हाल ही में चार जून कवयित्री पूर्णिमा सहारन का कहानी-संग्रह ‘टूटते तटबंध’ मिला ! जब कोई किताब हाथ में आती है, उसे पढ़े बिना सबसे पहली अनुभूति ऎसी होती है जैसे कि कोई खुशी का खज़ाना हाथ लग गया हो !
कहने का तात्पर्य यह है कि जैसे हर किसी के खुशी के अपने-अपने कारण होते हैं, वैसे ही कलमकार किसी भी नई कृति को पाकर खिल जाता हैं और पढ़ने के बाद वह कृति बढ़िया निकली, तो खुशी दुगुनी होते देर नहीं लगती ! ऐसा ही कुछ कवयित्री पूर्णिमा की ‘कहानी’ की किताब अचानक मिलते ही मेरे साथ हुआ !
परिन्दे पब्लिकेशन, दिल्ली से प्रकाशित ‘टूटते तटबंध’ संग्रह में दस कहानियाँ है और सभी एक से एक उम्दा हैं ! सच कहूँ तो मैं अब तक पूर्णिमा को एक कवयित्री के रूप में ही जानती थी ! एक-दो बार फेसबुक पर वीणा पत्रिका में छपी कहानी की पोस्ट भी दिखाई दी थी, पर उसे मैंने पूर्णिमा की हल्की-फुल्की कोशिश भर समझा और उसे बस कवयित्री ही समझती रही !
लेकिन इस संग्रह ने कहानीकार पूर्णिमा से ऐसा सुन्दर परिचय करवाया कि मैं चकित रह गई ! यह सब हुआ पूर्णिमा की कहानी लेखन की सहज कला की वज़ह से ! अब तक शायद पूर्णिमा को भी नहीं पता होगा कि उसमें एक कहानीकार भी छुपा हुआ है !
पूर्णिमा की कहानियों की प्रमुख खासियत है, उनका ग्रिपिंग होना, हृदयग्राही होना ! एक बार कहानी पढ़ना शुरू करो तो, कहानी बीच में पलभर के लिए भी छुटने का नाम नहीं लेती, बल्कि हमारे अपने काम छुट जाते है ! कहानी अन्त तक पाठक को बाँधे रखती है ! कुछ कलमकारों में यह गुण जन्मजात ही होता है ! कहानी कहने के इस सहज अंदरूनी अंदाज़ को कहीं से अर्जित नही किया जा सकता ! हाँ, इस अंदाज़ को मांजा ज़रूर जा सकता है ! लेकिन सहज कथाकारों में यह बीतते समय के साथ उत्तरोत्तर खुद-ब-खुद मंजता और निखरता चला जाता है ! पूर्णिमा भी ऐसे ही कहानीकारों की कोटी में आती है !
इस संग्रह की पहली कहानी है ‘द्वन्द्व’ ! इसका कथानक, इसके पात्र, उनके कथोपकथन, उनका मनोविज्ञान सब कुछ बहुत खूबसूरती से उभर कर आया है ! हमारे समाज की एक बहुत आम मानसिकता है कि यदि विवाह होते ही एक-दो साल के अंदर, बच्चा न हो, तो घर-परिवार वाले बार-बार पूछ-ताछ करने लगते है ! जैसे-जैसे युवा दम्पत्ति के माता-पिता बनने में देर होती जाती है, निकट सम्बन्धियों के नहीं, अपितु दूर-दराज के रिश्तेदार भी आशंकाएँ प्रगट करने से बाज़ नहीं आते और तरह-तरह के सवाल-जवाबों का, नसीहतों का सबसे अधिक निशाना बनती है स्त्री !
इस कहानी में एक ऐसी ही सम्वेदनशील, पढ़ी-लिखी और अपनी गृहस्थी को सुघडता से सम्भालने वाली पत्नी की मनोवैज्ञानिक गाथा है ! घर के कामों से निबटकर, दिन भर घर में अकेली रहने वाली नीना के पास एक दिन इत्तेफ़ाक से ‘रॉग नम्बर’ से फ़ोन आता है ! ज़ाहिर है कि उस ‘रॉग नम्बर’ में नीना की कोई रूचि नहीं होती, पर प्रचुर खाली समय का होना, , युवा मन का बोर महसूस करना, इन हालात के कारण, वह ‘रॉग नम्बर’ धीरे-धीरे उसके खाली समय का रोचक हिस्सा बन जाता है ! लेकिन, सिर्फ़ उतने समय का ही मन लगाने का सहारा बनता है, जितनी देर उसका पति ऑफिस में रहता है ! पति के घर आने पर, उसे न तो उस ‘रॉग नम्बर’ की ज़रूरत होती है और न याद आती है ! लेकिन पुरुष मानसिकता को समझने वाली कथा-नायिका पुरुष के ‘अहम’ और एकाधिकार की ‘शासक प्रवृति’ को बखूबी समझने के कारण, अपने पति को सही बात न बता कर, ‘रॉग नम्बर’ एक दिव्या नाम की लड़की का बताती है ! हर व्यक्ति चाहे वह पुरुष हो या स्त्री, और स्त्री घरेलू हो या नौकरीपेशा, सबको एक ऐसे दोस्त की ज़रूरत होती है, जो उसके ‘अस्तित्व’, उसकी अस्मिता को ज़िंदा रखे, उसके अंदर दबी-छुपी रचनात्मकता को समझे, जीवन में कर्तव्य निबाहने की भूमिका के अलावा उसके व्यक्तित्व के सृजनात्मक पहलुओं को समझे और सराहे ! यही कारण है कि इस कहानी में नीना को ‘रॉग नम्बर’ वाले शालीन और संस्कारी निखिल से बातें करना भाता है ! कभी वह उसे अपनी कविताएँ सुनाती, तो कभी अपने मन की खुशी और उदासी उससे साझा कर लेती थी ! इस तरह, उससे बात करने से नीना को निर्मल और निश्छल खुशी मिलती और वह ऊर्जा से भर खिल उठती ! रिश्तेदारों के सवालों के बोझ से जो वो तनाव में रहने लगी थी, अब वह खत्म हो गया था और वह खिली-खिली रहने लगी थी !
तभी अचानक कहानी में एक मोड आता है कि ‘रॉग नम्बर’ वाला युवक किसी काम से नायिका ‘नीना’ के शहर दिल्ली आता है, तो स्वस्थ ‘दूरभाषीय’ परिचय के तहत वह नीना से मिलने की स्वाभाविक सामान्य सी बात कहता है ! नीना भी पहली सोच में, मुलाकात की बात को सामान्य ढंग से लेती है और उससे मिलने को तैयार हो जाती है ! दोनों के मन में सद्भाव के अलावा किसी तरह का कोई गलत भाव ही नहीं था ! पर जब वह तैयार होकर टैक्सी में बैठती है और निखिल से मिलने चल पड़ती है, तब लेखिका ने उसके मन के द्वन्द्व का बीज बोया और उसका बहुत सुन्दरता से वर्णन किया! ‘चरम बिंदु’ पर पहुँची कहानी का यह अंतिम रोचक मोड सामने आता है – जब ‘रॉग नम्बर’ वाले युवक के बताए स्थान पर, कुछ ही पलों में टैक्सी पहुँचने ही वाली होती है, तो अन्तर्द्वन्द्व में दोलायमान नीना अपनी टैक्सी मुडवाकर घर की ओर चल पड़ती है ! यह मोड नारी मन की परिपक्वता और समझदारी का आईना है कि भले ही नीना और अपरिचित युवक कितने भी सधे हुए थे लेकिन कुछ घटनाएँ अप्रत्याशित अनचाहे ही ‘स्त्री- पुरुष’ के बीच ऐसे घट जाती हैं जिनका उन्हें खुद भी पता नहीं होता ! बाद में उनके सही या गलत होने का एहसास होता है और यदि वे अवांछित और मर्यादा का उल्लंघन करने वाली होती हैं, तो जीवन दूभर होते देर नहीं लगती, क्योंकि ‘सही’ घटने की सम्भावना बहुत कम होती है ! और कई बार तो ‘स्त्री-पुरुष’ के बीच अनचाहे ही एक सम्मोहन के तहत छोटी-बड़ी गलतियाँ बार-बार दोहराई जाती हैं, जो उनके भावी जीवन में दुःख का कारक बन जाती हैं ! इस सच्चाई को पूर्णिमा ने इस कहानी को बहुत ही संतुलित और रोचक ढंग से बुना है और पाठक को सकारात्मक बेहतरीन सन्देश दिया है !
दूसरी कहानी ‘टूटते तटबंध’ विवाहेतर सम्बन्धों की विचारशील कहानी है ! आज के समाज की इस विकट समस्या को इसमें कायदे से चित्रित किया गया है ! इसे पाठक खुद ही पढकर बेहतर विश्लेषित करेगें !
‘धुंध के पार कहानी’, निराशा के अंधकार में आशा का दीप रौशन करती है । बीते समय से विकलांगता किसी भी युवती और युवक के लिए विवाह-बंधन में बंधने की उम्मीद के आड़े आने वाली आम समस्या रही है ।
लेकिन बदलते समय के साथ, समाज इस विषय में उदार होने लगा है । आज समाज में शुभम जैसे लोग भी बहुतायत से मिलेंगे, जो इंसान के गुणों को उसकी शारीरिक ख़ामी के ऊपर रखते हैं और उसे ससम्मान अपना जीवन साथी बनाते हैं ।
सुन्दर और गुणी रजनी की विकलांगता उसके लिए बाधा नहीं बनती और उसके रूप-गुण का कद्रदान शुभम, रजनी के समक्ष अपने प्रेम का निवेदन कर, उसे सदा के लिए अपना बनाने की उदारता और उच्चता का परिचय देता है । समाज को खूबसूरत दिशा देने वाली ,ऐसी सार्थक कहानियों की आज इक्कीसवीं सदी के विकास और प्रगति के बाद भी ज़रूरत है ।
‘दायरे से बाहर’, मनन-चिन्तन के लिए विवश करती हुई, एक ऐसी ज़बर कहानी है, जो सामाजिक दृष्टि से स्त्री और पुरुष की हर युग में नज़र आने वाली नियत भूमिका का पलट अक्स (Role Reverse) दिखाती है । आमतौर से पौराणिक काल से हम नारी को पत्नी के रूप में मन, वचन और कर्म से पति की अनुचरी की भूमिका निबाहते हुए, देखते आए हैं । जबकि पति अक्सर सुन्दर व हर तरह गुणी पत्नी होने पर भी, परनारी से सम्पर्क साधने, किसी भी सीमा तक, उसके निकट होने के प्रयास करता नज़र आता रहा है और उसे ऐसा करते, न किसी तरह का संकोच होता है, न किसी तरह के संस्कारों और नैतिकता के उल्लंघन की बात उसके दिलोदिमाग में आती है । उसे सब जायज़ और सही लगता है । जब कि वर्षों का ‘पुरुष-इतिहास’ गवाह है कि विवाह के दायरे से बाहर, उसका किसी अन्य स्त्री से जब प्रेम सम्बन्ध होता है, तो वह , नारी-देह पर अधिक टिका होता है, न कि आत्मिक धरातल पर । आत्मिक धरातल के सम्बन्ध विवाहेतर होते हुए भी निश्छल और पाक-साफ़ होते हैं, सम्माननीय होते हैं । लेकिन पुरुष इस सबसे दूर , हमेशा नारी -देह के सम्मोहन में बंधा होता और उसकी देह की ही कामना करता है ।
लेकिन यह कहानी, नारी के पर-पुरुष के प्रति आकर्षण और मोह की बात करती है, बड़ी दिलेरी से व्याख्या करती है !
नायिका हर तरह से अपने सुखी वैवाहिक जीवनके बावजूद भी, उसकी चित्रकला के मुरीद
पुरुष से पहले तो प्रभावित होती है, फिर उसकी गायन कला पर रीझ जाती है । पर पुरुष तो उसकी प्रतिभा से प्रभावित हुआ, उसकी ओर आकर्षित था ही, लेकिन वह कुछ भी कहने में संकोच करता था ! यह परस्पर का आकर्षण दोंनो तरफ बराबर पनपता रहता है । इस कहानी में लेखिका ने परिपाक सोच के तहत वर्तुल घुमा दिया है ! सुख-चैन से भरे वैवाहिक जीवन को जीने वाली, साथ ही, व्यक्तिगत स्तर पर अपनी रूचि के कार्य ‘चित्रकला’ को मनचाहा समय देने वाली ‘कल्पना’, अपने चित्रों के प्रशंसक ‘शेखर’ की ओर आकर्षित ही नहीं होती, अपितु धीरे-धीरे दोनों का आपसी आकर्षण अंजाने ही प्रेम में बदलता जाता है ! यह समझ जाने पर भी कि वह शेखर के प्रेम में उतर चुकी है, वह पीछे कदम नहीं हटाती क्योंकि, वह उस सम्बन्ध को गलत और अनैतिक नहीं मानती ! उसका सोचना है कि वह अपने पति, बच्चों और गृहस्थी के लिए पूरी तरह समर्पित है ! अपनों के प्रति अवहेलना भाव नहीं रखती ! उन सबके साथ यदि, शेखर भी उसकी ज़िंदगी में आ गया और उस सलोने व निश्छल रिश्ते से उसे सुखानुभूति होती है, तो इसमें हर्ज ही क्या है? उसकी वज़ह से उसके मन में अपने पति के लिए किसी भी तरह का उपेक्षा भाव नही है, उसे वह पहले की तरह ही शिद्दत से चाहती है, तो फिर जीवन में आए नए रिश्ते का निरादर क्यों करें ! मित्रवत प्रेमी कल्पना के परिवार के लिए सम्मान-भाव रखता है ! कल्पना को उनसे दूर करने या उनके प्रति लापरवाह बन जाने की उम्मीद नहीं करता ! तो फिर दोनों का वह आत्मीय और मीठा सा रिश्ता हमेशा बना क्यों न रहे ? इस तरह के सारे एहसास कल्पना के अपनी सखी के साथ हुए संवादों से पाठक के सामने अपनी एक ठसक और अस्मिता भरे तेवर के साथ सामने आते है और पाठक को सोचने का रोचक बिन्दु देते हैं ! निसन्देह बड़ी रोचक और दमदार कहानी है, जो सच्चे अर्थों में आधुनिक युग में, नारी और पुरुष के बीच पनपते विवाहेतर रिश्ते को मूल्यों, संस्कार और सम्मान की सौगात सी देती है !
‘अग्निफूल’ एक तरफा प्रेम की त्रासद कहानी है, जो सहज-स्वाभाविक ढंग से विकसित होती है, अपने अन्तिम बिन्दु पर पहुँच कर, पाठक-मन को वेदना से अभिभूत कर देती है ! यह कहानी बताती है कि सिर्फ़ स्त्रियाँ ही नहीं अपितु, सात्त्विक मनोप्रवृत्ति के पुरुष भी अपने प्रेम को, – प्रेम-पात्र के समक्ष अभिव्यक्त नहीं कर पाते है और चुप्पी साधे रहते हैं ! नतीजा यह होता है कि वे अवसाद में चले जाते हैं और बात आत्महत्या तक पहुँच जाती है !
इसलिए ही कहा गया है कि ‘अति का भला न बोलना, अति की भली न चुप…’
अगली कहानी ‘तरक्की की सीढ़ी’ समाज के कुरूप चेहरे से रू-ब-रू कराती है ! पत्नी नौकरीपेशा है जिसे उसका बॉस निकटता बढ़ाने की ताक में रहता है ! लेकिन वह अपने तेवर दिखाकर उससे बचती रहती है ! अपने मन का भय और पीड़ा वह अक्सर पति से साझा करती है लेकिन जब एक दिन पति उससे कहता है कि आजकल तो नौकरी में बने रहने के लिए और तरक्की करने के लिए ऐसे समझौते करना तो आम बात है, तब वह अपने पति के मुँह से इतनी गिरी हुई बात के पक्ष में दलीले सुनकर दंग रह जाती है और तनाव से भर कर उससे काफी बहस करती है ! उसके मन के मंथन को लेखिका ने बखूबी चित्रित किया है ! कथा की मुख्य पात्र रंजना स्वतन्त्र विचारों वाली आधुनिक स्त्री ज़रूर थी, पर इसका मतलब यह नहीं कि उसके संस्कार और मूल्य चुक गए थे ! घर में पति से कटु बहस के बाद वह खुद ही आत्मरक्षा का बढ़िया उपाय खोजती है ! अगले दिन वह आफिस जाती है, तो एक फ़ाइल के कुछ मुद्दों पर बात करने के लिए जब वह बॉस के केबिन में जाती है, तो उससे डरने और बचने के बजाय, अपूर्व आत्मविश्वास और दृढता से बात करती है ! उसके उस आत्मविश्वास और साहस को देख, बॉस मन ही मन हैरान और चकित होता है ! उसके इस साहसी रवैये से बॉस का व्यवहार भी रंजना के प्रति सकारात्मक होने लगता है और इस तरह वह खुद अपने बल पर अपनी समस्या का निदान खोज कर, अपने मूल्यों और संस्कारों के किसी भी तरह का गलत समझौता नहीं करती और अपनी सीधी-सच्ची राह पर कायम रहती है !
एक प्रेरक कहानी !
‘तीर्थयात्रा’ समसामयिक सरोकारों की कहानी है ! बच्चों को जी-जान से पालने वाले माता-पिता का वृद्धावस्था में अपनी सन्तान द्वारा परित्यक्त सा कर दिए जाने का भय आज-कल एक आम बात हो गई है ! बेटा माता-पिता की परवाह करने वाला भी हो, तो उसकी पत्नी नही चाहती कि बूढ़े माता-पिता साथ रहें ! भले ही वे घर के कामों में कितना भी हाथ बंटाते हों लेकिन बहू को नहीं भाते ! ऐसा ही कुछ इस कहानी में दरशा कर, अन्त में लेखिका ने बेटे द्वारा बहुत मनोवैज्ञानिक तरीके से इस समस्या का निदान प्रस्तुत किया है कि उसकी पत्नी सास-ससुर को सम्मानपूर्वक साथ रखने को तैयार हो जाती है ! माता-पिता भी अपने बेटे की संस्कारी सोच और समझ पर फूले नहीं समाते ! एक रुग्ण सामाजिक समस्या के स्वस्थ निदान के रूप में कहानी सामने आती है !
‘दबंगई’ में पूर्णिमा ने समाज के कलुष पक्ष का यथार्थ चित्र प्रस्तुत किया है ! गाँव में अक्सर पैसे वाले लोगों और जमींदारों के युवा लडके संस्कारों और सभ्यता को ताक पर रख कर धन-दौलत और ताकत के मद में अनैतिक और कुटिल हरकते करते फिरते है ! कोई उन्हें रोकने-टोकने वाला नहीं होता ! उनके घरवाले उनके गलत हौंसलों को बुलंद करना अपनी शान समझते हैं ! हर तरह के भौतिक भोग और एय्याशी, जैसे उनके जन्मसिद्ध अधिकार में आता है ! उनके इस अन्याय और अत्याचार का शिकार बनते हैं गाँव के दीन-हीन परिवार !
इस कहानी में दीनू की सुन्दर किशोरी बेटी, चौधरी के लडके द्वारा अपने दोस्तों के साथ बलात उठा ली जाती है, जिसे वे लडके अपनी हवस का शिकार बनाते हैं और फिर उसके घर के बाहर छोड़ जाते हैं ! यह एक कटु सत्य है कि गाँव और शहर सब जगह, बाज और गीद्ध जैसे मर्द निरीह नारी की दुर्दशा करने से बाज़ नही आते ! ‘जगंल राज’ इक्कीसवी सदी में भयंकर नासूर बना हुआ है ! पढ़ी-लिखी नौकरी पेशा स्त्रियाँ चाहे किसी भी उम्र की हों, अगर लम्पट और क्रूर लोगों की निगाह में वे एक बार आ जाएँ, तो उनका जीवन तबाह होते देर नहीं लगती ! त्रासदी ये कि ताकतवर सत्ताधारी लोग, अपराधियों को दण्डित करने के बजाय, बचाते है ! यह एक विशुद्ध यथार्थवादी कहानी है, जो समाज के तमस भरे पक्ष की ज्यों का त्यों तस्वीर उकेर कर, उसका निदान खोजने की ज़िम्मेदारी पाठकों पर छोडती है !
इस संग्रह की ‘अम्मा’ कहानी का कथ्य प्रथम आधे भाग तो समझ आया, लेकिन अन्तिम आधा भाग पहेली बन कर रह गया । उम्रदराज़ और ज़रूरतमंद अम्मा, जो अपने बड़े-बड़े बच्चों द्वारा उपेक्षित एक ग़रीब और समझदार पात्र के रूप में सामने आती है, वह एकाएक रहस्यमय चरित्र में कैसे और क्यों ढल जाती है, इसका कोई वाजिब आधार, उसके जीवन की कोई बीती घटना या कोई अन्य कारण समझ न आने से कहानी में अधूरेपन का सा एहसास होता है । उसको काम और हमेशा के लिए, कमरा देने वाली गृहिणी भी इंसानियत के नाते अम्मा की चोरी करने की प्रवृत्ति को गरीबी के चलते, सहज ढंग से न लेकर, उसे उस आदत से उबरने में सहयोग करती नज़र आती है ! उलटे, वह अम्मा को झटपट निकाल देती है । इससे कहानी सुगठित नहीं हो पाई ।
अगली कहानी ‘एक और चरित्रहीन’ समाज के उस अन्यायी पक्ष का चित्र उकेरती है जो बेटे के बजाय बेटियों को जन्म देना दोष मानता है और उसका सारा दोष औरत पर मढ़ता है ! बेटा पैदा न करने के लिए अकेली औरत दोषी क्यों , यह बात आज तक समझ नहीं आई ! यह कहानी है एक ऑटोरिक्शा चालक की पत्नी की ! ऑटोरिक्शा चालक अपनी माँ की बात मानकर, अपनी पत्नी को तीन नन्हीं बेटियों सहित, घर से घसीट कर बाहर निकाल देता है ! चील-गिद्धों से भरी दुनिया, भला, अकेली दर-दर मारी फिरती औरत को कैसे शिकार बनने से रोकती ! गरीब के साथ लोग वैसे भी कठोर और सम्वेदनहीन होते देखे गए हैं ! वह बेचारी गरीब युवा माँ घर से निकलने पर रोती – बिलखती बच्चियों को सम्भालती, जो भी घर नज़र आता, उसमें काम माँगती कि भूखी बच्चियों के मुँह में अन्न के दो दाने डाल सके, लेकिन सब मदद करने के बजाय उसे शक की निगाहों से देखते और आगे चलता कर देते है ! अन्त में शाम ढाले वह बेबस औरत, उस कुटिल और खराब नीयत वाले आदमी की शरण में जाने को विवश होती है, जो दिन भर उसके इर्द-गिर्द दूर ही दूर से उसे अपना शिकार बनाने की ताक में, उस पर नज़रे गड़ाए था ! औरत सब जगह से दुत्कारे जाने पर बच्चों के और अपने पेट की खातिर शाम ढाले खुद शिकारी की शरण में चली जाती है और इस तरह ‘एक और चरित्रहीन’ का जन्म हो जाता है ! आज इतने विकास और प्रगति के बाद भी निम्न मध्यम वर्ग में औरत तरह-तरह के शोषण का शिकार होती है ! विरोध करना भी चाहे तो नहीं कर पाती और घर से लेकर बाहर तक पुरुष की हिंसा एवं ज़ोर-ज़बरदस्ती को झेलती रहती है ! मेरे अनुसार कहानी को और कसावट से बुनने की ज़रूरत थी ! पढते समय लगा कि कहानी शुरू हुई और तुरन्त खत्म हो गई ! इतने ज़रूरी कथानक को गहन सम्वेदनाओं, भावनाओं के दायरों में रख कर, खूब सोच-विचार और मनन-चिन्तन के साथ और बुना जा सकता था ! फिर भी कहानी के सूत्र ने दिल को छुआ !
कुल मिलाकर, इस संग्रह ने यह सिद्ध कर दिया कि पूर्णिमा सहारन में एक उम्दा कहानीकार की सारी खूबियां मौजूद हैं ! उन्हें कहानी कहने की वो कला आती है, जो पाठक को अन्त तक बाँधे रखती है ! सुबोध, सरल और प्रवाहपूर्ण भाषा उनकी पहचान है ! मैं सुनिश्चित रूप से कह सकती हूँ कि कहानीकार के रूप में पूर्णिमा का भविष्य उज्ज्वल है ! उनको मेरी असीम शुभकामनाएँ कि वे इसी तरह कहानी लेखन की दिशा में सक्रिय रहें, पत्र- पत्रिकाओं में छपती रहें ! पाठकों की प्रतिक्रियाएँ प्राप्त कर अपनी निखरी कलम को अधिकाधिक निखारती रहें और ऊँचाइयों के सोपान चढती रहें !
डा. दीप्ति गुप्ता
(पूर्व प्रोफैसर एवं शिक्षा सलाहकार,)
मा.सं. विकास मंत्रालय
पुणे – 411006