कविता आज और अभीः जुलाई-अगस्त 2020

आज कविता
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कभी कविता
गुलाब बोया करती थी
गुलाब उगाया करती थी
कविता में था समय का स्पंदन
गेंहू, धान बो कर भी
हो जाती रही समृद्ध वह
साँसों में उसकी
गुलाब-जूही की चमक
फसलों की सोंधी महक
रहती थी कभी
कविता की बातों में
सीधी-सरल लकीरें
औ आदमियत की सुगंध
रहा करती थी।

आज कविता
सरल सहज नहीं
उसने अपने रंग, चलन, ढब
बदल लिये
न जाने कब से
उसकी बातों में
सरोकारों में
बंदूक, गोली, बारुद की
धमक भर गई

याने आज कविता
आज भी कविता
अपने समय का सच बताती है,
आज वह कलम से नहीं
बंदूक की निकली
गोली से लिखी जाती है
और हमें कितना अधिक डराती है।

पिता
—-

पिता के खुरदुरे रौबीले चेहरे के पीछे
छिपा है एक कोमल चेहरा
जिसे सिर्फ बेटियाँ ही
पहचान पाती हैं

पिता बेटियों के लिए हैं,
होते हैं ऐसे आदर्श
जो बेटियों का
रूप गढ़ते हैं
उनके हाथ के झूले में झूल
पा जातीं वे सारी दुनिया

विदाई के अश्रु वे नहीं बहाते कभी
घोंघे के कठोर खोल के अंदर
दबा रह जाता उनका मन
लेकिन सबसे अधिक बेटी की
आड़ी-तिरछी चपाती
नमकहीन दाल
अधपकी सब्जी
जले साग को
वे ही याद करते हैं

पापा की प्यारी, पापा की दुलारी
कुछ माँ से ज्यादा उनमें ढलती हैं
माँ की सीख पोटली में
पिता का दुलार दिल में रखतीं हैं
ये माता की नहीं
पिता की बेटियाँ होती हैं

पिता के मौन से जगतीं
पिता के मौन में सोती हैं
फिर भी कहाँ खुलते हैं
पिता अपने बेटे-बेटियों के समक्ष
मौन में घुला उनका गीला मन
न देख ले कोई इसी कोशिश में
वे हरदम हर पल रहते हैं

ऊपर से खुरदुरे, गुस्सैल, रौबीले
भीतर से कंपित मुलायम
सब पिता ऐसे ही होते हैं।


हमें हमारा जंगल वापस दे दो
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मत छीनो हमारे खेतों की हरियाली
बीजों का निर्दोषपन,
माटी कारी – कारी
हमारे खेत में दो उगने
मकई , मड़ुआ, जौ, कंदा,
राई , केतारी, बेर – झाड़ी
नहीं चाहिए हमें
उगते हुए बिल्डिंगों का वन उपवन
कल – कारखाने
मशीन सयाने-सयाने

हम हैं खुश अपने जंगलीपन में ही
जानते नहीं क्या तुम
हमारे ये जंगल – खेत सदा
रखते हरा हमारा मन- आँगन
जंगल का हरापन
चट्टान का कड़ापन कब
हमें अभाव महसूसने देता है
तुम क्या दोगे
वो जो देता है

कुछ देना चाहते हो
सच में देना चाहते तो
हमें हमारा खेत-पठार
औ जंगल
वापस दे दो
वैसे ही साबुत का साबुत।


किन्नरों को समर्पित –

अधूरी देह, पूरी इच्छा
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कैसे समझ लिया है तूने
माँ नहीं हूँ मैं
बस इक अधूरी देह
यही है पहचान मेरी

तुम कितना जानते
कितना जानने की
की कोशिश
हाथ की बेमेल जुँबिश से उभरी
पहचान भर नहीं मैं
पांँवों की अबूझ थिरकन,
ना ही सस्ते गीतों में
ढलती हुई कोई शाम
चाँदनी को तरसती इक
काली-अँधेरी रात

तुमने मुझे, हमें बना डाला
अछूत दूसरे जगत का प्राणी
मैं नहीं किसी और ग्रह की जीव
तुम्हारे आँगन में उतर आती
आशीषों की झोली में सूप भर
पुष्पों की सुगंध थामे हुए
अनजाने नृत्य की भाव-भंगिमाओं संग

चंद खनखनाते सिक्के मात्र
मेरा प्राप्य नहीं
गोद में लेकर जिस
नवजात बच्चे को दुलराती
आशीर्वाद अक्षत से नहलाती
कहीं ना कहीं मेरी इच्छाओं में भी
करवट लेता रहता है
वह मासूम पेटजाया बन

हाँ! सत्य है
मैं ना नर परुष और
ना ही नारी सुकोमल

अधूरी देह हूँ मैं
लेकिन
पूरी इच्छाओं से भरी ।

anitarashmi2@gmail.com


ऊमस

कोलाहल, वह  अट्टहास, वह  स्मित-अपनापन, 
वह मिलना, वह चौक, वहां  घंटों बतियाना,
वे  इतवार, धूप में सिकना, चाय पकौड़े,
एक हवा  के झोंके से सब बिखर गए क्या, 
या, सारे रिश्ते केवल  छिछले, सतही  थे ?  

धूप सहमकर किसी शाख पर जा  चिपकी है
श्यामल बादल थके-थके, नभ के कोनों में 
लाल हुए जा रहे विफलता की ब्रीड़ा  से 
हवा अधर पर उंगली रख कर मौन हो गयी 
यह ऊमस, बेबसी, कहाँ से आ टपकी है ! 

मेरा घर है कारागार
————–
आगे लोहे के दरवाजे
पीछे पथ्थर की दीवार
दाँये बाँये अंधी गलियाँ
मेरा, बस, इतना संसार ।

रात और दिन क्या होते हैं ?
क्या नभ का आकार-प्रकार ?
हवा,. बता दे, कैसा लगता
इन दीवारों के उस पार ।

वर्ष, महीने, दिन न गुजरते
फिर क्या उम्र गुजरती है ?
जीवन, मृत्यु, निराशा, आशा
केवल शब्दों का व्यभिचार ।

हँसना, रोना, कहना, सुनना,
सोने, जगने का व्यापार
अर्थहीन मेरे हित सब कुछ
मेरा घर है कारागार ।

सुधांशु मिश्र

विस्थापन

विस्थापन का गुण यह है
कि आदमी कभी अपनी जगह से पूरा जा नहीं पाता
पानी भरे ज़ंग खाये ड्रम की तरह
दाग़ों या गीले निशानों में
रिसता रहता है
व्यापकतर होता है
और सिद्ध करता है
कि कोई भी स्थापित नहीं है
सिवाय उस पेड़ के
जिसे आँधी की प्रतीक्षा है ।

शैया-व्रणों से बचने को
करवट बदलना
व्रणों का विस्थापन है
वे त्वचा में स्मृतियाँ बसाकर
मन के सिर में जूएँ बन जाते हैं
और दर्द के नाख़ूनोंको
खुजलाने को प्रेरित करते हैं ।

स्थापन और विस्थापन के बीच
देश काल में बदल जाता है
काल कसक में
कसक रिक्तता में
और रिक्तता
न जाने किस में बदल जाये
या न बदले ….

गौतम सचदेव


सुबह एक सपना

सुबह एक सपना
जो खिड़की से बाहर
फैली सड़क को
हर दिन मेरे गांव से जोड़ देता
चिमनियों का नहीं
दिखने लगता तब मुझे
मां के चूल्हे से उठता धुँआ
इन्तजार में उदास थकी उसकी आँखें
सुलगतीं, मुड़-मुड़कर दरवाजा तकतीं
सिकती रोटी की उठती गरम महक
भूखे गुड़गुड़ाते पेट में खलबली मचाती
तिस पर नन्हकू की मुस्कान लार-भीगी
परबतिया की मांग सिंदूरी रह रह चमकती
बढ़-बढ़कर बस मुझे ही पुकारतीं

और चल ही पड़ा हूँ मैं आज
भग्न सपनों की किरच-किरच को रौदता
पोटली में आस की मरहम संजोए
प्यारी-प्यारी वो तस्बीरें
जलती-चुभती आँखों में भरे
बिना रुके, बिना थके
भूखा-प्यासा
क्योंकि यह सड़क अब
बस एक सड़क नहीं
जीने की राह है मेरी
घावों को भरती
मुझे सहलाती संजीवनी
अपनों तक पहुँचाने का
मुझसे वादा करती…
शैल अग्रवाल

प्रेम
—-
शहर नहीं कर सके प्रेम उन हाथों को
जिन्होंने उन्हें सजाया-सँवारा…
चूमकर उन हाथों को
वे नहीं रोक सके उन्हें पलायन से ।
दो वक्त की रोटी
और सिर पर छत होती
तो आखिर कोई क्यों भागता अपने गाँव-गुवार
पागलों की तरह
भूखा-प्यासा, अधमरा, गिरता-पड़ता,
कभी बेसुध होता
तो कभी ट्रेन की पटरी पर कटता ।
शहर के पास नहीं थे वे हाथ
जो आगे बढ़कर थाम लेते उन्हें,
पोंछ देते उनके चेहरे पर
छाई उदासी के दाग,
उन्हें गुदगुदाकर
बिखेर देते
एक अमलतासी हँसी उनके चेहरों पर ।
कोई दो-चार दिन का साथ तो था नहीं
एक लंबा नाता था
(भले नौकर और मालिक का ही सही) ।
यूँ तो सब कहते हैं
कि चार दिन मनुष्य अगर कुत्ते के साथ रह जाए
तो उससे भी प्रेम हो जाता है !
तो अब कौन से किस्से सुनाए जाएगें
गाँव के सीवान पर?
कि शहर में अब मनुष्य नहीं बसते
या मजदूर कुत्तों से भी ज्यादा गए-गुजरे हैं…..
मालिनी गौतम

वजूद
—-

इन दिनों
अंधेरों ने भी
सीख लिया है देखना
अपने भीतर की
आँखों से

वह उन
तमाम पगडंडियों से
गुजरना जानता है
जिनसे गुजरकर
सूरज की एक किरण
उस तक पहुंचती है

वह अपने भीतर की
सभी खिड़कियों को
खोल देना चाहता है
ताकि सूरज
फैल सके
अपने पूरे वजूद में

पल्लवी मुखर्जी

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