कविता आज और अभीः जनवरी-फरवरी 20


गीत नया तू गाना सीख
खुद से देखो उड़ के यार
एहसासों से जुड़ के यार
जैसे गूंगे स्वाद समझते,
कह ना पाते गुड के यार

कैसा है संयोग यहाँ
सुन्दर दिखते लोग यहाँ
जिसको पूछो वे कहते कि
मेरे तन में रोग यहाँ

मजबूरी का रोना क्या
अपना आपा खोना क्या
होना जो था हुआ आजतक,
और बाकी अब होना क्या

क्यों देते सौगात मुझे
लगता है आघात मुझे
रस्म निभाना अपनापन में,
लगे व्यर्थ की बात मुझे

गीत नया तू गाना सीख
कोई नहीं बहाना सीख
बहुत कीमती जीवन के पल,
हर पल खुशियाँ लाना सीख

इक दूजे को जाना है
दुनिया को पहचाना है
फिर भी प्रायः लोग कहे कि
सुमन बहुत अनजाना है
श्यामल सुमन

सोना हो चाहत अगर
सोना हो चाहत अगर, सोना हुआ मुहाल।
दोनो सोना कब मिले, पूछे सुमन सवाल।।

खर्च करोगे कुछ सुमन, घटे सदा परिमाण।
ज्ञान, प्रेम बढ़ते सदा, बाँटो, देख प्रमाण।।

अलग प्रेम से कुछ नहीं, प्रेम जगत आधार।
देख सुमन ये क्या हुआ, बना प्रेम बाजार।

प्रेम त्याग अपनत्व से, जीवन हो अभिराम।
बनने से पहले लगे, अब रिश्तों के दाम।।

जीवन के संघर्ष में, नहीं किसी से आस।
भीतर जितने प्रश्न हैं, उत्तर अपने पास।।

देखो नित मिलता सुमन, जीवन से सन्देश।
भला हुआ तो ठीक पर, नहीं किसी को क्लेश।।

दोनों कल के बीच में, फँसा हुआ है आज।
कारण बिल्कुल ये सुमन, रोता आज समाज।।
श्यामल सुमन

अंग और प्रत्यंग
क्या कुछ भिन्न थे मेरे?
व्यास का आनंद अपने चरम पर था
चित्र मेरा गढ रहे थे वह आँख मूँदे
श्लोक कितने ही गढे थे
सौंदर्य लिप्सा के
आदिपर्व – क्या श्री की स्तुति भर ही था!

पुरुष की इस लालसा को,
घोर आदिम वासना को
मैं समझती हूँ,
हज़ारों वर्ष से मैं,
स्त्री ही तो हूँ!

लो सुनो क्या व्यास कहते हैं‌ –
नयन मेरे मद भरे हैं, किसी भँवरे से
और पलके पुष्प की कलियाँ
केश ज्यों काली घटाएं हों
नील उत्पल सा खिला चेहरा
और होठों पर सुलगते पुष्प दाडिम के!

वक्ष कुछ उभरे हुए उत्तुंग
और जंघाएं स्फटिक सी
कटि सूक्ष्म किंतु भास्वित है
शब्द मानों शहद टपका हो
निशा में चंद्रमा से
मैं, श्यामवर्णी कामिनी हूँ
गंध जिसकी फैलती है दूर तक
उच्छवास कुछ महके हुए हैं
कवि व्यास की मैं द्रौपदी हूँ!

आश्चर्य है मुझको बहुत
देख कर यह चित्र मेरा!
क्या स्त्रियाँ बस
देह, रस और गंध भर ही हैं ?

इसी छवि के साथ
जीने के लिए अभिशप्त हूँ, मैं
याज्ञसेनी, हाँ द्रौपदी हूँ, मैं!
राजेश्वर वशिष्ठ

शांति

घर के बुजुर्ग की मौत हो चुकी है
वह जल चुका है मरघट में
घर पर रुदन चल रहा है
संबंधी-परिचित आ रहे हैं
रो रहे हैं, ढाँढस बंधा रहे हैं
कि होनी को कौन टाले?
बीड़ी फूँक रहे हैं, गुटखा थूक रहे हैं
भीतर औरतें रो रही हैं, मर्द आँगन में हैं
तमाम रस्में जारी हैं
मृत्युभोज के पत्र छप चुके हैं, बाँटे जा चुके हैं
आज मृत्युभोज है, लोग आ रहे हैं
खा रहे हैं, लौट रहे हैं
तेरह दिन खत्म
संतानों ने पंचायत बुला ली है
अब सही और आखिरी फैसला होकर रहेगा
देखते हैं कौन कितना ले पाता है,
ले जाता है
मृत की आत्मा को शांति मिले।
अमर परमार


” क्योंकि बदलाव बहुत जरूरी है ”

लिखना आसान
नहीं होता,
न ही होता है आसान कुछ भी कहना,
कुछ कहने या लिखने से पहले
झांको उन मनों में
बन गई है ज़िंदगी जिनकी बोझ
झांको उस ओर
जहां आदमी को ढो रहे हैं आदमी
झांको उन आंखों में
नज़र आएगा
होते हुए गर्भपात
रोज़ जन्मते सपनों का
देख सको तो इतिहास के साथ होते
बलात्कार की ओर भी देखो
क्यूंकि झांकना होगा
उन मनों में भी
छिपा है जिनमे
सदियों से दर्द और घुटन
घुट रहा है धुआं अभी भी जिनमें
जमीं है अभी भी बर्फ़
प्रतिशोध की
भाषणों से नहीं होने बाला है कुछ भी
क्योंकि अभी भी आबाजें भर रहीं हैं
कानों में गर्म लावा
शब्दों को बैसाखी बनाने से
बेहतर है कुछ करना
व्यवस्था को बदलना
क्योंकि
बदलाव बहुत जरूरी है
जरूरी है मन तक पहुंचना
वरना आवाजें बन जाएंगी हथियार
जन्मेगी क्रांति
इसलिए
दर्ज करना होगा
इतिहास में जल्द से जल्द
दर्द मजदूरों का
दर्ज करनी होगी
गवाही इतिहास की
क्योंकि जारी है अभी भी बलात्कार
अस्मिताओं का
और व्यवस्थाएं हैं अभी भी मौन
इसलिए कुछ भी
कहने या लिखने से बेहतर है
बदलना व्यवस्थाओं को
दर्ज करना चीखें
मजदूरों की
बेहतर होगा
उतरना सड़कों पर
बेहतर होगा
क्रांति की कहानियां सुनाने से
क्रांति करना
और चीर कर आकाश को
निकालना नई सुबह
समय रहते
उखाड़ फेंकना नपुंसक व्यवस्था को
करना ही होगा कुछ न कुछ
क्योंकि लिखने या कहने से
ज्यादा जरूरी है
कुछ करना,
क्योंकि
जरूरत है नई इबारत की
और गढ़ने की नई सुबह की
हो रही है सुगबुगाहट परिवर्तन की
शायद
यही है सही समय
सही लिखने का,
सही कहने का,
और सुनने का आहटें परिवर्तन की
क्योंकि
बदलाव बहुत जरूरी है।

पंकज मिश्र ‘अटल ‘

क्रांति
कलम यह थकती नहीं
अब थमती या कांपती भी नहीं
बस एक भ्रम में जीती
यंत्रवत् लिखती जा रही है
महसूस करने का तो सवाल ही नहीं
क्योंकि स्याही किसी और की
कागज भी किसी और का
और विचार भी किसी और के ही
जिन्होंने पैसे दिए
जिनका नाम छपा, इनाम जीते
शोर बहुत है यहाँ चारो-तरफ
सब यंत्रवत् होता जा रहा है
दिखावा और असलियत का फर्क
दिन-प्रतिदिन कमतर से कम,
फूल माला तालियाँ
वाहवाही और सहानुभूति
सब खरीदी जा सकती हैं अब
वही बुद्धिमान हैं, विचारवान हैं
हाथ में पकड़ी किराए की टट्टू
कलम का काम
सोचना और समझना नहीं…
-शैल अग्रवाल

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