अक्सर गलियों के नाम होते हैं या कम से कम वो बदनाम होती हैं। कभी इस वजह से तो कभी उस वजह से। पर नाम के नाम पर खामोश गलियां जब कोई नाम पा जाती हैं तो बहुत जल्द ही वो खामोशी लोगों के ज़हन से ऐसी पुंछती हैं जैसे आधी रात को गाड़ी से कुचली कुत्ते की लाश वाली सड़क का सुबह जमादार के आने के बाद बेदाग और बेनिशान होना।
जिस दिन नगीना का निकाह रज़्ज़ाक से हुआ और वो कस्साबपुर के कसाई छत्ते के तीन मकानों वाली इस पतली अन्धी गली के दूसरे यानी बीच वाले मकान में आयी, कोई सोच भी नहीं सकता था कि ये बेनाम गली इतनी जल्दी कोई नाम पा जाएगी।
रज़्ज़ाक कुरैशी के मां-बाप थे नहीं। अपनों के नाम पर एक बड़ा भाई रमज़ानी था। मां-बाप ने और तो कुछ नहीं पर सिर छिपाने के लिए इस कसाई छत्ते में उनके लिए एक कमरे और दालान पर एक और छोटे कमरे व सामने छोटी खुली छतवाला मकान ज़रूर छोड़ा था। दोनों भाइयों की बचपन से न कभी पटी थी और न पटने की उम्मीद थी। शादी के बाद रमज़ानी ने फौरन ऊपर के कमरे और छत पर अपना हक जताया क्योंकि ऊपर वाले कमरे में एक अदद दरवाजा था जिसे जरूरत पड़ने पर बन्द किया जा सकता था। नीचे का कमरा तीन दीवारोंवाला कमरा था जिसे सामने तिरपाल लगाकर मुकम्मल कमरे की शक्ल दी जा सकती थी। इस तीन दीवारोंवाले कमरे में एक कोलकी थी जिसमें घर में रखने लायक सामान होने पर रखा जा सकता था। ऐसी ही तीन दीवारोंवाली रसोई दालान में थी। रमजानी के कमरे में ऊपर जाने की सीढ़ी दालान से न होकर बाहर से जाती थी। इसलिए शादी के बाद रमजानी और उसकी दुल्हन का रज़्ज़ाक से कोई लेन-देन नहीं था। हां आते-जाते रज़्ज़ाक कभी-कभी दालान में झांक ज़रूर लेता था।
साल-डेढ़ साल जब तक रमज़ानी की बीबी रही, रोज़ शाम को बाआवाज़ बुलंद ऐसी गाली-गलौज और कोसने होते कि गली अपने कानों में उँगलियाँ डालकर बैठने को मजबूर होती। बहुत जल्द रमज़ानी की बीबी ने उसे कोसना बन्द किया और एक दिन चुपचाप सब्जीवाले जुगनू के साथ मेरठ रवाना हो गयी। रमज़ानी की बद्मिज़ाजी और रज़्ज़ाक के तैश में आने वाले स्वभाव की वजह से दोनों भाइयों में बातचीत तक बन्द थी। दोनों के घरों की तरह जिन्दगियां भी अलहदा-अलहदा थीं। यहां तक कि जिन दिनों रमज़ानी अपनी बीबी को खोज रहा था और पुलिस थाने के चक्कर लगा रहा था रज़्ज़ाक ने मालूम होते हुए भी उसे जुगनू का नाम नहीं बताया।
रज़्ज़ाक के निकाह में रमज़ानी नयी तहमद बांधकर बारात में गया जरूर था पर बुलावा उसे रज़्ज़ाक ने नहीं पूरे कसाई छत्ते की तरह नाई ने ही दिया था। सारे छत्ते के मर्द बारात में शामिल हुए थे। दुल्हन आने के बाद वलीमा के तौर पर पूरे छत्ते ने रोटी और कोरमा जी भर कर छका था। अपने घर में न मर्द ज़ात बची थी न औरत ज़ात। बच्चे मीठे पुलाव पर ऐसे टूट पड़े थे जैसे छीछड़ों पर कौवे।
जिन बड़ी-बूढ़ियों ने निकाह के बाद नगीना का उस पतली अन्धी गली के एक कमरे और दालान वाले घर में इस्तिकबाल किया था, कुछ रोज़ उन्होंने कसाई छत्ते की बुजुर्ग होने का फर्ज़ निभाया और सूरज चढ़ते ही गिलौरी मुँह में डाल रज़्ज़ाक के घर आ जातीं। शाम तक वहीं खाट पर बैठी-बैठी सरौते से बारीक सुपारी काटतीं और यहाँ-वहाँ के किस्से कहतीं। दोपहर में दो-दो, तीन-तीन करके अपना सफेद बुर्का सिर पर डाल खाना खाने जातीं और घंटे भर में लौट आतीं। नगीना उन सबके लिए ‘ दुल्हन‘ थी। सो सुबह कहीं छत से, कहीं खिड़की से तो कहीं अपनी-अपनी गली में खड़ी हो एक-दूसरे आवाज़ लगातीं, ‘‘ ए बी, चलना नई है? ‘‘
‘‘ कहाँ? “
‘‘ ए वहीं…दुल्हन के ‘‘
नगीना सारे छत्ते में दुल्हन कहलाने लगी थी। उसका नाम नगीना और लोग तो क्या वह खुद भी भूल गयी थी। कोई नहीं जान पाया कि कब, कैसे और पहली बार किसके कहने पर नगीना के मकान वाली पतली अन्धी बेनाम गली ‘ दुल्हनवाली गली‘ बन गयी या यूँ कहें ‘ गली दुल्हनवाली।‘
कुछ ही महीने हुए थे कि पीर के रोज़ दोपहर में अचानक दुल्हन का भाई आया। उस दिन दो बड़ी बूढ़ियां आयी थीं जो साथ-साथ खाना खाने गयी थीं। भाई ने ऐसा कुछ कहा कि दुल्हन ने खाना खाने गयी उन बड़ी-बूढ़ियों का भी इन्तज़ार न किया। झट दरवाज़े पर ताला डाल भाई के साथ मायके चल दीं। रास्ते में भाई ने दुल्हन के घर की चाबी अपने एक दोस्त को थमाकर इसे कमेले जाकर रज़्ज़ाक को देने को कहा। दुल्हन को पूरी उम्मीद थी कि वह रात से पहले लौट आएगी। फिर भी एहतियान चाबी रज़्ज़ाक को भिजवा दी गयी थी। उस रात तो क्या वो कई रातों तक लौट न पायी। लगभग हफ्ते भर बाद लौटी तो मंगल का दिन था। कमेले की छुट्टी थी। रज़्ज़ाक घर में ही था।
सुबह के नौ बजे थे। उसने गली दुल्हनवाली में कदम रखा तो दिल ज़ोर से धक-धक बोला। रज़्ज़ाक से बात किये बिना गयी थी। जाने क्या होगा? पहला मकान पारकर वह दूसरे मकान के दरवाज़े पर पल भर ठिठकी। दरवाज़ा पूरा खुला था। उस पर मैले टाट का एक पर्दा टंगा था जो समय के साथ-साथ नीचे से फट-फट कर ऊँचा-नीचा हो गया था। पर्दा हटाकर घर में दाखिल हुई तो सामने दालान के एक कोने में बने चूल्हे पर रज़्ज़ाक चाय बना रहा था। चेहरे से लग रहा था कि कुछ समय पहले ही उठा है। उसने फौरन अपना बुर्का खोलना शुरू किया, ‘‘ चाय बना रहा है? हट मैं बना दूँगी।‘‘
रज़्ज़ाक ने कोई तवज्जो न दी। बुर्का खूँटी पर टाँगकर वह रज़्ज़ाक के पास आयी, “ ला मैं बना दूँ। “ रज़्ज़ाक खड़ा हुआ। उसने दुल्हन की चोटी पकड़कर पीछे खींची जिससे दुल्हन का सिर ऊपर हो गया, “ मिल आयी अपनी माँ के नए खसम से? “ दुल्हन दर्द से कराह उठी। चोटी से घसीटता हुआ वो उसे कमरे में ले गया और खाट पर ऐसा पटका कि उसका सिर पाये की मूठ पर लगा और भन्ना गया। “ ये मत सोचियो कि तू भी दूसरा खसम कर लेगी तो मैं तेरे नामर्द बाप की तरह तहमद की गाँठ संभालता फिरूँगा, “ कहते हुए रज़्ज़ाक खाट पर चढ़ गया। दुल्हन बेहोश थी।
कुछ समय बाद दुल्हन को होश आया तो उसने अपनी ही आह सुनी। अचानक उसे महसूस हुआ कि उसकी टाँगें उघड़ी हुई हैं। सिर को हाथ का सहारा दे वह एक झटके से उठ बैठी। टाँगों को समेटा। शलवार खाट के नीचे पड़ी थी। जाँघों पर नमी का अहसास हुआ। सारे घर में जलाँध भरी हुई थी । शलवार उठाकर दालान में झाँका तो अँगीठी की चाय उफन-उफनकर कोयले पर जल चुकी थी। दरवाजा बन्द था। घर में वो अकेली थी। दरवाजे के पास पहुँची और उसे खोलना चाहा तो पता चला दरवाजा बाहर से बन्द है।
वो फर्श पर बैठ गयी। सिर को जरा सहलाकर देखना चाहा तो दर्द की कराह निकली ‘ उई माँ ‘ । माँ फिर याद आ गयी। वो माँ जो अपने नए मर्द के साथ जाने कहाँ होगी!
अच्छा हुआ अब्बा कुछ साल पहले ही अपना कुन्बा लेकर कसाई छ्ते से दूर मंगोलपुरी में जाकर बस गये थे। वर्ना आज सारा कसाई छत्ता उसकी माँ पर थू-थू करता। अचानक दुल्हन के ज़हन में कौंधा कि रज्जाक को खबर कैसे हुई ? अगर रज़्ज़ाक तक खबर पहुँची है तो कसाई छत्ते से भी बात छिपी न होगी। अब जो होगा देखा जाएगा। वैसे भी दूसरा मर्द उसने थोड़ी उसकी माँ ने किया है। रंडी कहीं की। खुद तो दूसरे मर्द के साथ गुलछर्रे उड़ा रही होगी और अब्बा की जान को चार छोटे-छोटे बच्चे छोड़ गयी। अच्छा हुआ मेरा निकाह हो चुका था। वर्ना मैं भी अब्बा के लिए अज़ाब हो जाती। जाने कहाँ होगी कलमुँही करमजली !
दुल्हन ने मन ही मन मां को कोसा। जितनी गालियाँ याद आयीं सभी दे डालीं पर जाने क्यों उन गालियों में वो आग और शिद्दत नहीं थी। उसके मन का एक गोशा ऐसा भी था जहाँ इस वाकये की वजह से अचानक आबशार फूट पड़ा था। शायद उसी के छींटे इस आग पर भी पड़ रहे थे।
कलमुँही कहते ही नगीना की आँखों के सामने रायबरेली के पास अकबरगंज गांव में नंगे पैर बकरयों को हरे पत्ते चराती छह-सात बरस की एक लड़की आ गयी जिसे उसने इस उम्र में कभी देखा ही नहीं था बल्कि सुनकर महसूस किया था। ये बच्ची कटोरी थी जिसे नगीना ने होश सँभालने से लेकर आज तक माँ कहा था। कितने सितम सहे हैं माँ ने बचपन से आज तक ! सारी जिन्दगी औरों के हिसाब से जीती रही। पहले दादा, फिर बाप और फिर खसम। आज जब पहली बार उसने अपने जी की की तो दुनिया को तकलीफ हुई, दर्द हुआ। अरे ये दर्द तब कहाँ गया था जब वो छह बरस की बच्ची महीनों भूख से छिपती फिर रही थी और डायन भूख अपने खुले जमे धूल भरे बालों और बड़े-बड़े दाँतोंवाला खौफनाक चेहरा लिए उसका पीछा कर रही थी। उसे पुकार रही थी “कटोरी…कटोरी… ”
माँ बताती थी, एक बरस रायबरेली में इतना पानी बरसा कि सारे गाँवों में बाढ़ आ गयी। सब तहस-नहस हो गया। जमा-बटोरा बह निकला। गेहूँ और धान की फसल मारी गयी। दूर-दूर तक अनाज नहीं। भुखमरी का माहौल। तभी सरकारी खबर मिली कि कहीं दूर एक कस्बे में सरकार मुसीबतज़दा गाँववालों को राशन देगी। कटोरी के दादा ने अपने चारों बेटों को बुलाया और तय किया कि बेटों के साथ उनकी बीबीयाँ भी राशन लेने चलेंगी। जो औरतें कभी गाँव की सरहद से बाहर नहीं गयी थीं अब अपने-अपने मर्दों के पीछे-पीछे घर के खाली कनस्तर और डोल लेकर चल पड़ीं। घर में इकलौती साइकिल भी थी। उसपर भी टायर से कुछ कनस्तर बाँधे गये। गाँव वालों ने सोचा था सारे खाली बड़े बर्तनों में गेहूँ और चावल भरलाएंगे पर वहाँ नफरी के हिसाब से एकखास मिकदार में ही अनाज मिला। वापस घर आकर दादा ने बेटों और बहुओं को फिर बुलाया और फैसला सुनाया कि गेहूँ की रोटी और चावल घऱ के सिर्फ मर्द और लड़के खाएँगे। औरतें उनके थाल में बचे-खुचे टुकड़े खाएँगी और चावल का माँड पिएँगी। घऱ की बच्चियों को चने और महुआ के फूलों को भूनकर चना-चबैना दिया जाए। माँ ने यह भी बताया था कि अगर कभी गलती से किसी लड़के की रोटियाँ बच जाती थीं या वो कहीं गया होता तो उसके इन्तजार में रोटियाँ छत की कड़ियों से लटके छींके में रख दी जातीं कि कहीं लड़कियाँ न खा जाएँ।
छह बरस की कटोरी घर के ठेर काम करके पेट की भूख मिटाने के लिए सिर्फ चने और महुआ केफूलों का चबैन पाती थी जिसे वो घंटों चबा-चबा कर मुँह में जमा भूखी लार के साथ निगल जाती।
बाढ़ ने कटोरी के कुन्बे की ऐसी कमर तोड़ी कि वो सँभल न सका। कुछ बरस बाद पहले कटोरी की बड़ी बहन और फिर कटोरी का निकाह करवा दिया गया। तब कटोरी सिर्फ तेरह बरस की थी और उसका दूल्हा अन्दाजन पैंतीस बरस का। शादी होकर जब कटोरी दिल्ली के कसाई छत्ते में पहुँची तो उसे पता चला कि उस मर्दुए की तीन औलादें हैं जो कटोरी से उम्र में बड़ी हैं। साथ ही घर में पचास बरस की एक सास भी मौजूद है। सारा दिन घर के कामों में खटने के बाद यहाँ उसे पेट भर रोटी तो मिलती थी पर साथ में खाविन्द की लातें और घूँसे भी खाने होते थे।
ये सब नगीना ने खुद अपनी आँखों से भी देखा था। एक रात माँ का होंठ ऐसा कटा कि रूई पर मलहम लगाये उसने घंटों रखा पर खून ने रुकने का नाम न लिया। अब्बा के काम पर जाने के बाद वह माँ के साथ इरविन हॉस्पिटल गई थी, जहाँ माँ के होंठ पर डॉक्टर ने दो टाँके लगाए थे। ऐसे जहन्नुम से अगर वह भाग गई तो क्या बुरा हुआ?
दुल्हन इन्ही खयालों में गुम थी कि दरवाजे की कुंडी खुली और रज़्ज़ाक अन्दर दाखिल हुआ। फर्श पर दुल्हन को बैठा देख उसके सिर पर भूत उतर आया और उसने जूतेवाली एक ज़ोरदार लात उसकी पीठ पर जमा दी, “रंडी की बेटी, जैसी छोड़ गया था वैसी ही बैठी है बिना शलवार के…हरामज़ादी अपनी नंगी टांगें क्या रमजानी के लिए खोलकर बैठी है इन्तजार कर रही है इसका कि वो सीढ़ियों से ऊपर आए और नीचे देखे ?“
दुल्हन के मुँह से दर्द भरे ‘ अल्लाह ‘ के सिवा कोई शब्द न निकल पाया। जैसे-तैसे उसने खुद को समेटा और उठकर खाट की ओर चली। शलवार उठा रही थी तो रज़्ज़ाक ने उकड़ू बैठकर बीड़ी जलाते हुए खास ठंडे ठहरे लहजे में पूछा- “ वैसे तेरी माँ को ये सूझी क्या? क्या बुढ्ढा खाने को नहीं देता था ? “
दुल्हन ने कोई जवाब न दिया और खाट पर बैठकर दाहिनी टांग शलवार में डालने लगी।
“ अरी तेरी ज़बान भी अपने साथ ले गई क्या तेरी बद्जात माँ । जवाब क्यों नहीं देती? ”
दुल्हन ने अब दूसरी टांग शलवार में डाली “ जिद्दन जवाब दे रही है कि उठूँ फिर से…तेरे हाथ पैर तोड़ने के लिए?“
शलवार का नाड़ा हाथ में लेकर जाने कहां से चीखी दुल्हन, “ कसाई था वो कसाई…तेरी तरह…इसलिए। “
रज़्ज़ाक ने आव देखा न ताव। वह उठा और दुल्हन का कन्धा जोर से पकड़कर बीड़ी उसकी कमर से बुझा दी।‘ अरी मेरी माँ ‘ कहती हुई दुल्हन छटपटा उठी।
कमर और मर-मर कर जीते मन के फफोले सहलाते-सहलाते दुल्हन के रात दिन एक खासी सुस्त रफ्तार से गुज़र रहे थे। अब वहाँ मोहल्ले की बुजुर्ग औरतों का ताँता नहीं लगता था। उन बुजुर्गों के ज़हन में बसे कस्बापुर के कसाई छत्ते के नक्शे से गली दुल्हनवाली की पतली लकीर सबसे ताज़ा होने के बावजूद मिट चुकी थी। एक-आध बार हिम्मत कर अपना बुर्का पहनकर दुल्हन खुद उनके दर पर पहुँची थी पर उन्होंने दुल्हन से उसकी माँ के बारे में इतने सवाल किये कि दुल्हन को अपने घर की दीवारों पर पुती ऊब, आलस के ढेर-सा ऊँघता दिन और धीमे कदमों से चलती कूबड़वाली शामें ही अपनी लगने लगी थीं। शाम ढलने के बाद रज़्जाक आता तो वो चूल्हे पर तवा चढ़ाती। सालन और प्याज के साथ गर्म-गर्म रोटी पेश करती। खाना खाते ही रज़्ज़ाक में जान आ जाती और वह इतना बेसब्रा हो जाता कि बिखरी रसोई से दुल्हन को खाट की तरफ घसीट ले जाता।
“ क्या करता है रे…चूल्हा तो ठंडा होने दे।“
“ चूल्हे को छोड़ पहले मुझे ठंडा कर।“
दुल्हन का रोम-रोम सिहर उठता। ऐसे में उसने एक दिन लजाते हुए पूछा,“ इत्ता प्यार करता है मुझे?”
“ अरी जा! बड़ी आई!”
“तो फिर ? “ दुल्हन की आँखों की खुमारी ने कहा।
“ आदत पड़ गयी है मुझे, “ कांच की मीनेवाली चूड़ियों से भरी उसकी कलाई को पीछे करते हुए कहा रज्जाक ने।
“ जैसे माँ-बहन की गाली देना ? “ रज्जाक के पास दुल्हन की बातें सुनने का वक्त नहीं होता था। सो उसने अपना ध्यान हटाकर कोई जवाब देना भी ठीक नहीं समझा। अपने जी की पूरी करने में लगा रहा।
गली दुल्हनवाली के आखिरी अन्धे कोने से किसी साज़ पर बजायी जाने वाली मातमी धुन गली के रास्ते दुल्हन के घर में शामिल हो चुकी थी।
“ कौन बजाता है ये ? “ एक लम्बी सांस छोड़कर थकान भरे स्वर में पूछा दुल्हन ने।
“ तुझे क्या! अपने काम से काम रख। इधर-उधर का सोचा तो दाँत तोड़ दूँगा। समझी ?“ कहते हुए रज़्ज़ाक ने पसीना पोंछा और सीधा लेटकर छत की कड़ियां देखने लगा।
दुल्हनने सवाल करने तो बन्द कर दिए थे पर इस मातमी धुन से उसका नाता जुड़ गया था। रोज रात को वो मायके से आने वाली किसी खबर या सगे की तरह मन ही मन उसका इन्तजार करती थी।
करवट बदलकर रज़्ज़ाक ने दुल्हन को एक बार फिर अपनी तरफ खींचा। “ सबर तो कर “ , निकला दुल्हन के मुँह से।
“ सारे दिन का भूखा -प्यासा सबर करने आता हूँ क्या घर ? “ रज़्ज़ाक उस पर बैठ चुका था। दुल्हन के मुँह से एक आह निकल पायी थी बस। मरे को नासूर हो। कहा उसने मन ही मन। जाने कैसा कसाई है। अरे कसाई भी दूसरी बार हलाल करने से पहले छुरा साफ करता है। अल्लाह-ओ-अकबर पढ़ता है। ये नामुराद तो सांस लेने की भी मोहलत नहीं देता। बस हलाल के बाद हलाल के बाद हलाल !
थोड़ी देर बाद ढेर हुए रज़्ज़ाक के खर्राटे सुनते ही दुल्हन उठी। उसने अपने जिस्म को हलाल के बाद बिना साफ किए हुए छुरे की तरह छुआ तो भीतर एक उबकाई-सी उठी। अँधेरी रात में रज्जाक का मैला तहमद ओढ़ वह नहाने चल दी।
जाने कितनी थकी-थकी सुबहों, बासी अंगड़ाई लेती दोपहरों और हाँफती रातों के बाद एक रोज रज़्ज़ाक जब कमेले से लौटा तो अकेला न था। उसके साथ था छह दिन का एक बकरी का बच्चा। भूखा मिमियाता।
“ये ले सँभाल इस कटरे को…भूखा है,” कहते हुए रज़्ज़ाक ने उसे गोद से उतारा था। दुल्हन ने कटरे की पीठ पर प्यार से हाथ फेरा तो उसकी खाल में कँपकँपी-सी दौड़ गयी जो दुल्हन की बाँहों के जरिए कलेजे तक पहुँची।
” कल एक चुसनी ले आइयो…इसे बोतल से दूध पिलाएँगे, ” कहा दुल्हन ने और रूई ले आयी। फिर रज़्ज़ाक के साथ मिलकर उसने बकरी के बच्चे को दूध पिलाया। रूई के फाहे से उसके मुँह में कभी दुल्हन दूध डालती तो कभी रज़्ज़ाक। उकड़ूँ बैठा रज़्ज़ाक ज़रा कोहनी ऊपर कर रूई का फाहा बकरी के ऊपर उठे हुए मुँह की ओर ले गया तो दुल्हन ने ठहरकर देखा। शायद पहली बार रज़्ज़ाक उसे भला लगा था। उसका अपना जी चाहा था कि उसे दिल खोलकर प्यार करे।
” इसे हम पालेंगे,” नम आवाज में दुल्हन ने कहा।
“तेरे खेलने के लिए नहीं है ये…क्या समझी…खिला-पिलाकर तगड़ा कर इसे जिससे कुछ दाम मिले। ”
” क्या! ” दुल्हन ने हैरानी से पूछा ” तू इसे बेचेगा ? ”
” नहीं! ” फाहा दूध के कटोरे में छोड़ उठते हुए रज़्ज़ाक ने कहा, ” तेरे दूसर निकाह पर डेग में चढ़ाऊँगा। ” फिर बहन की गाली देते हुए चीखा, ” चल उठ तवा चढ़ा। ”
दुल्हन का दिल ज़रूर टूटा पर ऐसे तारे तो रोज ही उसके आसमान में टूटा करते थे जिन्हें ठहरकर देखना उसने कबका छोड़ दिया था।
“इसे हम भूरी कहेंगे ” उस सफेद बकरी के भूरे चिकत्तों पर हाथ फेरते हुए कहा दुल्हन ने और फिर चूल्हे की तरफ बढ़ गयी।
भूरी दुल्हन की ज़िन्दगी का एक हिस्सा बन गयी थी। सारा दिन खिला-पिलाकर उसे गली में दरवाजे के पास एक रस्सी से बाँध देती और खुद दरवाजा बन्द कर सो जाती। एक दोपहर में उसके दरवाज़े पर दस्तक हुई। क्या रज़्ज़ाक जल्दी आ गया? वह हैरान थी। तो फिर कौन? वह उठी और दरवाज़े के पास आकर ज़ोर से पूछा ” ऐ कौन है? ”
” मैं हूँ गौरी… ।” माँ ने कहा है अपनी बकरी हटा लो…हमारे दरवाज़े पर गन्दा करती है।” इस आवाज़ पर दरवाज़ा खोलकर देखा तो छह-सात बरस की एक लड़की खड़ी थी जो गली के पहले मकान में रहती थी। दुल्हन ने इसे और इसकी माँ को एक-आध बार देखा था पर इन कुछ महीनों में कोई बात नहीं हुई थी।
” गन्दा करती है ? ” बच्ची के भोलेपन से खेलते हुए पूछा दुल्हन ने।
” हाँ बाहर निकलकर देखो। हमारे यहाँ शाम को मेहमान आने वाले हैं। ”
दुल्हन मुस्करायी। दुपट्टा सिर पर सम्भालते हुए बाहर आयी और भूरी को अन्दर ले गयी। फिर झाड़ू लेकर आयी और सारी गली से कटरे की मेंगनी बटोरकर बाहर नाली में फेंकी। झाड़ू लिए लौट रही थी तो गौरी को गली के पहले दरवाजे पर पाया।
“ये बकरी नहीं है। ” हा दुल्हन ने।
” तो? ” गौरी ने हैरानी से पूछा।
” भूरी है भूरी….जैसे तू गोरी है।”
“मैं गोरी नहीं। ”
” तो क्या काली है ? ”
” नहीं मैं गौरी हूँ। ” कहते हुए गौरी अपना कन्धा झटककर अन्दर चली गयी और दुल्हन भी अपने दरवाज़े का टाट हटाकर अन्दर दाखिल हुई।
अगले दिन दुल्हन दरवाज़े की तरफ कान लगाए बैठी थी। जैसे ही गली के पहले दरवाज़े पर हल्का-सा खटका हुआ, उसने अपने टाट में से झाँका। गौरी थी।
“ओ गौरी !” दुल्हन ने पुकारा तो गौरी ने पलट कर देखा। ” तुम्हारे मेहमान आ चुके ? ”
” हाँ, मेरे मामा आए थे। नयी फ्रॉक भीलाए हैं। ” गौरी ने पेट पर अपनी फ्रॉक को छूकर कहा।
” अरे वाह! ये तो बड़ी खूबसूरत है। सुन…तेरे घर में कौन-कौन है ?”
“माँ हैं, पापा हैं, मैं हूँ, भैया हैं। ”
” तेरे भैया कितने बड़े हैं ? ”
” बहुत बड़े हैं। दसवीं में पहुँच गए हैं।”
” अभी घर में कौन है ? ”
” माँ हैं और कौन ? ”
” और तेरे…वो तेरे पापा ? ”
” पापा तो ऑफिस जाते हैं ।”
” माँ क्या सो रही है ? ”
” नहीं मेथी तोड़ रही है। ”
अब दुल्हन अपने दरवाज़े से बाहर आयी और गौरी के दरवाज़े पर पहुँची। दरवाज़ा खुला था। आँगन में गौरी की माँ एक पटरे पर बैठी मेथी साफ कर रही थी। दुल्हन उनके दरवाज़े की पत्थर वाली चौड़ी चौखट पर बैठ गयी।
” अरे आओ आओ…अन्दर चली आओ, ” गौरी की माँ ने कहा।
” यहीं ठीक है…यहाँ से अपने दरवाज़े को भी देखती रहूँगी। ”
” तुम्हें तो बस पहले ही दिन देखा था…जब दुल्हन बनकर आयी थीं तुम…मैं अनीसा की माँ के साथ आयी थी। ” गौरी की माँ ने कहा।
” हाँ विसने तुम्हारा नेग देते हुए बताया था कि तुम गली में ही रहती हो।” दुल्हन ने कहा।
” मगर फिर तुम कभी दिखी ही नहीं। ”
” हाँ मेरा मर्द… ” कहते हुए, दुल्हन रुक गयी।
” बहुत गुस्से वाला है, ” गौरी की माँ ने वाक्य पूरा किया। “गुस्सा तो इन मर्दों की नाक पर धरा होता है। ”
दुल्हन सिर का दुपट्टा सँभालते हुए मुस्करायी।
” अरे दोपहर में आ जाया कर कभी-कभी…तब तो मर्द लोग होते नहीं…और गली में तेरे-मेरे सिवा भी कोई नहीं होता । ” गौरी की माँ की बेतकल्लुफी से दुल्हन की हिम्मत बढ़ी।
“वो एक मकान और है ना आगे ? ” दुल्हन ने पूछा।
” हाँ मगर वो दोनों तो मास्टर-मास्टरनी हैं। किसी दूर के स्कूल में जाते हैं। शाम को लौटते हैं दोनों। उनके बच्चे भी उसके साथ ही आते हैं। ”
” मास्टर-मास्टरनी हैं ! फिर रात को वो क्या बजाते हैं ? ”
” वो…अच्छा…वो जो ग्रीन साहब हैं ना, ईसाई जात हैं। जो उनके चरच में गाना-भजन होता है वही बजाते रहते हैं। ”
रज़्ज़ाक से जिन सवालों के जवाबों की उम्मीद नहीं थी वो गौरी की माँ से मिल रहे थे। एक नहीं अनेक दिन, बल्कि रोज़ दुल्हन यहाँ आकर बैठती। गौरी की माँ कभी कपड़े धोती मिलती तो कभी चावल फटकती। और दोनों दोपहर में घंटों बातें करती। इस बीच गौरी अपनी तख्ती पर आँगन में बैठी खड़िया मिट्टी पोतती तो कभी अन्दर भैया से पढ़ती। दुल्हन अगर गौरी की माँ के लिए दुल्हन थी तो गौरी और उसके भाई के लिए भी दुल्हन ही थी। दुल्हन गौरी की माँ से अपना अकेलापन बाँटती थी। फिर गौरी की माँ न अपने कुन्बे की थी न जात-बिरादरी की इसलिए वो बेखटके उससे अपने जी की कह लेती थी।
” गौरी की माँ तुम भी मेरी तरह अकेली ही हो। मैं कम से कम छतों से आती इसकी-विसकी आवाज़ें, लड़ाई- झगड़े तो सुन लेती हूँ पर तुम तो अपनी जात-बिरादरी में भी नहीं हो। तुम इस कस्साबपुरे में आयीं कैसे?”
” अब तो दस साल हो गये। गौरी तो यहीं पैदा हुयी थी। अरे दिल्ली में सस्ता मकान मिलता कहाँ है ? इनके दोस्त हैं अशफाक साहब। उन्होंने ही दिला दिया। मकान की छत का कसीदी झगड़ा है इसलिए ज़रा सस्ता मिल गया। फिर दुल्हन मोहल्ले से क्या होता है! अपना दरवाज़ा बन्द करो तो दुनिया उतनी ही रहती है।”
दुल्हन इस पर खामोश रही तो गौरी की माँ ने भाँपते हुए बात आगे बढ़ायी, ” अरे कुछ दिनों की बात है तेरी भी गोद भर जाएगी तो अपने काम धन्धे से लगेगी। ” दुल्हन ने मन ही मन इंशा अल्लाह कहते हुए हल्का सा मुस्करा दिया।
और कुछ ही दिनों में जब दुल्हन के पाँव भारी हुए तो ये खबर उसने सबसे पहले गौरी की माँ को ही सुनायी। ” तुमने ही दुआ दी थी इसलिए सबसे पहले तुम्हें ही बता रही हूँ …मेरे अपने लोग पास होते तो… ” कहते हुये दुल्हन की आँखें भर आयी थीं।
” अरी जो दुख-दर्द में काम आएँ वही अपने। अपने घरवाले से पूछकर मोहल्ले की किसी बड़ी बी से बात कर ले । डॉक्टर के हो आ मुझे कहेगी तो मैं तेरे साथ अस्पताल चल सकती हूँ। पर पहले घर में पूछ ले। ”
गौरी की मां की चौखट पर बैठकर दुल्हन ने जैसे पहले और दूसरे बच्चे के लिए छोटे-छोटे स्वैटर , मोजे, और टोपे बुने थे वैसे ही अब तीसरे के लिए बुन रही थी। पहली बेटी नरगिस तीन साल की थी और दूसरी मुबीना सवा साल की।
“ गौरी की मां मैं चलती हूं …रज़्जाक आता होगा।
“ क्यों आज जल्दी आएगा ?”
“ हां आज कमेला बन्द है। इश्ट्राइक है। किसी की बकरियां बिकाने गया है। कभी भी आ सकता है। “ ऊन समेटते हुए दुल्हन उठ खड़ी हुई।
“ तभी तूने आज गरारा पहना है। “ आंखों में चमक भरकर कहा गौरी की मां ने।इस पर दुल्हन अपनी झेंप छिपाने के लिए ज़ोर से हंस दी।
“ तुझे गरारा काटना आता हो तो मैं कपड़ा दूंगी…सिल मैं खुद लूंगी।“
“हाय-हाय क्या गरारा पहनोगी?”
दोनों तरफ एक निश्छल हँसी गूँज उठी। फिर हँसी को सँभालते हुये कहा गौरी की माँ ने “ नहीं री…हमारे यहां तो शादी के बाद सिर्फ साड़ी ही रहती है। गौरी के लिये कह रही थी। अभी बच्ची है…उसे चाव भी बहुत है।“
“ हाँ हाँ भेज देना …मैं सिल भी दूंगी, “ कहते हुए दुल्हन लहराती चाल से अपने दरवाज़े की ओर चली। रज़्ज़ाक ने कहा था आज जामा मस्जिद से बच्चों के लिए कुछ मीठा लेता आएगा और क्या पता आज उसकी बात मानकर उसे कहीं घुमाने ले ही जाए। अन्दर आकर उसने खाट पर सो रही नरगिस और मुबीना की चद्दरें ठीक कीं और पालक धोने बैठ गयी। सालन में डाल दूंगी तो मज़ा बदल जाएगा। चूल्हा सुलगाया और सालन के लिए बघार तैयार किया। चूल्हे से निपटी तो रज़्ज़ाक के इन्तज़ार में दालान की सफाई कर डाली। बार बार अपना गरारा समेटती और यहाँ वहाँ चलती। दालानमें टंगे रोटी के टुकड़ों के छींके को झाड़ा। तभी कुछ याद आया तो रसोई की तरफ बढ़ी। रोटीकी डलिया से निकालकर कल की बची रोटियों के टुकड़े किये और छींके में डाल दिये। पड़े-पड़े धूप में तैयार हो जाएँगे तो किसी आड़े दिन काम आएँगे। सोचा दुल्हन ने। नरगिस और मुबीना इस बीच उठकर गली से बाहर भी घूम आयी थीं। तीन साल की नरगिस अक्सर मुबीना को अपनी बायीं ओर कूल्हे के ऊपर की कमर पर बैठाकर मोहल्ले भर में चक्कर लगा आती थी।
रात घिर आयी थी। वही रोज़ का समय मगर रज़्ज़ाक का अता-पता नहीं था। बच्चियों को एक रकाबी में सुबह की रोटी पर ज़रा-सा पालक और सालन देकर उसने कपड़े बदलने शुरु किये। नरगिस ने गस्से तोड़कर खाना शुरु किया और मुबीना सालन के शोरबे को बीच-बीच में उंगली से चाट रही थी। आज ट्रंक से जामुनी गरारा निकालकर पहना था हल्के गोटेवाला। सोचा था रज़्ज़ाक उसे सजा-सँवरा देख शायद घुमाने ले जाने के लिए हामी भर ही दे। पर अब कोई उम्मीद बाकी न थी। उसकी मेहनत और ख्वाब सब बेकार हो गये। वो तो घर लौटा ही नहीं। चाहे गाली-गलौज ही करता पर वक्त से आ तो जाता। सवाब न अज़ाब कमर टूटी मुफ्त में!
तभी अचानक रज्जाक घर में दाखिल हुआ। उसने अखबार के कागज़ में लिपटा कुछ दुल्हन को पकड़ाया, “ ये ले गोश्त…पाव भर है। जरा अच्छा गलाइयो ।“
“ बड़े का है? “
“ तेरे बाप ने पूरा कमेला मेरे नाम कर रखा है ना कि तुझे रोज बकरे का गोश्त खिलाऊँ!”
बच्चियां सहमी हुयी थीं। नरगिस ने रकाबी खिसकायी और कोने को हो गयी। मुबीना भी खुद को घसीटकर रकाबी की तरफ ले गयी।
“ गरम क्यों हो रहा है…पूछा ही तो था बस, “ दुल्हन ने जवाब दिया।
“ चल-चल रोटी खिला।“
रज़्ज़ाक रोटी खा रहा था तो दुल्हन ने मुबीना को उठाया और छाती से लगाकर दूध पिलाने लगी। अब उसका दूध उतरता नहीं था पर इसके बिना मुबीना सोती भी नहीं थी। नरगिस खुद ही रकाबी नल के नीचे ऱख चद्दर ओढ़ सो गयी थी। दुल्हन ने सोती मुबीना से अपना दूध छुड़वाया और उसे भी नरगिस की चद्दर में सुला दिया।
आसमान में टहलता पूरा चांद दुल्हन के दालान में झाँक रहा था जिसकी चाँदनी छिटककर बिना दरवाज़े के कमरे को रोशन कर रही थी।
”मैने आज गरारा पहना था…जामुनी गरारा। “ कहा दुल्हन ने।
“ क्यों? कहीं गयी थीं क्या ?“
“ नहीं तेरा इन्तज़ार कर रही थी,“ गिलास में पानी थमाते हुए दुल्हन ने जवाब दिया। रज़्ज़ाक ने मुड़कर जाती दुल्हन की कलाई पकड़ ली थी “ तो जा कहां रही है?”
“ रोटी खाने।”
“ बाद में खा लीजियो…पहले इधर… “
“कहते हुए उसने दुल्हन को इतने झटके से अपनी ओर खींचा कि वो उसकी गोद में आ गिरी। “ उई माँ…क्या करता है बच्चे जग जाएँगे।“
“अभी तो सोए हैं…नहीं जगेंगे…उनके मुँह पर चद्दर ढक दे,“ कहते हुए रज़्ज़ाक ने दुल्हन को ज़मीन पर लिटा दिया था। फिर बच्चों का मुंह ढकने का होश किसे रहा। पसीना-पसीना होकर जब रज़्ज़ाक उठा तो दुल्हन ने खुद को समेटकर उठना चाहा। रज़्ज़ाक ने उसकी टाँग पकड़ ली, “ लेटी रह।“
“बहुत हुआ…मेरे पेट का तो खयाल कर। “ दुल्हन बोली।
“ ऐसा क्या है…अभी तो पाँचवा ही लगा है, “ दुल्हन के पेट पर हाथ फेरते हुए कहा उसने, “थक गयी तो साँस ले ले…मैं एक बीड़ी पीता हूँ।“
हाथ लम्बा कर उसने आले में से बीड़ी का बंडल और माचिस ली और अपनी बीड़ी सुलगायी। बीड़ी का कश भरते-भरते उसके हाथ पास लेटी दुल्हन की जांघों के आस-पास भटक रहे थे। तभी उसके मुँह से निकला, “ नरम घास!“ जाने किस खुमारी से दुल्हन की आँखें मुँद चुकी थी मगर ये शब्द उसके कानों तक पहुँचे थे। रज़्ज़ाक ने दुल्हन के चेहरे की ओर देखा तो उसकी आँखें बन्द थीं। हो गया ससुरी को नशा। सोचा रज़्ज़ाक ने। पहले तो हाथ नहीं लगाने देती फिर आँखें बन्द कर पड़ जाती है। यही तो हरामीपन है इन औरतों का। जाने रज़्ज़ाक के मन में क्या आया कि उसने दुल्हन से हाथ हटाकर माचिस उठा ली। माचिस की तीली जलाने की आवाज सुनी तो दुल्हन ने आँखें खोलीं। क्या दूसरी बीड़ी पीएगा? पर वह समझ न पायी क्योंकि जलती बीड़ी रज़्ज़ाक ने दाँतों में दबा रखी थी और सुलगती तीली की लौ को एकटक देखते हुए वो उसे बहुत धीरे-धीरे दुल्हन की जाँघों की ओर ला रहा था। दुल्हन चौंकी, “ हट…क्या करता है? “ उसने उठने की कोशिश की मज़बूत हाथ से रज़्ज़ाक ने उसकी दाँयी टाँग खींचीं, “ लेटी रह।“
सुलगती तीली वाला हाथ धीरे-धीरे नज़दीक आ रहा था। “ छोड़ दाढ़ीजार… छोड़,“ दुल्हन ने सारा दम बटोरकर ज़ोर लगाते हुए खुद को खींचा तो रज़्ज़ाक ने और मजबूती से उसकी टाँग अपनी ओर खींची। सुलगती तीली और पास लाते हुए वो ठंडे लहजे में बोला, “ कुछ नहीं होगा तुझे…देखने तो दे…अरी फट बुझा भी दूंगा मैं।“
“छोड़ कजरी के…तेरे कोढ़ हो…। “ रज़्ज़ाक की पकड़ और मज़बूत हुई थी। सुलगती तीली की लौ उसकी पुतलियों में हँस रही थी। अचानक दुल्हन को जाँघों के पास आँच महसूस हुई तो वो ज़ोर से चीखी, “ या खुदा…। “ ज़िबह होने से पहले जैसी यह चीख कमरे और दालान में गूंज उठी। उसने झटके से बाँयी टांग उठाकर रज़्ज़ाक की छाती पर धक्का मारा। रज़्ज़ाक की सुलगती तीली उसकी उँगली को हल्का-सा जलाती हुई दूर जा गिरी और रज़्ज़ाक का सिर दीवार से टकराया। दुल्हन फौरन उठी। नीचे पड़ी शलवार उठायी और दरवाजा खोल घर से बाहर गली में आकर दम लिया। गली के अँधेरे में हाँफते-हाँफते उसने झट शलवार पहनी। तभी अचानक घर का दरवाजा उसके मुँह पर बन्द हो गया, “ हरामजादी रह अब तू बाहर ही।“
“ अरे खोल…नासपीटे खोल, “ दरवाजा ठोकते हुए वह बोली। पर भीतर खामोशी छा चुकी थी। अँधेरे का सहारा ले दुल्हन ने गली की दीवार से टेक लगायी और फूट-फूटकर रोने लगी। गली में पहली बार बिना दुपट्टे के बैठी थी। “ हैवान कहीं का…वो तो अच्छा हुआ कि मैने कमीज़ पहन रखी थी वर्ना…“ रज़्ज़ाक को जन्म भर की सीखी-सुनी गालियाँ मन ही मन देते हुए वो उस उठते नवंबर की रात में अँधेरा ओढ़कर वहीं घुटनों में सिर टिकाकर रोती-सोती रही।
रात के तीन बजे थे। मुबीना ने अम्मी को पास न पाया तो रोने लगी। उसका रोना सुन नरगिस भी जाग गयी और अम्मी को ढूँढ़ा। रज़्जाक ने जोर से डपटते हुए सुलाना चाहा पर इसपर वो दोनों डरकर और ज़ोर से रोने लगीं। बाहर से दुल्हन ने आवाज़ लगायी, “ अरे दरवाजा खोल…बच्चे रो रहे हैं।“
नरगिस रो रही थी, “ अम्मी … “ तो रज़्ज़ाक ने कहा “ तेरी अम्मी को जिन्न ले गया जिन्न…सो जा वर्ना तुझे भी ले जाएगा।“ जिन्न का नाम सुन नरगिस दहाड़कर रोने लगी। रज़्ज़ाक को नींद में खलल तो पड़ ही चुका था। वो उठा उसने दरवाज़ा खोला, “ चल अन्दर…सम्भाल अपने गुर्दे-कपूरों को। मरे रात-रात भर रोते रहते हैं।“ वह लौटा और पड़कर सो गया। दुल्हन दौड़ी हुई आयी तो बच्चियां उससे चिपट गयीं। दोनों को बांहों में लिए वो कब सो गयी उसे पता न चला। सुबह वह रज़्ज़ाक की आवाज़ से ही जगी। “चल उठ पानी चढ़ा मैं दूध ले के आता हूँ, “ कहता हुआ वो दरवाज़े से बाहर चला गया।
दोपहर में गौरी की माँ ने रात की लड़ाई का हाल पूछा तो दुल्हन टाल गयी। क्या बताती? बस इतना कहा कि कल रज़्ज़ाक के सिर पर ऐसा भूत सवार हुआ कि उसने मुझे रात में घर से निकाल दिया। गौरी की माँ हैरान थी, ” तब तूने क्या किया ?“
“ क्या करती गौरी की माँ ? उसी दर पर बैठी रही…ठिठुरती वहीं सो गयी बैठे-बैठे। “
“ कैसी मौत है ! मैं तो तुझसे ये भी नहीं कह सकती कि हमारे यहां क्यों न आ गयी। तब तो तेरा घरवाला तुझे जान से ही मार डालता।“
” छोड़ो वो सब तो बीत गया…दिल खुश करने की कोई बात करो। “
“ बता, क्या बात करें। “
“अपने भगवान से दुआ करो कि इस बार मेरे बेटा हो। “
” होगा, होगा…जरूर होगा, “ कहा गौरी की मां ने।
“ गौरी की माँ एक बात कहूँ..“ दुल्हन ने हिचकते हुए कहा।
” बोल ना, “ उसे जवाब मिला।
” मेरा जी चाहता है मेरा बेटा हो और अपने बच्चों को मैं तुम्हारे बच्चों की तरह पढ़ाऊँ। “
” ज़रूर पढ़ाना…कहेगी तो मैं इस्कूल में भर्ती करवा दूँगी। “ गौरी की माँ ने भरोसा दिया।
“ वो ले लेंगे मेरे बच्चों को ? “
“ हाँ, क्यों नहीं…थोड़ा-सा इन्हें गौरी और उसका भैया घर में भी पढ़ा देंगे।“
दुल्हन के मन में इस्कूल के सपने की नन्ही हरी कोपलें लहरा उठीं। इस बार उसे बेटा हुआ-मुकीम। उसके बाद सलीम। रज़्ज़ाक से बच्चियों को स्कूल भेजने की बात की तो रज़्ज़ाक पर हैवान उतर आया और उसने दुल्हन को पीटकर घर से बाहर निकाल दिया। गौरी की मां ने दुल्हन की दो बेटियों की पढ़ाई की इब्तिदा अपने घर में की। दुल्हन बांचवी बार पेट से थी तो नरगिस और मुबीना तख्ती लेकर गौरी के घर जाते थे। वो सारा दिन गिनती और ‘क ख ग’ की मशक्कत करते थे। रात में तख्तियां कोलकी में छिपा दी जाती थीं।
मुकीम पांच साल का हुआ तो दुल्हन ने रज़्जाक से उसे स्कूल भेजने की बात की। इस बार रज़्ज़ाक ने उसे बच्चों समेत घर क्या धक्के देकर गली से भी निकाल दिया। पांच बच्चे लिए वो सड़क पर खड़ी थी। घर से निकलते हुए नरगिस ने उसका सफेद बुर्का उठा लिया था जिसे सिर से पहनकर सड़क पार कर दफ्तरों की बिल्डिंग के साये में बैठ गयी थी। ये बिल्डिंग का पिछवाड़ा था जहाँ दफ्तरों की खिड़कियाँ खुलती थीं पर उनमें अन्दर की हवा बाहर फेंकने के लिए उल्टे पंखे लगे थे। वहाँ एक मुंडेर पर आते-जाते लोगों से अपना चेहरा छिपा वो लगभग तीन घंटे बैठी और जब रज़्ज़ाक का हैवान सिर से उतर गया तो घर लौट आयी।
इन तीन घंटों में वह तय कर चुकी थी कि चाहे जो कुछ हो जाए, मुकीम को इस्कूल में दाखिल कराकर रहेगी। अगले दिन वो बुर्का उठा नरगिस और मुकीम को लेकर पास के स्कूल में गयी और मुकीम का दाखिला कराकर लौटी। इसपर गौरी की माँ ने हैरान होकर पूछा, “ रज़्ज़ाक मान गया?“
“उस हरामी के हाथ-पाँव फडकते ही रहते हैं, तो क्या करें? जीना तो नहीं छोड़ देंगे ना। पीटेगा तो पीटे। वैसे हम उसे बताएँगे ही क्यों! दीन का न दुनिया का। सुबह निकल जाता है तो रात को शक्ल दिखाता है। ऐसे ही रहेंगे हम चुप।“
गौरी की माँ खामोश रही। आज उसका मन बातों में खास था नहीं।“ अब कुछ दिन हम शायद दोपहर में बातें न कर पाएँ,“ कहा उसने। “ क्यों? कहीं जा रही हो।“
“ नहीं मेरी ननद का ससुर बीमार है। अस्पताल में दिखाने दिल्ली ला रहे हैं। इसलिए चार लोग कुछ दिन अपने यहाँ ही ठहरेंगे।“
“ अच्छा इसीलिए कल शाम भाईसाहब तुम्हारा हाथ बँटा रहे थे। देखा था मैंने झाँककर तुम कपड़े धो-धोकर पकड़ा रही थीं और वो झाड-झाड़कर सुखा रहे थे। कित्ता खयाल रखते हैं तुम्हारा!“
“ अपनी गरज तो बावली होती है। अभी तो एक टाँग पर भी कहोगे तो खड़े हो जाएँगे दिन भर। अपनी बहन के ससुराल का जो मामला है।“
“ अरे क्या कहती हो…वो तो अक्सर…“
“मतलब से दुल्हन…सब मतलब से। मेरे जीजा का एक्सीडेंट हुआ तो उनके दिमाग का ऑपरेशन किया गया। तब साफ कह दिया था इन्होंने कि अपनी बहन से कहना अस्पताल के आस-पास ही कोई कमरा ले ले। यहाँ से दूर भी पड़ेगा और अपने पास इतनी जगह भी नहीं है। अब कोई पूछे कि जब वो एक अकेली नहीं खप सकती थी तो तुम्हारी बहन के चार-चार कैसे खपेंगे?“ गौरी की माँ ने मन का गुबार निकाला।
“ अब भाई साहब कहाँ हैं?“
“ उन्हें लेने गये हैं इश्टेशन।
“अरे छोड़ो ना गौरी की माँ,“ दुल्हन ने कहा। “मुझे तो लगता है कि हम औरतों का दर्द खत्म तो क्या कम होने का भी नहीं। सोने के भाव की तरह बढ़ता ही जाता है।“ गौरी की माँ को दुल्हन की बात अजब लगीतो उसे एक टक देखा। दुल्हन उसका जी हलका करना चाह रही थी,“सोचो गौरी की माँ अगर हमारा दर्द सोने का भाव न होकर आलू-प्याज का भाव होता तो? मरा कभी तो कम होता।“ और दोनों औरतें ठहाका मारकर हँस दीं।
एक दूसरे के दुःख-दर्द बाँटते जिन्दगियाँ कटती रहीं। दुल्हन दिन में गौरी की माँ से बातें करती तो रात के साँय-साँय अँधेरे में ग्रीन साहब की सरसराती आती धुनें सुनती। जाने उन्हें मातमी धुनों से इतना लगाव क्यों था? गौरी की माँ ने बताया था कि वो अपने ईसा मसीह के दुखों का सोग मनाते हैं। शायद हमारे मोहर्रम की तरह। सोचा दुल्हन ने। दूसरों के दर्द में हम क्यों शरीक होना चाहते हैं? यहाँ तक कि कभी-कभी उस दर्द को गाकर सुकून मिलता है। क्यो? दूसरों का दर्द गाकर-सुनकर कहीं हम अपने दर्द पर ही फाहा तो नहीं रख रहे होते? दुल्हन ये सब नहीं जानती थी पर हाँ इतना तो समझने लगी थी कि इन अँधेरी रातों में ये धुनें उसकी जलती-रोती रूह पर मुल्तानी मिट्टी का ठंडा लेप लगाती है। उसके कलेजे को तुख्मे बलंग की ठंडक दे जाती हैं।
मुकीम का स्कूल जाना न रज़ज़ाक से छुप सकता था और न छुपा। घर में कोहराम मचा। दुल्हन मय बच्चों के सड़क पर पहुँची पर मुकीम स्कूल जाता रहा। कुछ साल बाद सलीम भी उसके साथ-साथ स्कूल जाने लगा। गली दुल्हनवाली कभी गर्म दोपहरों में तो कभी सर्द रातों में दुल्हन से महरूम होती रही पर ज़िन्दगियों का चक्का चलता रहा। चलता ही रहता है।
ऐसा ही एक चक्का कुछ दिनों के लिए मस्जिद के सामने रैन बसेरे के आँगन में ठोककर लगाया गया तो बच्चे झूम उठे। अपनी अम्मी से कहने पर बात पूरी हो, कितनी हो या क्या पता न हो, सोचकर बच्चों ने नरगिस बाजी से ज़िद की कि उन्हे रैन बसेरे में हिंडोला झुलाने ले चलें। नरगिस बाजी ने ज़िम्मेदारी निभाने की ठान तो ली पर इतने पैसे कहाँ से आते? अम्मी से कहने की हिम्मत न थी। आजकल घर की हालत भी गली की तरह पतली और अन्धी थी। रज़्ज़ाक के पास कोई बँधा काम न था। जिस दिन दिहाड़ी मिल जाती थोड़ी-बहुत तरकारी या कभी-कभार गोश्त ले आता। तभी शाम को एक किलो आटा और सौ ग्राम घी मँगवाया जाता। चूल्हे में जान पड़ती। वर्ना खुदा के फ़ज़ल से चने तो घर में रहते ही थे।
दुल्हन ने कल के पाव भर गोश्त में से क्चे तीन टुकड़े चुपके से बचा लिये थे। उन्ही में आज छींके से रोटी के ढेरों सूखे सख्त टुकड़े निकालकर डाले और डेगची में हल्की आँच पर रख दिया था। नरगिस ने पूछा,“ आज टुकड़े बनाएँगे? “ तो उसे जवाब मिला था,“ पराए घर जाएगी सँभलकर बोलना सीख…बच्चोंसे कह हलीम बना रहे हैं…पकने में ज़रा देर लगेगी।“ ऐसे में हिंडोले के लिए पैसे मांगने वाली सूरत नरगिस कहाँ से लाती?
मुबीना को उसने मना लिया था कि वो खुद और मुबीना क्योंकि बड़े हैं इसलिए हिंडोल पर नहीं चढ़ेंगे। छोटी बहन नन्ही क्योंकि बहुत छोटी है इसलिए उसके डरने और रोने का खतरा था सो तय हुआ कि सिर्फ मुकीम और सलीम को हिंडोले पर झुलाया जाए। नरगिस ने दिल कड़ा किया। छोटी खाला से मिले पैसों में से जो बचे थे वो उसने कोलकी में ट्रंक के नीचे छिपा रखे थे। सो उन्हें निकालकर दुपट्टे के कोने में बाँधा और अम्मी से इजाज़त ले बच्चों के साथ दोपहर में रैन बसेरे की ओर चली। दुल्हन ने हाथ उठाकर दुआ की थी कि ऐसी बाजी अल्लाह सभी को दे।
जून की दोपहर थी। बिना दरवाज़े के कमरे में लू के भँवर कोनों-दरारों तक में घर किये बैठे थे। दुल्हन ने कमरे के बाहर लगा तिरपाल खोलकर पर्दे की तरह लटका दिया। शायद कुछ फर्क पड़े। आकर खाट पर लेट गई। गर्मी है कि तौबा! और इसी लू में नरगिस बच्चों को हिंडोला झुलाने ले गयी है। उसका कहना था ऐसी लू में हिंडोले वाला खाली बैठा रहता है शायद सस्ते में मान जाए। ज़रा सी जान है पर अभी से इतनी जिम्मेदार और समझदार हो गयी है। अच्छी लगती है। शक्ल-सूरत तो ऊपर वाले का करम है ही पर माशा अल्लाह उठान भी अच्छी ली है। पर हाँ, ज़रा छातियाँ अभी बच्ची-सी हैं। सोचा दुल्हन ने। फिक्र की क्या बात है। शादी होते ही मर्द का हाथ लगेगा तो सब ठीक हो जाएगा। अभी तो महज़ चौदह की है।
तभी अचानक दरवाजा खुला और तिरपाल हटाकर रज़्ज़ाक अन्दर आया। दुल्हन झट उठ बैठी। रज़्ज़ाक ने उसे अखबार में लिपटा लगभग तीन पाव गोश्त पकड़ाया। दुल्हन ने उसे लिया और एक नन्ही बड़ी रकाबी में रख ताक पर रखने से पहले ज़रा-सा अखबार हटा कर देखा,“ बकरे का है! “ उसके चेहरे पर हैरानी थी। “आज लगता है अच्छा काम मिला।“
रज़्ज़ाक ने कुर्ता उतारकर कील पर टाँगा,“ नहीं आज भी नहीं मिला।“
“तो? ये गोश्त?“
“अकबर की दुकान पर गया था। उसी ने पकड़ा दिया।“
“क्या ज़रूरत थी उधार लेने की? “
“ उधार नहीं है।“
“ तो?“
“वैसे ही।“
“ वैसे ही! “ हैरानी से दुल्हन का मुँह खुला का खुला रह गया। उसने रकाबी से अखबार में लिपटा गोश्त वापस उठाया और दाहिने हाथ में लेकर उनका वज़न जाँचा,“ तीन पाव बकरे का गोश्त कोई वैसे ही दे देगा ? “
“तेरा दिमाग कुछ ज्यादा चलता है। चल जा पानी पिला।“ रज़्ज़ाक उसे झिड़कते हुए खाट पर बैठ गया। दुल्हन पानी लेकर आयी तो उसने एक ही सांस में सारा गिलास खाली कर दिया। “ शोरबे की तरह क्यों दे रही है? और ला।“
तीन गिलास पानी पीनेके बाद रज़्ज़ाक को अचानक ख्याल आया कि दुल्हन घर में अकेली है। “बच्चे कहाँ हैं?“ पूछा उसने।
“ अभी आ जाएँगे।“ दुल्हन ने टालना चाहा।
“तू उल्टी पैदा हुई है क्या? सीधा जवाब नहीं दे सकती क्या? मैं पूछता हूँ बच्चे कहाँ हैं? “ रज़्ज़ाक ने कड़ककर पूछा।
“मस्जिद के सामने हिंडोला लगा है। वहीं गये हैं।“
“मंदिर के सामने? कहाँ? वो रैन बसेरे में?“
“ हाँ।“
“ नरगिस और मुबीना कहाँ हैं? “
“ वो ही तो लेकर गयी हैं। आती होंगी? “
“नरगिस रैनबसेरे ले गयी है। तेरा दिमाग तो नहीं खराब हो गया? अरी इतनी साँड-सी तू घर में बैठी है और जवान लड़की को बाहर भेज दिया।“
“ बच्चे ज़िद कर रहे थे। ले गयी वो। कौन-सा दूर है।“
“ हरामज़ादी ज़बान लड़ाती है,“ रज़्ज़ाक ने अपनी चप्पल को दुल्हन के गाल पर तमाचे की तरह मारा तो दुल्हन चकरा गयी।
“मैं अकबर से उसके निकाह की बात चला रहा हूँ और वो बाज़ार में हिंडोले झूल रही है।“
अकबर से नरगिस के निकाह की बात सुन दुल्हन होश में आयी, “अकबर! उस रंडुए की तो दो बेटियाँ भी हैं।“ “ यहाँ तेरे चार-चार पालती है तो वहाँ दो नहीं पाल पाएगी! “
“ नहीं! “ गाल पर हाथ रखे चीखी दुल्हन,“ मैं ऐसा नहीं होने दूँगी।“
“ तू? तू रोकेगी मुझे?“
“ तू बाप है कि जल्लाद!“
“ होश में आ बावली,“ रज़्ज़ाक ने आवाज़ को दबाकर समझाने की कोशिश की।“अकबर की दोनों बेटियाँ तो कुछ ही सालों में अपने-अपने घर की हो जाएँगी। फिर उसकी अपनी दुकान है। मकान-दुकान सब नरगिस का और…वो मुझे अपनी दुकान पर काम भी दे रहा है।“
“ बेच के खाएगा बेटी को,“ अचानक दुल्हन को हैवान का साया छू गया। वह उठी और रकाबी में रखा गोश्त उसने तिरपाल के बाहर दरवाज़े की तरफ उछाल फेंका,“ ये हराम है इस घर के लिए।“
रज़्ज़ाक ने उसे चोटी से खींचकर अपनी तरफ किया और घूँसे-लातें बरसाने लगा। दुल्हन ने हिम्मतकर उसे पीछे को धक्का दिया,“इससे तो अच्छा है कि उस मासूम को कमेले ले जाकर ज़िबह कर दे।“
“ पहले तो तुझे करूँगा ज़िबह,“ रज़्ज़ाक संभलकर फिर दुल्हन की ओर लपका और दीवार से सटाकर उसका गला दबाने लगा। दुल्हन ने जैसे-तैसे अपना घुटना उठाकर उसकी जाँघ पर मारा तो रज़्ज़ाक की पकड़ छूट गयी। शादी के पन्द्रह-सोलह सालों में दुल्हन ने रज़्ज़ाक को निशाना साधकर पहली बार मारा था। रज़्ज़ाक बिलबिलाकर सकते में आ गया। फिर उसकी तरफ बढ़ा तो दुल्हन ने सख्त लहजे में कहा,“ बाज़ आजा…ये रिश्ता नहीं होगा।“
रज़्ज़ाक पर खून सवार था। उसने दुल्हन की बाँह पकड़कर उसे घसीटते हुए दरवाजे से बाहर किया,“ निकल यहाँ से रंडी की औलाद…जा सड़क पे बैठ।“ माँ-बहन की गालियाँ देते हुए उसने दुल्हन को गली के बाहर धकेल दिया ओर खुद अन्दर चला गया।
कुछ पल वहीं खड़ी हो हाँफती दुल्हन ने साँसों को सँभाला। उसकी आती साँस कह रही थी, ये रिश्ता नहीं होगा तो जाती जवाब दे रही थी, हरगिज नहीं। लगातार ऐसे ही साँसें खींचते-छोड़ते उसने बिखरे बालों को पीछे कर दुपट्टा ठीक से सिर पर बैठाया। इधर-उधर नज़र दौड़ायी। चारों ओर जून की दोपहर वाली वीरानी नज़र आयी। चाय की दुकान पर जमाल बेंच पर बाँह का तकिया लगाये सो रहा था। मोटर मैकेनिक सिराज की दुकान खाली पड़ी अलसा रही थी। धीमे कदमों से वह सड़क की तरफ बढ़ी। सड़क पार की और बिल्डिंगों के पिछवाड़े बनी मुंडेर पर बैठ गयी। लू के थपेड़े उसे हर तरफ से तमाचे मारने पर उतारू थे पर दुल्हन उनसे बेखबर सूखे गले में थूक सटकते हुए बहुत तेजी से कुछ सोच रही थी। सोचती चली जा रही थी।
घर से बेघर हुई दुल्हन के भीतर जाने क्या-क्या घर करता जा रहा था आज! क्या नहीं किया और सहा उसने रज़्ज़ाक के लिए! खुद को निचोड़कर रख दिया। और रज़्ज़ाक ने उसे बकरे की खाल की तरह खींच नोंचकर घर से अलग कर दिया। जून की लू के थपेड़ों ने दुल्हन को अचानक अधेड़ कर दिया। आज वो उसकी बेटी की ज़िन्दगी के साथ भी ज्यादती करने पर उतारू है। बड़े अब्बू कहते थे बकरा जब तक ज़िन्दा रहता है हर बात पर कहता है-मैं मैं मैं। पर वही जब मर जाता है उसकी खाल रूई धुनने के काम आती है तो धुनिए की ऊँगली के हर इशारे पर एक ही बात कहता है-तू तू तू। बकरों के साथ रह-रहकर रज़्ज़ाक भी बस मैं मैं मैं करता है हर वक्त। दूसरे का कभी नहीं सोचता खुदगर्ज। दुल्हन के भीतर कुछ खौल-सा गया। आह! अपनी बेटी को भी ये पराया करेगा तो अपने फायदे के लिए! गाल पर चप्पल की छाप को छुपाने के लिए उसने सिर पर लू से इधर-उधर होता दुपट्टा ठीक किया। उसकी जिन्दगी मुकीम का गत्ते वाला साँप-सीढ़ी का खेल हो गयी थी जिसमें रात और दिन आमने-सामने बैठे मानो दाव पर दाव लगा रहे हों। कभी दिन को साँप डस जाता है तो कभी रात सीढ़ी चढ़ते-चढ़ते साँप का शिकार हो जाती। या फिर कोई सीढ़ी से लुढ़कता हुआ नीचे चला आता है। आज उसकी दोपहर सीढ़ी से लुढ़की थी और वह सड़क पर आ गयी थी। लानत है इस छीछड़ों सी जिन्दगी पर कि जब चाहा निकाल बाहर किया। दुल्हन ने गर्दन कुछ इस तरह मोड़ी मानो ज़िन्दगी से मुँह मोड़ रही हो जबकि उसका मन जानता था कि लौटकर उसे वहीं जाना होगा। उसी ओजड़ी में।
तभी सामने से सोती नन्ही को गोद में लिये नरगिस आती दिखाई दी। नरगिस ने जैसे ही अपनी अम्मी को वहाँ देखा, कदम तेजी से बढ़ाते हुए उसकी ओर लपकी।
“ अम्मी, तुम यहाँ? क्या अब्बू आ गये? “ बेसाख्ता उसके मुँह से निकला। दुल्हन खामोश रही।“नन्ही सो गयी…सोचा घर छोड़ आऊँ।“ दुल्हन ने कोई जवाब न दिया। वो एकटक नरगिस की मासूम सूरत को देख रही थी। भीतर उगे रेत के टीलों का अँधड़ गहरा रहा था। नरगिस को कुछ समझ में न आया तो वह नन्ही को थपथपाते हुए चुपचाप वहीं खड़ी रही।
गली से बाहर सड़क पर होने के बावजूद वो दोनों गली के अन्दरवाली घर की दुनिया में थीं कि अचानक उन्होंने एक आवाज़ सुनी,“ ये गली दुल्हनवाली कहाँ होगी बहन जी? “ नरगिस से नज़र हटाकर दुल्हन ने सड़क की ओर देखा तो साइकिल थामे एक अधेड़ व्यक्ति खड़ा था। नरगिस ने भी पलटकर उस अधेड़ व्यक्ति को देखा और फिर अम्मी को।
“ अरे भई ये गली दुल्हनवाली…,“ अधेड़ ने फिर अपनी बात स्पष्ट करनी चाही थी कि गली से बाहर बैठी दुल्हन ने हाथ के इशारे के साथ कहा,“वो वहाँ…सड़क के पार।“ फिर दुल्हन उठी और नरगिस की गोद में सोती नन्ही को लेकर दोबारा सड़क की मुंडेर पर बैठ गयी। जाने नरगिस को ये सब क्यों अजब लगा? वो पास बैठी और अपने दुपट्टे से दुल्हन की पेशानी पर उभरी पसीने की बूँदे पोंछने लगी। दुल्हन की हाँफती साँसें कुछ थमी थीं पर भीतर उनकी अनुगूँज एक लय में चक्कर काट रही थीं। अब उनमें एक ही आवाज़ थी,“हरगिज़ नहीं…हरगिज़ नहीं।“
दुल्हन और उसकी बेटी ने मिलकर गली दुल्हनवाली की ओर जाते अधेड़ व्यक्ति और उसकी साइकिल की ओर देखा। बिना बोर्डवाली बस नाम भर की गली दुल्हनवाली!
-मीरा कांत
जन्मः 1958, श्रीनगर काश्मीर।
पिछले दो दशक से साहित्य की अनवरत सेवा में रत मीराकांत की लेखनी से निम्नांकित पुष्तकें आई हैः
कहानी संग्रहः ङाइफेन, कागजी बुर्ज, गली दुल्हनवाली ।
उपन्यासः थथा किम, उर्फ हिटलर, एक कोई था कहीं नहीं सा।
नाटकः इहामृग, नेपथ्यराग, भुवनेश्वर-दर-भुवनेश्वर, कंधे पर बैठा था शाप, हम को उड जाने दो, पुनर्पि दिव्या।
शोध कार्यः अंतर्राष्ट्रीय महिल दशक और हिंदी पत्रकारिता।
बाल साहित्यः नाम था उसका आसमानी, ऐसे जमा रेल का खेल।
संपादनः मीराः मुक्ति की साधना(दोहा संग्रह)
संपर्क सूत्रः Editor at NCERT, New Delhi
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