लहराते कुंतल हों या बरसते नयन, वर्षा ऋतु का संबध सीधा सौंदर्य और श्रंगार से ही रहा है, मानव मन के गूढ़तम रहस्य…सृजन और सिंचन से रहा है। रूप और रंग के इन्द्रधनुष ही नहीं, सूखी तपती धरती पर राहत और जीवन का संदेश लेकर आती हैं ये बौछारें, तभी तो ऋतुओं की रानी कहा जाता है इसे। यह बात दूसरी है कि ‘ रानी का अन्तर द्रवित दृगों में पानी ‘। चरक संहिता में भी बसंत के बाद सर्वाधिक हितकारी ऋतु कहा गया है इसे , क्योंकि फल-फूल, धन-धान्य, खेत-खलिहान सभी पर एक समृद्धि…एक बहार …अनूठी हरियाली जो आ जाती है इस ऋतु में। बात जब सावन की है तो कैसे भूल सकते हैं हम मादक इस ऋतु के पलपल बदलते रंगरूप को…दादुर, मोर, पपीहों को। रोमांच के साथ जोश भी तो आ मिलता है इसकी रिमझिम में और मेघों की ताक धिना-धिन के साथ-साथ आस्था के मंजीरे भी तो बज उठते हैं चारो तरफ। जहाँ प्रेम हो वहाँ भक्ति न हो और जहाँ भक्ति व प्रेम हो वहाँ परम आनंद न हो यह तो असंभव ही है । आश्चर्य नहीं कि सावन प्रेम, भक्ति और उत्सव का महीना है।
एक बार फिर वही सावन का महीना आ पहुँचा है, और बाहर बदली भी सावन-सी-ही है।’ सी’ इसलिए कि यहां इंगलैंड में तो बारहों महीने सावन-भादों ही है। सामने टी.वी. पर कोई किशोरी बेहद नए और मोहक अन्दाज में एक बेहद रसीले बेगम अख्तर के पुराने गीत -बरसन लागीं बुंदिया सावन की, सावन की मनभावन की-को झूम-झूमकर नए और आधुनिक अंदाज में गा रही है। सोचने पर मजबूर हूँ, अंदाज चाहे जो भी हो, गीत तो वही पुराना और सदाबहार ही है और इसका जादू भी वैसा ही। अचानक मन एक नई पुलक से भर उठता है और यादों की बाढ़ आ जाती है। मन एक बार फिर जा रमता है बनारस की गलियों में, बनारस जो आज भी आध्यात्म, आस्था और रीतियों के त्रिशूल पर अटका एक निराला शहर है। इसकी शिवमय सावन की हरहर गंगे से गूंजती गलियाँ…बेलपत्र और गंगाजल से अभिषिक्त गलियाँ, जो आजभी किसी को मोक्ष दिलाने की पूरी सामर्थ रखती हैं, विशेषतः काई भरी घाटों की सैकड़ों साल पुरानी सीढ़ियाँ और कीचड़ भरी गलियों के दम पर…अरे, सांड और सन्यासियों को तो मैं भूले ही जा रही थी !
फूलों का सिंगार, झूले, मेंहदी, चूड़ी, बिन्दी, महावर और साथ में कजरी और बिरहे के उल्लासित भीगे-भीगे स्वर… मीठी-मीठी छेड़छाड़…सावन के पहले सोमवार से ही बनारस के जन-जीवन में बढ़ता वह हर्षोल्लास, भीड़-भाड़, आजतक भुलाए नहीं भूलता। माना कि वे सावन की झांकी के नाम पर स्वनियंत्रित मानस-मंदिर की मूर्तियां गरिमा की जगह कौतुक ही अधिक पैदा करती थीं और लाउड-स्पीकर पर बजते , कजरी, बिरहा और देवी-गीतों को अनसुना कर पाना बच्चे-बूढ़े क्या, किसी के लिए भी संभव नहीं (न तब और न शायद आज ही!) पर आसपास के गांवों से आई और उमड़ती भीड़, इस बात की गवाह है कि भगवान के सजे-धजे इस यंत्रीकरण का जनता पूरे साल इन्तजार करती है वहां पर। शहरों में जीवन भले ही बदल जाए, पर गांवों और छोटे शहरों में जन-मानस आज भी वहीं-का-वहीं खड़ा है…प्रकृति के करीब और जोशीला ! सैकड़ों सालों से चले आ रहे इन त्योहारो को… ऋतुओं के परिवर्तन को आज भी वैसे ही गाजे बाजे से, हर्षोल्लास के साथ मेले के रूप में ही मनाया जाता है इन जगहों पर।
इस अद्भुत नगरी में यह वह महीना है जब प्रकृति और परमेश्वर एक हो जाते हैं। बाबा विश्वनाथ अपने पूरे श्रृंगार के साथ सड़कों पर घूमते नजर आते हैं और हर मन्दिर, हर गली में एक मेला-सा लग जाता है। नव-विवाहिताओं के सिंदूर और महावर की वह चमक गली-गली और कोने-कोने बिक रहे फूलों से होड़ लेने लग जाती है…हो भी क्यों नहीं, श्रंगार और सावन का चोली-दामन का जो साथ है! सावन है, तो शिव हैं; शिव यानी कि कल्याण ही कल्याण। सावन शिवजी का प्रिय महीना है क्योंकि यह मात्र शिवजी का ही नहीं, पार्वती जी का भी तो महीना है। यही वह महीना है जब शिव पार्वती का विवाह हुआ था। और यही वह महीना है जब परशुराम स्नेह और श्रद्धा की कांवर कांधे पर लटकाकर आराध्य देव का जलाभिषेक करने नंगे पैर ही निकल पड़े थे। सावन के इस महीने में सैकड़ों व्यक्ति इसे वैसे ही कन्धे पर लटकाए आजभी दिख जाएंगे भारत के कोने-कोने में। हर सड़क, हर पगड़ंडी से हर शिवालय तक जाता यह रास्ता आज भी उसी अटूट आस्था के जीत की ही तो कहानी दोहराता है। कांवर आज भी तो भक्ति, श्रद्धा और आस्था की ही प्रतीक है यहाँ पर ।
बचपन से ही जिन रस्मों और यादों में जिया जाए, उनसे निकल पाना प्रायः संभव नहीं, क्योंकि ये स्मृतियां और अनुभव ही तो हैं, जो जीवन में नींव के पत्थर बनते हैं। विचारों और सोच में रंग भरते हैं। ये तीज-त्योहार ही तो हमें हमारे विलक्षण भारतीय संस्कार और तौर-तरीके सिखाते हैं। ठहरे कल की उंगली दौड़ते- भागते आज को थमा, भविष्य से जोड़ने का काम करते हैं यह।
गलियों और सड़कों पर पुराने महोत्सव जैसे रथयात्रा वगैरह की तो धूम रहती ही है अब पर्यटकों के लिए भी (मुख्यतः विदेशी पर्यटकों के लिए) पुणे, खजुराहो और दिल्ली मुम्बई जैसी महानगरियों में भी, संस्कृति और कला की संस्थाओं द्वारा ही नहीं, आध्यात्मिक संस्थाओं द्वारा भी बेहद कलात्मक रूप से गीत-संगीत के साथ वर्षा-मंगल और गीत-संगीत महोत्सव मनाने का प्रचलन देश भर में जोर पकड़ चुका है और दिन-प्रतिदिन भव्यतर आयोजनों का रूप लेता जा रहा है। अबतो यहाँ बरमिंघम में भी जगन्नाथ यात्रा खूब धूमधाम से निकलती है और हरे रामा हरे कृष्णा के श्रद्धालुओं के भजन और फेरी के साथ-साथ चैम्बरलिन स्क्वायर पर स्थानीय कलाकारों द्वारा काव्यपाठ, नृत्य और प्रदर्शनी आदि का भी आयोजन होने लगा है।
कभी, हमारे विधालय में भी सावन, वर्षा-महोत्सव के रूप में बड़े जोर-शोर के साथ एक विशिष्ट अन्दाज में मनाया जाता था। पचास-साठ बालिकाओं के सामूहिक नृत्य के साथ सुबह-सुबह सात बजे ही प्रभात फेरी…फिर शान्ति-निकेतन की ही परम्परा पर विविध और अनोखे सांस्कृतिक कार्यक्रम। नए-पुराने बाउल-गीत, रविन्द्र-संगीत, मनीपुरी नृत्य सभी का समावेश, हर साल ही एक नया समां बांध देता था यह आयोजन। अल्पना और फूलों से गुंथे मंच के साथ-साथ लकड़ी के पीढ़े और स्तंभ…सभी महीनों पहले से ही रंगने-संवारने शुरू हो जाते थे और हर साल ही छोटे-बड़े सभी ये काम विद्यार्थी खुद-ही किया करते थे, वह भी हर साल नए और दुगने उत्साह के साथ। हरेक को बस एक ही फिक्र रहा करती थी कि कुछ और नया व पहले से अच्छा कर पाए वह! फिर एक सावन वह भी आया जो शान्ति-निकेतन में गुजरा और आजतक भुलाए नहीं भूलता। कला और परम्पराओं की मानो बाढ़ आ गई थी चारो तरफ। हर दिन त्योहार… एक नया महोत्सव। घने पेड़ों की शाखों से टपकती बूंदों के नीचे भीगते अक्सर ही लम्बी सैर पर निकल जाया करते थे हम, आसपास बसे सान्थाल-गांवों की तरफ। वहां घरों के दरवाजे पर बंधी बंदनवार, और घंटियां, नित-नई अल्पना, नए-नए बाउल गीत (बंगाल के गांवों में गाए जाने वाले भक्ति रस में डूबे भिक्षु गीत)—और आदिवासियों के हाथों बनाया गया वह बेंत और चमड़े का सामान, बातिक और एम्बौस् टेक्नीक से बहुत ही कलात्मक ढंग से सजा-संवरा। उन पिछड़ी जातियों की लोक परम्परा और अनूठी प्रतिभा को बेहद पास से देखने और जानने का अद्भुत और अभूतपूर्व मौका था वह ! …
सुर-सावन हो या सुख-सावन, चाहे वतन से दूर यादों की अंजुरी में भीगा, उदा-उदा और नम सावन, कहीं भी रहो आज भी तो रसाप्लावित ही करता है यह।… स्वर छमाछम बरस रहे हैं- ‘ बरसन लागी बुंदिया सावन की’…बेगम अख्तर नहीं तो दूसरे गाएंगें, गा रहे हैं। वक्त का चक्र कब और किसके लिए रुका है…तो क्या किया जाए ‘ पर अबकी बरस सावन में ‘, न बांटना, साथ-साथ न भीगना साथ साथ… क्या संभव भी है? …शायद नहीं, न आपके लिए और ना ही मेरे लिए। तो क्यों न लोकगीत और कविताओं में वर्णित सावन को याद करके ही मन को हरा भरा किया जाए। इन रूप रस की बौछारों में डूबा जाए।
विरही की पीर और यह नीर बहाती बदरी…उमड़ते-घुमड़ते बादल और आवेगी मन… नायिका के घने लहराते कुंतल, पर्वतों से उन्नत उरोज…रूप और यौवन की उफनती निर्झरणी और फूलों से लदी-फंदी वल्लरी-सी सुकुमार नायिका …साहित्य-संदर्भ में वर्षा ऋतु का नाम लेते ही महाकवि कालीदास के मेघदूत की छवि ही सर्वप्रथम आंखों में तैरती है। अषाढ़ का प्रथम मेघ और विरही, एकाकी, वह निष्कासित यक्ष, नेह-संदेश ले जाते बादल, पथ का सारा सौंदर्य, सदा के लिए ही तो अमर हैं काव्य-प्रेमियों के मानस-पटल पर।
एक मेघदूत ही नहीं, वर्षा-ऋतु तो सदियों से ही ललित कला में पूरे श्रृंगार, करुणा व आवेग …एक अकथनीय गरिमा के साथ सतरंगी छटा लेकर उभरी है, प्रसंग विरह का हो या फिर मिलन का। क्रोधी- भयावह, करुण और कोमल— वर्षा के हर रूप को ही कवि और चित्रकारों ने सराहा है। अषाढ़ के उमड़ते-घुमड़ते बादल, सावन की भीनी-भीनी रिमझिम, भादों की मूसलाधार, या फिर काली डरावनी रात में आकाश का सीना चीरती चपल विद्युत-रेखा… सदियों से ही वर्षा ऋतु के हर रूप को मानव संवेदनाओं से जोड़ा गया है और नए-नए मानकों के साथ शब्दों और रंगों में उकेरा गया है। सौम्य रूप में तो बरखा प्रियतमा और जीवन-दायिनी है ही।
ग्रीष्म-ऋतु की तपन के बाद जब बर्षा से नम धरती पर हरियाली फैलती है—नए अंकुर फूटते हैं और लजीली कोपलें फूलों के गहने धारण करती हैं, तो पूरा-का-पूरा देश लहलहा उठता है। यही वजह है कि साहित्य ही नहीं, भारतीय जन-जीवन में भी राग-रस से स्निग्ध बरखा-ऋतु का अपना एक अलग ही और उल्लासमय स्वरूप है।
स्नेह-फुहारों से भिगोती यह ऋतु हर्ष और उल्लास के कई-कई त्योहार लेकर आती है, चाहे वह शिव पार्वती के अटूट मिलन का पर्व (हरितालिका या हरियाली तीज, गनगौर) हो या फिर भाई बहनों के संबन्धों की रेशमी डोर। गदराई डालों पर लटकते झूले, बागों में नाचते मयूर, पीहू-पीहू कुहुकते पपीहे…झींगुर और दादुर सभी का तो अपना-अपना संगीत है और साथ ही रंग-बिरंगे परिधानों में सजी-संवरी रमणियां; सावन की छटा मनमोहिनी है और पहली बरसात का तो आज भी बेचैनी से ही इन्तजार होता है।
फूलों का सिंगार, झूले, मेंहदी, चूड़ी, बिन्दी, महावर और साथ में कजरी और बिरहे के उल्लासित भीगे-भीगे स्वर… मीठी-मीठी छेड़छाड़… प्रकृति ही नहीं, इस ऋतु की सरस परम्पराएं और तरह-तरह के गीत, जन-जीवन में भी उतने ही लुभावने और प्रचिलित हैं, जितने कि मध्यकालीन मुगल और राजपूत चित्रकला या काव्य व साहित्य में दिखाई देते हैं।
शहरों में जीवन भले ही बदल जाए, पर गांवों और छोटे शहरों में जन-मानस आज भी वहीं-का-वहीं है…प्रकृति के करीब और जोशीला ! सैकड़ों सालों से चले आ रहे इन त्योहारो को… ऋतुओं के परिवर्तन को आजभी वैसे ही गाजे बाजे से, हर्षोल्लास के मेले के रूप में ही मनाया जाता है।
और शायद यहीं आकर भारत अन्य देशों से भिन्न हो जाता है। अति व्यस्त जीवन-शैली के होते, जहां पाश्चात्य देशों में क्रिसमस को छोड, सभी त्योहार… हर खुशी सप्ताहांत तक ही सीमित रहती है (वैसे भी जहां बारहों महीने बरसात हो…न आने का पता, न जाने का, तो भरपूर स्वागत कैसे हो पाए और जहां मां-बाप, भाई-बहनों या पारिवारिक सदस्यों तक का खुले मन से स्वागत न हो, वहां ऋतुओं का कैसा! न किसी के पास वक्त है और ना ही चाह।) परन्तु भारत में आज भी हर ऋतु के आगमन को त्योहार की तरह ही मनाया जाता है, और ये उत्सव कभी-कभी तो एक दो दिन नहीं, महीनों या पूरे-पूरे पखवाड़े(पन्द्रह-पन्द्रह दिन तक) चलते हैं, फिर वर्षा तो वैसे भी ऋतुओं की रानी है।
भारतीय मनीषियों और ऋषियों ने हर महीने एक पर्व की परिकल्पना यही सोचकर की थी कि थके-हारे परिवार पुनः उत्साहित और प्रसन्न-चित हो सकें… मिल-बैठकर हंस बोल लें। आज जब पूरा विश्व ही निराशा और कुंठाओं से ग्रस्त है…हंसी ढूंढता, बेचैन रहता है, तो इन त्योंहारों का महत्व और भी स्पष्ट और सार्थक हो जाता है।
बचपन से ही जिन रस्मों और यादों में जिया जाए, उनसे निकल पाना प्रायः संभव नहीं, क्योंकि यही वे स्मृतियां और अनुभव हैं जो जीवन में नींव के पत्थर बनते हैं। विचारों और सोच में रंग भरते हैं। ये तीज-त्योहार ही तो हमें हमारे विलक्षण भारतीय संस्कार और तौर-तरीके सिखाते हैं। आपस में जोड़ने का काम करते हैं।
सावन के पहले सोमवार से ही बनारस के जन-जीवन में बढ़ता वह हर्षोल्लास, भीड़-भाड़, आजतक भुलाए नहीं भूल पाती। इस अद्भुत नगरी में यह वह महीना है जब प्रकृति और परमेश्वर एक हो जाते हैं। बाबा विश्वनाथ अपने पूरे श्रृंगार के साथ सड़कों पर घूमते दिखाई देते हैं और हर मन्दिर, हर गली में एक मेला-सा लग जाता है। नव-विवाहिताओं के सिंदूर और महावर की चमक तो गली-गली और कोने-कोने बिक रहे फूलों से होड़ लेने लग जाती है…हो भी क्यों न, श्रंगार और सावन का चोली-दामन का जो साथ है!
माना कि सावन की झांकी के नाम पर स्वनियंत्रित मानस-मंदिर की वे मूर्तियां गरिमा की जगह कौतुक ही अधिक पैदा करती हैं और लाउड-स्पीकर पर बजते , कजरी, बिरहा और देवी-गीतों को अनसुना कर पाना बच्चे-बूढ़े क्या, किसी के लिए भी संभव नहीं …(न तब और न शायद आज ही!) पर आसपास के गांवों से आई और उमड़ती भीड़, इस बात की गवाह है कि भगवान के सजे-धजे इस यंत्रीकरण का जनता पूरे साल इन्तजार करती है।
हमारे विधालय में भी यह सावन वर्षा-महोत्सव के रूप में बहुत ही जोर-शोर के साथ एक विशिष्ट रूप में ही मनाया जाता था। करीब-करीब चौदह साल तक लगातार यही सिलसिला रहा (शिशु-बिहार से स्नातक तक)। पचास-साठ बालिकाओं के सामूहिक नृत्य के साथ सुबह-सुबह सात बजे ही प्रभात फेरी…फिर शान्ति-निकेतन की ही परम्परा पर विविध और अनोखे सांस्कृतिक कार्यक्रम। नए-पुराने बाउल-गीत, रविन्द्र-संगीत, मनीपुरी नृत्य सभी का समावेश, हर साल ही एक नया समां बांध देता था। अल्पना और फूलों से गुंथे मंच के साथ-साथ लकड़ी के पीढ़े और स्तंभ…सभी महीनों पहले से ही रंगने-संवारने शुरू हो जाते थे और हर साल ही छोटे-बड़े सभी ये काम विद्यार्थी खुद-ही किया करते थे, वह भी नए साल के दुगने उत्साह से। हरेक को बस एक ही फिक्र रहती थी कि कुछ और नया व अच्छा कर पाए! फिर एक सावन वह भी आया जो शान्ति -निकेतन में गुजरा, आजतक भुलाए नहीं भूलता। कला और परम्पराओं की मानो बाढ़ आ गई थी चारो तरफ। हर दिन त्योहार… एक नया महोत्सव। घने पेड़ों की शाखों से टपकती बूंदों के नीचे भीगते अक्सर ही लम्बी सैर पर निकल जाया करते थे सान्थाल-गांवों की तरफ। वहां घरों के दरवाजे पर बंधी बंदनवार, और घंटियां, नित-नई अल्पना, नए-नए बाउल गीत (बंगाल के गांवों में गाए जाने वाले भक्ति रस में डूबे भिक्षु गीत)—और आदिवासियों के हाथों बनाया गया वह बेंत और चमड़े का सामान, बातिक और एम्बौस् टेक्नीक से बहुत ही कलात्मक ढंग से सजा-संवरा…उन पिछड़ी जातियों की लोक परम्परा और अनूठी प्रतिभा को बेहद पास से देखने और जानने का अद्भुत अभूतपूर्व मौका रहा वह मेरे लिए!
ऋतु की भीनी-भीनी स्मृति सुगन्ध…उल्लासपूर्ण अनूठे गीत-संगीत, सभी को समेटकर (कीचड़ व उमस तक को भूले बगैर) आप तक पहुंचाने का प्रयास है यह… किस अंतस को कितना भिगो पायीं ये रिमझिम बूंदें…काश, जान पाती!
शैल अग्रवाल
संपर्कः shailagrawal@hotmail.com