत से भी बद्तर जिन्दगी गुजारो।
गलती उसी की थी। नहीं ढल पाई वह दुनिया के सांचे में। नाम और पहचान और सारा अतीत भुलाकर शबनम अवश्य कहलाने लगी थी, पर गौरा मन के अंदर ही धंसी रह गई थी, कहीं। पीछे नहीं हटी थी पर वह इस चुनौती भरी जिन्दगी से भी कभी। आसान नहीं होता यूँ दोहरे अस्तित्व को जी पाना।
यादें गड़े कांटे की मवाद सी रिसने लगी थीं अब।
पर, उसका अपना नासूर हैं ये। किसी को दिखाना या किसी के साथ बांट पाना न तो आसान ही था उसके लिए और ना संभव ही ।…
बापू की खामोश आँखों में धंसी चीखों की तरह, अपनी सारी जटिलता के साथ चीखता ही रहता था अतीत और वर्तमान पलपल उसके अंदर। दहला देती है आज भी उसे वह भयभीत और अबोध गौरा । और अब यूँ शाहिद को तड़पते देखना…उसका आंखों के आगे ही जिन्दगी से दूर फिसलते चले जाना, टूटती, शबनम लड़खड़ाई और चौखट से सिर फोड़ बैठी। पर माथे से बहते खून को पोंछने का वक्त नहीं था। सामने शाहिद तड़प रहा था और यदि उसकी जान बचानी थी तो उसके बहते खून को रोकना ज्यादा जरूरी था। जानती थी वह तब भी तो यूँ ही बेरहमी से खून की नदियां बही और बहाई गई थीं दोनों ही तरफ से और जाने कितनों ने बेवजह ही दम तोड़ दिया था, जब हिन्दुस्तान को चीरकर दो टुकड़ों में बांटा गया था। और अब फिरसे वही सब… जी भरकर इस खूबसूरत वादी काश्मीर के साथ खिलवाड़ क्यों किया जा रहा है? दिल लड़कर तो नहीं, प्यार से जीते जाते हैं -क्यों नहीं समझ में आता इन हवस के मारों को!
बारबार गढ़ा, गूंथा, मिटाया और बनाया जा रहा था उसे। लगातार काश्मीर का यह बटवारा, यह काट-छांट कम दुखद नही रही उसके लिए भी । जितना प्रयास करती, जोड़ती मन की वह तनी गूंथ दुखती ही रह जाती। कई गांठें पड़ चुकी थीं, जिन्हें सहलाते-सहलाते पीढ़ियाँ निकल जाएँगी। झेलम और चिनाब दोनों के ही पानी में लगातार बस एक लाल रंग घुला दिखता था उसे।
रातोरात जो निकल गए , बच गए थे तब भी । पर यह उसकी और उसके घरवालों के नसीब में नहीं था। एकबार फिर उसे और शाहिद को निरीह जानवरों की तरह घेर लिया गया था । तब भी तो अपना मान और जानकर जो डटे रहे थे, उनका क्या हश्र हुआ था न तो गौरा ही भूली है और ना ही शबनम को ही कभी भूलने दे रहे ये लोग।
क्यों एक-दूसरे को ही लूटते रहे हैं भाई-भाई ही हमेशा से ? नफरत और हवस की यह आग इतनी तेज क्यों हमेशा … झुलसाती, कुचलती-रौंदती , सब भस्म करके ही क्यों आगे बढ़ पाती है यह!
बहते आंसुओं की परवाह किए बगैर, शबनम बावरी सी शाहिद को संभालने और राहत देने की कोशिश करती जा रही थी।
हमेशा की तरह किसी सवाल का कोई जवाब नहीं था आज फिर उसके पास।
ट्रक भर-भरकर लाशें दाब दी गई थीं गढ़्ढों में या फिर पेट्रोल छिड़ककर एक साथ ही स्वाहा कर दी गई थीं। हिन्दु,
पंडित , मुल्ले सब एक साथ। एकबार फिर रामनामी और नमाजी गोल टोपियाँ दोनों ही पैरों के नीचे रुंद रही थीं, निरपराधों के खून में सनी ।
उस समय भी तो कुछ अलग कर पाना या पहचानना संभव नहीं था किसी के लिए ! ईश्वर की मर्जी पर सब छोड़ दिया उसने, खुद को भी और शाहिद को भी ।
वक्त ही न किसी के पास प्यार और भाईचारे की बातें जानने और समझने को…कैसी दुनिया होती जा रही है…आदमी जानवर से भी ज्यादा खूँखार और खुला घूमता रहता है।
कोई जानने पहचाननने वाला नहीं, शिनाख्त को नहीं…रोने या याद करने को नहीं इन लावारिश लाशों के साथ….उसके आंसू बर्फ से ठंडे थे अब । जब मां-बाप से बिछुड़ी थी , तब भी उन लाशों को ठिकाने लगाने वाला कोई नहीं था। पर आज वह अपने शाहिद के साथ ऐसा नहीं होने देगी।
पलभर को एक मंथन था भयभरा उसके हृदय में, जिसने पूरी तरह से शिथिल कर दिया था उसे, परन्तु तुरंत ही उसने खुद को संभाल लिया और मौत से भी बद्तर शिथिल थकान को परे धकेलती पाषाणी उठ खड़ी हुई।
अब ना तो उन तनी बन्दूकों का डर था उसे और ना ही अपनी और शाहिद की जान का।
ईश्वर भी तो उसीकी मदद करता है जो प्रयास न छोड़े, जैसे-तैसे सारा साहस और ताकत जुटाती वह उठी और अपनी चुनरी को कई-कई बार लपेटते हुए शाहिद की घायल टांग कसकर बांध दी , शायद खून का बहना थोड़ा रुके। शायद उसका शाहिद बच ही जाए…सांसें तो अभी भी चल ही रही थीं और जीने की उम्मीद भी उन सांसों सी ही आ-जा रही थी अब उसकी आँखों में।
और तब एकबार तो शाहिद ने जी भरकर उसकी तरफ देखा और टूटे-फूटे शब्दों में जाने क्या अस्फुट और शक्तिहीन-सा कुछ कहना भी चाहा। पर सब निष्फल। आंसूभरी वे आँखें इतनी अशक्त थीं कि खुली तक रख पाना असंभव हो चला था उसके लिए, फिर भी कैसे भी दोनों हाथ उसकी तरफ बढ़ा दिए उसने, मानो पास बुला रहा हो, मानो विदा लेना चाहता हो, मानो उसकी रक्षा न कर पाने के लिए, बीच मझधार में छोड़कर जाने की अपनी इस मजबूरी और घायल असमर्थता पर बेहद शर्मिंदा हो वह।…और तब बेबसी में जुड़े उन हाथों को कसकर पकड़कर फफक-फफककर रो पड़ी थी शब्बो।
-नहीं, तुम्हें मैं कहीं नहीं जाने दूंगी, शाहिद। मुझसे पहले कैसे जा सकते हो तुम? तुमने तो उम्रभर साथ रहने का का वादा किया था मुझसे!…
सामने बहती वह सिंधु नदी हिन्दु थी या मुस्लिम, -इसका तो पता नहीं था शाहिद को, पर वह सिंधु नदी भी आज उसे अपनी टूटी-बिखरी गौरा-सी ही जान पड़ी …अपने ही आंसुओं और कष्ट में डूबी। आगे बढ़कर अब उसे जीवन का वह अनजान व कठिन सफर अकेले ही तो तय करना पड़ेगा , जान चुका था वह ।
एक ही जनम में गौरा और शबनम भी जैसे हिन्दुस्तान और पाकिस्तान दोनों के बीच बहती यह नदी सिंधु… इसी सिंधु नदी के किनारे ही तो ताउम्र रही है उसकी शब्बो , इन्ही खूबसूरत चिनाब की वादियों में फिर किस्मत कैसे न जुड़ती इनकी। दोनों के रास्ते और भी कई मायनों में समानान्तर थे । एक बड़ी वजह यह भी थी, कि दोनों के ही रास्ते में नंगा पहाड़ आया, जिसने मजबूर कर दिया इन्हें रास्ता बदलने को, घरबार छोड़कर कहीं और चल देने को, खुद से और अपनों से यूँ बेवजह ही बिछुड़ने को। हालात के आगे आत्म-समर्पण करके खुदको यूँ पूर्णतः विलीन कर देने को।
उद्गम से अंत तक की यह यात्रा दोनों के लिए बेहद पथरीली और दुर्गम थी -शाहिद जानता था इनके दुख को। पर क्यों किसी और ने इनके इस अनाम दुःख को नहीं जाना, ना ही इनके निर्लिप्त त्याग को ही सराहा!
भला हो उस अरब सागर का जिससे सिंधु का दुख देखा नहीं गया था और खुद में समेट लिया अभागिन को , जैसे कभी उसने गौरा को अपनी शब्बो मानकर पनाह दे दी थी और और खुली सड़क पर घूमते उन खूंखार कुत्तों द्वारा बोटी-बोटी चिथड़े होने से बचा लिया था। पर अब एकबार फिर अल्लाह के भरोसे अकेली ही तो है उसकी शब्बो !
दोनों ने ही तो पलपल अपनों से बिछुडती और नित नई जटिलताओं में उलझती-सुलझती जिन्दगी ही जी हैं। सिंधु नदी जैसे दोनों देशों की धरती को सींजती संवारती बही उसकी शब्बो भी ने भी तो दोनों ही समाज को बहुत कुछ दिया है। अपनी सामर्थ से कई-कई गुना बढ़कर दिया है। जबकि पास में, वश में तो कुछ भी नहीं रहा है इनके। घटनाओं ने ही भटकाया इन्हें और घटनाओं ने ही सुलझाया भी। और अब आगे , ये घटनाओं ही सारे अहम् फैसले लेंगी… यह आवेग भराा बहाव जीवन का थमने क्यों नहीं देता !…शाहिद की आंसूभीगी धुँधली आँखें अब साफसाफ अपनी शब्बो का चेहरा तक नहीं देख पा रही थीं।
और तब अल्लाह को मन-ही-मन सौंप दिया उसने सबकुछ। खुदको भी और अपनी शब्बो को भी , पर दम तोड़ते शाहिद की जलती-बुझती आंखों के आगे पूरी गुजरी जिन्दगी चलचित्र सी चलना बन्द नहीं हुई थी अभी।
शबनम…यानी मां-बाप की गौरा , उनके घर के आगे बहती सिंधु नदी सी ही सरल और निश्छल , बातबात पर खिलखिल हंसने वाली किशोरी, जिसने बस अबोध बचपन के चौदह बेफिक्र बसंत ही देखे थे अपने अम्मा बाबा और छोटे भाई भोला के साथ। छोटा सा परिवार था उसका भी कभी, जिसमें वे सभी खुश खुश रहते थे। पर अब कुछ नहीं। यादें, एक वीभत्स राक्षस का मुंह बनी कभी तो सब उगले दे रही थीं और कभी उसकी भयभीत आँखों की परवाह न करते हुए सबकुछ जो उसका था , उसे राहत देता था, पूरा मुँह फाड़े निगलने को तैयार खड़ी थीं।
शाहिद को अपना अंत स्पष्ट दिख रहा था, पर शब्बो कैसे हार मान लेती … दुबारा अनाथ होने के इस भय से मानो और भी तेज आँच की लपटों-सी जल उठी थी वह। अंदर-ही-अंदर ऐसा अनर्थ…ऐसा छल चलता रहा, वह भी उसके साथ… अचानक ही चंडी अवतार ले चुकी थी खुद उसके अपने अंदर।
कोई बच्चा नहीं, कोई भोला नहीं यहाँ ।
यह महिषासुर मर्दन तो अब उसे करना ही होगा। अच्छी और बुरी बस दो ही जातियाँ रह गई हैं इन्सानों में। और बुराई अच्छाई को पूरी तरह से निगलने को तैयार खड़ी है। कैसे भी अच्छाई को तो बचाना ही होगा अब, किसी भी शर्त पर । समर्पण ही तो संरक्षण नहीं- भलीभांति जान चुकी थी वह अपनी जिन्दगी के उस सबसे भयावह और चुनौती भरे पल में । सामने पड़े शाहिद के दर्द से चिरती हर चिलक के साथ-साथ वाकई में साक्षात उग्र चंडी कुलबुलाने लगती उसके अंदर…खड्ग संभाले, राक्षसों के विनाश को तत्पर और बेचैन। आक्रमण के लिए पूर्णतः तैयार ।
नीरव रात के उस भयावह अंधेरे को ओढ़े प्रज्जवलित दीपशिखा-सी चमकती दिखी तब वह शाहिद को ।
अपने दर्द से ज्यादा, अनाथ और अकेली शब्बो का दर्द था जो बर्दाश्त के बाहर हो चला था उसके लिए अब अपने उस अंतिम पल में। पर जान चुका था शाहिद कि जो भी राह में आएगा उसे पूरा भस्म कर देने की पूरी सामर्थ थी उसकी शब्बो में और आभारी था वह उसके ऊपर अल्लाह की इस रेहमत के लिए।
दम घोटते उस दर्द को और झेल पाना और आंखें खुली रख पाना जब असंभव हो चला मृतप्राय शाहिद के लिए तो एक और अल्लाह की रेहमत बनकर उसकी डबडबाती आंसूभरी आँखें स्वतः ही मुंद गईं । पर तड़पती शब्बो पूरी तरह से सचेत और सक्रिय ही रही। कभी उसकी छाती मलती, तो कभी तलुवे। शरीर से गरमाहट भले ही चली गई हो, पर यूँ हार नहीं मानेगी वह, कहीं नहीं जाने देगी वह अपने शाहिद को। पर तभी अचानक एक और धमाका हुआ मानो सामने खड़ों ने मन पढ़ लिया था उसका।
जो अकरम बचपन से ही उसके सबसे पास था वह भी तमंचा ताने खड़ा था सामने। साथ में तीन चार और भी थे जिन्हें वह नहीं पहचानती थी, गोली किसने दागी क्या फर्क पड़ता था, निशाने पर तो उसका बरसों से खड़ा मानवता पर विश्वास ही था।
आगे बढ़कर हाथ से तमंचा छीने, गाल पर करारा थप्पड़ मारे, इसके पहले ही किसी ने एक और गोली शाहिद के सीने में दाग दी । शब्बो की फटी आँखों के आगे ही रह-रहकर तड़पता शरीर पूरी तरह से शांत हो गया। और तब, जाने किस उम्मीद, किस बदहवासी में शब्बो ढाल बनकर गिर पड़ी अपने शाहिद के ऊपर।
गोलियाँ अभी भी चल रही थी लड़कों के तमंचों से। दो-तीन छर्रे उसकी पीठ में भी आ लगे और उसे अपाहिज और अचेत करते रीढ़ की हड्डी में जा धंसे। और तब बिना रोए-चीखे, वैसे ही, पहले-सी ही शान्त और अचेत, बेजान गुड़िया-सी लुढ़क गई शब्बो भी शाहिद की बगल में ।
सब शान्त था अब चारो तरफ। वे लड़के भी।
मिनटों बाद ही किसी को होश आया और किसी ने फिर ललकारा -खड़े-खड़े मुंह क्या देख रहे हो , ठिकाने भी तो लगाना होगा इन लाशों को।…
और तब मृत शाहिद के साथ मृतप्राय शब्बो को भी सामने बहती नदी में फेंक दिया उन्होंने।
जिन्दा या मुर्दा समझने का वक्त नही था किसी के पास और ना ही बची सांसों को गिनने की ही जरूरत समझी थी उन्होंने ।
सिवाय अकरम के जो अब अन्दर तक बेचैन हो चला था….
….
बरसों बीत जाने के बाद भी उसकी उजाड़ मौसम सी जिन्दगी में जब एक भी फल-फूल नहीं खिला था, तो शब्बो ने मोहल्ले के हर बच्चे को अपना बना लिया था । उन्ही के लिए अपना सबकुछ समर्पित कर बैठी थी, पगली। अब वे सभी दीन और अनाथ ही उसका परिवार थे। उसकी ममता सबपर और दिनरात एकसी बरसती । बेहद लगन और मेहनत से सींचती और संवारती रहती वह अड़ोस-पड़ोस के हर बच्चे को। अकरम तो सबसे समझदार और सबसे प्यारा लगता था उसे। उसकी कोठरी उसका घर नहीं अनाथों का घर तो पहले से ही थी , अब उनकी पाठशाला भी बन चुकी थी।
अकरम फटी-फटी आंखों से देख रहा था, उसी शब्बो को यूँ लावारिस खून में लथपथ सड़क से उठाकर बेहद बेरहमी के साथ नदी में फिंकते हुए, मानो इन्सान नहीं, कूड़े के ढेर को हटाकर, साफ-सफाई की जा रही हो वहाँ पर।
अचानक सीने में एक कसक-सी उठी, पर साथियों के डर से शबनम की कोई मदद नहीं कर पाया ।
यूँ घायल छोड़कर मुंह फेर लेना यही इनाम था शायद उसके पास उसकी हर नेकी का…अकरम की आत्मा बारबार कायर और बेरहम कह-कहकर धिक्कारती रही उसे, पर जब अपनी ही जान पर बन आए तो आत्मा की आवाज को तो मारना ही पड़ता है यह भी भलीभांति जान चुका था अकरम।
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कब लड़कों ने उसे और शाहिद को मिलजुलकर उठाया और सामने बहती नदी में फेंक दिया और कब और कैसे वह वापस अकरम के साथ अपनी उसी सुनसान कोठरी में वापस लौट आई , शब्बो को कुछ याद नहीं। पर अकरम को एक-एक दृश्य याद है। लाख कोशिशों के बावजूद भूल ही नहीं पाता वह कुछ भी ।
अकेले ही रात के अंधेरे में दुबारा जाकर ढूँढा था उसने शब्बो काकी को। और मिल भी गई थी वह उसे तुरंत ही अंधमुंदी आखों से इंतजार करती, रहरहकर मुंह से झागों के फब्बारे उलीचती। आधे मील दूर ही लहरें किनारे पर पटक गई थीं । खून रिस-रिस कर बह रहा था और टूटी सांसों की खड़खड़ दूरतक साफ सुनाई दे रही थी। अच्छा हुआ किसीने देखा नहीं लाते ले जाते रात के उस सियाह अंधेरे में, वरना उसे भी जिन्दा ही दफन कर देते उसके साथ-साथ उसी समंदर में ।
फिर तो दिनरात एक कर दिए थे शबनम की सेवा में। बचने की कोई उम्मीद नहीं थी और सबकी नजर में पागल और बेवकूफ तक दिखने लगा था अकरम, जो यूँ एक अधमरी लाश की सेवा में लगा रहता था दिनरात।
महीने भर में घाव तो भर गए पर अपना नाम पता पहचान कुछ भी याद नहीं आया शब्बो को। वह तो यह भी नहीं जानती थी कि अकरम अब उसे अम्मी कहकर बुलाने लगा था। दिनरात वहीं उसके पास ही रहता था। खाने-पीने आदि उसकी हर शारीरिक जरूरत का नमाजी तल्लीनता के साथ पूरा ध्यान रखता था।
शब्बो के गुजरे खुशहाल दिन और शाहिद को तो नहीं वापस ला सकता था वह, पर थोड़ी तसल्ली तो दे ही सकता था।
प्रायश्चित का शायद यही एक तरीका बचा था अब उसके पास। …फिर भूल भी कैसे सकता था वह कि उसी की दुआओं से तो बच गया था वह, वरना, अन्य साथियों की तरह वह भी तो सेना की पकड़ में आ ही सकता था… फिर था भी क्या उसका अपना! अगर यह शब्बो काकी न होती उस मोहल्ले में तो कौन उसका ध्यान रखता, बड़ा करता ?खाना-पीना देता, नहलाता-धुलाता! तख्ती लेकर लिखना-पढ़ना सिखाता… अंधी-बूढ़ी नानी के बस में तो वैसे भी कुछ नहीं था।
ग्लानि और दुख में डूबा अकरम, बैठा-बैठा कभी शब्बो के बालों में तेल लगाता, तो कभी हथेली और तलुवों पर हिना से बेल-बूटे काढ़ता, पर तब भी जब शबनम न तो हँसती और ना ही मुस्कुराती, तो बेटे की तरह बेहद उदास भी हो जाता।
रह-रहकर कभी कबूतर के पंख से उसके तलवे गुदगुदाने लग जाता तो कभी कान में कसकर कू करता , पर बेजान शरीर में फिर भी कोई हलचल न होती । शब्बो की पत्थर सी आंखें जाने क्या और कहाँ एकटक, एक ही जगह को देखती रहतीं दिन-रात।
अकरम जब और बर्दाश्त नहीं कर पाता, तो जी भरकर रोता और सिसकता, फरियाद करता -‘ एकबार, बस एकबार माफ कर दो अम्मा मुझे, भटक गया था मैं।’- कह-कहकर सिर तक धुनता। पर जैसे कई रिश्ते बेहद कठोर होते हैं , उम्रभर जकड़े रहते हैं फिर भी दूरी बनी रहती हैं, वैसे ही कई दर्द भी तो लाइलाज ही होते हैं। शब्दों में नहीं बांधा जा सकता इन्हे।
अपने और पराए का फर्क …सह और जानकर भी कभी मान नहीं पाई थी शब्बो, इतना प्यार करती थी उन सबसे। फिर उसी के साथ उन्होंने ऐसा क्यों किया…आत्मा की धिक्कार ने उसे अब चौबीसों घंटे सलीब पर टांग रखा था। सामने ठंडे फर्श पर बैठा वह दिनरात उसे घूरता रहता, जाने कब अम्मा को उसकी जरूरत पड़ जाए?
पर, दुख की उस अन्तिम नदी में डुबकी लगाकर तो मानो वह हर दुख से मुक्ति पा चुकी थी अब। उसकी न कोई चाह रह गई थी और ना ही कोई जरूरत।
मन-ही-मन तो अकरम भी जान चुका था कि इतनी बड़ी और फलती-फूलती इस दुनिया में ना तो कुछ देने को ही बचा था अब उन दोनों के बीच और ना ही कुछ लेने को ही। कम-से-कम इस जिन्दगी में तो नहीं ही। फिर भी उसकी कोशिश जारी रही। शायद अल्लाह सुन ही ले…
मरने के बाद अपने पराए का कोई मतलब नहीं रह जाता, पर जब जीते जी ही, बिना खाक पड़े ही, ऐसा हो तो कितना दुख देता है, रोज ही भुगत रहा था अकरम अब।
नारी या माटी, दोनों को ही मन चाहे जैसे गढ़ लो, कितनी गीली और सुकुमार थी उसकी शब्बो काकी भी कभी, फिर यूँ पाषाणवत् कैसे हो गई? कहीं उसकी बेववफाई से ही तो नहीं तिरका काकी का कोमल मन…चौबीसों घंटे सोचते रहने पर भी, समझकर भी न समझ पाता अकरम। एक आस की लौ थी जो बुझ नहीं रही थी मन से। और वह यूँ ही घंटों बैठा उसे घूरता ही रह जाता…क्या सोच रही होगी, क्या बीत रही होगी इसपर, फिर भी उसे कुछ पता ही न चल पाता।
आखिर यूँ ही तो पाषाण नहीं बन जाता कोई। जानी कितनी ठोकरें …कितना रौंदती है यह दुनिया, तब जाकर पत्थर-कठोर होती हैं ये दोनों, धरती और नारी …और उन सूनी अकेली रातों में उसके आँसू सोच-सोचकर थमने का नाम ही न लेते। कभी-कभी तो रात की अंधेरी परछांइयों के साथ मिली उन सिसकियों से वीराना तक दहलने लग जाता, पर शब्बो काकी तक उसकी कोई आवाज, कोई फरियाद न पहुँचती। मानो कहीं कुछ बचा ही नहीं था… न तो कुछ जानने को और ना समझने को और ना ही कुछ समझाने को ही।
फिर शब्दों में, इन रिश्तों में रखा भी क्या था? क्या अर्थ इस पछतावे का भी, जब नफरत की दीवार इतनी ऊंची हो चुकी हो कि दूसरे तो दूसरे, अपनों का भी दुख-दर्द दिखाई न दे… पुकार सुनाई ही न दे।…अपने ही षडयंत्र करने लग जाएँ…शब्बो को तो वैसे भी अब कुछ याद नहीं । सुख-दुख, रिश्ते-नाते सबसे परे जा चुकी थी वह। और उसके लिए यही बेहतर भी था, शायद।
अकरम और शबनम दोनों के लिए ही बहुत देर हो चुकी थी, शायद।…
चिड़िया-सी लेटे-लेटे ही मुंह खोल देती थी। जो कुछ अकरम मुंह में डाले, जैसे-तैसे तुरंत ही गटक भी लेती थी। फिर तुरंत ही देखते-देखते वापस सो भी जाती … या शायद बस सोती-सी चौबीसो घंटे जगी ही पड़ी रहती थी।
चलती सांसें और उन चलती सांसों की जरूरत ही तो रह गई थी अब उसकी बची हुई जिन्दगी , और वही चन्द बची सांसें अब तो उन दोनों के बीच की बची हुई कड़ी भी थीं । आखिर, उन सांसों की चलती धौंकनी के सहारे ही तो अकरम जान पाता था कि जिन्दा है पाषाणी माँ अभी।….
शैल अग्रवाल
बरमिंघम
वेस्ट मिडलैंड्स, य़ू.के.
shailagrawal@hotmail.com