बचपन की तरफ मुड़कर देखूँ तो एकबार फिर वहीं पहुंच जाती हूँ ओस भरी मखमली हरी घास पर नंगे पैर टहलती हुई, सुबह-सुबह जहाँ खिलते-महकते हार-सिंगार के फूल समेटती थी अपने बाबा के लिए या फिर बाबूजी के साथ दुनिया भर की खबरें सुनती थी, बातों-बाचों में ही अपनी हर जिज्ञासा को शान्त करती थी उनके साथ। वह सहेलियों के साथ लम्बी गपशप…शिक्षकों द्वारा मिला लाड़-दुलार। जीवन की इस मरु जैसी एकाखी शुष्कता में मुड़-मुड़कर देखता है मन। याद मात्र से सुख-शान्ति का एक झरना फूट पड़ता है चारो तरफ। कितनी-कितनी विविध इन्द्रधनुषी किरणों में फूटता है अपनों का प्यार भी। महकने लगती हैं यादें, खिलते फूलों की तरह, चमकते तारों की तरह, उछाल खाती लहरों-सी। निश्चय ही कुछ ऐसी भी हैं जो कूच घास की तरह भी उग आती हैं और आज भी चुभती हैं। परन्तु समग्र में तो एक बेफिक्र और विशेष उम्र ही रही थी वह बचपन की, जब जाने क्या-क्या होने और बनने के सपने देखे थे और बड़े होकर बस हंसकर रह जाते हैं उन यादों पर , उस बचपने पर।…पर यह कलम भी गजब की ही चीज है , जाने क्या-क्या उलीच लाती है।
बचपन में पहली बार वो किसी परिचित की मृत्यु की खबर का सुनना और फिर कुछ ही दिनों बाद किसी पालतू पक्षी या जानवर की भी मौत…वह मौत से पहला साक्षात्कार था, विचलित करने वाला। जैसे सुनहरी खूबसूरत शाम में अचानक ही काला अंधेरा घुल जाए, असह्उय उदासी में डूब गया था मन। मौत के सही अर्थ और प्रक्रिया की गंभीरता और स्थाई विछोह को समझना जितना त्रासद था , जीवन के सबक के लिए शायद उतना ही जरूरी भी था वह सब। फिर तो मृत्यु के बारे में सबकुछ जानने की बेचैनी और भय ने मन में अड्डा जमा लिया था। महीनों बेवजह ही डरते जाना, दिल का किसी अनहोनी की आशंका में धड़कते ही रह जाना, मानो आदत पड़कर भी नहीं पड़ पाई थी इन खबरों की बालमन को।…अजीब बात है न कि कैसे बचपन से ही बड़े होने की तैयारी शुरु हो जाती है और बड़े होकर , सब जानकर, उसी अबोध बचपन को तलाशने लग जाते हैं हम!
कुछ घटनाएँ याद रहती हैं, क्योंकि भूलना आसान नहीं और कुछ इसलिए भी याद रहती हैं कि बारबार खूब मजे ले-लेकर सुनाते हैं बड़े इन्हें, कभी हमें तो कभी अपने मित्रों को।
ऐसी ही धुंधली सी एक मनोरंजक व हल्की-फुल्की याद है यह उस पहली यात्रा की। उम्र लगभग चार या पांच के आसपास ही रही होगी। पौ फटने का धुंधलका और पीली धुंधली-सी रौशनी में किसी स्टेशन पर खड़ी रेलगाड़ी और सामने बड़े-बड़े अक्षरों में लखनऊ लिखा हुआ । मुझे पता था कि हम मथुरा जा रहे हैं पर आज भी याद है कि लग रहा था कि मानो कभी मथुरा आएगा ही नहीं और हम इससे उतरेंगे ही नहीं। बेसब्री से इंतजार था मुझे मथुरा का, नानी के गांव से मां को वापस घर लाने का। मेरा तोला-माशा स्वास्थ देखते हुए मां अकेली ही गांव जा पाती थीं और हम और बाबूजी महीने भर बाद उन्हें लेने, बस तीन-चार दिन को जाते थे। करीब 10-11 वर्ष की उम्र तक यही सिलसिला रहा।
ऊपर की बर्थ पर सोती, मैं पूरी तरह से उठ कर बैठ चुकी थी । नींद हमेशा से ही वही परिंदों वाली ही रही, नींद में भी पूरी चौकस और आसपास के प्रति पूर्णतः सचेत। गाड़ी पूरे जोश-खरोश के साथ चलते-चलते , मन चाहे जब रुक जाती और दुबारा चलने लगती, कभी घड़घडाती तो कभी खांसती-कराहती। मेरे लिए वह सब निश्चय ही रोचक और नया अनुभव रहा होगा। बाबूजी को भी हर स्टेशन पर उतरकर कुछ पत्रिकाएँ, खिलौने और खाने पीने की चीजें खरीदते रहने की, स्थानीय चीजों का जायजा लेने की जबर्दस्त आदत थी (यह सब तो बाद में ही समझ में आ पाया ) उस वक्त तो बस यह कहकर उतर गए थे कि- ‘ गया और तुरंत ही वापस आया मैं। पर तुम, चाहे कुछ भी हो जाए नीचे मत उतरना। तुम्हारी टिकट लेने जा रहा हूँ वरना टी.टी. पकड़ लेगा।’
आज सोचती हूँ तो डर जाती हूँ। उस समय शायद बच्चे चोरी नहीं होते थे या फिर प्रथम श्रेणी की बोगियों में सुरक्षा रहती होगी। या फिर गार्ड को आंख रखने को कहकर ही जाते थे यूँ बाबूजी ।
बड़ों की हर बात मानने वाली मैं चुपचाप बेसब्री से इन्तजार कर रही थी अब उनके लौटने का।
अभी उन्हें गए सैकेंड भी नहीं हुए थे कि सच में टी.टी. आ गया और मैंने बिना पूछे ही, तोते की तरह बाबूजी द्वारा समझाई एक-एक बात दोहरा दी उसके आगे -कि हमारे पास तो टिकट ही नहीं है और बाबूजी लेने गए हैं ।
सुनते ही, मुस्कुराता वह भी वहीं आराम से बैठ गया। शायद यह सोचकर कि मोटा मुर्गा फंसा आज तो, बच्ची के साथ यहाँ तक बिना टिकट ही चलने वाला। बाबूजी के आते ही उसने टिकट मांगी और बाबूजी ने तुरंत ही दोनों टिकट जेब से निकालकर पकड़ा भी दीं उसे। बौखलाया सा वह देखता ही रह गया कि दोनों टिकट बनारस से ही बनी थीं और पूछने से खुद को रोक नहीं पाया – पर बच्ची तो कह रही थी कि टिकट नहीं है, उसकी बात बीचमें ही काटकर बाबूजी मुस्कुराते हुए बोले- पर आपतो बच्चा नहीं हैं, न !
याद आते ही आज भी हो,ठों पर बरबस मुस्कुराहट आ जाती है-कैसे कैसे, कभी सच तो कभी झूठ से नियंत्रित करते थे बड़े हमें उन दिनों और वाकई में आज के बच्चों से कितने भिन्न, भोले और आज्ञाकारी होते थे बीसवीं सदी के तबके हम बच्चे ।…
और आज के ये बच्चे … तीन साल की बेटी डेलरोजा की बोतल से बच्चे की चित्र वाला लेबल उतार-उतार कर अपने बिस्तर के नीचे जमा कर रही थी क्योंकि उसे इन कूपनों के बदले भाई लाना था सुपर मार्केट से, जैसे कि मैंने कौर्न फ्लेक्स के लेबल भेजकर उसके नाम वाली और साथ में पूरी एबीसी डी लिखी प्लेट व मग मंगवाए थे उसके लिए।
जब बच्चों के सब सामान तो दिखे, पर बच्चे सेल्फ पर रखे नहीं मिले, तो अपने दस पैनी के सिक्के के साथ काउंटर पर बैठी सेल्स गर्ल से यह पूछने से भी नहीं चूकी कि बेबी कहाँ मिलेंगे उसे, बेबी पाउडर , बेबी औइल, बेबी क्रीम तो हैं वहाँ पर बेबी नहीं। और तब हंस-हंसकर दोहरी होती उस औरत ने बेटी को वापस मेरे पास भेज दिया था कि तुम्हारी मम्मी ही बता पाएँगी तुम्हें यह, उन्ही से पूछो।
मैंने भी तुरंत समझा दिया -परी आती है बच्चों को लेकर और छोड़ जाती है सभी अच्छे बच्चों के घर में उनके भाई-बहनों को। फिर तो पूरे वर्ष उसकी कमरे की खिड़की कोई बन्द नहीं कर सकता था। ना ही खिड़की के नीचे का वह बिस्तर ही हटाया जा सकता था, जो उसने अपने भाई के लिए बड़े प्यार से बिझा रखा था। सिर्फ भाई ही चाहने की भी अपनी विशेष वजह थी उसकी – गुडिया और कपड़ों से बहुत प्यार था उसे और इन्हें वह किसी के साथ साझा नहीं कर सकती थी। जानती थी कि लड़के तो यह सब पहनते ही नहीं। ना वे गुड़ियों के संग ही खेलते हैं। कुछ नेकर और शर्ट , टी शर्ट खरीद लाएंगे हम उसके लिए।और बौल से खेलेंगे उसके साथ। यह भी फैसला सुना चुकी थी वह उसी वक्त मुझे। पहले भाई का इतना इंतजार करने वाली लाडली का जब दूसरा भाई आया तो सयानी बेटी घबराकर बोली- बस अब और भाई नहीं। कहाँ रखेंगे हम उसेअब अगर और भाई आ गया तो। तीन ही तो बेडरूम हैं हमारे पास, चौथा तो हमारा टौय रूम है न?
मुझ अनाड़ी की इतनी समझदार बेटी कैसे? पति मजाक करते। अक्सर ही अपनी तेज-तर्रार ताई जी याद आतीं, जो बात-बातपर कहती थीं-पेट में ही दाढ़ी लेकर पैदा होते हैं आजकल के बच्चे।
पर बचपन ही तो है यह भी… मासूम शरारतों और बड़ों की , बड़ी होती दुनिया की उलझनों में डूबा, उनसे तालमेल बिठाकर जीना सीखता।
एक और घटना, जो याद आ रही है और थोड़ी भिन्न है, वापस मुझे अपने बचपन में ले जा रही है इंगलैंड नहीं , भारत की ओर, बनारस के घर में ।
भरी गरमियों के दिनों में बगीचे में सोते थे हम। उम्र आठ-नौ वर्ष के आसपास। सिर के ऊपर हिलते पीपल और नीम के पेड़ों को हिलते देखकर अक्सर बहुत डरती थी – अचानक ही कभी गिर गया तो ?..रात भर यही फिक्र लगी रहती। बारबार उठकर चेक किया करती , अक्सर लगता डालियाँ बिस्तर तक झुक आई हैं।
उसदिन ऐसी कोई फिल्म देखी थी या कोरी कल्पना की उपज मात्र थी, आज भी पता नहीं पर चित्र-सी स्पष्ट याद है वह रात। सोते-सोते जाने क्या और कैसी दुस्साहसी धुन चढ़ी कि आज तो डरने के बजाय डराना है। आनन-फानन ओढ़ने वाली सफेद चादर से ही ताबूत की तरह खुद को सिर से पैर तक ढका और दोनों हाथों को फैलाकर गोल-गोल घूमने लगी, बिल्कुल वैसे ही जैसे सुबह-सुबह सहेली रिजवाना की नौकरानी अपने सफेद बुरके के अंदर से स्कूल बस को रुकवाती थी और जाड़े की धुंध भरी सुबह में उसे देखकर कई बार सोचा था , भूत बिल्कुल ऐसे ही तो दिखते होंगे।
अब मैं घर के अंदर अपने बगीचे में नहीं, बाहर गली में पहुँच गई थी ।
एकाध लोग सच में डरकर भागे। सुन सकती थी दौड़ते पदचाप और तेज सांसें । पर तभी किसी हिम्मती ने कसकर कंधे से पकड़ लिया और सिर पर से चादर उठा ली। देखा तो बाबूजी थे और कान पकड़कर घर में वापस ले आए वे मुझे। फिर मुस्कुराते हुए बोले -ये क्या कर रही थी? नींद में चलने की आदत अभी भी गई नहीं क्या तेरी!
वह पहली और आखिरी शरारत थी और वह पहली और आखिरी बार था जब किसी को कान पकड़ने का मौका दिया था। हाँ, पर आगे भी दो तीन बार बड़ों को अपनी नासमझी और कोरी भावुकता की वजह से मुश्किल में अवश्य डाला ।
अगली कहानी भी एक यात्रा की ही है। बारह- तेरह वर्ष की उम्र रही होगी और हम अलीगढ़ से लौट रहे थे। रिजर्वेशन तीन दिन बाद का था पर किसी आपदकालीन स्थिति में उसी दिन लौटना था। एजेंट ने भरोसा दिलाया कि आरक्षण करवा देगा, परेशान न हों और उसने कैसे भी करवा भी दिया। पर स्टेशन पहुंचने पर भीड़ का आलम असह्य था। कैसे भी सामान और हमें ट्रेन के अंदर चढ़ा दिया गया। वहाँ जो सीट एजेंट हमारी बता रहा था, उस पर कोई और बैठा हुआ था। दोनों के बीच बहस तेज होने लगी और वाद-विवादों से घबराई मैं चुपचाप उस ठंडे डिब्बे के आराम को छोड़ वापस भीड़ भरे गर्म प्लेटफार्म पर आ खड़ी हुई। उतरते ही गाड़ी ने सिगनल दिया और खिसकने लगी। मुझे तो अब काटो तो खून नहीं था। जम सी गई मानो भय से। अब मैं स्टेशन पर खड़ी थी और बाबूजी सामान के साथ ट्रेन के अंदर। बाबूजी ने जैसे ही देखा कि मैं स्टेशन पर खड़ी हूँ। सारे सामान को वैसे ही ट्रेन में छोड़कर खुद अपनी भी कतई परवाह न करते हुए चलती ट्रेन से कूद गए। अब सोचती हूँ तो समझ में आता है कि कितना प्यार करते थे मुझे कि चेन खींचने तक का ध्यान नहीं आया उन्हें । उस वक्त तो डर के कारण आंखें तक बन्द हो गई थीं मेरी। भगवान का शुक्र था कि प्लेटफौर्म पर गिरे तो बाबूजी पर चोट अधिक नहीं आई और अगले स्टेशन पर टैक्सी से हमने वही गाड़ी वापस पकड़ भी ली। सामान भी जहाँ रखा था वहीं था और वह भलामानस सरकारी बाबू भी डर के मारे अब किसी और दूसरी सीट पर जा बैठा था। बहुत कुछ सीखा इस घटना से। स्थिति कितनी भी असह्य हो, घबराकर बिना सोचे-समझे कोई कदम नहीं उठाना चाहिए कभी ।
कतार में खड़ी एक और बचपन की पुरानी याद है जो बेसब्री से दस्तक दे रही है, वो आज भी बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर देती है। साठ के दशक की बात है , उम्र वही 13-14 के आसपास। मोहनिया से बनारस लौटते वक्त रास्ते में हमने एक दुर्घटना ग्रस्त जीप को देखा, जिसका ड्राइवर अचेत पड़ा था और उसका सिर डैश बोर्ड पर खून में लथपथ। आज भी याद है देखते ही आँखें बन्द हो गई थीं मेरी और होठों पर बस एक ही धुन -क्या इसे बचा नहीं सकते हम, बाबूजी, कोई मदद नहीं कर सकते इसकी? उलटी घूमी जीप का अगला हिस्सा सामने के पेड़ में पूरी तरह से धंसा हुआ था पर उस अचेत ड्राइवर की सांसों की रुक-रुककर आती खड़खड़ साफ सुनाई दे रही थी। शायद हम उस रास्ते से उसकी मदद को ही निकले थे। मेरी किशोर हट पर बाबूजी ने पूरे परिवार को मुश्किल में डालते हुए खतरा उठाया और मां, भाभी और मेरे सहित हम चारों को उस निर्जन में अकेला खड़ा छोड़कर घायल आदमी को लेकर ड्राइवर उस घायल को अस्पताल में भरती करवाने चल पड़ा। परन्तु के साथ भेज दिया। पर लाल फीते की तानाशाही ऐसी थी कि किसी अस्पताल में ड्राइवर उसे त्वरित इलाज के लिए दाखिल न करवा पाया। पहले सासाराम फिर पटना तक ड्राइवर उस मृतप्राय युवा को लेकर भटकता रहा और हमने वह रात वहीं किसी दयालु गांववाले की झोपड़ी में उसका इंतजार करते हुए बिताई। सुबह पता चला कि ड्राइवर को उसी घायल आदमी के खून के शक में हिरासत में ले लिया गया है और जिसे लेकर वह दो तीन शहर भटका था वहअब मृत घोषित हो चुका था। घायल को तो नहीं बचा पाए हम पर ड्राइवर को बचाने और तुरंत बाहर निकलवाने के लिए अच्छी खासी रकम चुकानी पड़ी थी उस दिन बाबूजी को। किसी ने कुछ कहा तो नहीं मुझसे परन्तु मैं अपनी उस किशोर अवस्था की अपरिपक्व भावुक सोच पर बरसों शर्मिदा और अटपटा महसूस करती रही। बिना किसी नतीजे के परिवार को यूँ परेशान करने के लिए ग्लानि भी, मन-ही-मन। यह भी भगवान की दया ही थी कि अंधेरी उस निर्जन सड़क पर अकेले खड़े हमारे साथ कोई लूटपाट की घटना नहीं हुई । यात्रा की वे डरावनी काली यादें आज भी मन बेचैन करने को पर्याप्त हैं और सड़क पर पड़े किसी भी घायल की मदद से पहले सौ बार सोचने को मजबूर हो जाता है मन अब ।
एक यही घटना नहीं , जहाँ बुद्धू बनी थी या धोखा खाया था। एक सहपाठिनी ने एकबार बीमार भाई की दवा का बहाना बनाकर पूरी फीस ऐंठ ली थी और बाद में पता चला था कि वह किसी लड़के के साथ कोई नई फिल्म देखकर आई थी। एक भिखारिन ने अभी बच्चा होने वाला है का बहाना बनाकर पूरा बटुआ ही हड़प लिया था। पर बचपन तो बचपन , जहाँ भूल चूक सब माफ और रूठना मनाना भी हवा के झोंके-सा आता और जाता रहता है। यह बात दूसरी है कि सीखने और बड़े होने की यह प्रक्रिया भी तो ता उम्र ही चलती है।
बचपन ने एक सबक और सिखलाया। जानवर भी भाव पढ़ते हैं , परिस्थिति समझते हैं फिर हमला करते हैं। डरो नहीं, आक्रामक न हो तो वह कभी हमला नहीं करेंगे। सांप , लंगूर और बंदर ही नहीं मधुमक्खी तक के साथ के निजी अनुभव हैं इसके। पर इंसानी जीवन इतना सहज नहीं, अपनी ही एक जटिल प्रक्रिया है मानव मन की ।
उम्र कहें या जीने का अन्दाज, क्या है यह बचपन …मासूम और बेफिक्र, जब हर बच्चा पूरी कायनात का शहंशाह या मलिका, माँ की आँख का तारा … दुख दर्द और अभाव को तो यह महसूस ही नहीं होने देता और हो भी तो माँ की एक प्यार भरी फूँक से ही हर दर्द तुरंत गायब । बचपन और ये खट्टी-मीठी इसकी यादें …बात बात पर कट्टी फिर मिठ्ठी, पलपल का वह रूठना-मनाना, माँ की गोदी और बाबा का कंधा और नानी दादी की कहानियाँ…परियाँ और आग फूंकते अजगर कितने सच्चे झूठे खिलौने जुटा लेता है अपने लिए यह बचपन भी। फिर इसी नाजुक सी नींव पर ही तो इमारत खड़ी होती है क्रूर और कठिन यथार्थ से भरे जीवन की । अब आदमी खुदको बहलाने और फुसलाने के लिए ताउम्र बचपना न करे तो कैसे जी पाए सोचने की बात है यह भी तो !…
बचपन की बात करते ही उल्लास और अल्हड़पन का ध्यान आता है। मुस्कान और ललक से भरे एक हंसते- खेलते बालक की फूलों सी खिलती और बेफिक्र तस्बीर आँखों के आगे आती है। माँ के आंचल में चैन से सोया बालक…जहाँ कोई भय नहीं, चिंता नहीं। पर यही गुण हमें युवा व वृद्ध में भी तो मिलते हैं जब वह खुश होते हैं या प्यार में होते हैं-तो क्या बचपन प्यार और खुशी का पर्याय है, यहीं से ताकत और सामर्थ लेता है भविष्य से जूझने और उसे संवारने की? शेक्सपियर ने भी तो कहीं लिख था कि आदमी तीन ही जगह बच्चों की तरह व्यवहार करता है -माँ के आगे, प्रेयसी के आगे और शीशे के आगे। सही भी तो है तीनों ही जगह वह खुदको भूल सकता है…बिना किसी बनावट के जी सकता है। उसे पता है कि यहाँ प्रतिकार या तिरस्कार नहीं सिर्फ प्यार ही प्यार मिलेगा। न तो उसे तौला और परखा ही जाएगा और ना ही उसकी किसी अन्य के साथ तुलना ही की जाएगी। तो क्या बचपन पूर्ण सुरक्षा है….सहज सहानुभूति और परवाह की चिंताहीन खुशियों भरी दैवीय स्थिति या उम्र है? फिर इसे यह क्या बचपना है -कहकर प्रताड़ित और तिरस्कृत क्यों किया जाता है अक्सर !
बचपन , जवानी बुढ़ापा कालचक्र है, एक शारीरिक अवस्था है जिससे क्रमशः सभी को गुजरना पड़ता है पर क्या यह एक मनःस्थिति भी नहीं, जो जिन्दगी और जीने का अन्दाज तक बदल देती है या बदल सकती है। सहज को सहज ही स्वीकारता है मन, परन्तु पलपल बदलती जिन्दगी की विषमताएँ आदमी को सहज नहीं रहने देतीं। परिस्थितियों का बड़ा हाथ है हमारी दुनिया और जिन्दगी में…इसकी सहजता और क्रूरता में। कई ऐसे हैं जो बुजुर्गों की तरह ही जीते हैं अपना बचपन। इनके जीवन में बचपन कभी आता ही नहीं, बचपन में भी नहीं। एक बालमजदूर की दिनचर्या , उसका रहन-सहन और जीने का अन्दाज एक वैभव में पले संपन्न बालक और युवा या वृद्ध से फर्क होगा ही और सदा रहेगा भी। संस्कृति और संस्कारों का भी बड़ा हाथ है जीवन की गढ़न में। पूर्वीय और पाश्चात्य संस्कृति का यह फर्क बचपन से मृत्यु तक हर कदम पर देखा जा सकता है। कहीं तीस पर आदमी अधबूढ़ा हो जाता है तो कहीं ‘यंग फोर्टी’ कहलाता है।
जितना बचपन को हम जानते और समझते हैं , उसे गढ़ने में हमारे परिेवेश , शिक्षक और अड़ोस-पड़ोस और बचपन के मित्रों का बड़ा हाथ रहता है और अब तो दूरदर्शन का भी जिसने विविध कौमिक और कार्टून फिल्मों की बच्चों के आगे एक मोहक माया नगरी फैला दी है और देश-विदेश सभी के द्वार सभी के लिए खोल दिए हैं। चार्ली और चौकलेट फैक्ट्री , चिटी चिटी बैंग- बैंग , औलिवर ट्विस्ट आदि कुछ ऐसी फिल्में हैं जिन्हें बच्चों के साथ कई -कई बार देखा है क्योंकि बच्चों की यही जिद होती थी। एक बच्चों का प्रोग्राम था वाच विथ मदर। जो 12-30 बजे दोपहर में आता था। उसके लिए तो अपने सारे काम छोड़कर बेटी के साथ बैठना ही होता था वरना तीन वर्षीय लाडली उदास हो जाती थी और बच्चों को उदास कौन माँ देख सकती है!
मेरी अपनी जिन्दगी में यह काम दादी ने बखूबी निभाया। पचास के उस दशक में टेलिविजन तो था नहीं, रेडिओ पर जरूर कुछ बाल कार्यक्रम आते थे जिन्हें बड़े ध्यान से सुनती थी। बाकी कमी, मुन्ना मुन्नी, चंदा मामा, पराग, नंदन और बाल भारती आदि पत्रिकाएँ कर देती थीं, जिनका अकूत भंडार रहे घर में बाबूजी इसका पूरा ध्यान रखते थे । फिर भी असली आनंद अंधेरा होते ही दादी के साथ उनके बिस्तर में दुबक कर कहानी सुनने में आता। लोककथाएँ, पौराणिक कथाएँ, और पंचतंत्र की कहानियाँ , दादी के पास कहानियों का कभी खतम न होने वाला भंडार था। कहानी दोहराई भी जाती थीं पर उनका जादू कतई कम न होता । कई कहानियों को दोहराने का तो हम खुद आग्रह करते। छदम्मी की कहानी भी एक ऐसी ही, अनूठा जादुई संसार लिए तिलिस्मी कहानी थी जो बहुत लुभाती थी हमारी कल्पना शक्ति को और प्रेरक भी थी। अपनी सूझ-बूझ और हिम्मत के बल पर, हर मुश्किल के बावजूद छदम्मी वह सब हासिल कर लेता है जो वह चाहता था। उसमें अच्छी परियाँ भी थीं और दुष्ट राक्षस भी। कहानी की अब धुंधली-सी ही याद रह गई है परन्तु उस समय वह छदम्मी किसी भी स्पाइडर मैन से कम नहीं था ।
ब्रिटेन में जब सन 68 में आई तो सबसे पहले जिन चीजों ने मन मोहा वह यहाँ के टी.वी पर बच्चों के कार्यक्रम और खिलौने। बारबार सोचने पर मजबूर हो जाती कितनी विविधता और रमणीयता है यहाँ इन चीजों में। कितना सुखद है यहाँ का बचपन…बोलती किताबें और खिलौने। लगातार एक से बढ़कर बच्चों के कार्यक्रम! बारबार मन करता – काश् अपने छोटे भाई बहनों के साथ बांट पाती यह सब! फिर जब अपने बच्चे आए तो एक बार दुबारा पूरा बचपन जिया। कोई खिलौना , कोई किताब मुश्किल से ही छूटती। पतिदेव ने भी कभी हाथ नहीं पकड़ा और मैं फिर से अपने दूसरे बचपन को जीती , बड़ी हुई बच्चों के साथ।
भगवान ने यह विशिष्ट सुख और मौका दुबारा दिया बच्चा बनने का -मेरी धरोहर हैं आज भी वे यादें -वरना अपना बचपन तो तब गुड़िया, मैकेनो और रंग व चित्रकारी करते आइस-पाइस ( आई स्पाई का भारतीय अपभ्रंश) और इक्कड़-दुक्कड़ खेलते ही बीता। परिवार में लड़कों से घिरी एक अकेली लड़की और कर भी क्या सकती थी…
शैल अग्रवाल
संपर्कः shailagrawal@hotmail.com