लेखनी संकलनः शताक्षी

बाबा!
मुझे उतनी दूर मत ब्याहना
जहाँ मुझसे मिलने जाने ख़ातिर
घर की बकरियाँ बेचनी पड़े तुम्हें

मत ब्याहना उस देश में
जहाँ आदमी से ज़्यादा
ईश्वर बसते हों

जंगल नदी पहाड़ नहीं हों जहाँ
वहाँ मत कर आना मेरा लगन

वहाँ तो कतई नहीं
जहाँ की सड़कों पर
मान से भी ज़्यादा तेज़ दौड़ती हों मोटर-गाडियाँ
ऊँचे-ऊँचे मकान
और दुकानें हों बड़ी-बड़ी

उस घर से मत जोड़ना मेरा रिश्ता
जिस घर में बड़ा-सा खुला आँगन न हो
मुर्गे की बाँग पर जहाँ होती ना हो सुबह
और शाम पिछवाडे़ से जहाँ
पहाडी़ पर डूबता सूरज ना दिखे ।

मत चुनना ऐसा वर
जो पोचाई[1] और हंडिया में
डूबा रहता हो अक्सर

काहिल निकम्मा हो
माहिर हो मेले से लड़कियाँ उड़ा ले जाने में
ऐसा वर मत चुनना मेरी ख़ातिर

कोई थारी लोटा तो नहीं
कि बाद में जब चाहूँगी बदल लूँगी
अच्छा-ख़राब होने पर

जो बात-बात में
बात करे लाठी-डंडे की
निकाले तीर-धनुष कुल्हाडी़
जब चाहे चला जाए बंगाल, आसाम, कश्मीर
ऐसा वर नहीं चाहिए मुझे
और उसके हाथ में मत देना मेरा हाथ
जिसके हाथों ने कभी कोई पेड़ नहीं लगाया
फसलें नहीं उगाई जिन हाथों ने
जिन हाथों ने नहीं दिया कभी किसी का साथ
किसी का बोझ नहीं उठाया

और तो और
जो हाथ लिखना नहीं जानता हो “ह” से हाथ
उसके हाथ में मत देना कभी मेरा हाथ

ब्याहना तो वहाँ ब्याहना
जहाँ सुबह जाकर
शाम को लौट सको पैदल

मैं कभी दुःख में रोऊँ इस घाट
तो उस घाट नदी में स्नान करते तुम
सुनकर आ सको मेरा करुण विलाप…..

महुआ का लट और
खजूर का गुड़ बनाकर भेज सकूँ सन्देश
तुम्हारी ख़ातिर
उधर से आते-जाते किसी के हाथ
भेज सकूँ कद्दू-कोहडा, खेखसा[2], बरबट्टी[3],
समय-समय पर गोगो के लिए भी

मेला हाट जाते-जाते
मिल सके कोई अपना जो
बता सके घर-गाँव का हाल-चाल
चितकबरी गैया के ब्याने की ख़बर
दे सके जो कोई उधर से गुजरते
ऐसी जगह में ब्याहना मुझे

उस देश ब्याहना
जहाँ ईश्वर कम आदमी ज़्यादा रहते हों
बकरी और शेर
एक घाट पर पानी पीते हों जहाँ
वहीं ब्याहना मुझे!

उसी के संग ब्याहना जो
कबूतर के जोड़ और पंडुक[4] पक्षी की तरह
रहे हरदम साथ
घर-बाहर खेतों में काम करने से लेकर
रात सुख-दुःख बाँटने तक

चुनना वर ऐसा
जो बजाता हों बाँसुरी सुरीली
और ढोल-मांदर बजाने में हो पारंगत

बसंत के दिनों में ला सके जो रोज़
मेरे जूड़े की ख़ातिर पलाश के फूल

जिससे खाया नहीं जाए
मेरे भूखे रहने पर
उसी से ब्याहना मुझे।
-निर्मला पुतुल

क्या हूँ मैं तुम्हारे लिए…?
एक तकिया
कि कहीं से थका-मांदा आया और सिर टिका दिया

कोई खूँटी
कि ऊब, उदासी थकान से भरी कमीज़ उतारकर टाँग दी

या आँगन में तनी अरगनी
कि कपड़े लाद दिए
घर
कि सुबह निकला और शाम लौट आया
कोई डायरी
कि जब चाहा कुछ न कुछ लिख दिया

या ख़ामोशी-भरी दीवार
कि जब चाहा वहाँ कील ठोक दी
कोई गेंद
कि जब तब जैसे चाहा उछाल दी
या कोई चादर
कि जब जहाँ जैसे तैसे ओढ-बिछा ली
क्यूँ ? कहो, क्या हूँ मैं तुम्हारे लिए ?

निर्मला पुतुल


दरिंदा

सूट के साथ का दुपट्टा
पटक दिया था उसने
एक किनारे मां ने जो यह कहकर दिया था उसे-

‘ दंरिंदा है जमाना
आगा पीछा ढका रहेगा
उलटी–सीधी नजर नहीं पड़ेगी ‘
‘ जरूरत नहीं पर मुझे इसकी ‘
बढ़े नाखूनों को फाइल करते
बताया था बेटी ने मां को अपनी बेखौफ ऊँची आवाज में-

‘ आँखें नोच लेनी सीख ली हैं मां मैने, और हाथ तोड़ने भी। ’

पर माँ तो माँ ठहरी
डरती ही रही,
पुलिया के नीचे अब भी
कभी तालाब और पोखर में
या फिर रेल की पटरी पर
नुची आँखों वाले दुष्ट नहीं.
लड़कियों के
नंगे नुचे जिस्मों की खबर से ही तो
पटा रहता है दैनिक अखबार
शैल अग्रवाल

गर्भपात

कोख का यह बच्चा मेरा
इसे आने दूं या नहीं
हक है मेरा, फैसला मेरा

किसी और का इससे
क्या लेना देना
आज और ना ही कल।

कुलदीपक के स्वागत में बजते
ढोल –तांसों की आवाजों को
हजारों फूल-से नम भावों को

मन में ही दफन कर
पति समेत सुना है सभी ने बेबस
हक जताती आधुनिक माँ को
और सहा है परिवार ने फिर से
एक और गर्भपात…।
शैल अग्रवाल


मा फलेषु कदाचन्

अब बच्चे नहीं, मां उनकी तरफ देखती है
जाने किस बात पर हो जाए घर में कलह
नाराज हो जाएँ सब
इतना भी दखल ठीक नहीं।

एक छत के नीचे
सबको समेटना
किसी और की नहीं
उसी की तो जिम्मेदारी है।

याद करती है फिर नम आंखों से
कैसे मां दादी से कहा जाता था
‘छोड़ो यह मोहमाया, अपना आगा सम्हालो
पूजा-पाठ में ध्यान लगाओ।‘

और बैठ जाती थीं वे
सुमरनी लेकर बहुओं के भरोसे
भाग्य की रेहमत पर…
सौंपकर चूड़ी कंगन, चाभी का गुच्छा
कभी भूखी-प्यासी तो कभी गहन उदासी।

स्वर्ग-नरक की चाह या
भय न होने पर भी
लो छोड़ दी उसने भी
सारी मोहमाया
चूल्हा-चौका और बर्तन

अपने पराए भूले बिसरे
सबसे दूर जा बैठी वह भी
करती जीवन के रहस्यों का
गुनन और मनन।

तकलीफ अब उसे नहीं,
औरों को ज्यादा है
घर में सबका
कभी माथा तो कभी
कूल्हा दुखता है।

उन आवाजों का क्या करे वह
कुरेदती हैं जो कानफोड़ू शोर के साथ
झनझनाती हैं दिन-रात
‘ऐसे तो नहीं चलता साझे का चूल्हा
मां को तो मानो मतलब ही नहीं।‘

खेत में जुते बूढ़े बैल सी
पुनः उठ खड़ी हुई है वह आज
आखिरी सांस तक काम करती
गीता के श्लोक उच्चारती

‘कर्मण्ये वाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन्….’

शैल अग्रवाल

बेटियाँ

बेटियाँ जब माँ बन जाती है
माँ के और करीब आ जाती हैं ।
अपने नाज नखरों से
घर को सिर पर उठाने वाली,
माँ के साथ चुपचाप
माँ का हाथ बँटाती हैं।
बेटियाँ जब माँ बन जाती हैं

माँ के बुलाने पर भी
अनसुनी कर देने वाली,
थकी हारी माँ के सिरहाने बैठ,
उनके सिर पर,
बडों की तरह हाथ फिराती हैं ।
बेटियाँ जब माँ बन जाती हैं ।

पापा के साथ-साथ
माँ को चिढाने वाली
पापा का गुणगान करने वाली,
अब माँ को हक की बातें बताती है ।
कभी तो आराम भी किया करो
दादी माँ के जैसे प्यार की डाँट लगाती है ।
बेटियाँ जब माँ बन जाती हैं।

हर छोटी बात पर ठुनकने वाली ,
तानों को भी चुपचाप पी ,
भूख-प्यास मिटा लेती हैं।
ससुराल में सब अच्छे हैं कहकर,
भरेमन से मुस्कुराकर गम छुपा लेती हैं,
सच में माँ की अम्मा-सी बन जाती हैं ,
बेटियाँ जब माँ बनती हैं
डॉ इन्दु

पता नहीं चलता

हम और तुम ,
दोनों जीना चाहते हैं जीवन भरपूर ,,
पर ,,,
अपनी जरूरतें को ,
परिवार की चाहतों को ,
उन सबके सपनों को,,
जो अपने हैं ,,,
सच करने की कोशिश में ,,
सुबह कब शाम में ढल,
रात के करीब ले आती है ,,,
पता नही चलता ।

थक-हारकर जब बिस्तर पर पडते हैं तो ,
आनेवाले दिन की आपाधापी में ,,
उसके क्रम को सहेजने में ,
कब आँख लग जाती है ,,,
पता नही चलता।

हर रात एक कसक,,
कहीं-ना-कहीं गहरायी चली जाती है ,,
रिश्तों की छाँव में,
तकरार और मनुहार में ,
बचपन के उस गाँव में ,
पचपन की इस ठाँव से
अलग क्या है ,,
पता नही चलता।

बहुत दिनों बाद
आज चुराए मैंने कुछ लम्हें,
फिर बैठी साथ अपने ,,
और बडे प्यार से पूछा ,
आखिर क्या है जो छूट गया है ,,
आखिर क्या है जो ,,
मिट गया है
,क्यूँ सबकुछ होकर भी,
खाली-खाली-सा है मन ,,,,
आखिर क्या है जो लुट गया है ?

याद आया ,,,,
बचपन में माँ का हरवक्त घर में होना ,
गरमागरम पराढे,
कभी पूरियों का तलना,
चाची का लाड,
दादी का दुलार,
बुआ का जब तब,
प्यार और मनुहार ,
जाड़े की दुपहरी में
फलों का अम्बार,
धूप में फैलाए पापड़,
और सूखता अचार,
गर्मी की छुट्टियों में,
रिश्तेदारों की भीड,
कभी नानी, कभी मासी की नई सीख।
मोहल्ले के दोस्त,
भाई बहनों की किर्केट टीम,
इनसबके के बीच
हसँते-हँसाते, बीतते सीन।

पैसों की होड़ में ,
रेस की दौड में ,,
जो छूटा है वो अपने हैं ,,
जो टूटा है वो सपने हैं ,
जो लुट गया, वो घर था कभी ,
जो मिट गए, वो रिश्ते है।
दोनों के कमाने की रेल-पेल में
घर ना जाने कब,
ईंट पत्थरों का शानदार मकान बन गया ,
जान ना हो जिसमें पर,
जानदार-सा सामान बन गया ।
रिश्तों को सहेजती कामायनी ,
मैडम बन गयी ,
घर बनाने की चाहत स॔जोए मनु ,
बस साहब और सर बन गया ,,
‘इन्दु’ साहब और सर बन गया ।

डॉ इन्दु

बनी रहूंगी तनी रहूंगी मैं
एक मुट्ठी की तरह
धनुष पर खिंचे बाण सी
समेट कर उंगलियाँ हथेली पर
दाब दोगे जमीन पर
तो भी अंकुरित होती रहूँगी
मेरी जड़ें काट कर
बोनसाई बनाने की
कोशिश करोगे जितनी
उतनी ही बढती रहूंगी मैं
बरगद की तरह
अपनी मुट्ठी की ताकत को
शस्त्र बना कर
उँगलियों को अस्त्र बना कर
रचूँगी एक नया इतिहास
मैं अबला नहीं -सबला हूँ
संतुलित रह कर
तराजू कांटे की तरह
अब नहीं झुका सकोगे तुम
कभी इधर कभी उधर
क्यूंकि अब मैं
जान गईं हूँ कि
ओस की बूँद की तरह नहीं
मेरा अस्तित्व
जो क्षण में समाप्त हो जाए !

-सरस्वती माथुर


पिता पति पुत्र
अगर तुम्हारा जन्म नारी के रूप मे हुआ है तो
बचपन में तुम पर
शासन करेंगे पिता
अगर तुम अपना बचपन बिता चुकी हो
नारी के रूप में
तो जवानी में तुम पर
राज करेगा पति
अगर जवानी की दहलीज़
पार कर चुकी होगी
तो बुढ़ापे में
रहोगी पुत्र के अधीन

जीवन-भर तुम पर
राज कर रहे हैं ये पुरुष
अब तुम बनो मनुष्य
क्योंकि वह किसी की नहीं मानता अधीनता –
वह अपने जन्म से ही
करता है अर्जित स्वाधीनता
तस्लीमा नसरीन, अनुवाद : शम्पा भट्टाचार्य

सतीत्व
काया कोई छुए तो हो जाऊंगी नष्ट

हृदय छूने पर नहीं ?
हृदय देह में बसा रहता है निरंतर

काया के सोपान को पार किए बिना
जो अंतर गेह में करता है प्रवेश
वह कोई और ही होगा
पर जानती हूँ
वो मनुष्य नहीं होगा

तस्लीमा नसरीन, अनुवाद : शम्पा भट्टाचार्य

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