पहली बार गोवा और मुंबई भारत से मिलने नहीं , एक पर्यटक की तरह पहुंची; वैसे ही जैसे ग्रीस या स्पेन या फिर अन्य किसी यूरोपियन देश घूमने जाते हैं और इमारतों को , प्रकृति को देखकर लौट आते हैं। न किसी अपने से मिलने का इंतजार और ना ही किसी को अपना ही। अच्छा तो लग रहा था परन्तु अनियंत्रित नेह जल में भीगे मन में न तो बेवजह तितलियाँ ही फड़फड़ा रही थीं और ना ही जहाज के जमीन छूते ही रोंगटे ही पुलक-पुलककर उस बेताबी से खड़े ही हो पा रहे थे! फिर भी भारत तो भारत…जाने क्या था उस हवा में, उन चेहरों में, उस चिरपरिचित भाषा की ध्वनिओ में कि उतना वीतराग रह पाना संभव ही नहीं हुआ…हजार डरावनी कहानियों और चेतावनियों के बाद भी नहीं।
जब कोई अपना नहीं होता तो सब अपने हो जाते हैं बिल्कुल उस निर्गुण भगवान की तरह ही, जो दिखे या न दिखे कण-कण में व्याप्त है…विशेषतः ऐसी जगहों पर और परिस्थितियों में जिनसे भावात्मक लगाव हो या जिन्हें हम अपना मानते हों। एकबार फिर भारत की धरती पर पैर रखते ही मन फिर उसी अपनत्व से निहार रहा था कण-कण को। विकास , सफलता-असफलता के बारे में गुनन-मनन कर रहा था… सब कुछ ही पलट पलट के निरख-परख रहा था।
नई नई उठती इमारतों और सड़कों की दशा बता रही थी कि विकास है तो पर आम आदमी की क्या स्थिति है आज के भारत में …जानना भी जरूरी हो चला था… कितनी भागीदारी है उसकी इस ऩए भारत की खुशियाली में और अंतर्राष्ट्रीय निखरती छवि में? क्या विकास का अर्थ सिर्फ व्यापार और संचय है …नेतृत्व और ताकत है? कमजोर और निर्बलों के सपने और आंसुओं की इनमें कोई सुनवाई, कोई पहचान नहीं!
जिज्ञासा और जानकारी का पहला स्त्रोत वह टैक्सी ड्राइवर ही बना जो होटल की तरफ से इंगलैंड से आए सैलानियों को लेने आया था परन्तु वेषभूषा और भाषा में ही नहीं मन से भी पूर्णतः भारतीयों को पाकर आश्वस्त था और काफी हद तक खुल भी चुका था। अब हर छोटे से सवाल के भी बौरेबार विस्तृत जवाब थे उसके पास।
‘ झुंड के झुंड आते हैं जी ये विदेशी…विशेषतः सरदियों में। सस्ती शराब और ड्रग्स के लालच में। पैसा आ रहा है तो यहाँ भी सबकी आँखें बन्द ही हैं।‘
‘ तो क्या गोवा का आम नागरिक खुश नहीं, इस पर्यटन से?’
‘है भी और नहीं भी। ‘
‘ पैसा तो आ रहा है पर आम आदमी के लिए सबकुछ मंहगा होता जा रहा है। इतने पर्यटकों के घर और होटल बन रहे हैं कि जमीनों के दाम आसमान छूने लगे हैं। हम जैसे तो घर बनाने की सोच ही नहीं सकते अब यहाँ। जो पुर्तगाल जा सकता है , जाना चाहता है। वहाँ से तो फिर पूरा यूरोप खुला है उसके लिए। मेरी बेटी इंगलैंड में है। पढने में तेज थी तो आई. टी. सेक्टर में अच्छी जौब लगगई वहाँ पर। बुलाती है। जाऊंगा भी, पर पहले थोड़े पैसे जमा कर लूँ। ‘
यह सपनों के भारत का नया विवरण और रूप था मेरे लिए। यह कैसा विकासोन्मुख भारत है जहाँ आम आदमी को चैन नहीं और वह वहाँ बसने के नहीं बाहर निकलने के सपने देखता है।
हर आंख में एक सपना दिखा पर अतृप्त और आधा-अधूरा …डूबते को तिनके का सहारा जैसी ही आस थी वह।
आज जब कहीं किसीसे कुछ छुपा नहीं, हर आदमी वही वैभव और ऐशो आराम चाहता है जो विकसित देशों में है। स्वदेश और परदेश एक परिकथा एक आदर्शवादी शब्द बनता जा रहा है। अब तो जहाँ रोटी रोजी, वही स्वदेश …बात समझ में आ रही थी।
मुंबई जिसे माया नगरी भी कहते हैं-ने भी इसी बात की पुष्टि की। एक तरफ ताज महल जैसे पांच तारा होटलों का वैभव था, अथाह खाने पीने का सुख और व्यंजन थे चारो तरफ तो दूसरी तरफ ऐसे भी दिखे जो उन्ही मंहगे रेस्तोरैंत की झूठी प्लेटों से बचाने लायक बचा-बचाकर रख रहे थे, बहुत दीन अनाथ हैं कई, आराम से ले लेते हैं यह कह-कहकर।
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बिहार और ईस्टर्न यू.पी. से आए टैक्सी ड्राइवरों की भरमार है यहाँ पर। महाराष्ट्र में यह दूसरे प्रांतों से आए प्रवासी असंतोष का भी कारण हुए हैं। ये टैक्सी ड्राइवर अपने ही देश में उन्ही प्रवास की समस्याओं से जूझते दिखे जिनसे एक आम प्रवासी विदेश में जूझता है। टूटने और जड़ों से उखड़ने का दर्द और फिर वापस जड़ें जमाने की वही जुझारू जद्दो-जहद थी वहाँ भी।
‘ तेइस साल से टैक्सी चवा रहा हूँ पर अभी तक परिवार को नहीं बुला पाया हूँ। मैं ही चला जाता हूँ। साल में दो बार। ठंडा गरम जो भी मिला पेट भर लिया। यह भी कोई जीना है। बहुत कठिन समय देखा है मैंने दीदी।‘
( जाने कब वह मैडम से दीदी शब्द पर आ गया था , खुद मुझे भी पता नहीं चल पाया।)
‘वहीं खेती बाड़ी क्यों नहीं की? ‘
‘ कुछ नहीं बचता उसमें। कोई सुविधा नहीं, पानी बिजली किसी भी चीज की। जो थोड़ा बहुत बचता है पटवारी , अफसर वगैरह की चिरौरी में निकल जाता है। ऐसे में घर गांव छोड़कर बाहर निकलना ही पड़ता है हम जैसों को। ‘
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‘सच्चाई छुप नहीं सकती बनावट के उसूलों से कि खुशबू आ नहीं सकती कागज के फूलों से।‘ वह दूसरा टैक्सी ड्राइवर शायराना और दार्शनिक मिजाज़ का था।‘ तरक्की होगी जिनके लिए होगी। नोटबंदी ने हम जैसों को तो मार ही दिया है। जो काले धंधे करते थे बड़े चोर थे उनके पास आज भी सौ तरीके हैं काले को सफेद करने के। घुन की तरह पिसे छोटे और बिचौलिए । सारी घुमाई-फिराई मौज-मस्ती काले धन से ही तो होती थी, जो अब बहुत कम हो गई है क्योंकि पैसा ही नहीं है लोगों के पास फेंकने को। आप बाहर वालों की आंख में देश तरक्की कर रहा होगा पर हमारे जैसे तो कल भी आधा पेट ही खाते थे और आज भी वैसे ही सोते हैं। ‘
अब वह चुपचुप टैक्सी दौड़ा रहा था। बीच-बीच में यह मुकेश अम्बानी का घर है और यह लता मंगेशकर का। सलमान खान और शाहरूख खान भी यहीं रहते हैं, आदि कहकर एकाध इमारत की तरफ इशारा करके कुछ बता और यात्रा को रोचक रखते हुए संवाद जारी रख रहा था। शायद ऐसे ही लड़ता था वह अपनी भूख और नींद व थकान से।
रात के एक बज चुके थे, सात बजे से वह हमारे साथ था। पांच मिनट में आया कहकर गया और अपने लिए गरम खाना ले आया। पर हमारे उतरते ही नई सवारी बैठ चुकी थी टैक्सी में। पता नहीं खाने का वक्त कब मिलता होगा उसे।
जी.डी.पी. में वृद्धि, विदेशों में भारत की बझ़ती साख मन को गौरव से भर देती है पर अभी भी बहुत कुछ है जो मन में कसकता है…आम भारतवासी का जीवन कब खुशहाल होगा!सोचने पर मजबूर हूँ काश् हमारे नेता भी अपने-अपने हेलिकौप्टरों से उतरकर इन आम आदमियों के बीच भी घूमते, उनका दुखदर्द समझने की कोशिश करते, तो शायद अहसास होता कि अभी भी अपने इस देश में कहाँ कहाँ पर और कैसे कैसे व कितनी विकास की जरूरत है! मदद कहाँ और कितनी देश में भी मिलनी चाहिए। कहते हैं चैरिटी बिगिन्स एट होम… क्या रोटी, कपड़ा और मकान जैसी बेसिक जरूरतों के बिना भी देश का विकास संभव है… चन्द भरे पेटों को भूल जाएँ तो जबतक आलीशान इमारतों के अंधेरे सायों में झुग्गी-झोपड़ियाँ है …आधे-अधूरे सपनों की कब्रें और आहें हैं, देश में खुशियाली, एक दूर का भटका हुआ सपना ही है…माना विदेशों में भारत की इज्जत बढ़ी है पर देश तभी खुशहाल कहलाएगा जब सर्वांगणीय विकास होगा। आम आदमी खुश होगा और भारत से बाहर नहीं भारत में ही वह सब पा जाएगा जिसकी चाह उसे भटकाती है। लेखनी का यह अंक हमने ऐसे ही, भारत ही नहीं, विश्व और मानवता के सपनों और उनकी विकास-यात्रा को समर्पित किया है। इस नये अंक के साथ हम लेखनी परिवार में स्वागत कर रहे हैं दो कवि मित्र चंद्रकला त्रिपाठी और चिराग जैन का। आपकी प्रतिक्रियाओं का सदा की भांति हमें इंतजार रहेगा ताकि मार्गदर्शन होता रहे, सही गलत का अंदाज रहे।
फिलहाल अगले अंक तक विदा लेती हूँ। 12 वें वर्ष का आगामी विशेषांक पर्यटन पर संजोने का मन है। रचनाएँ भेजने की अंतिम तिथि है 1 मार्च। यात्रा विवरण और पर्यटन से जुड़ी रचनाओं का इंतजार रहेगा। वर्ष 2018 आपके जीवन में, परिवार में और आसपास सुख समद्धि और शांति लेकर आए, व्यर्थ के भय़ और चिन्ताओं से जन-जीवन व मानस को दूर रखे… पुनः पुनः सर्वे भवन्तु सुखिनः की अशेष शुभकामनाएँ।
शैल अग्रवाल