अनुभूति
कभी जिन्दगी ने मचलना सिखाया
मिली ठोकरें तो सम्भलना सिखाया
जीना सम्भलकर कठिन जिन्दगी में
उलझ भी गए तो निकलना सिखाया
रंगों की महफिल है ये जिन्दगी भी
गिरगिट के जैसे बदलना सिखाया
सबकी खुशी में खुशी जिन्दगी की
खुद की खुशी में बहलना सिखाया
बहुत दूर मिल के भी क्यों जिन्दगी में
सुमन फिर भ्रमर को टहलना सिखाया
बेबसी
बात गीता की आकर सुनाते रहे
आईना से वो खुद को बचाते रहे
बनते रावण के पुतले हरएक साल में
फिर जलाने को रावण बुलाते रहे
मिल्कियत रौशनी की उन्हें अब मिली
जा के घर घर जो दीपक बुझाते रहे
मैं तड़पता रहा दर्द किसने दिया
बन के अपना वही मुस्कुराते रहे
उँगलियाँ थाम कर के चलाया जिसे
आज मुझको वो चलना सिखाते रहे
गर कहूँ सच तो कीमत चुकानी पड़े
न कहूँ तो सदा कसमसाते रहे
बेबसी क्या सुमन की जरा सोचना
टूटने पर भी खुशबू लुटाते रहे
समदर्शिता
कोई अर्श पे कोई फर्श पे, ये तुम्हारी दुनिया अजीब है
कहते इसे कोई कर्मफल, कोई कह रहा है कि नसीब है
यदि है नसीब तो इस कदर, तूने क्यों लिखा ऐ मेरे खुदा
समदर्शिता छूटी कहाँ, क्यों अमीर कोई गरीब है
कहते कि जग का पिता है तू, सारे कर्म तेरे अधीन हैं
नफरत की ये दीवारें क्यों, अपना भी लगता रकीब है
कण कण में बसते हो सुना, आधार हो हर ज्ञान का
कोई फिर भला कोई क्यों बुरा, तू ही जबकि सबके करीब है
जीने का हक़ सबको मिले, ख़ुद भी जीए जीने भी दे
काँटों से कोई न दुश्मनी, मिले सुमन सबको हबीब है
अक्स
साथी सुख में बन जाते सब दुख में कौन ठहरता है
मेरे आँगन का बादल भी जाने कहाँ विचरता है
कैसे हो पहचान जगत में असली नकली चेहरे की
अगर पसीने की रोटी हो चेहरा खूब निखरता है
फर्क नहीं पड़ता शासन को जब किसान भूखे मरते
शेयर के बढ़ने घटने से सत्ता-खेल बिगड़ता है
इस हद से उस हद की बातें करता जो आसानी से
और मुसीबत के आने से पहले वही मुकरता है
बड़ी खबर बन जाती चटपट बड़े लोग की खाँसी भी
बेबस के मरने पर चुप्पी, कैसी यहाँ मुखरता है
अनजाने लोगों में अक्सर कुछ अपने मिल जाते हैं
खून के रिश्तों के चक्कर में जीवन कहाँ सँवरता है
करते हैं श्रृंगार ईश का समय से पहले तोड़ सुमन
जो बदबू फैलाये सड़कर मुझको बहुत अखरता है
द्वंद्व
जिसे बनाया था हमने अपना, उसी ने हमको भुला दिया
बना मसीहा जो इस वतन का, उसी ने सबको रुला दिया
बढ़े लोक और तंत्र फँसे है, ऊँचे महलों के पंजों में
वे बात करते आदर्शों की, आचरण को भुला दिया
नियम एक है प्रतिदिन का यह, कुआँ खोदकर पानी पीना
नहीं भींगती सूखी ममता, भूखे शिशु को सुला दिया
खोया है इंसान भीड़ में, मज़हब के चौराहों पर
भरे तिजोरी मुल्ला-पंडित, नहीं किसी का भला किया
बने भगत सिंह पड़ोसी घर में, छुपी ये चाहत सभी के मन में।
इसी द्वंद्व ने उपवन के सब, कली-सुमन को जला दिया।।
रोग
रोग समझकर अपना जिसको अपनों ने धिक्कार दिया
रीति अजब कि दिन बहुरे तो अपना कह स्वीकार किया
हवा के रूख संग भाव बदलना क्या इन्सानी फितरत है
स्वागत गान सुनाया जिसको जाने पर प्रतिकार किया
कलम बेचने को आतुर हैं दौलत, शोहरत के आगे
लिखना दर्द गरीबों का नित बस बौद्धिक व्यभिचार किया
बातें करना परिवर्तन की, समता की, नैतिकता की
जहाँ मिला नायक को जो कुछ उसपर ही अधिकार किया
सुमन भी उपवन से बेहतर अब दिखते हैं बाजारों में
कागज के फूलों में खुशबू क्या अच्छा व्यापार किया
चुभन
अब तो बगिया में बाज़ार लगने लगा
वह सुमन जो था कोमल वो चुभने लगा
आये ऋतुराज कैसे इजाज़त बिना
राज दरबार पतझड़ का सजने लगा
मुतमइन थे बहुत दूर में आग है
क्या करें अब मेरा घर भी जलने लगा
जिस नदी के किनारे बसी सभ्यता
क्यों वहाँ से सभी घर उजड़ने लगा
मिले शोहरत को रक्षक है इज़्ज़त नगन
रोज माली चमन को निगलने लगा
बात अधिकार की जानते हैं सभी
अपने कर्तव्य से क्यों मुकरने लगा
चुप भला क्यों रहूँ कुछ मेरा हक़ भी है
इनसे लड़ने को मन अब मचलने लगा
-श्यामल सुमन
जमशेदपुर, भारत