प्रवास सेः शैल अग्रवाल


नत मस्तक
फिर आऊंगा मैं भी घर
फिलहाल जहाँ भी हूँ जैसे भी
खुश हूँ, मत करना माँ तुम
आंसुओं से गीला अपना आंचल
जब भी मैंने वह तारा देखा
माना याद तेरी बहुत सताती है
पर मैंने भी तो माँ खुश रहने की
तेरी ही कसम यह खा ली है
पीर नहीं संबल हैं यादें
मेरे इस एकाकी पथ की
मत करना माँ तुम अब
आंसुओं से गीला कभी आंचल
गर्व से रहे उन्नत तव मस्तक
और अंतस के पट खुले रहें
विहसूंगा, खेलूंगा सदा वहीं
तेरे ही दर पर होकर मगन
मत करना माँ पर याद में मेरी
आंसुओं से गीला अपना आंचल
वजह चाहे जो हो… छोड़कर आए हों या फिर हमसे छूट गया हो, सच्चाई यह है कि आज हम देश से दूर हैं। शकल सूरत आदतें और मन कुछ भी कहें भारतीय नहीं, भारतवंशी हैं। प्रवासी है। फिर यह प्रवासी दिवस और हिन्दी दिवस कैसे मनाएँ… अपनी सफलता पर खुश होकर या फिर बिछुड़े को याद करके य़ा फिर कुछ ऐसे संकल्प लेकर कि यह कड़ी और मजबूत हो, एक दूसरे से जुड़े रहें, काम आ सकें, दूरी का अहसास कम हो! जरूरी हो जाता है जड़ें मजबूत करने के लिए , आपस में और आने वाली पीढ़ियों में तालमेल व तारतम्य बनाए रखने के लिए भाषा और संस्कृति को बचाए रखना, आपस में मिलते-जुलते रहना। इस दृष्टि से देखें तो प्रवास तो शब्द में ही बिछुड़ने और दूरी का दर्द है, नए से जुड़ने के सामंजस्य और संघर्ष का अहसास है। हर देश, हर जाति में एक कष्टमय इतिहास और संदर्भ रहा है प्रवास और प्रवासियों का, फिर भी प्रवास होता रहा है, जरूरतों के लिए, संरक्षण के लिए बेहतरी के लिए। मनुष्यों में ही नहीं, पशुपक्षियोंतक में परिस्थितियों से उत्पन्न समझौते व सामंजस्य ही इस संरक्षण प्रक्रिया की पहली शर्त रही है। इस अकेलेपन को दूर करना , प्रवास में भी जड़ों से जुड़े रहना, एक प्रवासी के जीवन की सबसे बड़ी चुनौती है आज भी।
माना विछोह और भटकन कम नहीं दुखती यादों से मन को भर आने के लिए..पर यही तो एक खास वजह है इस प्रवासी दिवस के उत्सव की भी और यह वजह कम नहीं एक प्रवासी मन को नेह और गौरव से भर जाने के लिए। अपने देश ने याद किया है हमें । भूला नहीं है हमें। उसके काम आ सकते हैं हम। जुड़े रहने की मांग की है। पर जननी और जन्मभूमि से कैसी जुड़े रहने की मांग… यह लगाव तो गर्भनाल कटने के बाद भी, मरने तक बना रहता है। नतमस्तक हूँ ईश्वर के आगे कि वह इस भरोसे और अपेक्षा के लायक बनाए रखे। दोनों संस्कृतियों में जो नवनीत सा उन्नत है, यदि चखने का मौका दिया है तो पचाने की भी सामर्थ दे। कुछ ऐसा कर पाएँ हम कि दूसरों को ही नहीं, खुद हमें भी अपने मानव होने पर गर्व हो। आज जब भौतिक और मानसिक सीमाएं मिटती जा रही हैं , वाकई में वसुधैव कुटुम्बकम का जमाना है तो किसी भी रूप में मानवता के काम आ सकें, थोडा सा भी वक्त और सेवाएं दे सके… यह भी एक बड़ी और संतोषजनक उपलब्धि होगी।
भारत के प्रधान मंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी ने जहाँ विदेशों की तरफ सकारात्मक और सहयोग भरा हाथ बढ़ाया है वहीं उनके भारत आने और भारत से जुड़ने के आवाहन ने भारतवंशियों को भी भारत के प्रति एक सकारात्मक उर्जा से भर दिया है। और यह न सिर्फ प्रवासियों के लिए अपितु भारत के लिए भी शुभ संकेत हैं।
नौ जनवरी 1915 में साउथ अफ्रीका से लौटे बापू का अनुसरण करने की हममें क्षमता और दृढ़ता हो या न हो परन्तु उन संकल्पों को दोहराते हुए जड़ों से जुड़े रहने के एक ईमानदार प्रयास का .जजबा और हौसला है, जुड़ने की चाह है, यह भी कम संतोष की बात नहीं … वैसे भी आज समय की मांग बदल चुकी हैं। जरूरतें भी। वक्त के पुल के नीचे से एक पूरी सदी गुजर चुकी है। जमाना आज अनुसरण का नहीं अन्वेषण का है। बागडोर हिम्मत के साथ हाथ में लेने का है। समय की मांग को पहचानना और अपनाना है हमें। बहुत कुछ सीख और सिखा सकते हैं हम एक दूसरे को और वह भी झूठ के सिंहासन पर बैठकर नहीं, यथार्थ की कड़ी धूप में सबके सामने जैसा है वैसा ही रखकर।
समय और नदी दोनों की ही फिदरत है कि पीछे छूटे किनारों तक नहीं लौटतीं। दोनों ही गतिमान हैं और परिवर्तन शील भी । धार माना वही है कललकल बहती, कल आज और कल के किनारों के बीच निरंतर चलती परन्तु पीछे नहीं, सिर्फ आगे ही जाती है यह।…जो छूटा सो छूटा। बस यादों में ही साथ वरना अतीत की गर्त में डूब गया। जीवन भी तो कुछ ऐसा ही है। और यहीं शुरु होती है क्या बचाएँ और किसे भूल जाएँ, की जद्दो-जहद। भाषा को बचाना पहली शर्त है क्योंकि यह संस्कृति और धरोहर ही नहीं, अपने पन की भी संवाहिका है। और अतीत का वह पन्ना…वह इतिहास; किसने धोखा दिया, किसने राज किया, किसने जुल्म सहे…सब भूलने में ही भलाई है देश की भी और हमारी भी। नया नारा आज ‘भारत छोड़ो’ का नहीं,’ भारत जोड़ो’ का है। भारत आओ अन्वेषी की तरह, निवेषक की तरह, सलाहकार की तरह, मित्र की तरह, पर्यटक की तरह, भारत वंशी की तरह। और हमें जाना भी चाहिए, जो अपनी सेवाएं और समय दे सकते हैं, योग्यता और क्षमता अनुसार देनी चाहिएँ। इतना तो कर्ज बनता ही है हम पर पूर्वजों का, मातृभूमि का।…

अंत में विदेशों में बढ़ रही अपनी अगली और दूसरी पीढ़ी को समर्पित एक इच्छा, एक आवाहन…एक मनोहारी सपना…भारत और ब्रिटेन दोनों ही देशों से एक वादा … एक समर्पित और साझे प्रयास की प्रार्थना… क्योंकि कल जब हम नहीं होंगे, यह कड़ी इन्हें ही मजबूत रखनी है, जोड़े रखनी है…संभवतः इसी अटूट निष्ठा, सच्चाई और समर्पण के साथ…खुद को और अपनी जड़ों को जानो और पहचानो…कम-से-कम प्रयास तो करो। भाषा और संस्कारों के इस पुल को, इस अपनेपन को टूटने मत दो। जड़ों से कटकर कोई वृक्ष पल्लवित नहीं होता, फलफूल नहीं सकता ।


शैल अग्रवाल

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