बूंद से नदी बनने का जतन और फिर नदी का कठिन और रोमांचक सफर… अंत में एक अनंत व अथाह में विलीन हो जाना, यही तो सफर है जन्म से मृत्यु तक का…बचपन से जवानी और बुढापे तक का और इसी यात्रा को तो हम जीवन कहते हैं।
एक अंकुर के प्रष्फुटन से लेकर पतझर तक बहुत कुछ समझाती है प्रकृति हमें निरंतर के गतिमान और बदलते रूप द्वारा। जब तक प्रकृति को नहीं समझेंगे, खुद को नहीं समझ पाएंगे हम। न तो ये हारती है कभी और ना ही हमें ही हारना है। पतझण के मौसम में जैसे धरती अगले बसंत के लिए बहारों के बीज बचाती है, हमें भी जाति धर्म, मित्रता और दुश्मनी, अपने पराए सभी भेदभावों को भूलकर मानव जाति के संरक्षण और स्वस्थ जीवन के प्रति पुनः सजग और सचेत रहने की अपरिहार्य जरूरत है।
इस दुरूह समय में जहाँ मानवता और सद्भावना की अनगिनित खबर मिल रही हैं, निम्नतम दानवीय कृत्यों की भी तो । परन्तु अच्छे काम न रुकें इसके लिए हम सभी को मिलकर प्रण और आचमन लेने होंगे। अपनी-अपनी तरह से प्रयास जारी रखने होंगे, संवेदनाओं को नहीं मरने देना है किसी भी हाल में।
एक ठहरी और डरी मन-स्थिति में निकला है पूरा विश्व पिछले डेड़ -दो वर्षों में। हाल की इन विषम परिस्थितियों से जूझते हुए न सिर्फ हमारे हालात , हमारी जीवन शैली, आसपास की दुनिया ही बदली है, हम भी बदले हैं। निराश और एकाकी हुए हैं। सुख-दुख दोनों के प्रति हमारी संवेदनाएं कुंद और मनःस्थिति वीतराग हुई है। परन्तु इस दौरान बड़े होते बच्चों से तो मानो करोना ने उनके बचपन का एक बड़ा हिस्सा ही छीन लिया है, विशेषतः उन शिशुओं से जिन्होंने इसी घुटन के दौरान आँखें खोलीं और दुनिया को महसूसना व टटोलना शुरु किया। मन भर आता है जब सोचती हूँ कि क्या ये कभी अब पूरी तरह से स्वच्छंद होकर खेल भी पाएंगे? विश्वास कर पाएंगे बाहर की दुनिया पर, ललककर अपने संगी साथियों और परिचितों से गले लग पाएँगे ?
होगा, अवश्य ही ऐसा होगा। अंधेरे से अंधेरे आकाश को चीरकर सूरज निकलता है। निराशा में भी पक्षी उड़ना नहीं भूलते, उड़ना नहीं छोड़ते फिर हम तो मानव हैं, इक्कीसवीं सदी में हैं। विकास के नए-नए कीर्तिमान स्थापित कर चुके हैं।
कहते हैं इजरायल में जब करोना की वजह से आलिंगन वर्जित थे तो लोगों ने इस वंचना से घबराकर उद्यानों में पेड़ों के तनों को ही आलिंगन बद्ध करना शुरु कर दिया था। फिर बचपन में तो ये लाड़ दुलार औषधि का काम करते हैं। मां की फूंक का जादू और पिता की उंगली का भरोसा भला कौन भूल सकता है, ना ही दादी-नानी की कहानियाँ और वह लाड़ दुलार। इन गोदियों का तो बड़े-से बड़े सिंहासन भी मुकाबला नहीं कर सकते। बचपन ही तो वह नींव है जिसपर जीवन की इमारत आकार लेती है। बचपन की बातों और यादों को, राग-रंज को भूल पाना आसान नहीं। मां-बाप के साथ-साथ, संगी-साथी , शिक्षक, यहाँ तक कि आस-पड़ोस सभी का बड़ा हाथ रहता है हमें संवारने या बिगाड़ने में। बचपन की यादों को , राग द्वेष, प्रोत्साहन और अपमान को भूल पाना किसी के लिए भी आसान नहीं। यही तो हैं जो हमें गढ़ती हैं। मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि दो से पांच वर्ष के बीच ही मनुष्य का स्वभाव और व्यक्तित्व आकार ले लेता है। पर जब ये सारे सहारे ही छिन जाएँ , तो जीवन कितना सूना है आसानी से समझा जा सकता है, जहाँ एकल परिवारों में पलते-बढ़ते बच्चों को बस सप्ताह अंत का समय ही मिलता है इस सामाजिक और पारिवारिक मेल-मिलाप के लिए। विश्व में आज इस करोना महामारी की वजह से जाने कितने घर उजड़े हैं, कितने ऐसे अनाथ बच्चे हैं जिनके मां बाप दोनों ही तारे बनकर उनकी पहुंच से, उनकी ख्वाइशों और जरूरतों से बहुत दूर जा चुके हैं ।
बचपन का एक बड़ा हिस्सा जो इस लौक डाउन के क्रूर सन्नाटे में खो चुका है उसे पुनः स्पंदित करना, अपनी-अपनी सामर्थ अनुसार अनाथ और बेसहारा या असमर्थ अगली पीढ़ी की हंसी और मुस्कुराहट को वापस लाना हम सबकी ही जिम्मेदारी है आज। अधिक नहीं, अपने आसपास की दुनिया में, परिचितों में हम सब जो भी कर पाएँ , एक उदास बच्चे को भी हंसा पाएँ, उसकी भूख मिटा पाएँ तो यही हमारी और मानवता की जीत होगी इस विनाशक और दुःस्साहसी समय पर।
इनके हित में क्या नया और सार्थक किया जा सकता है सोचना ही होगा क्योंकि ये ही तो हमारे आज को कल से जोड़ने वाली कड़ी हैं। माली-सा हंसता-खेलता जीवन उपवन इन्हें ही, और इन्ही की देखरेख में ही तो सौंप कर जाना होगा। वर्ड्सवर्थ ने कहा था कि चाइल्ड इज द फादर औफ द मैन अर्थात आज का बच्चा ही कल के भविष्य का जनक और निर्माता है। आश्चर्य नहीं कि लेखनी का यह अंक बाल-विशेषांक के रूप में सज-संवरकर आपके सम्मुख उपस्थित हुआ है। उम्मीद है त्रुटियों को नजरंदाज करते हुए अंक का अपने-अपने नवनिहालों के साथ न सिर्फ भरपूर आनंद लेंगे आप, अपितु उनकी और अपनी जरूरतों व इच्छाओं से हमें अवगत भी कराएंगे।
मानवता के स्वस्थ और सुनहरे भविष्य के लिए बच्चों का शारीरिक व मानसिक रूप से पोषित रहना आवश्यक है और अच्छे खान-पान व शिक्षा के साथ-साथ बच्चों के मानसिक विकास में बाल सहित्य का योगदान आज भी नकारा नहीं जा सकता। यदि बचपन से ही पढ़ने लिखने की आदत पड़ जाए तो अपरोक्ष रूप से ही सही, आदर्शों और विचारों को…कल्पना को, नया आकाश और नयी उड़ान दी जा सकती है …चरित्र के नींव का पत्थर तक बनने की संभावनाएँ रखता है यह…नित नए और रोचक और सही आदर्श व सफल प्रतिमानों को गढ़-संवारकर।
आजादी के बाद देश में नव जागृति और नव चेतना की क्रांति के साथ बाल साहित्य में भी बदलाव की प्रक्रिया आई। परियों की और पंचतंत्र की कहानियों से आगे बढ़ते हुए कवि, लेखक व विचारक बाल साहित्य की नयी-नयी संभावनाएं और जरूरतों की तलाश और समस्या पूर्ति के प्रति सजग होते दिखे। देश ज्यों-ज्यों विकासोन्मुख हुआ, त्यों-त्यों लोगों के जीवन-स्तर, मानसिकता में भी बदलाव आया। इसका असर बच्चों पर भी स्पष्टतः पड़ा। दासता से उबरते लोगों के मन में अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा देकर, उन्हें भी डॉक्टर, वकील, वैज्ञानिक और इंजिनीयर बनाने की लालसा जन्म लेने लगी। पर आज विश्वीकरण के इस युग में और भी नई-नई संभावनाएँ और दिशाएँ खुली हैं और बच्चों और बड़ों दोनों की ही महत्वाकांक्षाएं और संभावनाएं दोनों बढ़ी और विस्तृत हुई हैं।
बाल विकास में भी बाल साहित्य के महत्व को देखते हुए पहले तो बाल साहित्य के अनेक लेखकों ने पुरानी लोककथाएं, परीकथाएं, राजारानी और पौराणिक किस्सों आदि की भरमार लगा दी, परन्तु छठे दशक के बाद से इस प्रवृत्ति में भी बदलाव आया है और नए व मौलिक बालसाहित्य का सृजन आरंभ हुआ है। धर्मयुग और पराग जैसी पत्रिकाओं ने मौलिक साहित्य के प्रकाशन को महत्व देकर विशेष प्रोत्साहन दिया था और आधुनिक व नई सोच के बाल साहित्य को रेखांकित भी किया। साथ ही बाल साहित्य संबंधी लेखों को प्रकाशित किया गया और कई विश्वविद्यालयों ने बालसाहित्य को शोध-विषय की तरह भी मान्यता दे दी। फलतः बाल साहित्य में बदलाव आता चला गया। नए तरह के शिशु गीत लिखे गए। मौलिक नाटक, बाल उपन्यास लिखे गए। विज्ञान कथाएं और मनोवैज्ञानिक और साहसिक, हास्यकथाएं व विविध अन्य विषयों पर नई कहानियां लिखी गईं।
युग-परिवेश और समसामयिक परिस्थितियों से प्रभावित होकर ही हर युग में साहित्य विकसित हुआ है। बच्चों के साथ भी यही है- जैसा संगसाथ वैसी ही मानसिकता। कवि सोहनलाल द्विवेदी अपनी कविता बड़ों के संग में लिखते हैं-
”खेलोगे तुम अगर फूल से तो सुगंध फैलाओगे।
खेलोगे तुम अगर धूल से तो गन्दे हो जाओगे।
कौवे से यदि साथ करोगे, तो बोलोगे कडुए बोल
कोयल से यदि साथ करोगे, तो दोगे तुम मिश्री घोल
जैसा भी रंग रंगना चाहो, घोलो वैसा ही ले रंग
अगर बडे़ तुम बनना चाहो, तो फिर रहो बड़ों के संग।”
-सोहनलाल द्विवेदी
परन्तु हो सकता है आज बड़ों का (दादा-दादी, नाना-नानी, शिक्षक और अभिवावक आदि का) साथ ही बच्चों को रुचिकर न लगे। आज के विश्वीकरण के इस युग में बच्चों के परिवेश और ज्ञान-मनोविज्ञान में तेजी से परिवर्तन आया है। इसलिए आज ऐसे बाल साहित्य की जरूरत है जो उन्हें बांध सके। मनोरंजन के साथ-साथ प्रेरित करे…स्थिति और विषयों का ज्ञान दे। वर्तमान परिस्थितियों और जरूरतों से अवगत कराता चले।
पर ऐसी सजग और रुचिकर सामग्री का मिलना उतना आसान भी नहीं। फिर भी भांति-भांति के स्रोतों से हमने जो सामग्री संजोई है, उम्मीद है बाल साहित्य के लेखक और कवियों के साथ-साथ नन्हे पाठकों के लिए भी रुचिकर और प्रेरक होगी।
समर्पित है लेखनी का यह प्रेरक और रोचक अंक विश्व के छोटे बड़े सभी बच्चों को, उनकी खुशियों और शांति व समृद्धि को।
हर बड़े में एक बच्चा और हर बच्चे में एक बुजुर्ग सदा ही छुपा रहता है क्योंकि बचपन सिर्फ एक उम्र ही तो नहीं, एक मनःस्थिति भी तो है।
…अंक पर आपके विचार और सुझावों का सदैव स्वागत है।
लेखनी का अगला अंक रिश्तों पर है। भेजने की अंतिम तिथि 20 अगस्त shailagrawal@hotmail.com, shailagrawala@gmail.com पर।
सावन मास के सभी त्योहार और पर्वों की शुभकामनाओं के साथ,
शैल अग्रवाल