संजीव ने दरवाजे के भीतर आते ही खुद को चटाई पर निढाल छोड़ दिया। शेखर ने उसे किनारे होने की घुड़की दी। उसने कातर आंखो से शेखर को देखा फिर आंखे बंद कर ली। करीब पांच मिनट ऐसे ही संवादहीनता की स्थिति में बीत गये। शेखर सोच रहा था कि अब संजीव उठे और खाना बनाना शुरू करे, शेखर जोर से खांसा मगर कमरे में कोई दूसरा स्वर नहीं बोला। शेखर को भूख लग रही थी वक्त काटना मुश्किल हो रहा था, पांच, दस, पंद्रह मिनट ऐसे ही बीत गये मगर संजीव ने आंखे नहीं खोली तब शेखर ने हारकर उसे जगाया। उसने आंखे खोली मगर पीड़ा मिश्रित स्वर में धीरे से बोला ‘‘रूको, अभी हाल ठीक नहीं है’। फिर वो धीरे-धीरे अपने घुटनों को सहलाने और दबाने लगा। बड़ी देर तक वो अपने हाथ के पंजों से अपने पैरों को दबाता रहा फिर मुट्ठियां भींच-भींचकर मारता रहा। शेखर जान गया कि ये इतनी जल्दी नहीं उठेगा और खाने में काफी देर लगेगी। शेखर कमरे से निकलकर गली के नुक्कड़ पर आ गया। उसने दूध का एक पैकेट खरीदा, पाव लिया और अपना कलेजा फूंकने के लिये सिगरेट। मोमेन्ट सिगरेट उसके जैसे स्ट्रगलर के लिये ही बनी थी शायद। बड़ा पाव, कटिंग चाय, मोमेन्ट सिगरेट, शेयरिंग आटो, शेयरिंग खोली ये सब उसके मुम्बइया जिन्दगी के संघर्ष के हिस्से थे। शेखर भी इन समझौतों से आजिज था वरना वो संजीव को क्यों बर्दाश्त कर रहा होता। वो उधार की पर्ची और सब सामान लेकर कमरे में लौट आया और संजीव के सामने चाय और पाव रख दिया जिसका मतलब था चाय बना दो।
संजीव ने ये सब देखा तो फीकी हंसी से बोला ‘‘रूको, शेखर भाई, खाना बना रहा हूँ। दिन भर में दो बर्गर और रात को चाय के साथ पाव। यही खायेंगे तो वैसे ही मर जायेंगे। फिर हम यहाँ मरने थोडे़ ना आये हैं’’। शेखर ने रूखाई से कहा’’ वैसी मौत तो जब मरेंगे तब मरेंगे, मगर आज कुछ न खाया तो जरूर मर जायेंगे।’’
संजीव भी शायद भूख से व्याकुल था। वो उठा तो नहीं पर घिसर-घिसरकर मोरी तक गया हाथ-मुंह धोये फिर उसी तरह घिसट-घिसट कर वापस भी आ गया। तब तक शेखर ने चाय चढ़ा दी थी। संजीव ने सब्जियां काटी, चावल बीना। चाय के साथ दोनों ने एक-एक पाव खाया। संजीव ने कहा ‘‘सब्जी-चावल में बहुत देर लगेगी। तहरी बना डालता हूँ। मुझे भी बहुत भूख लगी है, आप भी भूखे होंगे।’’
शेखर ने सहमति दे दी। अब जो कुछ जल्दी मिल जाये वही खा लिया जाये।
शेखर चटाई पर पसर गया और संजीव ने उसका मोबाइल उठाकर अपने हाथ में ले लिया और इयर फोन लगाकर गाने सुनने लगा। शेखर का अपना गम था ‘‘नानक दुखिया सब संसार’’। वो एक प्राइवेट स्कूल में टीचर था वो भी बिना ट्यूशन का। संजीव उसके कमरे में पंद्रह सौ रूपये के किराये का पार्टनर था। वो भी सिर्फ पांच सौ रूपये देता था। संजीव के पास मुम्बई में खोली लेने के लिये डिपाजिट की रकम का इंतजाम न था। शेखर ने रूम के डिपाजिट का इंतजाम तो कर लिया था। मगर पंद्रह सौ रूपये महीना देना भारी था। ये राष्ट्रीय क्षितिज पर महेन्द्र सिंह धोनी के उभार का समय था।
शेखर ने संजीव को कुछ शर्तों पर रखा था जिसमें से ये था कि संजीव खाना बनायेगा, बर्तन धुलेगा, कमरे की साफ-सफाई रखेगा सिर्फ शेखर के जूठे बर्तन नहीं धोयेगा क्योंकि शेखर ने उसे मना कर रखा था क्योंकि संजीव ब्राहम्ण जो था। संजीव के अंदर थोड़ा सा ब्राहम्ण बचा हुआ था सिर्फ खाने के मामले में। वो खुद मांसाहार नहीं करता था मगर मांस, मछली और मांसाहारियों के बीच में भोजन कर लेने से उसे परहेज न था। संजीव भी अजीब शै था। साढे चार फुट का कद, रंग गोरा, खडे़ बाल, चेहरे पर दाढ़ी-मूंछ जमी नहीं, दुबला-पतला शरीर उसे देखकर लोग न जाने क्यों वितृष्णा से भर उठते थे। उसके पैतृक शहर में लोग उसे नाटा और छोटू बुलाते थे। वो इस सम्बोधन से चिढ़ता था मगर ये छोटू शब्द कब उसका पीछा छोड़ने वाला था। उसे इस बात का पहली बार एहसास तब हुआ जब वो बारह-तेरह वर्षों का था तब बाकी भाइयों के बनिस्वत उसके हाथ-पैर छोटे-छोटे थे।
छोटू, भांटा, नाटा, गूंठे जैसे शब्द उसकी दिनचर्या का हिस्सा थे। उसका असली नाम राजीव तिवारी शायद ही कोई पुकारता था, वो उन विशेषणों से जितना, चिढ़ता था लोग उतना ही उसको उन्ही नामों से पुकारते थे। हिमालय की तराई के जिस छोटे से कस्बे नानपारा से उसका ताल्लुक था वो जगह देश के नक्शे से ऐसे गुम थी जैसे राजीव तिवारी की जिन्दगी से सपने।
राजीव के पिता शंभूनाथ तिवारी ज्योतिष, पत्रकारिता और नेतागीरी से इतना भी नहीं कमा पाते थे कि वो अपने चार बच्चों का ठीक से भरण-पोषण कर सके। सरकारी स्कूलों की तालीम पर गुजर-बसर करते राजीव किसी तरह यौवन की दहलीज पर पहुँचा। राजीव अपने बौने होने के तानों से इतना आजिज था कि कई बार उसने खुदकशी करने की कोशिश भी की थी। मगर खुदकशी करने की कोशिश करना और उस कोशिश को अंजाम तक ले जाना दो अलहदा चीजें हैं। हताशा और पस्ती के आलम में वो अपने हम उम्र लोगों से भी कटता गया और तालीम से भी।
उसका बड़ा भाई संजीव एक ट्रान्सपोर्ट कम्पनी में मुंशीगीरी करता था। उसी की कमाई की बदौलत दोनों जून चूल्हे पर अदहन चढ़ा करता था। राजीव आठवीं भी ना पास हो पाया था और बहुत हाथ पांव मारने के बावजूद अपनी विचित्र देह-दशा के कारण कोई रोजगार भी न पा सका। जब उसकी उम्र के लड़को की शादियां होती थीं तो उसके भी दिल में हूक उठती थी कि मैं भी कुछ करूँ। कुछ करने के चक्कर में उसने नेपाल से डली लाकर बहराइच के बाजार में बेचना शुरू किया जो कि खासा मुफीद भी था। क्योंकि एक तो वो जल्दी पकड़ा नहीं जाता था दूसरे अगर वो पकड़ा भी पाता था तो उसकी विशेष-कद-काठी देखकर लोग उस पर दया करके छोड़ देते थे। आसानी से पैसा आया तो अपने साथ लत भी लाया। उसकी भुखमरी दूर हुई तो उसने लड़कियों को मंहगे तोहफे देने शुरू कर दिये थे। घर में, परिवार में, समाज में ‘‘सौ अवगुन लक्ष्मी हरै’’ वाली कहावत चरितार्थ हो रही थी राजीव के मामले में।
दिन-ब-दिन राजीव का महत्व बढ़ रहा था जितना संजीव महीने भर में कमाता उतना राजीव नेपाल के दो चार फेरे लगाकर कमा लेता। लेकिन बार्डर पर एस0एस0बी0 की तैनाती ने राजीव को कहीं का नहीं छोड़ा था। रूपईडीहा बार्डर पर जब वो एक बोरी डली के साथ पकड़ा गया तो उसका चालान करके जेल भेज दिया गया। राजीव बमुश्किल छूटा अब वो दागी हो चुका था समाज की नजरों में। उसे कोई रोजगार न मिला। रिक्शा चलाना, चाय बेचने में उसका ब्राह्मण होना बाधा था पूंजी घर में थी नहीं सो उसने मुम्बई की राह ली।
मुम्बई क्या उसके लिये पलक पांवडे़ बिछाये बैठी थी। मुम्बई अब वो शहर था जो अपनी पहचान से जूझ रहा था। कहने को यहाँ या तो अंग्रेजी चलती थी या मराठी। मराठी भाषा और मराठी मानुष की एकता उपर से जितनी दिखाई दे रही थी उतनी हकीकत में थी नहीं। अंग्रेजी और मराठी के वर्चस्व वाले इस शहर में शायद राजीव के लिये भी कुछ था और इसी कुछ की तलाश में राजीव महीनों मुम्बई की खाक छानता रहा। राजीव अपने जिस रिश्तेदार के घर पहुँचा था वो मुम्बा देवी मंदिर के सामने आम बेचते थे।
फुटपाथ पर आम बेचना, आम की दुकान सजाने से पहले खाना बनाकर खा लेना। उसी स्थान पर फिर दुबारा दुकान लगाना और रात को उन्हीं पेटियों पर अखबार बिछाकर सो लेना। नहाना-धोना सब बी0एम0सी0 के शेयरियां शौचालय और नल से। कमाल का शहर, दिल फरेब जिन्दगी सबके हाथ में एन्ड्रायड और सबके पैरों में एडिडास के जूते मगर पैरों के नीचे जीमन नहीं। ये फतांसियों और ये ख्वाबों की उम्मीद अब कत्लगाह में तब्दील हो रहे थे।
राजीव अपने घरेलू नाम मिन्टू के जरिये बीसियों दिन वहीं पड़ा रहा। उसका नानपारा का पड़ोसी जमील, जिसके आश्वासन पर वो बाउम्मीद था। जमील उन दिनों पिजाहट कम्पनी में था। आठ घंटे की जानलेवा नौकरी जो पिजाहट में थी वो भी जमील उसे नहीं दिला सका क्योंकि मिंटू के पास कोई डिग्री नहीं थी। जमील के जब सारे प्रयास विफल हो गये उसने राजीव को समझाया ‘‘जो दस पांच लोग तुम्हें इस शहर में जानते हैं उनको अपना असली नाम राजीव कभी मत बताना। बस पुकारू नाम मिन्टू ही बताना’’। ये ताकीद एक योजना का हिस्सा थी जिसके खुल जाने से खेल की तासीर बिगड़ सकती थी।
जमील से पैसे लेकर उसने फिर नानपारा की राह ली। घर पहुँचकर उसने अपने भाई संजीव की मार्कशीट ली और उसे अपने इरादे बताये। संजीव का विवाह तय हो रहा था। उसने किसी लफडे़ में फंसने से आशंकित होकर आनाकानी तो की, मगर अपने लघुकाय भाई के लिये उम्मीद देखकर उसका मन द्रवित हो उठा। उसने अपनी मार्कशीट, चंद रूपये और भाई को विजयी भव का आशीष दिया। इंटर की मार्कशीट हाथ लगी तो राजीव को मानो पंख लग गये थे। उसने खुद कई दिनों तक अभ्यास किया था खुद के संजीव होने का। जमील ने अपने प्रयासों से उसे नौकरी तो दिला दी मगर न तो उसे अंधेरी उपनगर की ब्रांच मिली और न किचन, न ही काउन्टर। उसे हाउसकीपिंग में रखा गया था। हाउसकीपिंग अपने आप में जितना फैंसी नाम था, वो काम उतना ही भयावाह था। पिज्जा, बर्गर, काफी की इस दुकान में ग्राहक खुदा था। मुम्बा देवी की फुटपाथ पर रात बिताकर भयंदर की नौकरी आसान न थी। वेस्टर्न लाइन से सेंट्रल लाइन आना फिर ट्रेन पकड़ना और फिर आटो या बस से पिजाहट। लगातार तीन दिन की देरी से खिन्न मैंनेजर ने उसे चौथे दिन नौकरी छोड़ने का अल्टीमेटम दे दिया।
राजीव फिर जमीन सूंघ गया । उसने जमील के पैर पकड़े। जमील ने उस ब्रांच के मैनेजर से मिन्नते की तो राजीव को एक मोहलत और मिल गयी, मगर ये मोहलत कब तक रहनी थी। हारकर जमील ने उसे मालवणी में ठहरने को कहा। मालवणी से भयंदर वेस्टर्न लाइन पर ही था, फिर सीधी बस भी जाती थी वहां तक, मगर बस खासी मंहगी थी।
ये विश्वव्यापी मंदी के शुरूआती साल थे जिसमें महेन्द्र सिंह धोनी टी-20 विश्वकप जीत चुके थे और तब राजीव की तनख्वाह पांच हजार रूपये थी। मालवणी से मलाड की बस, मलाड स्टेशन से भयंदर लोकल ट्रेन से। मगर मालवाणी भी अब उतनी आसान नहीं रही थी। जमील ने राजीव के रहने का इंतजाम एक सिलाई के कारखाने में कर दिया था सिर्फ पांच सौ रूपये महीने पर। सारे कारीगर मुसलमान थे, रोज मांस, मछली, अंडा बनाते थे सो साथ खाने-पीने का सवाल ही नहीं था।
कारीगर दिन भर नात सुनते और हिन्दुओं की खिल्ली उड़ाते। हिन्दू देवी-देवताओं पर होने वाले तंज से राजीव बहुत आहत होता। वो जमील को सब बताता, बहुत मिन्नतें करता कि वो उसे अपने कमरे में रख ले मगर जमील असमर्थता जता देता।
दिन ऐसे ही बमुश्किल बीतते गये और एक दिन रात को कारखाने में भयंकर झगड़ा हुआ। तो एक कारीगर ने उस पर कैंची से हमला किया। वो रोता हुआ खून-खच्चड़ खोजते-खोजते जमील के कमरे तक पहुंचा। वहां उस कमरे पर एक लड़की मिली जिसने अपना नाम हलीमा बताया। उस युवती ने राजीव की मल्हम-पट्टी की और जमील को ड्यूटी से भी बुला लिया। जमील जब कमरे पर लौटा तो उसे अपना ये राज बताना पड़ा राजीव को, कि वो इस लड़की के साथ बिना शादी के रह रहा है। इसे लिव इन कहते हैं और ये मुम्बई शहर में बहुत आम बात है।
जमील, राजीव को लेकर सिलाई के कारखाने पर पहुँचा। दरयाफ्त की, तो पता चला कि राजीव ने कारखाने के एक कोने में गणेश-लक्ष्मी की मूर्ति लगा रखी है, जहां रोज सुबह वो धूप-अगरबŸाी सुलगाकर चालीसा पढ़ता था। यही बात मुस्लिम कारीगरों को गवारा न हुई तो नात और चालीसा की बहस मारपीट में बदल गयी।
राजीव शरीर से लघुकाय था लोगों ने उसे मिलकर बहुत बुरी तरह से पीटा था और फिर आगे पीटने की फिराक में भी थे। रज्जू मियां और उनके कारीगरों को ये हर्गिज गवारा न था कि उनके कारखाने में पूजा-पाठ हो। पूजा-पाठ न भी हो तो एक लघुकाय हिन्दू के सामने वे जब्त होकर क्यों रहें ये उनकी अपनी सीमित दुनिया थी जहां वे सामूहिक रूप से अपना गुस्सा और भड़ास निकाल सकें।
जमील बहुत दुखी हुआ वो अगर राजीव को मुम्बा देवी भेजता है तो नौकरी जाती है और अगर मालवणी के इस कारखाने में रखता है तो मारपीट की आशंका बनी रहती है। हारकर जमील, राजीव को अपने घर ले आया। घर क्या था एक आठ बाई आठ की खोली थी जिसमें दो लोग गुजारा कर रहे थे। कहते हैं दिल में जगह हो तो हर जगह गुंजाइश बनी रहती है। राजीव न जमील का दोस्त था न रिश्तेदार बस उसके शहर का था। राजीव के कमजोर शरीर के कारण जमील के दिल में उसके लिये सहानुभूति थी। अजब-गजब रंग जिन्दगी के चलते रहे। कभी राजीव की नाइट शिफ्ट तो कभी जमील की नाइट शिफ्ट और उन सबके बीच पिसती रही हलीमा।
एक औरत को वो कमरा कभी अकेले नसीब न हुआ, इस महानगर में, जबकि नारीवादियों ने शी-टाइम का एक बहुत बड़ा अभियान छेड़ रखा था। कमरा साझा था, दुख साझा था, रोटियां साझी थीं बस साझे नहीं थे तो उनके सपने। इसी बीच जमील ने पिजाहट वाली नौकरी छोड़ दी। उसे जुहू के एक होटल में दूसरी अच्छी नौकरी मिल गयी थी। जमील को एक स्टाफ क्वार्टर भी मिल गया था जो बम्बई की इस कहावत को चरितार्थ कर रहा था कि ‘‘बम्बई में भगवान का मिलना आसान है, मकान का मिलना मुश्किल है। अपने नये रोजगार पर जमील ने हलीमा को अपनी ब्याहता पत्नी बताया था सो वो अब रहने के लिये जुहू जाने वाला था।
जमील मुसलमान था और राजीव हिन्दू, वरना वहां भी राजीव को वो अपना भाई बनाकर घर में रख लेता, मगर जमील को राजीव के रहने की बड़ी फिक्र थी। इसी फिक्रमंदी और तलाश के दौरान जमील की मुलाकात शेखर से हुई जो घर से तुनककर भाग आया था और वो भी नानपारा से था। शेखर अब इस शहर में प्राइवेट टीचिंग और कोचिंग से अपना गुजारा कर रहा था। वो एक बेहतरीन बांसुरीवादक था मगर महानगर के शोर में उसकी बांसुरी कहीं दब गयी थी। कभी जिन्दगी ने मोहलत दी और पैरों के तले जमील आयी तो वो भी दुबारे बांसुरी की धुनें इस शहर को सुनायेगा और भी पैसे लेकर। जमील उसका पुराना परिचित था मगर ये परिचय फिर से नया हो गया था। शेखर भी इधर-उधर टहलकर दिन काट रहा था। जमील ने शेखर को खोली खोजने, एग्रीमेन्ट बनाने और धनी से मोलभाव करने में खासी मदद की खुद एग्रीमेन्ट में गवाही भी बना।
शेखर जमील की इस मदद का थोड़ा मुरीद था। जुहू शिफ्ट होने से पहले जमील ने शेखर को ये प्रस्ताव दिया और इल्तजा भी की कि वो संजीव को अपनी खोली में रख ले। जमील ने राजीव को संजीव बनाकर ही मिलवाया था शेखर से ताकि कल को कोई शक-सुबहा की नौबत न आये। शेखर भी जरूरतमन्द था उसने संजीव को अपनी खोली में पनाह दे दी। राजीव अब पूरी तरह से संजीव था। जब भी संजीव को लगता उसकी जिन्दगी पटरी पर लौट आई है तभी कोई न कोई बखेड़ा खड़ा हो जाता था। जमील ने नौकरी क्या छोड़ी उस पिजाहट में उसका इकबाल भी जाता रहा था। जब तक जमील था तब तक लघुकाय संजीव से कोई विशेष मेहनत वाला काम मैनेजर नहीं लेता था। मगर जमील के जाते ही सबके तेवर बदल गये। गालिबन अब भी वो हाउसकीपिंग में ही था। मगर नये मैनेजर को लगता था कि उसके जैसे लघुकाय व्यक्ति को सामने देखकर ग्राहकों के मन में खिन्नता पैदा होती है कि कम्पनी के पास चमचमाते चेहरे और अच्छे डील-डौल के व्यक्ति नहीं हैं क्या। फिर अंग्रेजी भाषा का अपना रूआब था। अंग्रेजी न बोल पाने वालों को मुख्य काउंटर से हटा दिया गया जिनमें संजीव भी था।
मजे की बात ये थी कि रिक्शेवाला, खोमचेवाला भी बीस रूपये में ही पिजाहट में जा सकता था मगर उसके सेवक अंग्रेजीदार हों। संजीव की ड्यूटी वाशरूम में लगा दी गयी। वाश रूम एक बहुत छोटी सी जगह जिसमें बमुश्किल सात-आठ लोग एक वक्त में रह सकते थे। जिसमें तीन यूरिनल थे दो वाश बेसिन थे और चार शौचालय कक्ष थे -दो महिला, दो पुरूष। मगर वाश रूम सबका कामन ही था एक बड़ा सा आइना भी था जिसमें। लोग आते कपड़े बदलते, बनाव-श्रंगार करते कुछ चूमा-चाटी का भी प्रयास करते है।
संजीव की ड्यूटी अब वहीं थी। लोग वाशरूम में गंदगी न करें इसलिये हाउसकीपिंग का एक बन्दा उनको सब बताता-समझाता रहता। संजीव अब रूम फ्रेशनर, हैंडवाश, टायलेट क्लीनर का रखवाला था। शौचालय के बाहर इंतजार कर रहे और कोने के दो महिला शौचालय की तरफ कोई जाने की कोशिश करता तो संजीव उसको टोकता ‘‘समबडी इज इनसाइड’’ यही बताना उसका काम था।
पिजाहट में वाशरूम ही एक ऐसी जगह थी जहां सी0सी0टी0वी0 कैमरे की पहुँच न थी। पिजाहट आने वाली अधिकांश महिलायें वाशरूम का प्रयोग करती। अपना मेकअप दुरूस्त करतीं, पुरूष जाते तो खुद को सजाते-संवारते और अगर महिला-पुरूष इकट्ठे जाते तो प्रेमालाप करते। बेशिन पर लोग इधर-उधर थूक या उल्टी कर जाते तो संजीव उन्हें साफ करता। शौचालयों की टोटी खुली रह जाती तो उन्हें बन्द करता। तमाम महिलायें अपने अतिरिक्त कपडे़, पर्स और दूसरे सामान शौचालय जाने से पहले संजीव को तका कर जातीं तो संजीव उनको पकडे़ खड़ा रहता, बड़ी हसरत से उन जनाना सामानों को निहारता, सहलाता। कुछ महिलायें कमोड में सेनेटरी पैड फेंक जाती जिससे कमोड चोक हो जाता संजीव स्वीपर की मदद से उसको साफ करवाता। सभी जरूरतमंदों को साबुन, टायलेट क्लीनर, रूम फे्रशनर उपलब्ध करवाता और फिर उन्हें करीने से सजाकर रखता। खडे़-खडे़ उसकी टांगे दुखने लगती थीं। पिजाहट में उसे खुद कुछ भी खाने-पीने की छूट न थी, मगर पेट की आग तो बुतानी ही थी। पिज्जा बेचो, पर पिज्जा मुफ्त में खा नहीं सकते। सिर्फ दो बर्गर दोपहर को खाने को मिलते थे। नथुनों से लेकर फेफड़ों तक पूरे शरीर में शौचालय की बू भरी रहती थी। टायलेट क्लीनर से रूम फ्रेशनर और दूसरो की जिस्मानी इल्लत झेलने का एहसास। ब्राह्मण विद्या से जाये तो क्या-क्या दुख न पाये। स्नान-ध्यान, तन-मन की शुद्धता पूजा-पाठ और दुराचारियों से दूर रहने की ताकीद सुनते उसका बचपन बीता था, अब उतनी ही तन-मन की बू में डूबा उसका आज था। खाना खाने बैठता तो थूक, खंखार और उल्टी याद आती। ये याद आते ही खाने से उसका मन खिन्न हो जाता था। खाना खाते-खाते अचानक उसका मन घिन्ना जाता तो वो खाना छोड़ देता था शेखर उसे इस खाने की बर्वादी पर बहुत भला-बुरा कहता था। दोनों का दुख साझा था मगर धीरे-धीरे दुख घट भी रहा था। मगर संजीव की जिन्दगी इतनी आसान कहां रहने वाली थी, तभी आया पैनकार्ड का लफड़ा।
पिजाहट का निर्देश, पैनकार्ड के बिना सभी भुगतान रोक दिये जायेंगे। इसके पीछे भी इस अति आधुनिक शहर में जातिगत कुंठा थी। पिजाहट के ब्रांच मैंनेजर विवेक कायसे जो कि दलित था उस तक संजीव-राजीव वाली बात किसी ने चुंगली की थी। विवेक कायसे ने अपनी जातिगत कुंठा निकालने के लिये संजीव को शौचालय में लगाया था और फिर जब कानाफूंसी, शक-सुबहा की नौबत आयी तो इस लघुकाय ब्राहम्ण की वो नौकरी ले लेने पर आमादा था। इसका कारण ये था कि तमाम पर्व और त्योहारों पर पिजाहट के कर्मचारी विवेक कायसे के पैर छूते थे लेकिन संजीव ने अपनी जातिगत श्रेष्ठता के कारण मैनेजर के कभी पांव न छुये। उसे ये बात खटक गयी थी। अब जाति वाली सोंच दोनों तरफ काम कर रही थी। ये बात जब संजीव की समझ में आयी तो वो जान गया कि ये नौकरी अब न बचेगी क्योंकि संजीव के असली फोटो वाला पैनकार्ड तो नानपारा की ट्रांसपोर्ट कम्पनी में पहले से लगा हुआ था जब वो राजीव था संजीव नहीं। मुम्बई में अब उसके लिये शायद कुछ न बचा था। सिक्योरिटी एजेंसी में उसे लघुकाया के कारण नहीं रखा गया। कोरियर में उसे अंग्रेजी पढ़ न पाने के कारण और मराठी बोल न पाने के कारण नहीं रखा गया। बाकी सारी नौकरियां जी तोड़ शारीरिक मेहनत वाली थीं जो उसका शरीर देखकर ही उसको नहीं मिली थीं। पिजाहट की सत्रह रूपये घंटे वाली नौकरी भी महीने में उसे पांच हजार से ऊपर न कमवा पाती थी। फिर पैनकार्ड का अड़ंगा आया तो ये भी जाने वाली थी। तीन महीने तक तनख्वाह नहीं मिली तो संजीव ने फिर जमील की शरण ली।
जमील भी अब काफी हद तक बेबस था। उसने संजीव को नानपारा वापस लौट जाने की सलाह दी और तीन महीने की बकाया तनख्वाह दिला देने का आश्वासन दिया। जमील ने अपने पुराने संपर्कों के बलबूते संजीव को उसकी तनख्वाह दिला दी। कंपनी के अपने संगी-साथियों को उसने मां की बीमारी का हवाला दिया और चल दिया अपने वतन। ट्रेन तक उसे शेखर विदा करने आया था। बड़ी तेजी से स्टेशन पीछे छूटते जा रहे थे और बड़ी हसरत से वो सपनों की नगरी को निहार रहा था। वो चिंतामग्न था कि आगे क्या होगा मगर फिलहाल मुम्बई की रंगीनी को निहार रहा था क्योंकि आधी रात को मुम्बई झिलमिला रही थी।
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दिलीप कुमार