प्रिय रूप चंदेल जी,
४ जून को इला प्रसाद की कहानी-पाठ के पश्चात् शुरू हुए विवाद संबद्ध २१ जून का गोयनका जी का स्पष्टीकरण पढ़ा. मैं अपने विचारों में गोष्ठी के दौरान संबंधों, व्यवहारों के विषय में कुछ न कहकर सीधा मुद्दे पर आता हूँ कि क्या भारत से बाहर विदेशों में स्थित मुझ जैसे लेखकों द्वारा रचित हिंदी साहित्य को ‘प्रवासी साहित्य’ कहना उचित है?
अपने स्पष्टीकरण में गोयनका जी लिखते हैं ‘ मैंने यह नहीं कहा था कि प्रवासी शब्द बहुत पुराना है और उसी से प्रवासी साहित्य का जन्म हुआ. मैंने कहा था कि प्रवासी शब्द का प्रयोग काफी समय से हो रहा है.’ प्रश्न यह नहीं कि प्रवासी शब्द का उद्भव कब हुआ? विवाद तो हमारे हिंदी साहित्य पर ‘प्रवासी साहित्य’ का ठप्पा लगाने के औचित्य पर है.
श्री गोयनका जी ने ‘प्रवासी’ शब्द-प्रयोग के दो उदहारण दिए हैं — (१) जनवरी १९२६ के ‘चाँद’ के अंक में छपी कहानी ‘शुद्रा’ (२) प्रवास में छपी बच्चन जी की ‘प्रवासी की डायरी’.
गोयनका जी के पहले उदहारण का हमारे विवाद से कोई सम्बन्ध नहीं. यह एक भारतीय लेखक द्वारा लिखी मौरिशस में स्थित प्रवासियों की कहानी है. दूसरे उदहारण के विषय में मुझे यह कहना है कि प्रवास में बच्चन जी थे. वहां पर लिखी उनकी डायरी प्रवासी नहीं हो गयी. वैसे ही विदेशों में लिखा हमारा साहित्य प्रवासी नहीं कहा जा सकता.
‘प्रवासी साहित्य’ के इस नाम-करण के औचित्य-परिपादन में आप कहते हैं ‘यह प्रवासी हिंदी लेखकों द्वारा रचे साहित्य की विशिष्ठ पहचान का साहित्य है.’ यहाँ प्रश्न उठता है कि हमें यह तथाकथित ‘ विशिष्ठ पहचान ‘ देने की ज़रुरत क्या है? सीधे ही हिंदी साहित्यकारों की मुख्यधारा में शामिल कर देने में क्या दिक्क़त है? या फिर कम से कम हम से ही पूछ लो कि हमें ऐसी ‘ विशिष्ठ पहचान ‘ चाहिए भी या नहीं.
गोयनका जी का कहना है ‘भारत में रचे जाने वाले हिंदी साहित्य की तुलना में यह अपनी संवेदना, रचना दृष्टि तथा सरोकारों के कारण भिन्न है और विशिष्ट है और इस रूप में वह भारतीय प्रवासियों द्वारा लिखा गया हिंदी साहित्य है.’ फ़ुटबाल की भाषा में कहें तो यह गोयनका जी का ‘own goal ‘ है. हम भी तो यही कह रहे हैं कि कोई भी साहित्य किसी देश का नहीं होता. साहित्य भाषा का होता है, देश का नहीं. हमारा साहित्य हिंदी साहित्य है ‘प्रवासी साहित्य ‘ नहीं.
एक और बात. रचना-दृष्टि, रचना-शैली — वह भारतीय हो या विदेशी — हर लेखक की अलग होती है. यदि गोयनका जी भारतीय साहित्यकारों में अलग तरह की एकरूपता देख रहे हैं तो वे उनके प्रति अन्याय तो कर ही रहे हैं, वे यह भी ग़लत इशारा कर रहे हैं कि इस ‘एकरूपता’ के कारण हमारा हिंदी साहित्य बिल्कुल नीरस हो गया है.
इन महाशय का अगला तर्क यह है कि ‘साहित्य की रचना में उसके परिवेश, वातावरण तथा उसके आस पास की ज़िन्दगी का गहरा प्रभाव पड़ता है. रचना को यदि उसके रचना-परिवेश एवं जीवन से अलग कर देंगे तो रचना की आत्मा ही खो जायेगी.’ यहाँ अपनी ओर से कह दूं कि ‘आत्मा खो जायेगी’ पर मर तो नहीं जायेगी! आत्मा पत्थर नहीं है. लेखक का व्यक्तित्व, उसकी आत्मा उसकी हर कृति में विद्यमान होते हैं. जब एक लेखक कोई नयी चीज़ लिखता है तो उसका मन, उसकी आत्मा उसी तरह से उसकी नयी कृति में उसके साथ शामिल हो जाती है. गोयनका जी का तात्पर्य है कि विदेशों की हमारी रचनाओं में विदेशी वातावरण के कारण उनमें विदेशी रंग आ जाता है. मैं स्पष्ट कर दूं कि जब हमारी रचनाएं हमारे प्रवास की कहानी या कविता कहती हैं और उनमें विदेशी रंग भरते हैं तो इस से हमारे हिंदी साहित्य का कोई नुक़सान नहीं होता बल्कि वह संवर्धित होता है. इस संवर्धन से हमें गर्वित होना चाहिए.
रही बात परिवेश की! यहाँ दो उदहारण देना ही पर्याप्त समझता हूँ. पर्ल बक और अर्नेस्ट हेमिंग्वे नोबेल-पुरस्कृत अमेरिकन साहित्यकार थे. पर्ल बक ने चीन के परिवेश में एक उपन्यास लिखा था ‘Good Earth ‘ तो वे क्या अमेरिकन नहीं रहीं, प्रवासी चीनी लेखिका हो गयीं? अर्नेस्ट हेमिंग्वे ने विदेशी परिवेश में कई कहानियां लिखीं, उदहारणतया – ‘For Whom The Bell Tolls (स्पेन के गृह-युद्ध की कहानी ) ‘, ‘Snows of Kilimanjaro (केनिया के परिवेश में एक रोमानी कहानी )’, और ‘Old Man and The Sea (सागर में मछलियों के शिकार की कहानी )’. कमल किशोर जी से मेरा प्रश्न है कि नोबेल-पुरस्कृत इस तीसरी कहानी लिखकर क्या अर्नेस्ट हेमिंग्वे अमेरिकन नहीं रहे, सागर के हो गए?
२१ जून के उनके स्पष्टीकरण से लगता है कि गोयनका जी काफ़ी confused हैं, भटक गए हैं और हमारी हिंदी साहित्य की चर्चा में वे भक्तिकालीन, रीति कालीन और छायावादी साहित्य का बखेड़ा ले बैठे हैं. ये सब साहित्यिक इतिहास की बाते हैं जैसी कि हम अपने राजनैतिक इतिहास में मौर्य वंश, खिल्जी वंश या मुग़ल वंश की चर्चा करते हैं. कोई उन्हें समझाए कि श्रीमान जी, यहाँ विवाद कालान्तर का नहीं, देशांतर का है.
गोयनका जी के भटकाव का एक और प्रमाण! वे समझते हैं की हम प्रवासियों में से कुछ को ‘प्रवासी’ शब्द अपमानजनक लगता है. गोयनका जी, ‘प्रवासी’ शब्द अपमानजनक नहीं है, अपमानजनक है आपका रवैया जब आप साहित्य की वैश्विकता को अपमानित और अवनत करके उसे देशी और प्रवासी श्रेणियों में बांटने का दुष्प्रयास करते हैं.
आपके प्रश्न कि ‘ विभिन्न देशों में रहने वाले हिंदी लेखकों के साहित्य को एक सूत्र मैं कैसे बांधें?’ का उत्तर हम क्या दें? हमें वह एक सूत्र ही टूटा हुआ लगता है! आजके युग में संसार बहुत छोटा हो गया है और इन्सान घंटों में कहाँ से कहाँ पहुँच जाता है. आप हमें बतलायें कि निम्नलिखित स्थितियों में आप साहित्यकारों की रचनाओं को किस श्रेणी में रखेंगे:-
(क) एक प्रवासी लेखक छ: महीने के लिए भारत आ जाता है और भारत में अपने अस्थायी निवास के समय कुछ रचनाएँ करता है. उसकी ऐसी कृतियों को आप प्रवासी साहित्य तो नहीं कह सकते. फिर उनका स्थान कहाँ होगा?
(ख) ठीक उसी तरह एक भारतीय लेखक ब्रिटिश कौंसिल की किसी स्कीम के अंतर्गत स्कॉलरशिप प्राप्त करके साल भर के लिए इंग्लैण्ड आ रहता है और वहां के वातावरण से प्रभावित होकर कुछ कवितायेँ या कहानियाँ लिख डालता है तो भारतीय मुख्यधारा के इस हिंदी साहित्यकार की उन कृतियों को किस श्रेणी में डालियेगा? (आपके उदहारण की ‘प्रवासी की डायरी’ इसी श्रेणी की हकदार लगती है).
(ग) ऊपर (क) और (ख) की स्थितियों में एक उपन्यासकार उपन्यास लिखना शुरू करता है. वह आधा भारत में लिखा गया है और उसका शेष दूसरा आधा भाग इंग्लैण्ड में पूरा होता है या इंग्लैण्ड में शुरू होकर भारत में पूरा होता है. यह साहित्य कहाँ का हुआ?
(घ) विदेशों में आजके हिंदी साहित्यकार भारत में काफ़ी समय तक हिंदी साहित्य-सेवा करते रहे थे. कुछ नाम हैं – तेजेंद्र शर्मा, स्वर्गीय गौतम सचदेव, सत्येन्द्र श्रीवास्तव, उषाराजे सक्सेना, प्राण शर्मा, सुषम बेदी, उमेश अग्निहोत्री, महेंद्र दवेसर, मोहन राणा, इत्यादि. क्या भारत में रचे इनके साहित्य को आप मुख्यधारा का हिंदी साहित्य कहेंगे और विदेशों में लिखे साहित्य को प्रवासी साहित्य?
आपको हिंदी भाषा से बहुत प्यार है. स्वीकार किया. विदोशों में वर्षों से रह रहे प्रबल विपरीत धारा का मुक़ाबला करते हम भी हिंदी में लिख रहे हैं, हिंदी साहित्य की सेवा कर रहे हैं किन्तु खेद इस बात का है कि आप जैसे हिंदी प्रेमी हमें मुख्यधारा में शामिल करने के लिए आना कानी कर रहे हैं? आप तीस वर्षों से झंडा उठाये फिर रहे हैं , फिर भी व्यर्थ! क्यों? यदि आप लोगों को सचमुच हिंदी से प्यार है तो हमें यथोचित स्थान देने में क्यों झिझक रहे हैं? क्यों हमें एक अलग सूत्र में पिरोना चाहते हैं? यदि वास्तव में आपको हिंदी से सच्चा प्रेम है तो हिंदी का लेखक कोई भी हो, कहीं भी हो, आपको खुली बाहों से उसे गले लगाना चाहिए. मैं यहाँ दुकानदारी की बात नहीं करता किन्तु इतना जानने का अधिकार तो मेरा और मेरे जैसे साहित्यकारों का तो है ही कि हमारे मुख्य धारा में आ जाने से आप लोगों का क्या नुकसान है और हमें इस धारा से अलग रखने में क्या लाभ है ?
सब समझते हैं हम . . . Pure politics! Divide and Rule!!
महेंद्र दवेसर ‘दीपक’
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( हरिगंधा – ड़ा श्याम सखा श्य़ाम के संपादन में प्रकाशित हरियाणा साहित्य अकादमी की माासिक पत्रिका है)
(पिछेल कई वर्षों से प्रवासी साहित्य को प्रवासी कहा जाए या ना कहा जाए यह मुद्धा कुछ लोगों ने उठा रखा है। इसी क्रम में डायसपोरा देशों मारिशस, सूरीनाम, फिजी आदि देशों में रचित साहित्य को हिंदुत्ववादी, अधकचरा और नास्टेलजिया से भरा कहा गया है। हरिगंधा के संपादकीय में अनिल जोशी ने इन प्रश्नों पर गहराई से विचार किया है और बहस के माध्यम से प्रासांगिक और विचारोत्तेजक मुद्दे उठाए हैं। प्रस्तुत है यह बहुचर्चित आलेख)
बच्चा 15-20 साल का हो गया..। शुरू में उसे अपना नाम अच्छा लगता था। धीरे-धीरे बड़ा हुआ तो उसकी अक्ल दाढ़ निकली। उसे अपना नाम बुरा लगने लगा। क्या यही बात प्रवासी साहित्य के नामकरण के साथ नहीं है? इस समय जबकि हिंदी साहित्य की इस धारा के बलवती होने और इसके कारण हिंदी के वैश्विक स्तर पर समृद्ध होने की अपेक्षा की जा रही थी, वहीं पिछले कुछ वर्षों से इस धारा के नामकरण पर बहस छिड़ी हुई है। बहस कैसे शुरू हुई? किसने शुरू की ? उसके कारण क्या थे ? कौन से तर्क थे जिसके आधार पर इसे प्रवासी साहित्य मानने से इनकार किया जा रहा है? कौन से कारण थे कि इसको प्रवासी साहित्य माना गया था। किसने माना था ? कौन मानने से इनकार कर रहा है? इस बहस में यह सब सवाल मौज़ूं है कि इस शब्द का इतिहास क्या है? वर्तमान क्या है? इसको किन क्षेत्रों में स्वीकृति मिली है? भारत के वरिष्ठ साहित्यकार और आलोचक इसके बारे में क्या सोचते हैं? चूंकि वे बड़े आलोचक और नाम हैं क्या इसलिए उनकी बात को मान ली जाए? जब कई प्रवासी लेखक इसको ना मानने की जिद पर अड़े हुए हैं तो क्यों ना उनकी बात को मान लिया जाए। आखिर जिनके साहित्य का नामकरण किया जा रहा है, जब वे ही नहीं चाहते तो क्यों जबर्दस्ती कोई नाम थोपा जाए? क्या लेखकों से पूछ कर उनके साहित्य का वर्गीकरण किया जाना चाहिए या किया जाता रहा है? क्या पंत जी, प्रसाद जी अपनी कविता को छायावादी कविता कहे जाने से खुश थे?
यह बहस पिछले पांच-सात वर्षों में तेज हो गई जब कुछ प्रवासी लेखकों ने साहित्य के इस वर्गीकरण से अपनी अप्रसन्नता जाहिर की । उनका कहना था कि यह वर्गीकरण उनकी रचनाओं को एक दायरे में बांधता है ! उनकी रचनाओं को मुख्यधारा में स्थान नहीं देता । इस नामकरण के कारण उन्हें दोयम दर्जे का समझा जाता है। यह भी कहा गया कि प्रवासी व्यक्ति होता है साहित्य नहीं। ये पूछा गया कि इस वर्गीकरण के क्या पैरामीटर्स या मानदंड है? क्या अंग्रेजी या अन्य भाषाओं में ऐसा वर्गीकरण है ? यह सिलसिला विशेष रूप से ब्रिटेन के दो हिंदी लेखकों तेजेन्द्र शर्मा, उषा राजे सक्सेना ने शुरू किया। इस मुहिम को अमरीका के भी कुछ लेखकों से समर्थन मिला। ब्रिटेन के कई अन्य साहित्यकारों ने इस मुहिम का समर्थन किया जिनमें प्राण शर्मा, कादंबरी मेहरा, महेन्द्र दवेसर जैसे लेखक भी थे। कई प्रवासी साहित्यकार मुंडेर पर जा बैठे और देखने लगे कि संख्याबल और शोर किस तरफ ज्यादा है!
इस बहस को शुरू करने से पूर्व मैं यह स्पष्ट करना चाहता हूँ कि एक रचनात्मक लेखक के रूप में मैं उषा राजे सक्सेना और तेजेन्द्र शर्मा का सम्मान करता हूँ और उनके योगदान की सराहना करता हूँ, परंतु प्रवासी साहित्य की इस बहस में इन लेखकों की वैचारिक विसंगतियों और संकीर्ण दृष्टिकोण से सहमत नहीं हूँ और विशेष रूप से प्रवासी साहित्य में दरार पैदा करने वाले दृष्टिकोण का आलोचक हूँ। मैं इस बहस में वर्ष 2011 में दिल्ली हिंदी अकादमी से प्रकाशित प्रवासी कविताओं और कहानियों के संकलन ‘देशांतर’ के प्रकाशन को महत्वपूर्ण समझता हूँ। ‘देशांतर’ के अंतर्गत कहानियों के संकलन का संपादन तेजेन्द्र शर्मा और कविताओं के संकलन का संपादन श्रीमती उषा राजे सक्सेना ने किया। इस बहस की दृष्टि से यह दोनों संकलन और इनके संपादकीय महत्वपूर्ण है। इन संकलनों में प्रकाशित संपादकियों में दो महत्वपूर्ण अवधारणाएं हैं : पहला विदेशों में रहने वाले हिंदी रचनाकारों के साहित्य को प्रवासी साहित्य कहना ठीक नहीं। दूसरी अवधारणा ज्यादा विवादास्पद है और विदेशों में रचे जा रहे हिंदी साहित्य के लिए घातक है। वह अवधारणा यह है कि इस संकलन को प्रवासी भारतीयों की कविताओं और कहानियों का संकलन कहा गया पंरतु पहली बार प्रवासियों के एक संकलन से मारिशस, फीजी, सूरीनाम के लेखकों को ना केवल निकाला गया, बल्कि उनके साहित्य को हिंदुत्ववादी, अधकचरा, नौस्टेलिजया से भरा है, कहने की हिमाकत की गई। अपने को स्थापित करने के लिए लाखों हिदुस्तानियों के त्याग, तपस्या और बलिदान के इस लोमहर्षक दास्तान को अपमानित कर, गिरमिटिया साहित्य कह संकलन में प्रकाशित नहीं किया गया । चूंकि दोनों संपादकीयों की भाषा, स्वर, तेवर एक जैसे हैं, दोनों में ही डायसपोरा देशों के साहित्यकारों को शामिल नहीं किया गया, इसलिए मैं मुक्तिबोध की भाषा में इसे (साहित्यिक) अपराधियों का संयुक्त परिवार मानता हूँ। इन संपादकियों में अपनी अवधारणा के समर्थन में किस प्रकार के तर्क दिए हैं , उनको जानना जरूरी है ।
कविता संकलन के संपादन में लिखा गया हैं ‘ विदेशो में लिखे जा रहे साहित्य को भारत के कई बड़े विद्वानों ने बिना पढ़े और अध्ययन किए उसे हिंदुत्ववादी, अधकचरा और नॉस्टैल्जिक लेखन कहकर खारिज किया है। ऐसी ही मनोवृति वाले साहित्यकारों ने ब्रिटेन,अमेरिका और खाड़ी देशों के साहित्य को ‘प्रवासी साहित्य’ के खांचे में डालकर उसे मुख्यधारा के साहित्य से काट दिया है। इसलिए भारत के आलोचक और साहित्यकार विदेशों में लिखे जा रहे साहित्य को पढ़ने से पूर्व ही उसे नकारात्मक विशेषणों से विभूषित कर, दोयम दर्जे का प्रमाणित कर उसका अवमूल्यन कर देते हैं।’ ( पृ. 20, देशांतर, प्रवासी भारतीयों की कविताएँ)
दूसरी शिकायत यह है कि ‘प्रवासी साहित्य के नाम पर गिरमिटिया साहित्य (क्या डायसपोरा के देशों के साहित्य को गिरमिटिया साहित्य कहना अपमानजनक नहीं है) के आधार पर आकलन किया जाता है। हिंदुत्ववादी, नास्टैलजिक या अधकचरा कहने का आधार वही गिरमिटिया साहित्य है (संपादिका की शिकायत यह है कि अमेरीका और इंगलैण्ड के साहित्य को ऐसा कहना गलत है। उन्हें मारिशस, इत्यादि देशों के साहित्य को हिंदुत्ववादी, नास्टैलजिक या अधकचरा जैसे विशेषण देने में कोई बुराई नहीं लगती) निष्कर्ष यह है कि ऐसे पंडित हिंदी साहित्य की अजस्र धारा को खंडित कर रहे हैं। (पृ. 21, देशांतर, प्रवासी भारतीयों की कविताएँ)
संपादकीय में लिखा गया है ‘कई ऐसे लेखक, संकलक और आलोचक भी हैं जिन्होंने ‘प्रवासी साहित्य’ के नाम का दोहन कर खुद को स्थापित किया है। हिंदी में लिखा साहित्य चाहे अमेरिका या जापान में रचा गया हो, चाहे चाँद, और बृहस्पति ग्रह पर, रहेगा वह हिंदी साहित्य ही। ‘प्रवासी साहित्य’ कह कर विदेशों में लिखे जा रहे साहित्य को दोयम दर्जे का प्रमाणित करने का जो प्रयास हो रहा है उसे मैं षड्यंत्र मानती हूँ और ऐसे षड्यंत्र, मान्यताओं से हिंदी साहित्य का भविष्य में अहित ही होगा।’ पृ.24 देशांतर, प्रवासी भारतीयों की कविताएँ)अपनी बात को स्पष्ट करते हुए इसमें कहा गया है कि व्यक्ति प्रवासी होता है। साहित्य प्रवासी नही होता। कहीं भी लिखा जा रहा साहित्य हिंदी का साहित्य है, मुख्यधारा का साहित्य है।
इस संपादकीय में संकलन में फीजी, सूरीनाम, मारिशस इत्यादि के कवियों को शामिल ना करने के तीन कारण बताए गए हैं ‘एक तो यह कि मुझे पृष्ठों की सीमा मिली हुई है, दूसरा इन कवियों के अनगिनत ( इस शब्द पर ध्यान दीजिए) सरकारी और गैर- सरकारी संकलन प्रकाशित हो चुके हैं, तीसरा, सूरीनाम, मारीशस आदि देशों के लेखकों की पहचान बन चुकी है। (पृ 22 वही) (क्या स्थान, कागज और पैसे की कमी डायसपोरा देशों के साहित्य के लिए है? क्या दोनों संकलनों में उन्हें न शामिल करने के पीछे केवल यही कारण था। सच तो यह है कि इनके पास न कोई तर्क था और न ही इतना नैतिक साहस कि वे साफ-साफ कह सकें कि हम डायसपोरा के देशों के साहित्य को संकलन में प्रकाशित नहीं करेंगे।)
संपादकीय में इन कवियों की ब्रिटेन और अमरीका के कवियों से भिन्नता को रेखांकित करते हुए लिखा गया है ‘वर्तमान में अमरीका, इंगलैण्ड और खाड़ी आदि देशों में बसे हिंदी के रचनाकार मारीशस आदि के कवियों और लेखकों से भिन्न भाव, विचार और दर्शन , छंद, मुक्त छंद, ग़जल-गीत, कहानियों , उपन्यासों और न जाने कितनी और विधाओं में उत्कृष्ट लेखन प्रस्तुत कर रहे हैं। (पृ. 23, वही) (सारा जोर भिन्नता और ब्रिटेन और अमरीका में लिखे जा रहे साहित्य की श्रेष्ठता रेखांकित करने पर है)
तो मित्रों उनकी प्रमुख अवधारणाओं, ग्रंथियों और आशयों का विश्लेषण करें तो निम्नलिखित बातें सामने आती हैं : हिंदी के कुछ आलोचक प्रवासी साहित्य को हिंदुत्ववादी, नॉस्टैलिजक और अधकचरा बता रहे हैं। ये माना गया कि है ब्रिटेन,अमरीका और खाड़ी के देशों के साहित्य के साथ एक षड्यंत्र किया जा रहा है जिसके तहत इन देशों के साहित्य को प्रवासी साहित्य कहा जा रहा है। इसे दोयम दर्जे का माना जा रहा है। हिंदी साहित्य में वर्गीकरण की कोई आवश्यकता नहीं चाहे वह चांद पर लिखा जाए या बृहस्पति ग्रह पर। (यह तर्क यूं भी बढ़ाया जा सकता है कि चाहे स्वादिष्ट मिर्च मसालों पर लिखा जाए या सुकरात, कन्फूशियस के दर्शन पर ,बात एक ही है)। प्रवासी साहित्य के नाम का हिंदी के कुछ लेखक, संकलक, संपादक आदि कुछ लोग दोहन कर रहे हैं। महत्वपूर्ण यह है कि संपादकीय ब्रिटेन,अमेरिका और खाड़ी के देशो में लिखे साहित्य को मारिशस, फिजी या सूरीनाम के साहित्य के साथ नहीं जोड़ना चाहता। इसी संपादकीय दृष्टि से प्रवासी साहित्य को हिंदुत्ववादी, अधकचरा और नॉस्टेलजिया से भरे विशेषण दिए गए हैं, वह डायसपोरा के देशों के साहित्य पर तो सही बैठते हैं, पर ब्रिटेन , अमरीका और खाड़ी के देशों के साहित्य पर सटीक नहीं बैठते।
कुछ लोगों को ऐसा लगता है कि हिंदी साहित्य से जुड़े लोगों की स्मृति कमजोर है। चलिए पहले बात करते हैं विदेशों में रचे जा रहे हिंदी साहित्य के नामकरण की । इसके लिए हमें संपादिका महोदया के पुराने संकलनों में जाना होगा और साहित्य ,उसके नामकरण,उसकी प्रवृत्तियों के संबंध में उनके और उनके साहित्य के प्रस्तोताओं के विचारों और लेखों को खंगालना होगा।
ब्रिटेन के कहानीकारों का पहला संकलन ‘मिट्टी की सुगंध’ उषा जी के संपादन में 1999 में प्रकाशित हुआ । इस संकलन की भूमिका डॉ रामदरश मिश्र ने लिखी है वे लिखते हैं- मैंने कहानी के जिस वैशिष्ट्य की बात की है वह वैशिष्टय है कहानी की जमीन का आयाम.. (यानी प्रवासी जमीन थीम / कथानक पर लिखी गई कहानियाँ।)
कहानी संकलन की भूमिका में पुस्तक के प्रकाशन का विचार कहां से आया, इस संबंध में लिखा गया है ‘ कहानीकार डॉ कमल कुमार ने कहा ‘आप प्रवासी भारतीयों का एक संकलन क्यों नहीं निकालती हैं ?’ यह भी लिखा है ‘ प्रस्तुत संकलन की तकरीबन सभी कहानियाँ प्रवासियों के जीवन संघर्ष ,अनुभव एवं उहापोह की दास्तान है। …..( कहानियां) प्रवासी भारतीयों की आंतरिक संवेदनाओं एवं अनुभवों की सघन अभिव्यक्तियाँ हैं। …. प्रवासी कथाकारों द्वारा रची गयी ये कहानियां मर्मस्पर्शी तो हैं ही , साथ ही इनमें शैलीगत विविधता भी है।
प्रवास शब्द से लेखिका प्रेम इतना अधिक था कि अपने अगले संकलन का नाम उन्होंने रखा ‘प्रवास में’ । शीर्षक यात्रा में , सफर में जैसे मिलते-जुलते शब्द या किसी कहानी के शीर्षक के आधार पर रखा जा सकता था . परंतु उन्हें लगा कि ‘प्रवास में’ शीर्षक रखा जाए क्योंकि उस समय तो प्रवास शब्द की मांग थी । इस संकलन की भूमिका में अपनी रचना प्रक्रिया के बारे में स्वयं को प्रवासी लेखक मानते हुए लिखा गया है, प्रवासी लेखक अपने घर-परिवार, देश और मिट्टी से अलग होकर एक अन्य देशकाल और परिवेश में चला जाता है। वहाँ उसके नए संस्कार बनते हैं, नए दृष्टिकोण बनते हैं। माहौल बदल जाने से उसकी जिंदगी में बहुत सी पेचीदगियां आ जाती हैं। उसकी मान्यताएं बदलने लग जाती हैं। यहीं द्वंद्व का प्रारंभ होता है। और यहीं मेरी कहानियां जन्म लेती हैं… प्रवासी भारतीय, प्रवासी कथाकार, प्रवासी लेखक यह शब्द उन्हीं के द्वारा प्रयुक्त हैं। पुस्तक की भूमिका में वे अपनी यानी प्रवासी लेखक की रचना प्रक्रिया के बारे में बता रही हैं।
यह ब्रिटेन के कहानीकारों का पहला समवेत कहानी संकलन था, वर्ष था 1999 । वैसे यहां यह बताना भी मुनासिब होगा कि जिस नॉस्टेलजिया को ये लोग दुत्कारते हैं, गालियां देते हैं, इस संकलन के शीर्षक में वही नॉस्टेलजिया है। चलिए अब आपको ब्रिटेन से अमरीका ले जाते हैं। डॉ अंजना संधीर ने ‘प्रवासिनी के बोल’ काव्य संकलन का संपादन किया है। वे संकलन की भूमिका में लिखती हैं ‘ इस दौरान खाली बैठे-बैठे सोचा कि अमरीका के हिंदी कवियों का एक संग्रह प्रकाशित किया जाए। दो साल की खोज के बाद सन 1997 में ‘प्रवासी हस्ताक्षर’ का जन्म हुआ जिसमें पहली बार परिचय सहित अमरीका के 22 कवियों की कविताओं का संपादन व प्रकाशन व्यक्तिगत तौर पर मैंने किया । … मैंने अविश्वास में विश्वास का एक बीज बोया जिसका एक मीठा फल प्रस्तुत संग्रह ‘प्रवासिनी के बोल’ भी है। ‘प्रवासी हस्ताक्षर’ की सफलता ने लोगों को मेरे साथ जोड़ा। मेरे द्वारा प्रस्तुत इन संग्रहों के सुखद परिणाम ये आए कि भारत में प्रवासी साहित्य पर सक्रिय विचार होने लगा। – अब तक प्रवासी साहित्य में भी अमरीकी हिंदी रचनाकारों के बारे में इतना ध्यान नहीं दिया गया था। अमरीका में इस ओर यहां के लोगों ने ध्यान दिया’। यहां यह ध्यान रखने योग्य बात है कि ‘प्रवासिनी के बोल’ में अमरीका की 81 कवयित्रियों की 324 कविताएं संकलित हैं। अंजना जी की निष्ठा और साहित्य प्रेम पर कोई प्रश्नचिह्न नहीं है। ना ही उन्होंने अपनी मान्यताओं को समय और अवसर के चलते बदलने की कोशिश की।
मैने ऊपर विशेष रूप से प्रवासी संकलनों की बात की क्योंकि वह लेखकों का समवेत प्रकाशन होता है उसे क्षेत्र विशेष के लेखकों का प्रतिनिधि स्वर माना जा सकता है। चलिए बात करते हैं अमरीका से प्रकाशित अत्यंत महत्वपूर्ण संकलन ‘दिशान्तर’ की । इसका प्रकाशन वर्ष 2002 है। यह अमरीका के रचनाकारों का संकलन हैं। जिसका संपादन धनंजय कुमार, गुलशन मधुर और मधु माहेश्वरी ने किया । इसमें रचनाओं के चयन की प्रक्रिया के बारे मे फ्लैप पर लिखा हुआ है, ‘दिशान्तर’ प्रवासी हिंदी साहित्य का अनूठा संग्रह है (तब इतने अजीबोगरीब तर्क नहीं दिए जा रहे थे कि हम हैं तो प्रवासी लेखक पर हमारा साहित्य प्रवासी साहित्य नहीं है।) अमेरिका के 26 वरिष्ठ और सम्मानित लेखकों की चुनी हुई रचनाएं प्रस्तुत हैं। कविताओं के अतिरिक्त कहानियाँ, लेख, व्यंग्य आदि प्रवासी हिंदी साहित्य का सार्थक प्रतिनिधित्व करते हैं।’ इसमें रचनाओं के चयन की प्रक्रिया के बारे में संपादक मंडल लिखता है ‘संकलन के लिए किए गए चयन में जिन बातों पर विशेष तवज्जो दी गई, उनकी चर्चा। एक दृष्टिकोण यह भी था कि विदेश में बसे भारतीयों की रचनाएं, उनके विदेश के अनुभव पर आधारित होनी चाहिए यानि उनमें वो कृतियां शामिल नहीं की जानी चाहिएं, जो या तो उनके प्रवास के पहले की हो, या फिर इतनी अधिक व्यक्तिगत हों कि उनमें , उनके प्रवास के अनुभव का प्रतिबिम्बन ना होता हो’।
यहां हमने ब्रिटेन और अमरीका से प्रकाशित संकलनों की बात की जिनमें सामूहिक स्तर पर रचनाकारों की भागीदारी थी। मिट्टी की सुगंध, प्रवास में, प्रवासी हस्ताक्षर, प्रवासिनी के बोल ये नाम भारत के संपादकों ने नहीं दिए । प्रवासी लेखक, प्रवासी कथाकार, प्रवासी साहित्य, प्रवासी अनुभव, प्रवासी जीवन ये शब्द इन संकलनों के संपादकों ने दिए जिसमें युवा से लेकर वरिष्ठ सभी रचनाकार शामिल थे। यह कौन सा षड़यंत्र था? कौन सी साजिश थी? अगर साजिश या षड्यंत्र था तो क्या यह सब प्रवासी साहित्यकार कर रहे थे। इन किताबों का संपादन कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव, कन्हैया लाल नंदन, हिमांशु जोशी, कमलकिशोर गोयनका, चित्रा मुद्गल, प्रभाकर श्रोत्रिय ने नहीं किया । यह संपादन तो उषा राजे, डॉ अंजना संधीर, डॉ धनंजय, गुलशन मधुर , मधु माहेश्वरी ने किया जिसमें अमरीका और इंगलैण्ड के लगभग 150 रचनाकारों की भागीदारी है।
अब बात करते हैं ‘देशान्तर’ में प्रकाशित प्रवासी भारतीयों की कहानियों के संकलन के संबंध में तेजेन्द्र शर्मा के संपादकीय की। वे लिखते हैं, ‘भारत मे जब कभी भी भारतवंशियों या प्रवासी हिंदी साहित्यकारों की बात की जाती है तो मॉरीशस, सुरीनाम, फीज़ी और त्रिनिदाद तक सीमित हो जाती है। उनका जहाजों पर लदकर जाना , एक सौ पचास साल का संघर्ष, गन्ने की मजदूरी अब लगभग रोमांटिक सा असर करने लगे हैं। इस आरक्षण कोटे में आहिस्ता-आहिस्ता अमरीका, ब्रिटेन,यूरोप, खाड़ी देशों और अन्य देशों के लेखकों को भी शामिल कर लिया गया है। अब कभी-कभी उनके लेखन के बारें में चर्चा होने लगी है। ले देकर अभिमन्यु अनत, शबनम या चंद और नाम लेकर बात समाप्त कर दी जाती है।
‘सच तो यह है कि पश्चिम देशों के हिंदी लेखकों को प्रवासी लेखक कहना भी उचित नहीं है। ये वो लोग हैं जो पढ़े-लिखे हैं, आर्थिक रूप से सक्षम हैं, अपनी मर्जी से विदेश में बसने गए है । इनके लिए भारत कोई तीर्थ स्थान नहीं है। ये लोग वैसे ही है जैसे कोई यू.पी. या बिहार से दिल्ली या मुंबई काम के सिलसिले में जाता है और वहीं बस जाता है। ..
उनके इन विचारों की समीक्षा के लिए उनके साक्षात्कार की किताब को देखना होगा। किताब का नाम है ‘बातें’ । शायद वह समझते हैं बातें हैं बातों का क्या? या आप यह भी कह सकते हैं वह बात का बतंगड़ बनाना बहुत अच्छी तरह जानते हैं। उनकी पुस्तक से कुछ कन्फ्यूस (करने वाली) बानगियों का जिक्र करते हैं-
प्रश्न – प्रवासी साहित्य की अवधारणा को आप आज खारिज कर रहे हैं क्यों ?
उत्तर – ‘अगर मैं लुधियाना से माइग्रेट करके दिल्ली में आकर लिखता हूँ, दिल्ली से मुंबई जाता हूँ तो वह हिंदी साहित्य के घेरे में हो जाता है परंतु मुंबई से लंदन मेरे साहित्य को प्रवासी के दायरे में बांध दिया जाता है।.. यह भेदभाव विदेश के साथ क्यों? (किसी समाजशास्त्री, विद्वान, लेखक को लुधियाना और लंदन का अंतर समझाने की जरूरत है! हां, लुधियाना और लंदन में तुक की तो समानता है, इसके अलावा सामाजिक, सांस्कृतिक , राजनीतिक, पारिवारिक जीवन की भिन्नता सर्वविदित है।) अपनी पुस्तक ‘बातें’ में वे एक जगह कहते हैं ‘जिन मुल्कों में सब्जी भाजी भी अंग्रेजी में खरीदनी होती है , वहां साहित्य रचना आसान नहीं,’ (पृ.40) (ऐसा नहीं कि संपादक लुधियाना और लंदन का अंतर नहीं जानते। सुषम बेदी , गौतम सचदेव, सत्येन्द्र श्रीवास्तव के लेखन को उठाइए और भारत में लिखे और प्रवासी होने के बाद के साहित्य को रेखांकित कीजिए। कैसे ‘एक और आत्मसमर्पण ‘ जैसे छायावादी कविताओं के लेखक गौतम सचदेव बिल्कुल आधुनिक मुहावरों में बात करना शुरू करते हैं और ब्रिटेन के सर्वश्रेष्ठ कहानीकार हो जाते हैं।)… मैं चाहूंगा कि विदेशों में रचे जा रहे हिंदी साहित्य को साहित्य ही माना जाए और प्रवासी जैसा ठप्पा ना लगाया जाए’। (पृष्ठ 19, अजय नावरिया से बातचीत)।
प्रश्न – प्रवासी साहित्य शब्द पर आपको एतराज है तो आप इसे क्या नाम देना चाहेंगे ?
उत्तर – हिंदी साहित्य ( पृ. 23) ( क्या मौलिक उत्तर है)
डायसपोरा के साहित्य को प्रवासी कह कर किसी षड्यंत्र के तहत हाशिए पर ना डाला जाए (पृ.34)
…. एक सवाल मेरे मन में उठता रहा है कि प्रवासी साहित्य सिर्फ हिंदी में ही क्यों होता है ? अंग्रेजी में ऐसा नहीं है। भारत में अंग्रेजी सहित्य बहुत लिखा गया , लेकिन उसे प्रवासी साहित्य नहीं कहा जाता है।’( पृ.80 निर्मला भुराड़िया से बातचीत )
‘क्या दुनिया की किसी भी और भाषा में प्रवासी साहित्य पाया जाता है? विदेशों में लिखे जा रहे हिंदी साहित्य को सीधा-सादा हिंदी साहित्य मानने में क्या अड़चन है ? दरअसल , हिंदी साहित्य पहले ही खांचों में बंटा हुआ है- कहीं स्त्री लेखन है तो कहीं दलित लेखन। (हिंदी के आलोचक इन्हें बताएं कि भारत में दलित आंदोलन और स्त्री अस्मिता की लंबी लड़ाई को विशेष स्थान देना क्यों जरूरी है।) अब यह प्रवासी साहित्य का शोशा। पृ. 99 , प्रीत अरोड़ा से बातचीत)
प्रश्न – (आपने कहा) अब प्रवासी साहित्य जैसी नारेबाजियां सुनने को मिलती रही हैं। ‘अगर यह नारेबाजी है तो आप यह प्रवासी सम्मेलन क्यों करवाते हैं? यह विरोधाभास क्यों है ?
उत्तर – ‘इधर कुछ प्रवासी लेखकों ने नारेबाजी शुरू की है कि हमें प्रवासी लेखक ना कहा जाए। उनका कहना है कि वे हिंदी के लेखक हैं प्रवासी लेखक नहीं है। (बताइए कैसी जबरदस्त पलटी मारी है।) बातें पृ.23 (पर वह खुद ही सब विरोधाभासी बातें कह रहे हैं, वो समझते हैं किसी को अलग-अलग समय पर कही विरोधाभासी बातें पढ़ने का समय नहीं है।) ‘ मगर उनकी रचनाएं प्रवासी विशेषांकों में देखी जा सकती है। सच्चाई तो यह है कि विदेशों में बसे लेखक प्रवासी हैं और लेखक तो वे हैं ही । अत : उन्हें प्रवासी लेखक कहने में कोई हर्ज नहीं है।’ (पृ.113 बातें) ( क्या इनसे कन्फ्यूस कोई आलोचक हो सकता है, कई साल तक इस प्रवासी नाम में परिवर्तन का अभियान चलाने के पश्चात् ये अन्य प्रवासी लेखकों पर इस सोच का आरोप लगा चुपचाप पतली गली से निकल जाते हैं। वे आगे कहते हैं ‘आज सरकार ने प्रवासी मंत्रालय बना दिया है, प्रवासी दिवस जनवरी में मनाया जाता है, विश्वविद्यालयों ने प्रवासी साहित्य के विभाग खोल दिए हैं। प्रवासी साहित्य पढ़ाया जा रहा है और उस पर शोध भी हो रहा है। समस्या तब होती है जब हमारे साहित्य को प्रवासी साहित्य कह कर हाशिये पर डालने का षड्यंत्र रचा जाता है। यानी कि हमारे नाम कभी भी मुख्यधारा के लेखकों के साथ नहीं लिए जाएंगे। ( हाय-हाय , यही तो है व्यथा) पृ.112
तो मित्रो यही है प्रवासी साहित्य को प्रवासी साहित्य नहीं मानने वाले महत्वाकांक्षी लेखकों की व्यथा।
आइए अब इनकी असली समस्या के बारे में बात की जाए । वह है अपने नाम मुख्यधारा के साहित्यकारों के साथ नहीं आने की समस्या । यही है इस बहस की जड़। ‘हमें मुख्यधारा का हिस्सा इसलिए नहीं माना जाता कि बिना पढ़े हमारे लेखकों को दोयम दर्जे का लेखक मान लिया जाता है… अपेक्षाकृत हल्का लेखन लिखने के बावजूद भारत के हिंदी साहित्यकार मुख्यधारा का हिस्सा है तो बाहर के साहित्यकारों से यह परहेज क्यों ? सच तो यह है कि एक भी विदेशी हिंदी साहित्यकार को गंभीर लेखक नहीं जानता । सब के साथ कहीं न कहीं किंतु ,परंतु लगा रहता है’। (पृ. 19, 20 बातें)
‘मैंने पहले भी कहा था कि मुख्य धारा ने पहले कविता का मंच खोया अब प्रवासी लेखकों को भी खो देगी। जब मुख्यधारा हमारी परवाह नहीं करेगी तो जो हमारी परवाह करेगा हम उसके साथ चले जाएंगे। ( मैं ये सोचकर उसके दर से उठा था कि आवाज देकर बुला लेगी मुख्यधारा) (पृ. 30, अजीत राय से बातचीत) उनकी इतनी भर ख्वाहिश है कि उन्हें बस हिंदी की मुख्यधारा में एक साधारण नागरिक की तरह स्वीकारा जाए। क्या यह एक स्वाभाविक इच्छा नहीं है? (स्वाभाविक इच्छा है यदि वे इसके लिए स्वाभाविक रास्तों का इस्तेमाल करें। साहित्य के पैमानों से मनमर्जी की तोड़फोड़ ना करे) (वक्त के आईने में, अजीत राय , पृ. 361)
यहां यह भी प्रासांगिक है कि हम हिंदी साहित्य को देखने की उनकी दृष्टि को समझ लें।
‘लगभग तीन दशकों से भारत में हिंदी साहित्य केवल दो लोगों को ध्यान में रख कर लिखा जाता है नामवर सिंह और राजेन्द्र यादव। पाठक के बारे में लेखक नहीं सोचता । मुझे लगता है कि शायद इसी कारण से हिंदी साहित्य के पाठक सिरे से गायब हो गए हैं। (कालूलाल कुल्मी की बातचीत पृ. 35) हम देख रहे हैं कि किसी खास विचारधारा के कारण पाठक हिंदी साहित्य से दूर होते चले गए हैं। (पृ. 52, हरि भटनागर से बातचीत) कोई भी व्यक्ति उनकी साफबयानी से प्रभावित हो सकता है। उनके क्रांतिकारी तेवरों की प्रशंसा कर सकता है अगर वह नहीं जानता कि पिछले दस वर्षों में शायद ही उन्होने दिल्ली और भारत में कोई कार्यक्रम आयोजित किया हो जिसमें इन दोनों महानुभावों में से एक उपस्थित नहीं रहा हो ।
जिस राजेन्द्र यादव को हिंदी साहित्य में एक खास विचारधारा का प्रचार करने वाला कह गरियाते हैं । उनके बारे में उसी पुस्तक में वे कहते हैं, ‘हमने हिंदी के सबसे महत्वपूर्ण आदमी (राजेन्द्र यादव) को वहां बैठाकर उनको प्रवासी साहित्य से परिचित करा दिया। (पृ. 90 , बातें, साधना अग्रवाल से बातचीत।)
याने कि उन्होंने नामवर सिंह और राजेन्द्र यादव को रिझाने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी। यह बात गोष्ठियों और वैचारिक विमर्श तक ही सीमित रहती तो भी शुक्र होता। उनका लेखन हँसमय हो गया। उनकी कहानी ‘कल फिर आना’ ऐसे ही विकृत सेक्स की कहानी है। जिसे ‘हंस’ जैसी पत्रिकाओं को ध्यान में रख लिखा गया था।
अब आप देख सकते हैं कि महत्वाकांक्षाएं और अवसरवाद किस तरह से प्रवासी साहित्य जैसे सरल शब्द से खिलवाड़ कर रहा है और साहित्य में क्रांतिकारी तेवर दिखाने वाले किस तरह से पूरी शिद्दत से पतली गली से तथाकथित मुख्यधारा में नाम लिखवाने के लिए गठजोड़ करने और मसीहाओं की अपेक्षाओं के अनुसार लिखने और छपने के लिए किसी हद तक जाने के लिए तैयार हैं।
‘देशांतर’ के संपादकियों में आपको विरोधाभास लग रहा होगा। मुझे तो नहीं लगता । वास्तव में साहित्य को कैरियर की तरह समझने वाले ये लेखक या लेखिकाएं प्रवासी साहित्य नाम की सीढ़ी से एक स्तर तक पहुंचे। पर जब उन्हें लगा कि इस सीढ़ी से वे इस सीमा से आगे नहीं जा सकते तो उन्होने विरोध का रास्ता पकड़ा और प्रवासी साहित्य को प्रवासी साहित्य कहने वालों को गरियाने लगे। तेजेन्द्र शर्मा अन्य प्रवासी साहित्यकारों को दोष देते हैं कि वे क्यों प्रवासी साहित्य का विरोध करने के बावजूद प्रवासी विशेषांक में छपते हैं। परंतु उन्हें क्या मजबूरी थी की उन्होंने यमुना नगर और मुंबई में सभी सम्मेलन प्रवासी सम्मेलन के नाम से किए। फिर क्यों इस शब्द के प्रयोग को एक बड़ा षड्यंत्र बताने लगे। साहित्य की उदात्तता, विराटता के बहाने साहित्य के स्वाभाविक और सहज वर्गीकरण को झुठलाने लगे।
स्पष्ट है कि ‘ प्रवासी हस्ताक्षर ‘, ‘प्रवासनी के बोल’, ‘प्रवास में’ , ‘मिट्टी की सुगंध’ में प्रवासी साहित्य की विशिष्ट जमीन और ‘ दिशांतर’ में केवल प्रवासी अनुभव छापने की बात कर ब्रिटेन और अमेरिका के हिंदी साहित्यकारों ने इस शब्द को प्रचलित किया। यह अगर अभियान था तो ब्रिटेन और अमरीका के इन्हीं हिंदी लेखकों का शुरू किया अभियान था। और षड्यंत्र था इन्हीं लोगों का। आज यही लोग इस नाम का विरोध कर रहे हैं। आप क्या चाहते हैं कि साहित्य का वर्गीकरण आपके दिशानिर्देशों और आपके साहित्यिक कैरियर की आवश्यकताओं को ध्यान में रख कर करें। साहित्य की विषयवस्तु, उसके सरोकार, उसका वातावरण, उसकी बुनावट देख कर ना करें बल्कि आपको कौन सिद्धांत कहां फायदा दे रहा है, कल कौन सा देगा इस आधार पर करें। यह वैचारिक संघर्ष नहीं है । यह अवसरवाद की रोटी पर सिद्धांतो को सेंकना है। किसने प्रवासी साहित्य शब्द का दोहन किया? कौन उनका ठेकेदार बन रहा है? प्रवासी साहित्य नाम इन्हीं स्वनामधन्य लोगों ने दिया। ये नाम राजेन्द्र यादव, चित्रा मुद्गल, संजीव, कमल किशोर गोयनका ने नहीं दिया । अब यह उसका प्रयोग करने वालों को दुत्कारने पर तुले हुए हैं।
इन्हें तथाकथित मुख्यधारा और उससे जुड़े आलोचकों की चिंता रहती है । इनका मानना है कि पूरा हिंदी साहित्य स्थितियों और घटनाओं की तरफ देख कर नहीं लिखता है, बल्कि नामवर सिंह और राजेन्द्र यादव की तरफ देखकर लिखता है। तो इनकी संतुष्टि के लिए यह जानना जरूरी है कि इस विषय पर इन दोनों लेखकों की क्या राय थी! हिंमाशु जोशी के संकलन ‘प्रतिनिधि आप्रवासी कहानियां’ के लोकार्पण के अवसर पर यह बताया गया कि इस किताब को छापने की पहल नामवर जी ने की थी। नामवर जी उस दिन लंबे समय तक पुस्तक की कहानियों के बारे में बोले। तो प्रवासी साहित्य को साहित्य अकादमी द्वारा प्रवासी साहित्य के रूप में प्रकाशित करने में नामवर जी की विशेष भूमिका रही है। उन्होंने जापान के लक्ष्मीधर मालवीय की कहानी की विशेष रूप से चर्चा की। एक मजेदार घटना प्रवासी साहित्य के नामकरण को लेकर राजेन्द्र यादव के संबंध में। इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में 2011 में तेजेन्द्र शर्मा की पुस्तक का लोकार्पण था। स्वाभाविक रूप से राजेन्द्र यादव कार्यक्रम में मुख्य अतिथि थे। राजेन्द्र यादव उस कार्यक्रम के केन्द्रीय विषय से हटकर बार-बार प्रवासी साहित्य के नामकरण पर आ जाते क्योंकि तेजेन्द्र जी ने प्रवासी साहित्य के नामकरण के विरोध का अभियान चला रखा था। राजेन्द्र यादव कुछ तर्क देते फिर गीत के स्थायी की तरह दोहराते, तेजेन्द्र इसे प्रवासी साहित्य न कहें तो क्या कहें? ऐसा लगता था कि पर्याप्त विचार करने के बाद वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि विदेशों मे लिखे जा रहे हिंदी साहित्य का प्रवासी साहित्य के अतिरिक्त कुछ नाम नहीं हो सकता ।
हिंमाशु जोशी का तो संकलन ही है ‘आप्रवासी कहानियां’ , कमल किशोर गोयनका की पुस्तक है ‘हिंदी का प्रवासी साहित्य’। असगर वजाहत , रविन्द्र कालिया ने प्रवासी विशेषांकों का संपादन किया। चित्रा मुद्गल, रामदरश मिश्र, कमलेश्वर, कन्हैयालाल नंदन ने प्रवासी पुस्तकों को बहुत प्रोत्साहन दिया। कुल मिलाकर हिदी का कोई भी प्रतिष्ठित आलोचक, विचारक प्रवासी साहित्य नाम से इतर नाम होना चाहिए, इस पक्ष में नहीं है। यानी बात साफ है, जिन लोगों ने यह नाम स्थापित किया उन्ही लोगों को एक समय के बाद लगा कि यह नामकरण उनकी सीमा बांधता है और उन्हें तथाकथित ‘मुख्यधारा’ से नहीं जुड़ने देता तो उन्होने अपने ही बच्चे को दूसरों का बच्चा घोषित कर उसपर अवैध बच्चा होने के आरोप लगाने शुरू कर दिए।
भाषा की दृष्टि से यह विचार करने में कोई बुराई नहीं कि विदेशों मे रचित हिंदी साहित्य को और क्या कहा जा सकता है? जैसे कुछ लोगों द्वारा सुझाव दिया गया है कि इसे हिंदी साहित्य कहा जाए। इस विचार में ना कोई नवीनता है ना कोई विशिष्टता। कुछ महानुभावों ने देशांतर, दिशांतर जैसे प्रयोग भी किए। पर कोई शब्द लंबे समय तक प्रचलन में रह अपना स्थान बनाता है और इन शब्दों को आप हिंदी में अर्थसहित बताते रहें और वर्षो के बाद कृत्रिम हिंदी की तरह किताबों में रह जाए, क्या कोई ऐसा चाहेगा? कई लोगों ने डायसपोरा साहित्य शब्द का भी प्रयोग किया । पर हिंदी के 10 में से 9 लोग इस शब्द की संकल्पना और प्रयोग से परिचित नहीं हैं। प्रवासी साहित्य की कुछ विशेषताएं हैं जैसे विस्थापन, नॉस्टेलजिया, संस्कृतियों का अंतर्द्वद्व यह सब केवल एक शब्द में आता है, जो सरल है, सहज है, संप्रेषणीय है, प्रचलन में है, और प्रवासियों का ही दिया हुआ है। इसका एक लंबा इतिहास है। इसलिए स्वाभाविक रूप से यह प्रचलन में आया।
कुछ वरिष्ठ रचनाकार जो प्रवासी जगत से बहुत पहले से जुड़े हुए थे, उन्होंने भी इस नामकरण का कुछ बिंदुओं पर विरोध किया। इनमें अलग-अलग श्रेणियां है जैसे सत्येन्द्र श्रीवास्तव जैसे लोग हैं जो पचास के दशक में विदेश चले गए थे। उस समय तक विदेशों में लिखा जा रहा हिंदी साहित्य इतना प्रचुर नहीं था कि उसे अलग नाम दिया जाए। उन्होंने जब चार दशक तक लेखन कर लिया और देश-विदेश में एक नाम बनाया तो उसके बाद इस वर्गीकरण से उन्हें ऐसा लगा कि उन्हें छोटा किया जा रहा है। दूसरी तरफ ऐसे लेखक है जिनमें रचनात्मक प्रतिभा तो है पर साहित्य के इतिहास , आलोचना शास्त्र, और इसकी विभिन्न विधाओं की उनको जानकारी नहीं है। वे कई बार इतनी भोलीभाली बाते करते हैं जैसे इंसान को मत बांटो , साहित्य को मत बांटो। साहित्य के वर्गीकरण की आवश्यकता क्या है? यह भोलापन वैचारिक अवधारणाओं के प्रति उनकी गैर- जानकारी और सतही ज्ञान को प्रकट करता है। दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, आंचलिक लेखन , प्रवासी साहित्य, प्रगतिशील साहित्य, अकविता, नई कहानी, छायावाद, उत्तर आधुनिकवाद आदि जैसी अवधारणाएँ हिंदी साहित्य का यर्थाथ है। वे हिदी साहित्य की पूंजी है। उनके माध्यम से हिदी साहित्य की विविध लहरों, स्वरों, धाराओं को हम जान सकते हैं। एक विशेष प्रकार के साहित्य की मूल प्रेरणाओं को समझ सकते हैं और स्वायत्त रूप से या अन्य धाराओं के साथ मिलकर उनकी सार्थकता और उपादेयता की जानकारी ले सकते हैं।
इस संबंध में एक बात और है। व्यक्ति की एक पहचान नहीं होती। उसकी एक से अधिक पहचान होती हैं। मैं दिल्ली वाला भी हूँ और भारतीय भी । प्रोफेशन, क्षेत्रीयता, देश कितनी तरह की अस्मिताओं से बनता है, एक व्यक्तित्व। नई कहानी से जुड़े होने के कारण कमलेश्वर की व्यापक मान्यता में कोई बाधा नही आई। बल्कि देशव्यापी पहचान में सहायता मिली। मोहन राकेश तो नई कहानी के कहानीकार हुए पर उनकी अमर पहचान बनी नाटकों से। उसी प्रकार प्रवासी साहित्य ने इन साहित्यकारों को बड़ा प्लेटफार्म दिया , भारत के आलोचकों का स्नेह मिला, आम पाठक ने नई हवा की तरह प्रवासी बयार का स्वागत किया। उसे इनमें से कुछ लोगो ने महत्वाकांक्षा का औजार मात्र समझा और अपरिपक्व सोच और स्वयं को स्थापित करने की होड़ में अपने ही बनाए घरौंदे को तोड़ने में लग गए।
यह विवाद काफी हद तक भारत की पत्रिकाओं ने भी बढ़ाया। कुछ विचित्र प्रकार से साक्षात्कार लेने वाले भी थे। इन लोगों ने प्रवासी साहित्य कभी पढ़ा नही था। अगर इनसे कहा जाए, प्रवासी साहित्य पर छह प्रश्न लिख दो तो वे नहीं लिख पाएंगे। प्रवासी साहित्य से अपरिचित ये प्रश्नकर्ता ‘कुछ लोग प्रवासी साहित्य के नामकरण से असंतुष्ट है, आपका क्या कहना है ‘ जैसे रेटारिक सवालों को उत्तेजक बना कर पूछते रहे और उत्तरदेता तो पाले हुए सांप का नेवले की तरह खून करने को तैयार ही हैं। आप सवाल को किस तरह फ्रेम करते हैं उस पर बहुत कुछ निर्भर करता है। इन साक्षात्कारों का उद्देश्य सनसनी फैलाना, खबर बनाना और पहले से ही तय एजेंडे का आगे बढ़ाना लगा। उदाहरण के लिए मैंने ऊपर भी लिखा कि प्रवासी साहित्य के नाम का विरोध करने वालों से पूछा जाए कि प्रवासी साहित्य क्या ठीक नाम है तो वे दस तर्क देकर उसे गलत सिद्ध कर देंगे पर उनसे पूछे कि आप बताइए क्या नाम होना चाहिए तो वह तेजी समाप्त हो जाती है। उनके पास हिंदी साहित्य के अलावा कोई उत्तर नहीं है। हिंदी साहित्य में परिपक्व आलोचना की परिपाटी ना होने से भी इन दोहरे मानदंडों वाले महात्वाकांक्षी , साहित्यिक कैरियरस्ट लोगों को अपनी रोटी सेकने का मौका मिला । पर आप किससे शिकायत करें?
डायसपोरा साहित्य, प्रवासी साहित्य हिंदी में ही है? अन्य भाषाओं में नहीं । आज समय बहुत तेज है। एक तेज चीज है गूगल । आप गूगल पर जाएं और इमिग्रेंटस लिटरचेर टाईप करें। अमेरिका में इमिग्रेंटस लिटरेचर की पचास श्रेष्ठ पुस्तकों के नाम मिलेंगे । उनमें झुम्पा लहरी की पुस्तक ‘ इन्टरप्रेटर ऑफ मेलेडीज ‘ भी है और उमेश अग्निहोत्री की प्रिय लेखिका भारती मुखर्जी की पुस्तक ‘जैसमीन’ भी । न्यूयार्क टाईम्स अखबार में झुम्पा लहरी के साक्षात्कार और बहुत सी समीक्षाएं हैं। ‘इन्टरप्रेटर ऑफ मेलेडीस’ की कहानियां प्रवासी जीवन पर हैं। संस्कृतियों के द्वन्द्व पर है। ये कहानियां एकदम गहरे में हमारे सोच को टटोलती हैं। हमें अपने ही बारे मे रोशन करती हैं । भारत और पश्चिम के बन रहे पुल की नींव में गारा- मिट्टी की तरह एक होती संस्कृतियों के बारे में बताती हैं। इसी साहित्य ने उन्हें देश-विदेश में मान्यता दी। बुकर जैसा पुरस्कार दिया। वे एक इमिग्रेंट लेखक भी है और अंग्रेजी की दुनिया की प्रमुख लेखिका भी। आपकी पहचान वर्गीकरण से नहीं मिलती, आपके साहित्य की गहराई से मिलती है। जर्मन में रहने वाले पूर्वी यूरोप के लेखकों का समृद्ध प्रवासी साहित्य है। उस पर बहस है, चर्चा है, शोध हैं। डायसपोरा साहित्य और इमिग्रेंट लिटरेचर विश्व साहित्य की महत्वपूर्ण पूंजी है।
उमेश अग्निहोत्री जैसे चिंतक, विचारक स्वीकार करते हैं कि इंटरनेट पर इमिग्रेंट लिटरेचर विभिन्न भाषाओं में उपलब्ध है। मैं उमेश जी की इस अवधारणा से असहमत हूँ कि भूगोल का साहित्य पर प्रभाव महत्वपूर्ण नहीं है। उनका यह तर्क भी ठीक नहीं कि कुछ लोगों को ऐसा लगता है कि वे प्रवासी नाम से हाशिए पर चले जाते हैं, इसलिए नाम बदला जाए। बल्कि सच इससे उल्टा है कि प्रवासी साहित्यकारों को विशेष महत्व देने का कारण उनके विशिष्ट प्रवासी अनुभव हैं। जिसका जोरदार स्वागत हिंदी भाषी समाज ने किया। जिस प्रवासी विशेषांक निकालने को वे आरक्षण मानते हैं, मैं उसे हिंदी समाज की गर्मजोशी मानता हूँ। सच्चाई तो यह है कि प्रवासी होने के कारण इन्हें कद मिला है। पर वह आरक्षण नहीं है। हिंदी समाज में भी अपने वृहतर समाज की पीड़ा, सरोकार, सपनों को जानने की जबर्दस्त इच्छा है। कोई किसी पर एहसान नहीं कर रहा ।
यहां एक बात महत्वपूर्ण है। भारत के कुछ साहित्यकार प्रवासी के नाम पर आरक्षण के खिलाफ हैं। वे चाहते हैं कि प्रवासी साहित्य को उसके वस्तुतत्व से पहचाना जाए । ऐसे लेखक जिनकी रचनाओं में प्रवासी तत्व नहीं है उनके साहित्य को प्रवासी ना कहा जाए। प्रेम जनमेजय, सुरेश ऋतुपर्ण, अलका सिन्हा जैसे रचनाकार इस पक्ष में दिखाई देते हैं। ‘दिशांतर’ के संपादक मंडल ने इस प्रश्न पर गहराई से विचार किया था । परिवेश से स्वतंत्र रचनाधर्मिता की संभावना कवियों में ज्यादा है, गुलाब खंडेलवाल, हरिशंकर आदेश जैसे लोग कुछ हद तक इस श्रेणी में आते हैं, जो भौगोलिक दृष्टि से प्रवासी होते हुए भी दर्शन के स्तर पर रचनाशील हैं और कुछ सीमा तक वातावरण निरपेक्ष रचना करते हैं। परंतु छायावादी कवियों ने क्या प्रगतिशील साहित्य नहीं रचा था। एक लेखक दोहरी, तिहरी , चौहरी अस्मिताओं को जीता और अभिव्यक्त करता है। इसलिए एक धारा का वर्गीकरण एक स्थूल आधार पर किया जाता है। वर्गीकरण में वर्गीकरण (देश इत्यादि के आधार पर) संभव है अगर उतनी मात्रा में साहित्य रचा जाता रहेगा।
एक विशेष बात, दोनों संपादकों के संपादकीय में बार-बार षड्यंत्र की बात आती है पर यह संपादकीय यह नहीं बताते हैं कि यह एक षड्यंत्र है, एक राजनीति है, जो वे खुद कर कर रहे है। इन लोगों का मारीशस, सूरीनाम, फीजी के साहित्य को लेकर रवैया विशेष रूप से अनुचित है। आप जानना चाहेंगे कि कौन ऐसे नामी साहित्यकार हैं जो प्रवासी साहित्य को हिंदुत्ववादी, नास्टैलजिक या अधकचरा कह रहे थे। उत्तर है राजेन्द्र यादव। दुख की बात यह है कि राजेन्द्र यादव के इन सनसनीखेज वक्तव्यों को इन लोगों ने सच माना और मारीशस, सूरीनाम, फीजी और दक्षिण अफ्रीका में लिखे साहित्य के साथ चिपका दिया। उनके वक्तव्यों से स्पष्ट है कि वे मानते हैं कि प्रवासी साहित्य और साहित्यकारों पर राजेन्द्र यादव द्वारा की गई टिप्पणी ठीक है और वह डायसपोरा देशों के साहित्य पर लागू होती है, अमरीका और ब्रिटेन के ‘आधुनिक’ साहित्यकारों पर नहीं। बहरहाल, हिंदी साहित्य में अपने हंस की चाल चलने के लिए जाने वाले राजेन्द्र यादव के विचारों को वेदवाक्य समझने वाले संपादकों ने बात यहीं समाप्त नहीं की बल्कि उन्होने अपने संकलन में मारीशस, फीजी, सूरीनाम आदि देशों के किसी रचनाकार की रचना नहीं ली । उन्हें संकलन में शामिल नहीं किया गया। संपादकीयों में लगातार इस बात पर दुख प्रकट किया गया कि प्रवासी साहित्य के नाम पर डायसपोरा देशों के साहित्य की ही पहचान क्यों है? यह ईर्ष्या और द्वेष निंदनीय है। कहानी संकलन के संपादकीय का पहला पैरा प्रवासी साहित्य के नाम पर अभिमन्यु अनत और शबनम की पहचान पर दुख प्रकट करता है (क्या यह ल¸ड़ाई इसलिए है उनकी जगह देशांतर के दोनो संपादकों को जाना जाए।) जिन परिस्थितियों में भारतीय डायसपोरा देशों में साहित्य का सृजन हुआ है वह दिल दहलाने वाली दारूण परिस्थितियां है। यह दुख और पीड़ा की बात है अपने को स्थापित करने के चक्कर में इन संपादकों ने उनके साहित्य को खारिज करने का प्रयास नहीं किया, खारिज कर दिया, उसे बाहर कर दिया। ऐसे तंग दिल, तुच्छ महत्वाकांक्षाओं और साहित्यिक कैरियरबाजी के चलते ये लोग हिदी साहित्य का ही नहीं अपनी रचनात्मक प्रतिभा का भी नुकसान कर रहे हैं। जिस तरह से डायसपोरा के देशों के साहित्य को संकलनों से बाहर किया गया उसके लिए दिल्ली हिंदी अकादमी को भी विचार करना चाहिए था। क्या दोनों संपादकों का यह व्यवहार षड्यंत्र और राजनीति से कुछ कम समझा जाना चाहिए?
हिंदी साहित्य ने स्वकेंद्रित, साहित्यिक कैरियरिस्ट, अपनी और अपने गुट (विचारधारा , जाति) को केन्द्र में रख मठवादी राजनीति करने की काफी सजा पाई है। इतनी बड़ी हिंदी पट्टी में चंद नामों का होना , साहित्य में जनता की भागीदारी के बारे में बताता है। हमें लगा था, प्रवासी साहित्य के माध्यम से साहित्य साधना का संकल्प और सेवा करने वाले ओछी और महात्वाकांक्षी राजनीति नहीं करेंगे। अपनी महत्वाकांक्षाओं के नाम पर डायसपोरा देशों में रचित साहित्य को हिंदुत्ववादी, अधकचरा और नॉस्टेलजिया से भरा कहना उनके समर्पण, भारत भक्ति, अध्यात्म प्रेरणा का उपहास उड़ाना हल्की मानसिकता का प्रतीक है। अगर प्रवासी साहित्य का नेतृत्व ऐसे वैचारिक कन्फ्यूस, तुम मुझे आदमी दिखाओं में तुम्हें सिद्धांत बताऊंगा, जैसी सोच रखने वाले करेंगे तो यह अच्छा लक्षण नहीं है। रचनात्मक लेखकों के लिए जरूरी है नारेबाजी और सतही सोच से बचें। जिसे ये लोग खांचा या शोशा कहते हैं उसे सुषम बेदी वर्गीकरण कहती हैं। यह शब्द का अंतर नहीं है। यह सोच का अंतर है। राजनीतिक सोच और रचनात्मक सोच में यही अंतर होता है। साहित्य के ईमानदार मानदंडों से जुड़ने की आवश्यकता होती है । सच को गिरोह की जरूरत नहीं होती। वह अकेला और निहत्था भी काफी होता है
अनिल शर्मा