पलपल दुनिया बदलती रहती है, जिसकी बगिया में भांति-भांति के फूल होते हैं, फूल जो दिखें या न दिखें, खिलते और बिखर जाते हैं, जैसे कि तारे टिमटिमाते हैं हर रात और हर रात ही उनमें से कई चुपचाप टूट भी जाते हैं। उनकी जगह नए ले लेते हैं और पूरा परिदृश्य ही बदल देते हैं। खिलना फिर बिखरना और पुनः रच जाना..यही तो नियम है सृष्टि का। देखते-देखते पीढ़ियाँ पलट जाती हैं। बच्चे बड़े हो जाते हैं और जवान बुजुर्ग। बुजुर्ग जो हमारे सिर पर छत की तरह सुरक्षा देते थे, कब धूप-पानी सहने , हमें छत बनाकर छोड़ गए, ठीक से समझें और जानें, तबतक खुद भी चलने का वक्त आ जाता है।…नए का आगमन और पुराने को विदा…निरंतर का और नितनित का ही परिवर्तन है यह हमारे अंदर भी और बाहर चारोतरफ भी। पलपल ही सृजन व विसर्जन दोनों साथ-साथ चलते रहते हैं। सृष्टि की शुरुवात से ही यह चक्र चल रहा है और संभवतः आगे भी चलता रहेगा और हमारे हर भय, आशंका और विध्वंसकारी प्रवृत्तियों के बावजूद भी ईश्वर और उसकी अच्छाइयों में विश्वास कायम रखेगा। यह चाहना कि सदा एक ही मनचाहा मौसम रहे, संभव नहीं! दुख तो होता है, जब कोई प्रिय या परिचित जाता है। अचानक ही परिदृश्य बदल जाता है और हमें सामंजस्य की चक्की में पिसते हुए पुनः पुनः व्यवस्थित होना पड़ता है। परन्तु यदि ऐसा न होता तो हम आज पाषाण युग से यांत्रिक युग की और यांत्रिक युग से अंतरिक्ष युग की यह अभूतपूर्व यात्रा क्या पूरी कर पाते! बिगाड़ता ही नहीं, गढ़ता भी है वक्त । बदलाव प्रकृति का नियम ही नहीं , इसकी नवीनता, निरंतरता …जीवटता का प्रतीक है। फीनिक्स की तरह मौत की गर्भ से पुनः पुनः जनमती है पृथ्वी और प्रकृति….नदी पहाण और झरने, फूल पत्ती ही नहीं, हम खुद भी। कुछ भी नष्ट नहीं, नए रूप और नए गुण ले लेता है बस। फिर यह तो तेजी से बदलाव और अविष्कारों का युग है। कितने सुख-साधन जुटा लिए हैं अपने लिए …नौकर नहीं तो मशीनें चुटकी में कर देती है सारे काम। रौबौट्स करते हैं अब सेवा-सुश्रुषा।
जागरूकता और संभावनाएँ तो कई दिखती हैं इस यांत्रिक युग में, पर साथ-साथ बड़ी मात्रा में लोलुप दादागिरी भी, बड़ा या शक्तिमान छोटे और अशक्त को पलपल निगलने को तैयार। जानवरों के संसार में तो यह आम है परन्तु मानवता के हित में नहीं। नाप-तोलकर सौदे करती दुनिया बदल रही है और साथ-साथ इन परिवर्तनों के साथ-साथ जीते, सामंजस्य करते हम भी।…हमारा नजरिया, मानदंड, रिश्ते सभी कुछ। बहुत कुछ कल्पनातीत घट रहा है, अविष्कार और आकांक्षाएँ हमें मंगल-बुध, किस किस गृह पर ले जाएंगे, संभावनाएं अपरिमित हैं। आज मानव अपनी विजय पताका पूरे बृह्मांड में लहरा रहा है और इसके साथ ही अपना अहं भी। जैसे-जैसे मानव के मस्तिष्क का आकार बढ़ रहा है, लगता है हृदय तेजी से सिकुड़ता जा रहा है। खुद के अलावा अन्य पशु-पक्षी, जीव अनावश्यक लगने लगे हैं उसे। विश्व-बन्धुत्व एक सहूलियत अनुसार ओढ़ा लबादा, जिसे कभी भी उतारकर फेंका जा सकता है। इंसान जानवरों से भी अधिक हिंसक दिखता ही नहीं, हो भी सकता है। शायद उसकी महत्वाकांक्षाओं का, बढ़ती व्यर्थ की जरूरतों का बड़ा हाथ हो इसमें। जो कुछ चारो तरफ घट रहा है, जिस निर्ममता से अपराध हो रहे हैं उससे तो यही महसूस होता है कि रोकी नहीं तो हमारी इच्छाएँ ही शायद हमें निगल जाएँगी।
दो तरह से बदलती हैं चीजें-एक तो समय के हाथों और दूसरी खुद हमारे अपने हाथों… इरादों, उपक्रम व सामूहिक क्रिया कलापों द्वारा। समय पर तो बस नहीं, परन्तु हम जो सोचते और करते हैं , उस पर तो है ही। एक सामयिकी उदाहरण है हरियाणा में फसलों की फरदी जलाने की वजह से दिल्ली का गैस चैम्बर में तब्दील होते जाना और हम सबका हाथ-पर-हाथ रखकर बैठे रहना। प्लास्टिक (जो नष्ट नहीं होता) का अनावश्यक उपयोग धरती को ही नहीं, समुद्र तक को कूड़ेदान में बदल रहा है।…मछली, चिड़िया और छोटे जीवों की कई-कई प्रजातियाँ नष्ट हो रही हैं इस प्लास्टिक को निगलकर फिर भी हम इसका उपयोग और उत्पादन उसी लापरवाही से किए जा रहे हैं, भले ही हमारी प्रकृति का संतुलन बदल रहा है। सिर्फ भारत में करीब सोलह हजार पांच साल से छोटे बच्चे वायु प्रदूषण की वजह से प्रति वर्ष काल-कवलित हो रहे हैं… वृद्ध और अशक्तों की तो हम बात ही छोड़ें! क्या हम आगे भी यूँ ही कुछ नहीं करेंगे, जबतक कि यह आग हमतक न आ जाए! शायद नहीं। …जब अमेरिका जैसा धनाढ्य और समर्थ देश हाथ खींच बैठा है इन जटिल समस्याओं से तो हम तो बहुत ही असमर्थ और छोटी-सी इकाई हैं…हमारी सामर्थ ही क्या… भारत तो अभी विकासोन्मुख है…मुफ्त की बाधा क्यों ले!
पर क्या हमने वह हाथी और चींटी की कहानी नहीं सुनी, जिसमें चींटी हाथी की सूंड में घुसकर विशालकाय हाथी को परास्त कर देती है। लड़ाई में हार जीत बल से अदिक बुद्धि पर…इरादों की दृढ़ता और निर्बलता पर निर्भर है। अति व्यवहारिक और स्वार्थी होता जा रहे हैं हम…जहाँ मदद करनी चाहिए, नहीं करते, जो अत्याचार व अन्याय अनदेखे नहीं करने चाहिएँ, उन्हें अनदेखा कर देते है। अपनी दुनिया में शायद बेहद मस्त और व्यस्त हैं हम। और हमारी दुनिया आज बेहद संकीर्ण हो चुकी है। ‘हम और हमारे’ के इस दायरे में बाहर वालों को तो छोड़ें, अब सगे संबंधी तक नहीं आते। भाई-बहन, नाते रिश्तेदार किसी से कोई मतलब नहीं, वृद्ध और असहाय मां-बाप कोई नहीं सिमट पाता इसमें। फलतः न सिर्फ अकेला और बेबस होता जा रहा है मानव समाज, इस कुंठाग्रस्त समाज को बुराइयाँ व अपराध दीमक की तरह चाट रहे हैं। …अबोध, नवजात कन्याएँ कूड़े के ढेरों पर परित्यक्त दम तोड़ती दिखती हैं या फिर कैसे भी पल गईँ तो आए दिन हवस का शिकार होती हैं। वैज्ञानिक और बौद्धिक विकास व विलास के इस स्वार्थी व एकल युग ने जीवन के घनत्व और महत्व को ही मानो हलका कर दिया हैं। चारो तरफ झूठ और भ्रम के ही रंग-बिरंगे वितान हैं, जिसके नीचे सबकुछ इंद्र-धनुषी दिखता भर है। आभासी दुनिया के बीच, आभासी जीवन ही तो जी रहे हैं हम अब मुख्यतः।
यह आभासी जीवन ऐच्छिक नहीं , परन्तु उत्तेजना और गति है इसमें, जिसने हमें बांध लिया है । मति पर परदा डालती यह उत्तेजना घातक होते हुए भी लती है और लत कैसी भी हो , छुटाना आसान नहीं। परन्तु यदि इस तीव्र क्षरण से बचना है तो समझना ही होगा कि कुछ भी पूरी तरह से अच्छा या बुरा नहीं होता, गडमड होकर ही उपस्थित है जीवन में सबकुछ। छांटकर, पहचानकर, सीखकर ही बचना और जीना पड़ता है। अच्छी बुरी होती है बस हमारी सोच, हमारे इरादे, जिनके आधार पर हम उसका अच्छा या बुरा उपयोग करते हैं। अग्नि अगर जलाती है तो रोटी भी तो सेकती है। उजाला और गर्मी भी तो देती है। न हम एक एकाकी टापू हैं और ना ही दूसरों के दुःखों की छाया से बचकर जी ही सकते हैं। हवा, पानी, पृथ्वी-सा सबकुछ साझा है हमारा। एक ही तलाब में रहने वाली हर मझली का जीना-मरना दूसरे के जीवन को प्रभावित करेगा ही।
पृथ्वी के इस निश्चित भंडार का अनिश्चित, लापरवाह और मनमाना उपयोग करने वाले हम, शायद मानते हैं कि यह बूढ़ी पृथ्वी हमारे दुरुपयोग से नष्ट हो भी गई तो कोई फर्क नहीं पड़ना, चंद्रमा, मंगल, बुध और बृहस्पति अन्य कई और भी गृह-उपगृह हैं-जहाँ जीने की संभावनाएँ बन रही हैं, हो सकती हैं। कुछ भी शाश्वत नहीं…जो बना है वह मिटेगा ही, फिर भी नकली चीनी चावल से लेकर दवा और बच्चे…हर चीज तरह-तरह के रूपों में बजार में मिलने लगी है, मुनाफे के लिए खरीदी और बेची जा रही है। हम खुद ही तो खुद को विनाश की ओर तेजी से धकेल रहे हैं। यदि हमारी सोच और व्यवहार नहीं बदला, सिर्फ आज और अभी में ही जिए, तो धीरे-धीरे चीजें खुद ही अपना महत्व और अर्थ खोती चली जाएँगी। माना बहुलता में पुराने को फेंकना जरूरी हो जाता है परन्तु प्रकृति का नियम ही संरक्षण…संभवतः कुछ भी नष्ट न होने देना है और इसमें अधिकांशतः पुराना ही तो नए रूप लेकर जनमता है। फिर हम इसके सबसे बड़े उपभोक्ता, यह रिसाइकिल वाली बात क्यों नहीं समझ और सीख पा रहे हैं!
आज बुढ्ढों की बढ़ती संख्या युवाओं से संभाले नहीं संभल रही है और बढ़ती जनसंख्या की वजह से जीवन की कीमत घटती जा रही है। अब आपदा और अकाल से मरते लोगों की खबरों को अक्सर नैसर्गिक संतुलन कहकर भूल जाते हैं। इस विकास…तोड़फोड़ और गठन के चलते हम एक संवेदना हीन यांत्रिक युग में प्रवेश कर चुके हैं। जब बच्चे तक डिजाइनर हो रहे हों तो स्वाभाविक ही है कि उनके आगमन का न तो वह आकुल इंतजार होगा और ना ही उनका पूर्ववत् रख-रखाव ही। आज भारत जैसे देश की ममतामयी देश की मां भी सहर्ष अपने बच्चों को नर्सरी या नैनी के पास छोड़ नौकरी करने जाना अधिक पसंद कर रही है-चाहे कोई आर्थिक मजबूरी हो या न हो। जीवन एक मनोरंजन ही तो बनकर रह गया है। हमें याद रखना होगा कि यदि टेस्ट ट्यूब में मानव और शरीर का हर अंग पैदा किया जा सकता है तो एक ही रसायनिक बम से सबको खतम भी । खुद हमारा अपना बनाया फ्रैंकस्टाइन है यह।
अत्याधिक भौतिकवाद, बढ़ती जनसंख्या, पर्यावरण प्रदूषण और हमारी अति उपयोगवादी मनोवृत्ति किस-किस को दोष दें…जड़ तो खुद हमारी अपनी समझ ही है। तेजी से बदलती समाज की मनःस्थिति और परिस्थिति. समय का अभाव या अनावश्यक अति व्यवस्तता और हर पीतल को बिना सोचे-समझे ही सोना समझ लेने की हमारी भूल या अंधा अनुकरण… नतीजा यह है कि भूमि का दिन प्रतिदिन अपने खनिज पदार्थों से रिक्त होते जाना ही नहीं ….मानव का भी तेजी से मानवता से रिक्त होते जाना है और उसमें उद्दात्त भाव जैसे दया करुणा और परोपकार आदि भावनाओं की प्रायः कमी नजर आने लगी है। पहले नरभक्षी जानवर होते थे और पता होते ही उन्हें घेर-घारकर गोली मार दी जाती थी, परन्तु आज जब नरभक्षी पशुमानव की एक नई फोज तैयार हो रही है हम निष्क्रिय क्यों हैं? क्या बुरे का साक्षी होकर भी अविचलित रहना , कुछ न करना , खुद हमें भी उसी श्रेणी में नहीं ले जाता…हिसक अपराध और व्यभिचार की बढ़ती इन खबरों को सुनकर तो ऐसा ही प्रतीत होता है कि आज का हमारा यह मानव संसार हृदयहीन और क्रूरता में खूंखार से खूँखार पशु से भी अधिक चालाक और खूंखार हो चुका है।
अद्भुत और डरावना वक्त है यह …बेहद सतर्क और व्यवहारिक…आगे बढ़ने की होड़ में दूसरों को रौंदकर जीता, आगे बढ़ता। कब किस चीज या व्यक्ति की उपयोगिता और उपभोक्तिता पूरी हो जाए , बदलने की नौबत आ जाए, कह नहीं सकते। आज के इस अति व्यवहारिक और बदलने को ललायित समाज में अनावश्यक और अवांछित को हटाना तो फिर स्वाभाविक ही है, चाहे वे वृद्ध हों, विकलांग हों या फिर और कोई वस्तु । पर क्या हमारा यह भगवान-भगवान खेलना सही और नैतिक है, खुद हमारे अपने या मानवता के हित में है?
बुरा ही नहीं, बहुत कुछ अच्छा भी हुआ है इस युग में, कई अच्छे बदलाव आए हैं। विज्ञान की तरक्की ने आज इन्सान की औसत उम्र ड्योढ़ी से भी अधिक कर दी है। उपचार व औषधियाँ नित नई और बेहतर आ रही हैं। भौतिक व यांत्रिक उपकरणों के व्यवहारिक और मनोरंजक व आरामदेह उपकरणों की नित नई खोज हो रही है। इंटरनेट जैसे अविष्कारों ने समाज और सोच को एक खुलापन और स्पष्टवादिता भी दी है। सबकुछ तुरंत ही सबके सामने आ जाता है और सबकुछ सबकी जानकारी में है। यदा-कदा मानवता में आस्था जगाती खबरें भी सुनने को मिल ही जाती हैं। जबतक मुठ्ठी भर भी सज्जन हैं, पृथ्वी है। एक कम्प्यूटर चिप और अंतरीक्ष अभियान के प्रयोगों से ही पिछले पचास साल में दुनिया कहाँ-से-कहाँ पहुँच गई है। इंटरनेट ने तो मानो आज सारी भौतिक दूरियाँ ही खतम कर दी हैं और अंतरिक्ष की खोज ने हमें कई ऐसी नए अविष्कार दिए हैं जिनसे दैनिक जीवन की उलझनें दिन-प्रतिदिन आसान से आसानतम होती जा रही हैं । अब हम अपने प्रियजनों और सगे-संबन्धियों से दिन में कई-कई बार जब मनचाहे तब मिल सकते हैं। यह बात दूसरी है कि इन नजदीकियों ने अच्छा-बुरा सभी कुछ उघाड़ दिया है। फलतः प्रायः भावनाओं का, मर्यादा और पारस्परिक स्नेह व आदर का भी तेजी से स्खलन दिखता है।
सही है कि समय थिर नहीं रहता पलपल बदलती रहती हैं चीजें…यहाँ तक कि हम खुद भी, चाहें या न चाहें। जो रचा गया, वह टूटता बिखरता भी है, मिटाया जाता या स्वतः मिटता भी है और इस सृजन और विसर्जन के क्रम में कहीं कुछ बीज रूप में संरक्षित भी रह जाता है, बदलते मौसम गवाह हैं इसके। हारते नहीं मानव और प्रकृति कभी अपनी इस पलपल बदलती दुनिया में। कोशिश जारी रहती है बदलने की समझने की… गलतियाँ भी तो समझने और सुलझाने की ही प्रक्रिया का परिणाम हैं। सुना है अब तो दिए या बल्ब ही नहीं, रातों को नकली चांद से भी जगमगाने की फिराक में है हम, एक नकली चंद्रमा जैसा उपग्रह क्षितिज पर भेजकर। सोचें, बल्ब नहीं रात होते ही चंद्रमा को स्विच औन किया जाए और चारो तरफ से अंधेरा खतम….बहुत कुछ बदला है…बदल सकता है। फिर भी बहुत कुछ ऐसा है और प्रार्थना है- कभी न बदले… और यह जीवन…हम और हमारी शश्य श्यामला धरती दिन प्रतिदिन और भी सुजलां और सुफलां ही होती जाए, .आमीन।
इसी बीज रूप को बचाने का एकलव्य और लघु प्रयास है लेखनी। माना कि काम कठिन है, विशेषतः तब जब स्वार्थ की धुंध ने सबकुछ आंखों के आगे से ढक और छुपा दिया है। परन्तु अंधेरे को चीरकर भी रौशनी निकल ही आती है और दिए से दिया जल उठता है। हमें विश्वास और आस्था की लौ जलाए रखनी है। दिये पर याद आया एकबार फिर त्योहारों का मौसम आ चुका है और वह भी अंधेरों में उजाला करके आगे बढ़ने का संदेश लेकर…असत्य पर सत्य की विजय का उत्सव मनाता।
हम पाषाण युग में पलटने की बात नहीं कर रहे, बस एक चिंता…एक सवाल है जो अक्सर ही दांत में तिनके-सा आ फंसता है, आंखों में किरकिरी-सा चुभने लग जाता है। कैसे हटाएँ, मिलजुलकर उपाय ढूंढना ही होगा। अक्सर लेखनी ने ऐसे सामाजिक सवाल उठाने चाहे हैं, उत्तर ढूंढने की कोशिश की है। कुछ और सवाल-जवाब इस वर्षांत 2018 के अंतिम अंक में भी एकबार फिर आपके समक्ष हैं! जागरूकता ही तो सुरक्षा और संरक्षण का पहला कदम है और अगर नष्ट होने से बचना है तो अच्छे और बुरे के भेद को स्पष्ट करना, समझना साहित्यकार ही नहीं, हर मानव की बुनियादी जरूरत है। उम्मीद है अंक न सिर्फ आपको पसंद आएगा, अपितु सोचने पर भी मजबूर करेगा कि हर चीज की कीमत सिर्फ इस्तेमाल से ही नहीं। सोचें, समझें और सही कदम लें, ताकि हमारे बीच रस और रंग बचा रहे….आपसी यह प्यार और सद्भाव बना रहे। और यही लेखनी का वास्तविक उद्देश्य भी है।
पुनश्चः लेखनी का नववर्ष विशेषांक यादों की सुनहरी वादी और किसी भी व्यक्तित्व की आधार-शिला- बचपन पर रखने का मन बनाया है हमने। इसका उल्लास, किलकारी और नन्ही-नन्ही मायूसियों, इसके भविष्य को लेकर आपका संतोष-असंतोष. उम्मीद और चिंता से भरी इंद्रधनुषी रचनाओं का हमें लेखनी के पृष्ठों पर इंतजार रहेगा। भेजने की अंतिम तिथि है 20 दिसंबर @shailagrawal@hotmail.com पर।
एक उल्लासमय और सुखद दीपावली व क्रिसमस की ज्योतिर्मय शुभकामनाओं के साथ,
शैल अग्रवाल