माह विशेषः चंद्र-खिलौना


मैया, मैं तौ चंद-खिलौना लैहौं।
जैहौं लोटि धरनि पर अबहीं, तेरी गोद न ऐहौं॥
सुरभी कौ पय पान न करिहौं, बेनी सिर न गुहैहौं।
ह्वै हौं पूत नंद बाबा को , तेरौ सुत न कहैहौं॥
आगैं आउ, बात सुनि मेरी, बलदेवहि न जनैहौं।
हँसि समुझावति, कहति जसोमति, नई दुलहिया दैहौं
तेरी सौ, मेरी सुनि मैया, अबहिं बियाहन जैहौं॥
सूरदास ह्वै कुटिल बराती, गीत सुमंगल गैहौं॥
-सूरदास

यह कदंब का पेड़ अगर मां होता जमना तीरे
मैं भी उस पर बैठ कन्‍हैया बनता धीरे धीरे
ले देती यदि मुझे तुम बांसुरी दो पैसे वाली
किसी तरह नीची हो जाती यह कदंब की डाली
तुम्‍हें नहीं कुछ कहता, पर मैं चुपके चुपके आता
उस नीची डाली से अम्‍मां ऊंचे पर चढ़ जाता
वहीं बैठ फिर बड़े मज़े से मैं बांसुरी बजाता
अम्‍मां-अम्‍मां कह बंसी के स्‍वरों में तुम्‍हें बुलाता

सुन मेरी बंसी मां, तुम कितना खुश हो जातीं
मुझे देखने काम छोड़कर, तुम बाहर तक आतीं
तुमको आती देख, बांसुरी रख मैं चुप हो जाता
एक बार मां कह, पत्‍तों में धीरे से छिप जाता
तुम हो चकित देखती, चारों ओर ना मुझको पातीं
व्‍या‍कुल सी हो तब, कदंब के नीचे तक आ जातीं
पत्‍तों का मरमर स्‍वर सुनकर,जब ऊपर आंख उठातीं
मुझे देख ऊपर डाली पर, कितनी घबरा जातीं

ग़ुस्‍सा होकर मुझे डांटतीं, कहतीं नीचे आ जा
पर जब मैं ना उतरता, हंसकर कहतीं मुन्‍ना राजा
नीचे उतरो मेरे भैया, तुम्‍हें मिठाई दूंगी
नये खिलौने-माखन-मिश्री-दूध-मलाई दूंगी
मैं हंसकर सबसे ऊपर की डाली पर चढ़ जाता
वहीं कहीं पत्‍तों में छिपकर, फिर बांसुरी बजाता
बुलाने पर भी जब मैं ना उतरकर आता
मां, तब मां का हृदय तुम्‍हारा बहुत विकल हो जाता

तुम आंचल फैलाकर अम्‍मां, वहीं पेड़ के नीचे
ईश्‍वर से विनती करतीं, बैठी आंखें मीचे
तुम्‍हें ध्‍यान में लगी देख मैं, धीरे धीरे आता
और तुम्‍हारे आंचल के नीचे छिप जाता
तुम घबराकर आंख खोलतीं, और मां खुश हो जातीं
इसी तरह खेला करते हम-तुम धीरे-धीरे
यह कदंब का पेड़ अगर मां होता जमना तीरे ।।

सुभद्रा कुमारी चौहान

 


याद है…
याद है आज भी मुझे
जाड़ों की वह इतवारी सुबह
जब गुनगुनी धूप दबे पांव
बिल्ली सी पसर जाती थी

रूंई के फावों से उड़ते बादल
बन्दर कुत्ता हाथी घोड़ा क्या
लम्बे बाल लहराती जल परी
घोड़े पर तलवार लिए राजकुमार

हरे भरे बाग-बगीचे
झील पहाण और झरने
जाने कहाँ-कहाँ घुमा लाते थे
कितना जी भरमाते थे

जब झुंड लगे तोतों को पकड़ने
बच्चे सूरजमुखी के फूलों पर
कोलतार लगा आते थे
और असहाय पक्षियों की
झटपटाहट से घबराए हम
झटपट ही उन्हें रिहा कर आते थे

याद है आज भी मुझे
जाड़े की वह मनमानी सुबह
माँ जब गुस्से में बाहर आ
झूठ-मूठ की डांट लगाती थीं-

अन्दर नहीं आना है क्या
कहकर बारबार बुलाती थीं
तब आज तो इतवार – कह
हम कसकर दौड़ लगाते थे
मां को खूब छकाते थे

प्रेम की मारी माँ तब
ट्रे में खाना बाहर लाती थीं
कौर-कौर हमें खिलाती थीं
और खाने-पीने से बेपरवाह
हम तितलियों के पीछे दौड़ते
माँ को संग-संग ही दौड़ाते थे

याद है खूब आज भी मुझे
जाड़े की वह बचकानी सुबह
छोटी-छोटी खुशियाँ और शरारतें
आज भी तो है पर वही धूप
हवा घास बादल और वहॉ तितली

बुलातीं तो जो रोज मुझे
पर बगावत नहीं सिखा पातीं
बिना मां के मां बने हम रोज
वैसे ही ट्रे उठाकर लाते हैं
बच्चों के संग-संग दौड़ते
हंसते-हंसते रो जाते हैं
और वही पुरानी कहानी
एक नए सिरे से दोहराते है…

शैल अग्रवाल

 

 

कौन सी कहानी

कौन सी कहानी कहूं
कि बहले तू मन
राजा की रानी की
परियों वाली या फिर
चांद पर चरखा बुनती
बेहद बूढ़ी नानी की
चांद पर तो पर
गड्ढे ही गड्ढे
और ये तारे भी
परियाँ नहीं
गैस और गन्धक के
जलते बुझते सोते हैं
पर जब हम छोटे थे
कभी नहीं यूँ रोते थे
चाँद में परियाँ रहती थीं
और फूलों पर सपने
तितली बनकर सोते थे
बादल के रथ पर चढ़कर
किरणें स्वांग रचाती थीं
छाया नटनी सी
मनचाहा रूप दिखाती थीं
घंटे पल बन जाते थे
और मिनटों के हिसाब
नहीं हमें तब आते थे
पर आज यह सब
कितना अनर्गल सा लगता है
चाँद परियाँ, तितली सपने
बेमतलब की इन बातों को
वक्त कहाँ अब मिलता है…
शैल अग्रवाल

 

 

बाज़ार में गुड़िया

अब वह प्रश्न नहीं पूछती
राजकुमारी…
चुपचाप
कभी अपनी गुडि या की ओर देखती है
और कभी
देखती है अपने पिता की
सूनी आँखों में
झाँकता हुआ
वही प्रश्न

कल की ही तो बात है
– कल करेंगे गुडिया का ब्याह
ठुमकती हुई कहती थी रज्जो।

– कल नहीं…
कभी कहतीं दादी
– कल तो कथा होगी।

या कभी
फिर किसी दिन
– कोई अच्छा-सा गुड्‌डा तो ढूँढ ले!
या… क्या योंही विदा कर देगी
किसी नंगे-भूखे के साथ!

और माँ समझातीं
– पहले कपड़े बनवा ले
गुडिया के
कुछ गहने जोड ले।

रज्जो कभी समझ पाती
और कभी
रोकर…
या मन मसोस कर रह जाती।

और टलता जाता
इस तरह
गुडिया के ब्याह का दिन।

मचलती थी रज्जो
कभी झगड ती और झुँझलाती भी

किन्तु…
कभी पिता की बीमारी
कभी मेहमान
कभी गठिया दादी का तो कभी भैया का एक्सिडेन्ट;
कभी परीक्षा
तो कभी मरम्मत घर की।

इस सब के बीच
चलता रहता था सभी कुछ
सोना और खाना
पिता का दफ्तर जाना
और उसका स्कूल…

बात बस एक ही थी
जिसके लिए
निकलती नहीं थी कोई राह
और टलता रह जाता था
उसकी गुडिया का ब्याह।

बस गुडिया ही थी
जो कभी कुछ नहीं कहती थी
और रज्जो चुपचाप
उसका भी दुख सहती थी।

अब… बडी हो गई है रज्जो
पूछती नहीं
देखती है बस, चुपचाप…
बाजार में, कभी
दुकानों पर सजी गुडियाँ देख
घबरा उठती है।

मन होता है उसका
कि कहे चिल्लाकर .
अब कहीं…
कोई भी, नई गुडिया न बनाए

जब तक
ब्याह न हो जाए हर गुडिया का…
तब तक बाजार में बिकने के लिए
एक भी गुडिया न जाए।

– सीतेश आलोक

 
 

भगवान का दूसरा रूप

बच्चा सीखकर नहीं आता भाषा-ज्ञान
नहीं लेकर आता मां के गर्भ से
शब्दों का विशाल खजाना

चाहे सही, चाहे गलत
पढ़ाया जाता है नित नया पाठ
‘अ’ से ‘अनार’, तो कहीं ‘अ’ से ‘अमरूद’
‘ब’ से ‘बत्तख’ तो कहीं ‘ब’ से ‘बन्दूक’
‘ई’ से ‘ईख’, तो कहीं ‘ई’ से ‘ईश्वर’
‘ध’ से धन तो कहीं ‘ध’ से धर्म…

बच्चा नहीं जानता
धन और धर्म का अंतर
‘ईख’ और ‘ईश्वर’
जात-पात / ऊँच-नीच
और अच्छे-बुरे के बीच भेद…

पढ़ाया-सिखाया जाता है
इसी धरती पर उसे
स्वार्थ की खातिर
अपने-अपने रंग-ढंग से…

पढ़ाया जाता है ऐसा पाठ
जो धर्म को जोड़ सके नैतिकता से
ईश्वर को तौल सके मानवता से…
और धीरे-धीरे सीख ले वह
पूरी अच्छाई-पूरी बुराई…

मगर यह भी जान लो तुम
कि बच्चा सिर्फ ‘भगवान’ नहीं होता
भावी शैतान भी होता है वह
आखिर किस रूप में देखना चाहते हो तुम
बच्चे को?

भगवान के रूप में
या शैतान के रूप में?
पशु के रूप में या
इन्सान के रूप में!

-सिद्धेश्वर
 

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