22 अक्तूबर 2018 को हमने एक बेहद संवेदन शील और सहृदय कवि को खो दिया। लेखनी पत्रिका की तरफ से विनम्र श्रद्धांजलि के साथ प्रस्तुत हैं उनकी कुछ चुनिंदा कविताएँ;
कुछ थे जो कवि थे
कुछ थे जो कवि थे
उनके निजी जीवन में
कोई उथल-पुथल भी नहीं थी
सिवाय इसके कि वे कवि थे।
वे कवि थे और चाहते थे
कि कुछ ऐसा कहें और लिखें
कि समाज बदल जाये
बदल जाये देश की सभी
प्रदूषित नदियों का रंग
धसकते पहाड़ बच जायें
और बच जायें ग्लेशियर भी।
कटे हुए पेड़
फिर से अंकुरित होने लग जायें
पृथ्वी के देह का हरापन
आँखों की नमी बच जाये।
कुछ थे जो कवि थे
वे कला की दुनिया में भी
छोड़ जाना चाहते थे अमिट छाप
इसके लिए वे काफी हाउसों में
खूब बहसें किया करते थे
वे लिखा करते थे
बड़े-बड़े विचारों से भरे आलेख
कविता पर उनकी टिप्पणियाँ
उनकी नज़रों में
बहुत महत्व रखती थी।
पर वे उन रास्तों पर भी
संभल-संभल कर चलते थे
जहाँ दौड़ा जा सकता था।
वे उस सभा में भी
गुप-चुप रहा करते थे
जहाँ आतताइयों के खिलाफ
बोला जाना चाहिए
एक आध शब्द ज़रूर।
पर वे आश्वस्त थे
अपने किए पर कि
कविता में पकड़ लिया है
उन्होंने अंतिम सत्य।
उन्हें अपने किए पर गर्व था
इसके लिए वे पा लेते थे
बड़े-बड़े पुरस्कार भी
वे तालियाँ भी ढूंढ लिया करते
और प्रशंसा भी यहाँ तक कि
सुखों के बीच सोते जागते हुए
ढूंढ लेते थे दिखावटी दुख भी।
वे जब कीमती शराब पी रहे होते
या भुने काजू खा रहे होते
उस वक्त भी वे इस तरह जतलाते
जैसे वे दुख ही खा-पी रहे हों।
वे जब जहाज पर सौभाग्य से कहीं जाते
तो दूर-दूर तक सभी को बतला देते
पर जब लोगों से मिलते
तो ऐसा जतलाते जैसे ये इतनी सारी थकान
उन्हें पैदल चलने से ही हुई है।
वे जब तिकड़में करते
या किसी अच्छी रचना की
हत्या की सुपारी लेते या देते
तो ज़रा भी अपराध बोध से
ग्रस्त नहीं होते
यह उनके व्यक्तित्व का
असाधारण पॉजिटिव गुण था।
वे अमर होना चाहते थे
इसके लिए वे प्रयत्न भी
खूब किया करते थे।
वे अपनी प्रशंसा में खुद ही
बड़े-बड़े वक्तव्य देते
अपनी रचना को सदी की
सर्वश्रेष्ठ रचना घोषित कर देते
इस तरह की हरकतों को वे
साहित्य में स्थापित होने के लिए
ज़रूरी मानते थे।
वे सामाजिक प्राणी थे
उनके कुछ मित्र थे
कुछ शत्रु भी
वे मित्रों से मित्रता
न भी निभा पाये हों कभी
पर शत्रुओं से शत्रुता
दूर तक निभाते थे।
वैसे उनका न कोई
स्थाई शत्रु था और न कोई
स्थाई मित्र ही।
कोक पीती हुई वह भिखारिन लड़की
भीड़ भरी सड़क पर
वह भिखारिन लड़की
जा रही है पीती हुई कोक।
बहुत इच्छा थी उसकी कोक पीने की
एक सपना था उसका
कि वह भी पीयेगी कोक
एक दिन।
पता नहीं कितनी मुश्किल से
किये थे इकट्ठा
उसने ये पन्द्रह रुपये
पता नहीं कितनों के आगे
पसारे थे हाथ
पता नहीं कितनी ही सुनी थी
झिड़कियां
कितनी तपी थी धूप में।
पता नहीं किस तरह कितने दिनों से
छुपा कर रखे रही थी
शराबी बाप से ये रुपये।
इस वक्त
जा रही है
पीती हुई कोक
भीड़ भरी सड़क पर।
मुस्करा रही है
ढेर सारे गर्व से
विज्ञापनों पर गिरती धूप
उसे कोक पीता देख।
मुस्करा रहे हैं
नायक नायिकाओं के
मासूमियत ओढ़े क्रूर चेहरे।
इस तपती धूप में भी
हरी हुई जा रही है
बाजार की तबीयत।
उदास है तो बस
जल जीरा बेचने वाला
अपनी रेहड़ी के पास खड़ा वह।
माँ की कोख में
माँ की कोख में
हिलता है बच्चा
एक खिलता हुआ फूल
याद आता है माँ को ।
माँ की कोख में
हिलता है बच्चा
आसमाँ में उड़ती चिड़िया पे
बहुत प्यार आता है माँ को
माँ की कोख में
हिलता है बच्चा
मछली-सी तैरती जाती है
ख़्यालों के समन्दर में माँ
अपने बच्चे के संग-संग
माँ की कोख में
हिलता है बच्चा
सैकड़ों फूलों की ख़ुशबू
हज़ारों पेड़ों का हरापन
अनन्त झरनों का पानी
अपने आँचल से
उड़ेल देती है माँ
ज़िन्दगी के सीने में ।
माँ की कोख में
हिलता है बच्चा
पृथ्वी के सीने में भी
उतर आता है दूध
फैल जाता है हरापन
खिलते हैं फूल
निखरती है ख़ुशी ।
बहुत गहरे तक
बहुत गहरे तक
डूबा हुआ हूँ मैं उस राम में
बहुत गहरे तक
मेरे अंतस में बैठी है
मानस की चौपाइयाँ गाती
रामलीला की वह नाटक-मंडली
कसकर पकड़े हुए हूँ
दादी माँ की अँगुली
लबालब उत्साह से भरा
दिन ढले जा रहा हूँ
रामलीला देखने
बहुत गहरे तक
दादी माँ की गोद में मैं धँसा हुआ हूँ
नहा रहा हूँ
दादी की आँखों से
झरते आँसुओं में
राम वनवास पर हैं
राम लड़ रहे हैं
राक्षसों से
राम लड़ रहे हैं
दरबार की लालची इच्छाओं से
राम लड़ रहे हैं अपने आप से
बहुत गहरे तक
डूबा हुआ हूँ मैं उस राम में
बचपन में पता नहीं
कितने ही अँधेरे भूतिया रास्ते
इसी राम को करते हुए याद
किए हैं पार
बचाई है इस जीवन की
यह कोमल-सी साँस वह
राम
जिसे ‘छोटे मुहम्मद’ निभाते रहे
लगातार ग्यारह साल
कस्बे की रामलीला में
छूती थीं औरतें श्रद्धा से जिसके पाँव
अभिभूत थे हम बच्चे
उस राम के सौंदर्य पर
पता नहीं कब बंद हो गईं
वे रामलीलाएँ
पता नहीं कब वह राम
मुसलमान में हो गया परिवर्तित
डरा-डरा गुज़रता है आजकल
रामसेवकों के सामने
उस रामलीला के पुराने
मंच के पास से वह राम
वैसे मेरा वह राम
मानव की चौपाइया
आज भी उतनी तन्मयता से गाता है
उतनी ही सौम्य है
अभी भी उसकी मुस्कान
उतना ही मधुर है
अभी भी उसका गला
पर दिख ही जाती है उदासी
उसकी आँखों में तिरते
उस प्यार-भरे जल में छुपी
बहुत गहरे तक
डूबा हुआ हूँ मैं उस शाम में
12-8-59 -20-10-18
‘ सुरेश सेन निशांत की कविताओं से गुजरना मरुस्थल में किसी हाँफते-प्यासे 20-व्यक्ति का अकस्मात उस पातालतोड़ कुएँ की बौछारों के समीप आ जाना है जो उसे तत्काल जीवन, आह्लाद और सुकून दे सकती है। इनकी कविताएँ उत्तप्त मन की शांति है, जलते हुए जंगल में घटा की बहारें हैं। इनमें जितना जीवन है, उतनी ही जिजीविषा। जितना संघर्ष है, उतना ही जीवन का द्वंद्व। जितनी कोमल रागात्मकताएँ हैं , उतनी ही बज्र साहसिक वृत्तियां। वह जितनी कविता है उतनी ही जैविक कला भी। इन सब विशेषताओं के बावजूद वह कहीं भी अतिवृत्ति की शिकार नहीं होती और न अपनी कहीं राह ही खोती हैं। सबसे बड़ी बात यह कि ये कविताएँ कवि की बुद्धि के आवेग से नहीं निकलती, सीधे उस जीवन से निकलती हैं जो प्रकृति और हृदय के अद्भुत ताल और लय पर चलती है और दूसरे के जीवन को अबाध स्पर्श करती हैं, बल्कि कहें, उनमें अंतर्भूत हो जाती हैं। इनमें कहीं बनावटी नाटकीय संवेग नहीं, बल्कि बाह्यगत विद्रूपताओं से उपजी आंतरिक लहरें हैं जो मन को हिलोरती भी है ,कचोटती भी है और एक नई लड़ाई के लिए हमें तैयार भी करती है।
जो ये बातें जो मैंने उपर कही, ये कोरी नहीं , न कसीदाकारी है। इनकी कविताएँ इनका पर्याप्त सबूत है जो समकालीन कविता के लोकधर्मी-जीवनधर्मी कसौटियों पर बिल्कुल खरी उतरती हैं। 58 वर्षीय सुरेश सेन निशांत सुरेश सेन का जन्म : 12 अगस्त 1959 हुआ । 1986 से लिखना शुरू किया । लगभग पाँच साल तक ग़ज़लें लिखते रहे । तभी उन्हें एक मित्र ने ‘पहल’ पढ़ने को दी । ’पहल’ से मिलना, उसे पढ़ना उनके जीवन बहुत ही अद्भुत अनुभव रहा । इसी दरमियान कविता को पढ़ने की समझ बनी । उन्होंने 1992 से कविता लिखना शुरू किया । पहल, हंस, कथाक्रम, आलोचना, कथादेश कृतिओर, सूत्र, सर्वनाम, वर्तमान साहित्य, उद्भावना, लमही, समकालीन भारतीय साहित्य, वागर्थ, परिकथा, बया, आधारशीला आदि देश के प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में निशान्त की कविताएँ प्रकाशित हुई है।
निशान्त को पहला प्रफुल्ल स्मृति सम्मान, सूत्र सम्मान 2008 आदि प्राप्त हुए हैं, उनका पहला कविता संग्रह “वे जो लकड़हारे नहीं हैं” अंतिका प्रकाशन ग़ाज़ियाबाद से 2010 में प्रकाशित हुआ है। दूसरा संकलन 2015 में आया जिसका शीर्षक है – कुछ थे जो कवि थे। उन्होंने ’आकण्ठ’ पत्रिका के अगस्त -2010 में प्रकाशित ’हिमाचल की समकालीन कविता’ विशेषांक का सम्पादन भी किया है।
गत तीन दशकों में समकालीन हिंदी कविता में उनका हस्तक्षेप इस अर्थ में मूल्यवान है कि उन्होंने गहन इन्द्रिय बोध की जिन कविताओं का सृजन किया उसका महत्व रूपवादी कविताओं के काट के रूप में स्वीकार किया जा सकता है जिसे पढ़कर पाठक के चित्त को आत्मिक तोष मिलता है।
यहाँ केवल इतना ही कहना है कि ये कविताएँ— कवि का वह उपार्जित यथार्थ नहीं जो नवरीतिकालीन बुर्जुआ चिंतन से पगी हुई हो और जो उन्हीं सरीखे समीक्षकों को भाता हो जो किसी भी निरथर्क रचना पर अपना शब्द-जाल बुनकर तालियों और प्रशंसाओं की मायालोक बटोरने में माहिर हो, बल्कि श्रम से लिखी गई इन कविताओं का उपार्जित यथार्थ मानवीय श्रमलोक का व्यापक सन्दर्भ रचता हैं |’
-सुशील कुमार, डुमका झारखंड