ठंड से जमे-थमे खेत-मैदान और सूखे नंगे पेड़ ….जिनपर फुदकती इक्की दुक्की चिड़िया शिकार की आस में निरर्थक चोंच मारती, उदास…बेहद उदास। पर नजरिया बदलें तो अंधेरी काली रातों और कुहासे भरे इन दिनों में टूटता-झरता पतझर ( विशेषतः यूरोप में) बेहद अनूठा और खूबसूरत मौसम है, आने वाले बसंत का उद्घोषक । नव सृजन की योजना और तैयारी की ऋतु है यह।
शिशिर का संबंध प्रायः अंधेरे और अवसाद से है …इससे उत्पन्न ठिठुरन और मायूसी से है । प्रायः प्रकृति में वृद्धावस्था का पर्याय माना गया है यह, जब परिदृश्य झरते पत्तों और ठूँठ का ही है। अंत और विदा लेते समय चक्र का है। पर हम मौत नहीं, नवजीवन की बात करेंगे नए वर्ष के इस नए अंक में। कैसे जीवन सभी के लिए और सुखद हो पाए , इस धरती पर यही प्रयत्न रहेगा।
अपनी ही एक कविता की पंक्तियों में कहूँ तो डूबते सूरज में भी उगते सूरज का सपना देखेंगे,
“डूबते सूरज की आंखों में देखा, उगते सूरज का सपना
अंधेरा जो आंखों में घिर आया, तोड़ेगा अब कोई अपना ”
कोहरा, अँधेरा और हड्डी कंपकंपाती ठंड तो कहीं बुश फायर, सैकड़ों का बेघर हो जाना , हजारों पक्षी और कई इन्सानों का इस जंगल-जंगल फैली अग्नि में प्राण आहुति दे देना….सारे विकास और सुख-सुविधाओं के बाद भी आज भी जीवन इतना आसान नहीं, पर जिजीषा से भरे जुझारू मानव ने कभी हार नहीं मानी। विकास के , संचार के , संरक्षण के, मनोरंजन के नए-नए तरीके वह खोजता ही रहता है , निरंतर प्रयत्नशील रहता है बेहतर सुविधाएं और बेहतर व खुशहाल जिन्दगी की खोज में। और इन चारों ही गुणों को संजोए, हमारी दुनिया की भौतिक दूरियों को न्यूनतम करता, विज्ञान और मनोरंजन का मिला जुला रूप है यह आभासी दुनिया। इसके फायदे और संभवनाएं अपरिमित हैं और हर अच्छी व समर्थ चीज की तरह विध्वंस करने की शक्ति भी। यह उपभोक्ता पर ही पूर्णतः निर्भर करता है कि वह कैसे इसका प्रयोग करता है। आश्चर्य नहीं जहाँ भी नियंत्रण या उपद्रवी समूह के विच्छेद का मसला आता है इंटरनेट को काट दिया जाता है। कोई भी चीज अच्छी या बुरी नहीं, उद्देश्य. परिस्थियाँ या फिर उनका कैसे और क्यों इस्तेमाल किया गया ही- अच्छा या बुरा बनाता है।
हर परिवर्तन बुरा नहीं होता और ना ही हर नई सोच या क्रांति ही।
प्रकृति का तो नियम ही परिवर्तन है और इसी परिवर्तन की नेयमतें हैं ये बदलती ऋतुएँ, जिनके सहारे हम फल-फूल और जी पाते हैं। फिर हमारा समाज समयानुकूल, जरूरतों के हिसाब से परिवर्तन को क्यों नहीं अपना पाता। क्यों कभी नाक तो कभी जांघें बीच में आ जाती हैं…क्यों आज भी हम वहीं अटके पड़े हैं। आशाराम जैसे ठोंगी शिक्षक नहीं। वासना और विलासिता या उसी सोने के खजानों के दुश्चक्री स्वप्न भी तो एक प्रकार का दुस्वप्न ही। और दुख की बात है कि हमारी आभासी दुनिया भरी पड़ी है ऐसी लचर सामग्री से। और कई मन्दबुद्धि व व्यभिचारी इसे ही मनोरंजन समझ दिनरात डूबे ही रहते हैं इस मायाजाल में।
जब-जब निर्झर आंसूओं में डूबी प्रकृति अपनी नग्नता पर रोती है, सवाल खड़े करती है, पेडों से गिरते कई-कई रंगों के सूखे पत्ते धरती को रंग-बिरंगे परिधान पहना देते हैं और सवाल वैसे ही, वहीं पर दबे रह जाते हैं, पत्तों से दबे- बिखरे । और यही है मानव की भी, शायद सबसे बड़ी कमजोरी भी और ताकत भी…काल्पनिक स्वर्ग या संपूर्णता की निरंतर और अथक तलाश, जबकि पूर्ण या दोषरहित कुछ भी नहीं। ..सवाल जिनके जवाब हर जाती ऋतु आने वाले बसंत से पूछती है , सवाल जो दुख देते हैं हमेशा क्योंकि संतुलित जवाव ढूँढ पाना कभी आसान नहीं। जीवनदायी सूरज में भी प्रचंड ताप होता है। हमें अच्छे के साथ रहना है तो अच्छे बुरे का विवेक व चयन फिर उसका प्रयोग खुद हमारी अपनी जिम्मेदारी है। व्यर्थ के स्वप्न और प्रचार की दुंदुभियों और मकड़जाल से कैसे बचना है यह हमें सीखना ही होगा।
एक तरफ नेह और विश्वास की असीम नहीं..तो दूसरी तरफ मर्यादा लांघती लिप्सा, विद्रोही युवा, या फिर परिस्थितियों को बदलने का बीड़ा उठाए दलित और शोषित, या फिर अपने ढेर सारे तर्क-वितर्कों के बाद भी एक पैर घर की देहलीज के अंदर तो दूसरा बाहर रखे , भ्रमित पर उतनी ही विवश आधुनिक नारी…एडम की पसली से, उसके साथ और मनोरंजन के लिए निर्मित विश्व की आधी आबादी , जिसे ‘वीकर सेक्स’ कहकर आज भी संबोधित किया जाता है, पर जो वह मानने को तैयार ही नहीं।
हम सभॉ वहीं के वहीं तो खड़े हैं, उन्ही भ्रम और व्यवस्थाओं में !
माना कि सदियों से कमजोर वर्ग खिलौना रहा है और सारे विकास और भांति-भांति की उपलब्धियों के बाद भी, हर बेरहम थपेड़े को स्वीकारना, सहना और जूझते-जूझते हार जाना, संघर्ष का आधा-अधूरा रहते, बीच में ही मिट जाना , यही नियति रही है उसकी, पर जागरूकता की हवा यूँ ही बहती रही तो इनकी नैया भी किनारों से अधिक दूर नहीं। माना अंधेरा चारो तरफ है और इसकी काली परछांई हर कोने पर हर चेहरे को काला करती दिख रही है। दुष्यंत कुमार के शब्दों में कहूँ तो कैसे भी पर अब ‘ हालात बदलने चाहिएँ।’ बस हम सबको…संपन्न, विपन्न, कमजोर, ताकतवर अपने-अपने गिरेबान में झांकने की जरूरत है, ईमानदारी से जिम्मेदारियाँ निभाने की जरूरत है। खुदको, अपने घर को संभालेंगे तो दुनिया भी अवश्य ही संभल जाएगी।
वजह क्या है, हमारे अवसाद और कुंठाओं की?. क्या हर व्यवस्था जो है, वही सही है…या जो हम चाहते हैं, वह?…क्या नियति को स्वीकारना ही जीवन है…मूल्यों का यह टकराव और सामंजस्य की बेड़ियां… कहां तक और किस हद तक सही हैं, एक संतुलित और सभ्य समाज के लिए…विशेषतः तब जब आदमी की खाल में भी हम जानवरों से भिन्न नहीं आज भी ?
सच्चाई तो यह है कि जीवन की यह उहापोह भी उतनी ही शाश्वत है जितना कि जीवन खुद ।
हम पुरुष व प्रकृति की इस अद्भुत रंगभूमि के दो स्थाई पात्र हैं और हमारे समिश्रण …क्रिया-प्रतिक्रियाओं का, मन्तव्यों का बड़ा हाथ रहता है इन परिवर्तनों में ! और निष्पक्ष होकर देखा जाए तो संरक्षण के साथ स्वतंत्रता की मांग खुद में ही एक विरोधाभास है। बेमतलब की चुनौतियाँ व आक्रमण क्लेश और दुख के ही कारण बनेंगे। सामंजस्य और संतुलन तो सभी को ढूँढना ही पड़ेगा…सशक्त को भी और निर्बल को भी। तभी शांति और सुख से भरा समाज संभव है। न सिर्फ कलम असे ला सकती है और ना ही तलवार भी…
माना अंधेरा है चारो तरफ और इसकी काली परछांई हर कोने पर हर चेहरे को काला करती दिख रही है, परन्तु विश्वास नहीं टूटता, ना ही भरोसा इस जीवन में, मानवता में। दुष्यंत कुमार के शब्दों में कहूँ तो कैसे भी पर अब ‘ हालात बदलने चाहिएँ। नहीं, यह अंत नहीं। अंधेरी रात से ही तो सुबह का जन्म होता है। बात चाहे कैसे भी वहशीपन की हो…अनियंत्रित गुस्से की या औनर किलिंग की, या फिर मात्र आधिपत्य और खिलवाड़ की…सिर्फ बहकने की ही क्यों नहीं, अब जब बात सजाओं तक आ पहुँची है तो हालात भी अवश्य ही बदलेंगे, कुछ तो सुधार होगा ही और इस दिशा में हुए हर छोटे-से छोटे कदम को भी सामाजिक स्वीकृति व प्रचार मिलना ही चाहिए।
शीत के बाद बसंत और बसंत के बाद फिर वही ग्रीष्म बरखा शरद शिशिर हेमंत और फिर से बसंत, चक्र चलता रहता है और पहिए के नीचे मिटती, संवरती प्रकृति, फिर-फिरके संवरती- बिगड़ती रहती है। पर प्रकृति में सदा इस बदलाव का एक अर्थ और मकसद है । निरर्थक कुछ भी नहीं। प्रकृति जरूरत के हिसाब से सामंजस्य करती है। पुराने को काटती-छांटती रहती है। थमे हुए तो हवा और पानी तक बदबू करने लगते हैं। फिर हमारे इस पुरुषवादी और सामंती समाज में बदलाव के प्रति इतना विरोध, भय और हिचकिचाहट क्यों?
लेखनी का यह अंक समर्पित है मानव के इस अनूठे स्वप्न और विवेक की छलांग को, भ्रम और यथार्थ के बीच लटके खूबसूरत इंद्रजाल को। शिशिर की उस ठिरन भरी कंपन और जिजीषा को, जमी-थमी ताजगी और सुप्त हलचल को, जिसकी लगन और समझ के बिना बसंत के सपने असंभव ही नहीं, बेमानी हैं।
लेखनी इस अंक के साथ 13 वर्ष और 125 अंक पूरे कर चुकी है।। आभार से छलकती आँखों के साथ आप सभी प्रिय कवि और लेखक मित्र व सुधी पाठकों को धन्यवाद देना चाहती हूँ निरंतर के सहयोग व स्नेह के लिए। लगातार लिखते, पढ़ते और सोचते रहने के लिए एक रोचक वजह देने के लिए। सकारात्मक सृजन की तरफ प्रेरित करने के लिए और इन सबसे बढ़कर एक सहृदय व संवेदनशील बृहद लेखनी परिवार के लिए। आप हैं तो लेखनी और लेखनी पत्रिका है वरना यह क्षुद्र लेखनी कुछ भी नहीं।
जीते-जी तो लेखनी की यह स्याही ना सूखे इसी प्रार्थना के साथ मिलते हैं लेखनी के मार्च और अप्रैल अंक में, जो कि लेखनी के चौदहवें वर्ष का प्रवेशांक है। लेखनी के अभी तक के अंकों में से कुछ चयनित रचनाओं और कवि व लेखकों से,लेखनी के सर्वोत्कृष्ट से हम आपको रूबरू करवाएंगे। अच्छे साक्षात्कारों के साथ-साथ – इस विशेष अंक के लिए आपकी सद्भावनाओं और विचारों का भी हमें इंतजार रहेगा। भेजने की अंतिम तिथि इस बार 4 फरवरी है।
आपका हर सपना, हर संकल्प इस 2020 में पूर्ण हो , शुभकामनाओं के साथ.
शैल अग्रवाल
Editor @ lekhni.net