प्रेम
मखमली नहीं होता
प्रेम के खुरदुरेपन की चुभन
तुम्हारी नींद में हो
तभी तुम
देख सकोगे
तैरती मछलियों को
पढ़ .सकोगे
मछलियों की भाषा
स्त्री के भीतर का रंग
एक स्त्री के भीतर
एक मन होता है
हरियर सा
सुग्गे की तरह
जिसे तुम
खरोंचते रहते हो
हरा रंग
धीरे-धीरे
बदल जाता है पीले रंग में
किसी पत्ते की तरह
पत्ता टूटकर
शाख से कब अलग हो जाता है
स्त्री नहीं जान पाती
स्त्री की आंखों मे
कुछ अधपके से
बाल उलझ जाते है
स्त्री सुलझाती हैं उन बालों को
अंत तक
पल्लवी मुखर्जी
इंतज़ार
——
नहीं लिखनी है मुझे कविता,
नहीं बाँधना है मुझे किसी भी
जज़्बात को शब्दों के जाल में
नहीं दुखाने हैं मुझे इन
नादान अक्षरों के दिल
अब बहुत हो चुका
थक गई हूँ मैं
पथरा गई हैं मेरी आँखें
मुझे सिर्फ करना है अब
तुम्हारा इन्तज़ार, ज़िन्दगी की नाव में
यादों की पतवारों के साथ
उस जल पर जो तुम्हें प्रिय
जिसकी लहरों में है वो उतार-चढ़ाव
जो तुमने दिये,
जिन पर चढ़ना अच्छा लगा
और उतरने पर विछोह
ले जाये वह हमें उस किनारे
जहाँ पर इंतज़ार तुम्हे हो नाव का
उस पार जाने के लिए।
जो सुगंध तुमने बिखराई
उसे समेटे बैठा कोई
ऐसी दी सौगात किसी को
प्राण बनाए बैठा कोई
पायल का घुंघरू बन बैठा
आँखों का काजल बन बैठा
बिंदिया का कुमकुम बन बैठा
ऐसा ही बन बैठा कोई
छूट गया दुपट्टा कहीं
उसे सम्हाले बैठा कोई
ख्वाब सजाये बैठा कोई
आस लगाये बैठा कोई
चंदन मन में आग लगी है
आँखों में बरसात लगी है
इंतज़ार तेरे आने का
हाथ पसारे बैठा कोई
खामोशी में डूब गई है
राह निहारे बैठा कोई
तेरे नयनों का कायल है
ज्योति जगाये बैठा कोई।
शबनम शर्मा
प्रेम
—-
तितली वह मेरी सबसे सुंदर
सबसे चमकीले पंखों वाली
फूल-फूल इतराती फिरती
मेरी ही बगिया में आकर
मेरे ही हाथों में ना आती
बहुत प्यार करता हूँ इससे
इसने प्यार की कद्र ना जानी
आजादी है प्रेम कोई बन्धन नहीं
कहती और झटसे यह उड़ जाती।
आस
——-
मेघ सांवरे उमड़े, बरसेंगे
खुशियों से आंचल भर देंगे
कोपल-कोपल मुस्काई धरती
फिरसे अंखुआए अहसासों में
चितवन रस में भीगे कांपे
दूरियाँ न रहेंगी अब राहों में
आकाश सिमटते देखा है मैंने
फुनगियों की नन्ही-नन्ही बाहों में।
शैल अग्रवाल
” गीत नहीं गाए मैंने ”
—————————
कितने दिन बीत गए।
कितने मन रीत गए।
गीत नहीं गाए मैंने।
चंदन की सौरभ सा
वहका था मेरा तन।
आंसू बन- बन कर बहता
रुक- रुक कर मेरा मन।
सुधियों को ढोते- ढोते,
स्वप्नों में हंसते रोते।
कितने दिन बीत गए,
कितने मन रीत गए,
गीत नहीं गाए मैंने।
पथ ने दुत्कारा मुझको
राहें अनजान हुईं।
बिखरा और भटका जितना,
उतनी पहचान हुईं।
बीहड़ में चलते- चलते,
गिरते- पड़ते और उठते।
कितने दिन बीत गए,
कितने मन रीत गए,
गीत नहीं गाए मैंने
———————–
“सावन बन कर आओ तुम ”
———————————
हर बार अधूरे संवादों में
यूं ही छोड़ न जाओ तुम।
गीत अधूरे रह जाएंगे,
पल भर और ठहर जाओ तुम।
झील गुलाबी नेह तुम्हारा
फैला है हर कण- कण में।
नील कमल कोई खिल नहि जाए,
मन के इस मधुबन में।
धूप बनो खिड़की से आकर,
छू- छू कर छिप जाओ तुम।
स्वप्न सदा लगते हैं मुझको
उन्मुक्त हुए कुछ छंदों से।
वहक- वहक कर मौन हुए हैं,
आशा के अनुबंधों से।
सौरभ बन स्पर्शित करके,
स्वासों में घुल जाओ तुम।
शब्द मौन क्यों हो जाते हैं
अर्थ अधूरे लगते क्यों ?
चुप्पी की परिभाषा बनकर,
प्रश्न चिन्ह से टंकते क्यों ?
नयन कुंवारे रह जाएंगे,
सावन बन कर आओ तुम।
——————————–
“गीत”
———
संबंधों पर
गीत लिखेंगे।
अनुबन्धों पर,
गीत लिखेंगे।
चेहरों पर
भाषाएं बिखरी,
पीड़ाएं,
रह रह कर उभरीं।
बदल रहीं जो
मौसम जैसी
ऐसी रस्मों रीत लिखेंगे।
शब्दों का
बौनापन खलता,
अर्थों में
तीखापन पलता।
आंखों के
खारीपन में भी,
तरल तरल सी प्रीत लिखेंगे।
लगें व्यथाएं
अनहोनी सी,
लम्बी होकर
भी बौनी सी।
कुछ कहने से
वेहतर चुप है,
पंकज मिश्र ‘अटल’
परिधि
—-
क्या संभव है
फिर से
मेरी परिधि में तुम विचरो
और
मेरा आधिपत्य रहे तुम पर
तुम
बस छिटकते हुए कह दो कि
छोड़ भी दो न,
पर छूटना भी न चाहो
आँखें कहे – कभी न छोड़ना
भींची पलकों में
छमकती नजरों से
महसूस लेना
फिर
एक गोताखोर का
डूब जाना
सुनो
मत बचाने आना
बेशक प्रेम के
उफनते दरिया का सैलाब
जान ले ही ले, हर बार की तरह
क्योंकि
शहादत भी प्रेम ही है !
अमर प्रेम
“लव यू” – संस्कृत में
————–
तुम्हारे घर तक पहुंचने वाला रास्ता
रास्ते में है एक पेड़
पेड़ पर बंधा मन्नत का धागा
धागे का ललछौं रोली सा रंग
है रंग मेरे प्रेम का
सुनो,
जब भी चाहो मेरी उपस्थिति
बांध लेना उसी मौली को
कह देना धीमे से
“लव यू” – संस्कृत में
शायद प्रेम में बहती ये आवाज
शिवाले से आती
ॐ की प्रतिध्वनि सी हो
जो प्रस्फुटित हो
धतूरे के खिलने से
जिस कारण
शायद शिवलिंग से
छिटके एक बेलपत्र
जिस के तीन पत्तों में से
एक पर हो मेरा नाम
बाकी दो है न सिर्फ तुम्हारे खातिर
आखिर
तभी तो महसूस पाता हूँ कि
तुम चंदा सी छमकती हो
जटाओं के बाएं उपरले सिरे पर
मेरे चंदा
कल फिर उसी रास्ते से जाते हुए
तुम्हारे घर की सांकल को
हल्के तीन आवाज से बता दूंगा
कि हूँ तुम्हारे इर्द गिर्द
दूर-दूर पास-पास
के इस खेल में
समझते रहना
तुम प्रेम में हो
समझी न !
प्रेम का लखनवी अंदाज
————-
मेरा प्रेम
था अलिंद के बाएं कोने पर
ऐसा रिक्त स्थान
जहाँ हमने सहेजी
सिर्फ व सिर्फ तुम्हारी मुस्कान
परत दर परत
चिहुंकती चौंकती खिलखिलाती
तो कभी मौन स्मित मुस्कान
ओ मेरे प्रेम
हो अगर इजाजत तो
बस, बहक कर कह दूं
क्यों लगती हो इतनी सुंदर
क्यों डिम्पल बनते गालों पर
छितरा जाती हैं लटें
जैसे गोमती ने बदला हो बहने का रास्ता
क्यों खो जाता हूँ
इन मुस्कानों के भूलभुलैया में,
इमामबाड़े सी हो गयी हो तुम
और मैं एक बेवकूफ पर्यटक
बिना गाइड के, खोया हुआ
तसल्लीबख़्स घूम रहा
हाँ मिल ही जायेगा न रास्ता
क्यों होना परेशान
जुल्फों का झटकना ऐसे
जैसे हो उसमें भी
नफासत से भरा लखनवी अंदाज
चिकन के कुर्ते सा
झक्क चमकता हुआ चेहरा
जिस पर थीं कुछ लकीरे
महीन कारीगरी थी बनानेवाले की।
सच में
कहूँ या न कहूँ
तुम्हारी मुस्कुराहटें मेरी हैरानियाँ,
तुम्हारी नादानियाँ मेरी गुस्ताखियाँ,
बिना इजाजत करती रहती है अठखेलियाँ
कहीं नबाबों वाली नबाबी तो नहीं?
मिलना-बिछड़ना
——–
मिले थे न
कुछ महीनों बाद,
पर इस कुछ अरसे में बदला था
बहुत कुछ
न बदल जाने के शर्त के साथ
बेशक शर्त बनते हैं टूटने के लिए ही,
आखिर हस्ताक्षरित एमओयू
प्रेम के शुरुआती मोड़ की
अंतिम सीढ़ी तो हो ही सकती है
क्योंकि एक रिश्ते ने
अंकुरण के लिए
पाई थी रोमांटिसिज्म की नमी
बेशक जमीं की उर्वरता
बता रही थी
नमी को सोख लेने के कारक हैं बहुत
पर जरुरी नहीं कि
प्रेम का ये अंकुरण
पौध बन पाए भी
आबोहवा का असर भी तो होगा ही
जिंदगी की लहलहाती फसलें
बता रही थी
दोनो किसानों को
कि खेत की मेढ़ को न तोड़े तो
ठीक रहेगा
पर बहाव कहाँ रख पाता है ख्याल
पानी होता है बंधन मुक्त
नजरें मिलीं
था ऐसा जैसे वाघा बॉर्डर पर
सेनाध्यक्षों ने बूट की तेज आवाज के साथ
किया हो स्वागत एक दूसरे का
मिलाया था हाथ, उंगलियों ने कहा यहीं रुके रहो
क्योंकि था स्पर्श का एक अदम्य सुख
आंखों ने पलकों के सहारे
की कोशिश संवाद की
बस फिर
संवाद, छुअन और सिहरन
चाहते न चाहते
खुले आसमान तले
बादलों ने की सरगोशी
बढ़ों, करो आगाज आगोश में बंधने का
हवाओं में फाख़्ते ने चहकते हुए बताया था
इजहार का सुख
हल्का सा तड़ित भी छमकते हुए
बोल ही उठा
जाओ भी न,
कब तक स्थितिज ऊर्जा सिंचित करोगे
खेत और किसानों का युग्म
एक ने अपने खेत की फसल दिखाई
दूसरे ने हल्के स्पर्श के साथ कहा
तुम्हारे हरियाली का जबाब नहीं
साथ ही दी सलाह
तोड़ दें अगर
खेत की मेढ़
तो बहाव फसलें पसन्द करेगी
कोशिश कर के देख लें क्या ?
बस किसानी
और चाहतों की नमी
खिलखिलाते हुए चेहरे पर दिखी
छुअन और आगोश का सुख
रिश्ते की कली को
दे गई एक प्यारा सा नाम
कुछ नाम, बेनामी होते हैं शायद
बेशक प्रेमसिक्त हों।
प्रेम कविता
——–
प्रेम कविता लिखने की शर्त थी न
इस तंज के साथ कि
आज तक मुझ पर नहीं रच पाया कोई
प्रेम कविता !
बिन कहे कुछ
सोचा कि
लिखूं तो क्या लिखूं
होंठ लिखूं या लिखूं गुलाब की गुलाबी पंखुडियां
जो कभी हुआ करते थे प्रेम पत्र के साथ
रुमानियत भरने के लिए
हुआ करता था जो जरूरी
या फिर लिखने से पहले
ताकूं तुम्हारी सुरमई आँखों में
हाँ, नजरों में अटकना ही तो है शायद
प्रेम के पहले पग पर ठिठकना
अगर अटका तो खोया
फिसला तो, हमें पता है
कह ही दोगी
ओये लड़के उतनी दूर तक नहीं !
खैर, रहने दी कविता
कर ली अपनी आँखे बंद
और फील करने लगा मुस्कराहट
तभी तो फैली बाहों के साथ महसूसने लगा तुम्हारी आहट
थे मेरे हाथो में तुम्हारे हाथ
थी स्पर्श की उष्णता
शायद कहीं प्रेम कविता की मांग में था
छिपा हुआ विस्मयकारी प्रेम भी तो
सोचा लिखूं तुम्हारे भरे हुए कंधे
और लिखूं तुम्हारी आवाज सुरीली
तभी आवाज सोचते ही फना होने लगी रूह
धधकने लगा अलिंद और निलय के बीच
बहने वाला रुधिर
टूटती नींद के साथ खिलखिलाते सपने भी तो
तकिये के अगल बगल से चिढाते हुए कह उठे
कवि तुम प्रेम में तो नहीं हो उसके
कब आ चुकी थी निद्रा
कब नींद में भी बहकने लगा था मन
पता चला तब,
जब तकिये में दबाये चेहरे को
करने लगा देह की यात्रा
देह से देह तक
कमनीयता से नज़ाक़त तक
मन से मन तक पहुँचने से पहले
पर, कुछ अजब गजब सोच भी
होती है प्रेम में निहित
किसी ने बताया था कभी
फिर जैसे चुप्पी होती है वाचाल
वैसे ही सोया हुआ जिस्म दौड़ता है अत्यधिक
चलो हो चुकी है अब भोर
फिर कभी लिखूंगा तुम पर
प्रेम और प्रेम कविता
आज तो बस जान लो
कवि के मन की बात कि
खिलखिलाते हुए लोग होते हैं खूबसूरत !
हाँ फिर से कह रहा हूँ
मुझे प्रेम कविता लिखते रहनी हैं
हर नए दिन में नए नए
झंकार था टंकार के साथ !
समझी ना !
मुकेश कुमार सिन्हा
कैसे गाऊँ और गवाऊँ रे
तुम कहते हो गीत सुनाओ
तो, कैसे गाऊँ और गवाऊँ रे
मेरे हिरदा पीर जगी है
कैसे गाऊँ और गवाऊँ रे
आशाऒं की पी-पीकर खाली प्याली
मैं बूंद-बूंद को तरसा हूँ
उम्मीदॊं का सेहरा बांधे
मैं द्वार-द्वार भटका हूँ
तुम कहते हो राह बताऊँ
तो कैसे राह बताऊँ रे
मन एक व्यथा जागी है
कैसे हमराही बन जाऊँ रे
रंगो-रंग में रंगी निय़ति नटी
क्या-क्या दृष्य दिखाती है
पातों की हर थरकन पर
मदमाती- मस्ताती है
तुम कहते हो रास रचाऊँ
तो,कैसे नाचूँ और नचाऊँ रे
मन मयूर विरहा रंजित है
कैसे नाचूं और नचाऊं रे
दिन दूनी सांस बांटता
सपन रात दे आया हूँ
मन में थोडी आंस बची है
तन में थोडी सांस बची है
तिस पर तुमने सुरभि मांगी
तो,कैसे-कैसे मैं बिखराऊँ रे
तुम कहते हो गीत सुनाऊँ
तो कैसे गाऊँ और गवाऊँ रे
अब तुम आयीं
लहरों पर इठलाती
बलखाती धूप
बस ऐसे ही छा जाता
तुम्हारा यौवन रुप
कमलाकर को पाकर
जैसे खिल पडा कमल
बस याद आते ही
हंस पडा दिल
पक्षियों का किल्लोल
रिझाने वाले गाने
लगता रह-रह कर
दे रही मुझको ताने
मंथर गति से चलती
इठलाती मदमाती पुरवाई
लहरों पर इठ्लाती बलखाती
लगता अब तुम आयीं
तब,तब तुम आयीं
बरबस ही ख्वाबों की परछाई
बेचैनी ने दुलराया
जब मैनें पहली बार
तुम्हें देखा था
दिल में मीठा दर्द दबाये
नित देखा करता था सपने
न जाने कितनी ही बार
बेचैनी ने दुलराया था
धडकने हुई कई बार तेज क्यों
अब तक नहीं जान पाया था
लगी दिल की बढती रही
सांसें बर्फ़ सी जमती रहीं
स्वपन मेरे सजाने आय़ी हो
तो,द्वार पर क्यों खडी रह गईं ?
जिन्दगी भी मुस्कुरा देगी
प्रीत के गीत मुझे दे दो
तो,मैं उम्र भर गाता रहूँ
प्रीत ही मुझे दे दो तो
मैं जिन्दगी भर संवारता रहूँ
जब मैं तुम्हारी सरहद में आया था
याद करूं तो कुछ याद न आया था
एक अजब खामोशी व खुमारी थी
जो मुझ पर अब तक छाये है
खामोशी के राज मुझे दे दो
कि मैं चैन की बंसी बजाता रहूँ
गीत नये-नये गाता रहूँ
गीत नये-नये गुनगुनाता रहूँ
तुम तभी से अपने हो
जब चांद तारे भी न थे
ये जमीं आसमान भी न थे
तुम तभी से साथ हमारे थे
गीतों के बदले जिन्दगी भी मांग लोगी
तो मुझे तनिक भी गम न रहेगा
क्योंकि मुझे मालुम है कि
गीतॊं के बहाने नयी जिन्दगी लेकर
तुम द्वार मेरे जरुर आओगी
अधरों पर लिख दो
इन अधरों पर लिख दो
एक सुहाना सा नाम
हो ना जाये अनबिहायी
पीडा बदनाम
सपनॊं ने नयनों को नीर ही दिया है
चंदा ने चकोरी कॊ पीर ही दिया है
वेदना है मीरा तो मरहम है श्याम
इन अधरों पर लिख दो
सुन्दर सा एक नाम
देखेंगी अलसाई रत जगी अखियाँ
भुनसारे पनघट पर छेडेंगी सखियां
बार-बार पूछेगी सजना का नाम
इन अधरों पर लिख दो
सुहाना सा एक नाम
गोवर्धन यादव