कहानी समकालीनः तारे दूर के-शैल अग्रवाल


किसी भी हालत में मन मानने को तैयार नहीं था कि कल अतिमा नहीं भी हो सकती, उसकी अपनी अतिमा, …अतिमा, जो पिछले पचास वर्ष से उसके साथ है। जीवन का अभिन्न हिस्सा है। जिसके बारे में पत्नी से प्रताड़ित पति के सैकड़ों चुटकुले वह हंस-हँसकर दोस्तों को सुनाते नहीं थकता। पर अब इस अशुभ खबर की संभावना मात्र से ही पूरी तरह से टूटा-बिखरा महसूस कर रहा था शिशिर। जैसे-तैसे अस्पताल से बाहर आया तो चारो तरफ अँधेरा ही अँधेरा था।
इतना अँधेरा तो कभी नहीं देखा था उसने, अंघेरी से अँधेरी रात में भी नहीं। पूरा आकाश मानो एक अंधे कुँए में तब्दील हो चुका था …एक तारा भी नहीं कहीं, सब कुछ ही यकायक कितना बेगाना और डरावना हो चला था उसके लिए।
डॉक्टर ने कहा था कि सुबह का सूरज शायद ही देख पाए अतिमा और कठोर शब्दों की यह चोट कराहती कनपटी से जाने का नाम ही नहीं ले रही थी।
संबल और संरक्षक रही है अतिमा परिवार की…ऐसे कैसे छोड़ जाएगी उन्हें! बड़ी-से बड़ी बीमारी भी कुछ वक्त तो लेती ही है, फिर ऐसा इतने विश्वास के साथ कैसे भला कोई कह सकता है ? डॉक्टर हैं, भगवान तो नहां!

वह सुनी-अनसुनी हर बात को नकारना चाहता था अब।
बस, तीन दिन पहले तक तो बिल्कुल ठीक थी उसकी अतिमा। थोड़ी सांस की तकलीफ, थोड़ी खांसी, बस…और आज यह हाल…फिर यह कोमा भी तो बनावटी ही है। जान बचाने को ही तो दिया गया था उसे। इसके बल पर ऐसा नहीं सोच सकते ये डॉक्टर। थोड़ा गुस्सा भी आ मिला था अब तक फन उठाते भय में। लड़खड़ाते कदमों से ही बाहर आ पाया था वह अस्पताल से।

कुछ देर यूँ ही गाड़ी में चुपचाप बैठा रहा। घर लौटने की कोई जल्दी नहीं थी उसे। बैठे-बैठे रेडिओ औन कर लिया । एशियन नेटवर्क पर ग़ज़ल़ बज रही थी- ‘गर तुम्हें खोने की दहशत और पाने की चाहत न होती, न ये खुदा होता और ना ये इबादत होती’- शब्दों पर शिशिर का ध्यान नहीं था, देना भी नहीं चाहता था। आपद्काल में असहाय पड़ा भगवान और उसकी इबादत तक में उसका विश्वास भी तो इस वक्त अन्तिम सांसें ही ले रहा था। मन दूर कहीं आकाश के शून्य में जा अटका। आकाश में दो तारे साथ-साथ टिमटिमाते दिखे। शुभ संकेत लगा उसे यह भी। धीमी ही सही पर उतनी-सी रोशनी से ही आकाश का अँधेरा कुछ कम होता महसूस होने लगा। हार मानने वालों में से नहीं था वह। आस की पतली लकीर भी बहुत महत्व रखती थी इस वक्त। डूबती उम्मीदें तैरने लगीं फिर से उसी तिनके सी टिमटिमाती रोशनी के ही सहारे। शायद/यही कहना चाहते थे तारे उससे कि वह अपनी हिम्मत न हारे। उसकी भी जोड़ी बनी रहेगी। जब तक जिन्दा है, वह भी उम्मीद नहीं छोड़ेगा। ख्वाइशें ही तो हैं ये तारे। पीछा करना पड़ता है इनका भी। पूरी आंख रखनी पड़ती है। सुनते हैं हर तारा अपने आप में एक सूरज होता है। बस हमारे अपने सूरज से बहुत दूर, इसीलिए बिना गर्मी बिना रौशनी के टिमटिमाता सा दिखता है। यह सूरज और इसका सारा सौर मंडल ( गृह-उपगृह) बूढ़े होकर नष्ट भी होते रहते हैं और नए पैदा भी होते रहते हैं, एक बड़ी काली सुरंग से, जिसे ‘ब्लैक होल’के नाम से भी जाना जाता है। वैज्ञानिकों का मानना है कि यह एक बड़ी गहरी मैगनेटिक फील्ड है, जो आसपास आती-जाती हर चीज को अपने गुरुत्वाकर्षण से अन्दर खींचकर तिरोहित कर लेती है-जैसे यह उदासी। बिल्कुल जीवन-सा ही तो दर्शन है यह भी, जहाँ हम अपने ही भ्रम और अज्ञान में फंसे एक मिथ्या जीवन जीते…दिन-प्रतिदिन विनाश की ओर कुछ और अग्रसर हो जाते हैं। पहले इन नक्षत्र और गृह उपगृहों सा सब आकर्षक, रहस्यमय और चमकीला, जगमग आकर्षित करता, अपनी ओर खींचता हुआ। फिर इच्छाओं के काले गढ्ढे में सब स्वाहा और समाप्त…जीवन और मृत्यु-सा एक लगातार का बस एक सिलसिला। पर न तो उसकी पहुँच इन तारों तक थी और ना ही जीवन-मृत्यु के उलझे रहस्यों तक ही। आधी रात तो वैसे ही हो चुकी थी, सुबह जल्दी ही लौट आएगा वह…अगर आने दिया गया तो… ठीक ही रहेगी अतिमा तबतक। हिम्मत साध ली थी उसने भी।
गाड़ी स्टार्ट कर दी उसने और जाने क्या-क्या गुनता-बुनता कुछ ही मिनटों में वापस घर भी पहुँच गया । ज्यादा दूरी नहीं थी घर और अस्पताल में। दरवाजे पर ही बेटे ने कपड़े जूते सब उतरवाकर, तुरंत ही वाशिंग मशीन में डलवाए और सीधे नहाने भेज दिया उसे। दांत कंपाती ठंड में भी वैसा ही किया उसने। जो बचे हैं इस आफत से उन्हें तो कैसे भी बचाना ही होगा -भलीभांति जानता था वह।
नहाते ही नीचे उतरा और चौके में जा पहुँचा। एक पैकेट टमाटर सूप मग में डाला और उबला पानी डालकर गटागट पी गया, बिना कुछ सोचे समझे, बिना कोई आवाज किए। अंदर-बाहर के हर शोर को खुद तक ही रखने की हर संभव कोशिश कर रहा था वह अब। रात के बारह बज रहे थे और बेटे-बहू, पोते-पोती सब सो रहे थे। जरा-सी आवाज पर चेतावनी मिल जाती थी-‘सोने दिया करो हमें, आप तो सुबह मन चाहे जबतक सोते रहोगे। ‘ मग साफ करके डिश-वासर में रखा ही था कि चम्मच छन्न की आवाज के साथ उंगलियों से फिसलकर रैक में जाने के बजाय जमीन पर गिर गई। साफ-सुथरे फर्श पर मुंह चिढ़ाते उस कौफी के धब्बे को मुठ्ठी में बन्द टिशू पेपर से ही पोंछ दिया उसने और दबे पांव चुपचाप कमरे में वापस लौट आया। उसके डिनर कौफी सब हो चुके थे अब। अतिमा होती तो हरगिज ऐसा न होने देती। बहला-फुसलाकर कुछ-न-कुछ खिला ही देती -उमड़ी आँखें बरस नहीं, बस जल रही थीं। इस सबकी भी आदत डालनी ही होगी, कल पता नहीं क्या हो? सोच मात्र से ही गले में कुछ पत्थर-सा आ अटका था। कमरे की बन्द खिड़की पूरी खोल दी उठकर। परदा तक नहीं खींचा। आँखों के आगे एकबार फिर तारों से भरा जगमग आकाश था भरपूर चंद्रमा के साथ। अतिमा कहती है, रात में उसे अपना यह कमरा बहुत सुंदर लगता है। यह खिड़की उसके कमरे का सबसे मोहक हिस्सा है, खुली और विस्तृत पूरे आकाश को अपनी गोदी में समेटे हुए। मान लो मैं न रहूँ तो इन्ही तारों में छुपी तुम्हें देखती रहूँगी। तुम एक आवाज देना और मैं टिमटिमाने लग जाऊंगी।
आतिमा -मन के अंदर की बेचैनी पुकार उठी- कहीं नहीं जाने दूंगा मैं तुम्हे।
आँखें बन्द कीं तो कुछ अटके आंसू गालों पर बह आए। फिर से उठ बैठा वह। शोर की वजह से टेलिविजन देख पाना संभव नहीं था इस वक्त। चुपचाप मोबाइल पर ही खबरें पढ़ने लगा। आज फिर इंगलैंड में आठ सौ मरे। कलेजा मुंह में आ गया। भगवान मेरी अतिमा को यूँ गिनती मत बनने देना, कम-से-कम मेरी आँखों के आगे तो नहीं ही, और मोबाइल सिराहने पटककर, थका बेहद निराश जागता-सोता-सा लेट गया वह सुबह के इंतजार में।
आंखें खुलीं तो सुबह-सुबह ही वार्ड से फोन था।
सब ठीक है। अतिमा की तबियत स्टेबल है। उसे अस्पताल आने की जरूरत नहीं। तीन दिन तक फिर अस्पतास से फोन नहीं आया। नो न्यूज, गुड न्यूज कहकर खुदको तसल्ली देता रहा वह। हर घंटी पर अंदर तक कांप जरूर जाता कि पता नहीं क्या सुनने को मिले ! फोन करके हालचाल पूछने की हिम्मत ही न पड़ती। जानता था वह कि उस वार्ड में सब के उपर क्या बीतती है आजकल और कितने व्यस्त रहते हैं सब। अतिमा कोई विशेष नहीं, बस एक और मरीज ही है उनके लिए। हर दो घंटे पर उसके हालचाल नहीं दे सकते वे।
चौथे दिन जब फोन आया तो वह अंदर तक दहल गया, हिम्मत ही नहीं हो रही थी फोन उठाने की फिर भी उसने उठाया।
‘मिस्टर शिशिर गोस्वामी आपकी पत्नी आई. सी. यू. से बाहर आ गई हैं और अब खतरे के बाहर है। ‘
खुशी की एक लहर दौड़ गई उसके अंदर और बिल्कुल अतिमा के ही अंदाज में तुरंत ही उसने भगवान के आगे माथा टेका और हाथ जोड़कर एक धूपबत्ती भी जला दी ।
चार दिन बाद आखिर वह दिन भी आ ही गया जब वह आतिमा को घर वापस ले आया। सख्त हिदायत थी कि 14 दिन तक अतिमा को अकेले ही रखना होगा। वरना संपर्क में आने वाले हर व्यक्ति को खतरा होगा। पर इतनी कमजोर अतिमा कैसे अपनी देखभाल कर सकती थी। मौत के मुंह से लौटी थी। उसने मुंह पर मास्क पहना अतिमा को पहनाया और उसकी देखभाल की, सारी साफ-सफाई की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली। पूरा घर एक कोढ़ी की तरह उसे अजीब तरह से देखता रहता, बात-बात पर डांटता – ‘पूरी तरह से डिटौल से पोंछा या नहीं? आप चौके में कुछ नहीं छुआ करो। खुद तो बीमार पड़ोगे ही, पूरे घर को खतरे में डाल रहे हो।’
शिशिर का घर था वह, फिर भी चुप ही रहा वह। बच्चों के संग जीना है तो मान-अपमान से ऊपर उठना ही होता है। सुनता रहा सब। वाकई में हवा में तैरती वह बीमारी कब, किसे और कैसे जकड़ती है , कोई नहीं जानता था। अपनी तरफ से हर सावधानी बरत रहा था वह परन्तु तीसरे दिन छींकों का जो सिलसिल शुरु हुआ तो रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था। शाम होते-होते पूरा बदन टूटने लगा उसका भी और तेज बुखार चढ़ा सो अलग। सुबह तक हालत इतनी बिगड़ गई कि दो कदम तक चलना मुश्किल हो गया। बेटा -बहू सबको मना कर रखा था उसने कमरे में घुसने को। खुद ही एम्बुलेंस को फोन किया और अस्पताल चला गया । खांसी की दवा लेकर वापस घर भी लौट आया, कुछ ही घंटों में। जानता था अतिमा को बहुत जरूरत थी उसकी। कल फिर आ जाएगा जरूरत पड़ी तो।
दरवाजे पर खेलते बच्चे उसे देखते ही छिटककर अलग हो गए…ऊपर पहुँचा तो अतिमा तुरंत ही कैसे भी एक-एक सीढ़ी पकड़कर नीचे आई और चाय नाश्ता ऊपर ही ले आई उसके लिए।
तुम्हें नहीं जाना था यूँ बिस्तर से उठकर- कहने जा ही रहा था कि चुप हो गया अतिमा के चेहरे को देखकर। एक संतुष्ट मुस्कान थी अब उसके पपड़ियाए होठों पर।
…कल चाहे कुछ भी हो, आज वह बस जीना चाहता था और जिएगा भी। यदि अँधेरा कल फिर आया तो चांद तारे और सूरज भी तो हैं ही उसी आकाश में, इस दुख से लड़ने को, हौसला देने को, जानता था वह।
अतिमा अब उसे बहुत प्यार से देख रही थी मानो वह एक किताब हो और वह बहुत ध्यान से पढ़ रही हो उसे लगातार। इससे पहले कि वह कुछ पूछे, शिशिर खुद ही बोल उठा- सोचता हूँ अतिमा, क्या हैं ये तारे आखिर…प्रेरक और मार्ग निर्देशक, सपने और आकांक्षाएँ…जैसा कि कथा-कहानियों और साहित्य में चित्रित किया जाता है या फिर अतृप्त और टूटे सपने , बिछुड़े मीत, हमारे अपने …हमसे दूर कहीं अज्ञात लोक में जो जा छिटके हैं?
कल्पना का अद्भुत संसार रचते हैं ये चांद-तारे भी। बचपन से ही जब-जब इन टिमटिमाते तारों को देखा है कल्पना का मानो एक सागर-सा उमड़ आता है आँखों के आगे। परीलोक, स्वर्ग, भगवान का घर, जाने कैसी –कैसी अद्भुत उड़ानें ली हैं कल्पना ने। और आज जब यह पता चल चुका है कि ये चंदा-तारे, सूरज…(काफी हद तक खुद हम भी) कुछ और नहीं…बस गैस और गंधक के सोते मात्र हैं…एक रसायनिक प्रक्रिया हैं। फिर भी तो मन उसी कल्पना में विचरते रहना चाहता है। जानते हुए भी कि सब मात्र एक छलना है …छलना में ही डूबे रहना चाहता है, क्योंकि छलना ही तो भरमाती है, जितना दुःख देती है, उतना ही सुख भी तो देती है यह हमें। अतिमा भी तो अब न जाने कल्पना के किस लोक में जा पहुंची थी और बच्चों-सी चहक रही थी।
और यह प्रेम नफरत, लाग -लगाव खुद यह सोचने और महसूस करने की प्रक्रिया इसे क्या नाम दोगी तुम अब…बस जीवन या जीवन से परे भी कुछ…जिनके सहारे मानव जीता है, प्रेरणा पाता है। औरों से भिन्न और ऊंचा होकर अमरत्व तलाशता है।
और इस वक्त तो मेरी हर प्रेरणा, हर चाहना, अमरत्व की तलाश जानती हो कहाँ है?
‘कहाँ? ‘ अतिमा ने बेहद भोलेपन से पूछा।
‘ तुम्हारे पास ।‘ कहकर, हाथ खींचकर बगल में बिठा लिया शिशिर ने उसे-
‘चलो यह भी अच्छा ही हुआ कि मुझे भी हो गया यह करोना। अब जो भी होगा साथ-साथ ही होगा हमें और आज ही नहीं, कल भी, जिएँ या मरें, यूँ ही साथ-साथ ही रहेंगे हम तुम, जी भरकर एक-दूसरे का ख्याल रखते हुए।‘…
खिलखिलाती सूरज की रोशनी में पवित्र और मोती से चमकते अतिमा की आँखों के आंसुओं को बेहद प्यार से अपनी उँगलियों के पोरों पर समेटते हुए शिशिर ने फिर कहा- ‘अब चाहे यूँ हँसो या रोओ, सात फेरे लिए हैं तो ये साथ तो मरते दम तक निभाना ही होगा तुम्हे । आज और कल ही नहीं, हमेशा-हमेशा। ‘
जानती थी अतिमा भी कि कल किसने देखा है, कि कल तो हमेशा ही हमारी पहुँच से परे है, दूर बहुत दूर बिल्कुल शिशिर के टिमटिमाते इन तारों की तरह ही। …

फिर भी ‘आमीन’ कहकर उसने अपनी उमड़ते बादलों सी ऊदी पलकें बन्द कर लीं और छुपा लिया नेह और विछोह का सारा दर्द शिशिर की प्यार भरी आँखों से। पर शिशिर की आँखें भी तो अब उतनी ही नम थीं और वह भी तो आंसुओं को उतनी ही सफाई से छुपा रहा था।…

शैल अग्रवाल
email: shailagrawal@hotmail.com

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