गंगा निरंतर बहती है
“अजी सुनते हो, ज़रा इन बच्चों को नहला देना” अपने पति को आवाज़ देते हुए सुधा नाश्ता बनाने में लग गई. जब उसका पति रामप्रसाद वह काम निपटा चुका तो फिर आवाज़ आई .
” अजी नाश्ते के बाद आप बाज़ार से सौदा ले आइये, तब तक मैं घर की सफ़ाई करती हूँ.”
रामप्रसाद नौ साल की गृहस्थी में इन सारे कामों का आदी हो चुका था, पर उसके भीतर कहीं न कहीं कुछ न कुछ, कुछ नहीं, बहुत कुछ टूटता रहा – बेआवाज़!!
ज़िन्दगी का जाम उसके हिस्से में ऐसा कुछ ले आया, कि वह उसे न तो पी सका, न निगल सका, न थूक सका। नील कंठ सा हो गया था मानो! घर की चाकरी करते- करते एक अनजान हीन भावना उसे भीतर ही भीतर कचोटती रहती थी। वह नौकरी की तलाश में थक हारकर निकम्मा-होकर अब घर के कामों में पत्नि का हाथ बांटने की करता। मरता नहीं तो क्या करता ?
“मैं एक हफ़्ते के लिये माइके जा रही हूँ, आप भी थोड़ा आराम कर लेना, अपना ख़याल रखना. मैं मुन्नी को ले जा रही हूँ, मुन्ना आपके साथ रहेगा. जब आप ऊपर जायें तो मेरा सामान नीचे लेते आइयेगा.” “कब तक……?” शब्द मुंह में ही रह गए । “ पिताजी से पैसे भी तो लाने हैं न घर खर्च के लिए, कुछ तीन दिन तो लग जाएंगे।“ “मैं नौकरी की तलाश में आज फिर जाऊंगा। शायद काम हो जाए। तुम चिंता मत करना। बहुत जल्द कुछ न कुछ हो जाएगा। भगवान पर भरोसा रखो।“ “उसी भरोसे पर तो हर माह पिताजी के सामने हाथ फैलाने जाती हूँ! आपसे जियादा अब मुझे शर्म आने लगी है, डूब मरने को जी करता है।” “अच्छा तुम हो आओ, अपना खयाल रखना।“ कहते रामप्रसाद गहरी चिंता में डूब गए। सामान नीचे दरवाज़े के पास रखते हुए रामप्रसाद ने कहा- “भाग्यवान कुछ देर ठहरना, मैं ज़रा गंगा नहाकर आता हूँ” कहकर वह बाहर निकल गया और सुधा उस आवाज़ की आहट तक न सुन पाई जो दुख के सीने से निकली। घंटा दो घंटे, और दुपहर से साँझ होने को आई, इंतज़ार लम्बा हो गया। लौटने वाला नहीं लौटा, गंगा स्नान करते तन, मन, मस्तिष्क के समस्त बोझ के साथ विलीन हो गया शायद!
और सुधा अब जब भी अपनी बच्चों को नहलाती, तो वह चीत्कार उठती है कि उसके राम उसे कैसा प्रसाद दे गए है जो आँखों से निरंतर गंगा बहती रहती है.
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अहसास
“मैं केटी को ले जा सकती हूँ?”
सधी हुई आवाज़ कानों पर पड़ते ही सर उठाया। देखा सामने सुंदर सी, तीखे नाक नक्श वाली ११-१२ साल की लड़की खड़ी थी.
” आपका नाम ?”
” मैं टीना हूँ, केटी की बहन, उसे लेने आई हूँ।” संक्षिप्त उत्तर के बाद वह चुप रही।
” हर रोज़ तो उसकी नानी उसे लेने आती है…… ।”
” वो तो ठीक है, पर अचानक मेरे पिता का फ़ोन आया कि मुझे केटी को स्कूल से पिकअप करना है।”
” आपकी नानी कहाँ है और वो क्यों नहीं आई।?”
” वो मेरी नहीं, केटी की नानी हैं। आज क्यों नहीं आई मुझे नहीं मालूम।”
जवाब सुन मेरे माथे पर सिलवटें पड़ने लगीं। ये कैसा रिश्ता है ? वो केटी की नानी है पर टीना की नहीं!
” तुम केटी को कहाँ ले जाओगी?”
” इसके मम्मी-पापा के घर।” टीना का छोटा-सा उत्तर पाकर मैं फिर उलझ गई।
” और तुम कहाँ जाओगी?”
” अपने घर” सरलता से उसने मुस्कराकर जवाब दिया।
” तुम वहाँ क्यों नहीं जाओगी?”
” क्योंकि मैं अपनी मम्मी के पास रहती हूँ, और मेरे पापा केटी की मम्मी के साथ।”
ऐसे जवाब सुनकर कौन कहता है भावनाओं को ठेस नहीं लगती ? कौन कहता है रिश्तों की ज़रूरत नहीं पड़ती ? पर जो रिश्ते बेमतलब के हों, उनका न होना ही बेहत्तर है. मैं अपनी सोच की दुनिया में खोई थी, इस बात से बेख़बर कि केटी और टीना अभी तक वहीं मौजूद हैं.
” मैम क्या मैं केटी को ले जा सकती हूँ?” टीना की इस आवाज़ ने मुझे जगा दिया.
” हाँ! रजिस्टर में साइन करके उसे ले जा सकती हो.”
…..और मेरे आँखों के सामने स्वार्थ के सिंहासन पर बैठे आदम और मासूमियत से मुस्कान छीनने वाले अपराधी चेहरे साफ़-साफ़ नज़र आने लगे!
देवी नागरानी