क्या ज़रूरत है अभिव्यक्ति की, किसी भी कला की ही?
…याद आ रहा है अति व्यवहारिक और सफल ब्रिटिश नेता चर्चिल ने जो कहा था-‘ यदि ज़िन्दगी में ललित कलाएँ न रह जाएँ तो कुछ भी नहीं रह जाता।’
आदि मानव ने समझा था इसे , समझ के उस आदिकाल में ही। जो उपलब्ध था उसे ही रंग डाल …शिला और वृक्ष के तने, गुफा और कंदराएँ सभी को, पहँच के हर दायरे तक। …स्वान्तः सुखाय या फिर पर हिताय, पता नहीं था उसे तब। बस एक तीव्र इच्छा रही होगी रचने की, अभिव्यक्त करने क ख़ुद को, बाँटने और ख़ाली कर देने की।
और फिर एक सुख-समाधि में जा बैठा होगा, अपने इस इंद्रधनुषी संसार में विचरत हुआ।
वही क्यों, चमत्कृत तो लोग आज भी होते हैं इनसे, कुछ ऐसा ही तो है ललित कलाओं का यह औषधीय जादू। शारीरिक भूख-प्यास भले ही न मिटा पाएँ, पर आत्मा की तो मिटाती ही हैं!
क्या होना चाहिए पर उद्देश्य कला का, अक्सर ही उमड़े-घुमड़े हैं सवाल? पर जब-जब तलाशा और खंगाला है, कलम हंस पड़ी है मखौल-सा उड़ाती,’ मैं बस में नही हूँ तुम्हारे। इस बहकावे में मत रहना कि तुम मुझे थामे हुए हो, मैं थामे हुए हूँ तुम्हें। मैं जो, सखी हूँ, सहारा हूँ, औषधि हूँ तुम्हारी, तुम्हारे समाज की।’
कला का जन्म नैसर्गिक है, जैसे मानव का। यह स्वान्तः सुखाय् ही तो पर हिताय् हो जाता है वक़्त और ज़रूरतों के साथ, रुचियों के अनुसार। इसमें पीड़ा है, आनंद है, उलझन है, रोष और आक्रोश है। निष्कर्ष है, अनुभवों का, जीवन का, जो मात्र सुन्दर और सुखद ही नहीं, सच भी है और शिव भी। फिर अपनी दृष्टि से ही तो हम सब कुछ देखते हैं, देख पाते हैं। अपने मन और बुद्धि से ही तो सब जानते व समझते हैं। जीवन की तरह ही, निजी प्रक्रिया हैं कला भी और सर्वप्रथम रचनाकार के लिए ही, उसके ही द्वारा होती है कोई भी रचना, मेरी समझ में तो।
समझ में आने लगा है अब कुछ-कुछ, क्यों मेरे सुख-दुख, दृष्टिकोण और अनुभव, याद रखने की क्षमता व रुचि भिन्न है, दूसरों से। क्यों मैं भूल नहीं पाती उन छोटी-छोटी बातों को जिन्हें प्रायः लोग अगले पल ही भूल जाते हैं। पर सहम भी गई हूँ इस कलम से। गुड़िया भीतर गुड़िया-सी छुप जाना चाहती हूँ अब कहीं गहरे ख़ुद में। नहीं जो चाहती, कि कलम निर्वस्त्र करके खड़ा कर दे जग के आगे।
वैसे भी कुछ विशेष है भी तो नहीं मेरे पास सिवाय एक बाल-सुलभ लालसा व जिज्ञासा के? पर यह शेष-अशेष और विशेष क्या मात्र एक बुद्धि-विलास ही नहीं?… साधारण-सा जीवन, एक साधारण-से व्यक्ति का! पर हर जीवन में ही तो कितनी कहानियाँ, कितने अनुभव और संघर्ष बिखरे हैं। रोचक और अविस्मरणीय पलों से गुँथा यह जीवन, इसका मंथन और निकष साधारण कैसे हो सकता है, फिर भला? इतने यादगार मौक़े देती है ज़िन्दगी कि एक पूरा उपन्यास बन सकता है एक साधारण व्यक्ति के जीवन पर भी। अलग राह और अपनी अलग दृष्टि के साथ पल-पल जिया और हारा व जीता गया।
…जीवन की यह धार नित कल-कल छल-छल बहती रहती है, हम सुनें या न सुनें।
आज भी किनारे पर ही तो ठिठकी खड़ी हूँ मैं, वह भी बीच मँझधार में डूबने का भ्रम पालकर। डरती रही हूँ शायद डूबने से, मिटने से। नहीं जानती पर यही तो अंतिम सच है। क्या था पर जिसने लिखने को मजबूर किया, कलम हाथ में पकड़ाई। दूसरों का दुख और मेरी असमर्थता या फिर मेरा अपना ही सुख-दुख का घड़ा, जो बाबूजी के शब्दों में हमेशा भरा ही रहता था और छलकने को बेताब भी? क्यों पूजा जैसी शान्ति और संतोष मिलता है इस एकाग्र साधना से! सिवाय इसके कि अच्छा लगता है और आदत पड़ चुकी है इसकी भी अब तो। पहले डूबने की, फिर उस डूबने के अनुभव को बताने की, साझा करने की। जैसे एक बच्चा काग़ज़ की नाव बनाकर खुश हो लेता है, जानते हुए भी कि नाव असली नहीं, पार नहीं ले जाएगी, डूब जाएगी।
यह जो ऐसी मैं हूँ, दूसरों से अलग-थलग, बनाया किसने और क्यों मुझे ऐसा?
परिवार और परिवेश, परिस्थियाँ, अनुभव और यादें…और इस सबसे ऊपर वह भूला-बिसरा बचपन? जाने किस-किसका हाथ है इसमें! बचपन की नादानियों और बेफ़िक्री से तो पर सभी को गुजरना ही पड़ता है, वह भी डगमग-डगमग कदमों के साथ ही।
ज़िन्दगी का पहला रेस ट्रैक है यह भी तो। अगर संभलना और समझदार होना है, वयस्क होना है,तो। ज़िन्दगी की दौड़ में भागना तो दूर, खड़े तक रहना सीखना है तो भी, इस बचपन से इसकी सारी भूल और उमंग, सारी निराशा व आँसुओं के साथ इससे गुजरना ही होगा। इस बचपन की पाठशाला में ही तो सीखते हैं हम अपने सारे क, ख, ग। किन्तु परन्तु और जीवन का व्याकरण व गणित भी ।
स्कूल, शिक्षक, सहपाठी, अड़ोस-पड़ोस से लेकर, जिनसे हम मिलते हैं, पशु-पक्षी तक आजीवन चलती रहती है यह सीखने और समझने व समझाने की पाठशाला। किताबों से , बड़ों से, दोस्तों से दुश्मनों से… वह पहली कली जो आँखों के आगे पुष्प बनी थी और फिर उतनी ही शालीनता और शांति से झर भी गई थी। वह दम तोड़ता कीड़ा और फिर कतारबद्ध चींटियों का उसे भोजन के लिए अपने बिल में उठा ले जाना- कितनी लम्बी और अनन्त है यह फ़हरिस्त यादों और अनुभवो की। अथाह भी , सागर सी, आकाश -सी, जन्म-जन्मांतर-सी। हर चीज का ही तो योगदान रहता है हमारी सोच और समझ में। यही तो हैं जीवन की असली हार्ड ड्राइव और यही इमारत की नींव भी तो!
अपनी ही रवानगी से बहती जीवन धारा की कितनी बूँदें या छींटें भिगो गईं, कौन-सी लहर डुबो गई, यह हमारा प्रारब्ध है। वैसे भी हमेशा सोच और समझ के जागने का इन्तज़ार नहीं करती ज़िन्दगी। बहता जल मुठ्ठी में ठहरता भी तो नहीं। बस, कभी डूबकर तो कभी मात्र छूकर हम गुजर जाते हैं हम इन किनारों से।
हज़ार यादें हैं बुदबुदे सी तैरती और चमकीली। उलटती-पलटती, हँसाती-रुलाती और अगले पल ही चुपचाप खो भी जाती। जैसे कि वह सारे चेहरे, जगहें जिनसे प्यार मिला, गढ़ा और संवारा और जिन्हें एक कवच की तरह, दुआ की तरह सदा सहेज कर भी रखना चाहता था लालची मन। पर मनमानी तो क़तई नहीं ही करने देती निष्ठुर ज़िन्दगी।
हाँ, कुछ हठीली यादें अवश्य हैं जो आँखों में तैर आई हैं,
‘आँख बन्द कर ले और डुबकी मार।’
घाट की सीढ़ी पर खड़ी माँ बारबार बेटी को समझा रही थीं। पर आँख बन्द करके डुबकी कैसे मार ले वह? उसे तो अपनी ही आँखों से सब देखना और महसूस करना था। न तो डुबकी ही लगाई और ना आँखें ही बन्द कीं उसने। जगे रहना अधिक भाता था उसे, अंधेरे में डूबना नहीं।
सुबह का रहस्यमय, कौतुक जगाता सूरज, संग-संग खेलता, भागता और छुपता चंद्रमा, चिड़ियों की चह-चह, उड़ते बादल, तरह-तरह के जानवर और पक्षी, मित्र थे सभी उस बचपन के । नीले जल के विस्तार में बहुत कुछ था लुभाने को जगाने को। सिखाने को भी। पर डराती भी थीं रहस्यमय गहराइयाँ बचपन में। डुबकी मारने की हिम्मत जुटाने में वक़्त लगा उस सोचती-समझती लड़की को। सीढ़ियों पर बैठकर ही भीख माँगते लूले-लंगड़े और कोढ़ी भी तो कितना अंधेरा उजागर कर रहे थे समाज का उसकी आँखों के आगे। उनकी भूख, उनकी तकलीफ़…जीवन की यह विडंबना सब छू रही थी उसे तब भी । विचलित कर रही थी। दुनिया के बारे में रोज़ कुछ नया बता और समझ रहा था बचपन।
भोर के उस गुलाबी मंजर के साथ-साथ कसैली और चिपचिपे कीचड़ को भी पूरा महसूस किया था मेरे बचपन ने बनारसे के गांव जैसे उस चिर प्राचीन शहर में ।
कई बार तो न माँ सामने रह जाती थीं और ना ही और कोई और ही। समाधि और पूजा जैसे पल थे वह। माँ अक्सर हंसकर कहती-बावरी है मेरी बेटी। पर माँ से ज़्यादा फ़िक्र पिता जी को रहती थी। व्यावहारिक बनाना चाहते थे। ज़िम्मेदार और दुनियादार बनाना चाहते थे। पर क्या कभी कुछ सीख पाई, बन पाई वैसी? आज भी तो सामान ख़रीदती हूँ, पैसे देती हूँ और ख़रीदा सामान लेना भूल जाती हूँ। ज़्यादातर दुकानदार हंस कर कहते हैं- सामान तो ले लो।
प्रायः चीजें मिल जाती हैं, पर कभी-कभी खो भी जाती हैं। पर भरोसा करने की, ख़ुद में ही खोए रहने की वह आदत कब बदल पाई है?
अठखेलियाँ करती वो गंगा की लहरें और उनका सौ-सौ श्रंगार करती आड़ी-तिरझी शीतल रुपहली-सुनहरी अरुणिम किरणें, पर तले में तो वही कीचड़ और सड़ांध, जीवन व मौत के काले अवशेष और परछाइयाँ, हमारा जीवन भी तो कुछ-कुछ ऐसा ही है। बहती और गुजरती लहरों पर ही सारा सोना-चांदी लुटाना ही तो बस बस में है। बड़े होकर भी कब बड़े हो पाते हैं हम, भ्रम भले ही पाल लें। या फिर अपने ही सपनों और कल्पना में क़ैद मेरे जैसों के लिए लिए तो गुंजाइश ही नहीं रहती बढ़ने या घटने की। जीवन की उस गुलाबी आभा ने धरती आकाश ही नहीं, पूरा क़ैद जो कर रखा है आज भी। शांत और विशेष दृष्टि दे दी है, जो अलौकिक संसार में ले जाती है और जहाँ रहना अच्छा लगता है। यह क़िस्मत की ही बात है या फिर हठी मन का कमाल है कि आज भी तो चुरा पाती हूँ वक़्त कि भावों और रंगों के इन्द्रधनुष पर टहल आऊँ।
दादी और माँ नाराज़ रहतीं थीं -‘ न गंगा नहाती, न ब्रत पूजा करती, मलेच्छों के घर क्यों नहीं पैदा हुई तू। आक्रोश में कहने लग जाती- घाट से भी बिना नहाए लौटता है कोई?’ पर सारे पापों को तुरंत ही एक लोटा गंगाजल लुढ़काकर शुद्ध भी कर देतीं। यही नहीं, गंगा मैया से तो कभी देवी-देवताओं से सारी नादानियों के लिए माफ़ी भी माँग लेतीं।
और अब पतिदेव और बच्चे भी तो, ‘कहानी कविताओं से पेट नहीं भरता। यह दिन रात इनकी चाकरी आम जीवन जीने का तरीक़ा नहीं।’
फिर अगले पल ही सभी व्यस्त अपनी-अपनी दिनचर्या में। यही तो परिवार है, परिवार की ताक़त है- सदा साथ और जो जैसा है, वैसे ही स्वीकारता, सहारा देता ।
जैसे बगिया में तरह-तरह के फूल होते हैं , इन्सानों की रुचि और दृष्टि, पसंद व नापसंद भी तो, सिखाया मेरे परिवार ने मुझे । जाने के बाद भी सिखाते रहते हैं बड़े, संभाल लेते हैं नफरत की अनचाही और अकस्मात ठोकरों से। अपनी इस विह्वलता और बावरेपन को बाल-सुलभ कौतुक से देखा करती थी तब मैं-ऐसा कैसे हुआ इतनी बड़ी घटना घट गई , बग़ल से हाथी निकल गया और मुझे पता ही नहीं चला, मैं जिसकी नज़र से छोटी-छोटी चीजें भी नहीं छुप पातीं? इतना कैसे डूब गई थी मैं ख़ुद में? बचपन में तो मन ही मन कभी बड़ों को परेशान न करने का, उनकी बात सदा सुनने और मानने का असफल निश्चय भी कर लेती थी तुरंत ही। बड़े भी तब तुरंत ही गोदी में उठाकर खूब प्यार करते थे। और मैं खुश हो जाती थी, बहुत खुश, बिल्कुल वैसे ही जैसे मेरा पालतू पिल्ला कुछ नया सीखकर दुम हिलाने लग जाता था और मैं उसे गोदी में लेकर प्यार करने लगती थी।
यह बचपन ही था जिसने बताया कि हम इन्सान हों या जानवर , सभी बराबर के भूखे हैं प्यार के। यह कभी ज़्यादा नहीं हो सकता, हमेशा कम ही पड़ता है।
क्यों लिख रही हूँ मैं यह सब , क्योंकि यही छोटी-छोटी बातों ही तो सोच और संस्कार देते हैं।
सामान ही नहीं, ख़ुद भी खो जाती थी अक्सर ही, कभी डर की वजह से तो कभी अकेले ही दूर तक जाने की जिज्ञासा से। और फिर तब कभी सूझबूझ और हिम्मत से, तो कभी किसी हितैषी की मदद से हर मुसीबत से निकल भी आती हूँ। बचपन से ही कोई न कोई देवदूत प्रकट होकर मदद कर ही देता है। सच, रहते हैं ये देवदूत हमारे बीच इन्सानों की शक्ल में। क्योंकि अभी भी भगवान ही हमारा सबसे अच्छा मित्र है।
लड़ना नहीं आता। झगड़ों से घबराती हूँ। शांति किसी भी क़ीमत पर के लिए अक्सर सब कुछ त्याग देती हूँ। और सयाने कायर समझते हैं, जड़ व आलसी मान बैठते हैं। पर चीजें जो बहुत ज़रूरी हैं, बहुत प्यारी हैं उनके लिए जान हथेली पर लेकर लडी भी हूँ । दुर्गा-चंडी भी रहती है कमजोर-से कमजोर इंसान के अंदर। बस इतना प्यार तो हो , ज़रूरत तो हो किसी चीज की। घर-परिवार ही नहीं बाहर वाले भी कभी-कभार देख चुके हैं इन धनुष तलवार को। यह शायद पिता की परवरिश में मेहनत और सतर्कता का ही फल है। जो बचपन से ही हर कपड़े पर, हर किताब कौपी पर नाम, पता और घर का फ़ोन नं. लिख दिया करते थे ताकि खो न सके उनकी लाड़ली, धोखा न दे कोई। बाद में खुश अपने बच्चों के कपड़े और बस्तों व अन्य सामग्री पर स्कूल टैग लगाते हुए जाना कि विकसित और सफल पश्चिमी देशों में तो आम प्रचलन है यह अतिरिक्त सतर्कता।
मुझे कई बार बचपन में बचाया पिता की इस सतर्कता ने ईर्षालु सहपाठियों से जो सफल नहीं, असफल देखना चाहते थे और ठीक इम्तहान शुरु होने के पहले ही ज़रूरी उपकरण चुरा लिया करते थे। फिर तुरंत ही पकड़े भी जाते थे। कई किरकिरी यादें हैं, पर भोजन तो वही पौष्टिक है जिसमें सारे स्वाद हों। कुछ गुंडा टाइप लड़कियाँ जब किसी और तरह से नहीं हरा पाईं, तो उन्होंने आते-जाते अकेले पाकर पीटा भी था और मैं बस यही सोचती रह गई थी कि मैंने उन्हें वापस क्यों नहीं मारा, क्यों बस मुझे आकर ही बचाया गया और उन्हें हमेशा सज़ा ही मिली।
आज आभारी हूँ इन अनुभवों की भी जिन्होंने सही-गलत का विवेक दिया। वैसे भी अच्छे लोग ही अधिक मिले।
स्कूल जाना शुरु ही किया था कि एक दिन रात-सा अंधेरा घिर आया । जहाँ बस छोड़ती थी और लम्बी गली जो घर तक जाती थी, दोनों के बीचोंबीच बरगद का बड़ा-सा बूढ़ा पेड़ था, लटकती दाढ़ियों के साथ। जिसपर उल्लू रहता था। उल्लू की अजीब और डरावनी आवाज़ें दौड़ते-भागते कैसे भी घर तक पहुँचते सुन चुकी थी। दोबारा हिम्मत नहीं थी चार साल की बच्ची की उस गली से अकेले गुजरने की। सामने जो ट्रैफ़िक पुलिस खड़ा था उसके पास दौड़कर पहुँच गई। नमस्ते करके संकोच के साथ बोली -‘ मैं बहुत डर गई हूँ। मैं खो गई हूँ। फिर फ्रांक पर लिखा अपना पता दिखाते हुए बोली यह मेरा पता है। क्या आप मुझे घर तक पहुचाने में मेरी मदद करेंगे?’ और उसने न सिर्फ़ गोदी में लेकर घर तक पहुँचाया अपितु रास्ते भर स्कूल के बारे में तरह तरह की बातें भी की जैसे कि कोई परिचित या मित्र करता है। नतीजा यह हुआ कि हर वरदी, हर आफिसर से निर्भीक हो गई।
अनुशासन का पालन करने वाले और ड्यूटी पर तैनात आज भी अच्छे और सच्चे ही लगते हैं और उनसे मदद मांगने में कोई हिचक भी नहीं।
काग़ज़ पर शब्दों में, रंगों में सब कुछ समेटने को छटपटाता मन बहुत कुछ कहना चाहता है। सब यानी वह सब कुछ जो दूर तक बहा ले जाता था, जाने कहाँ तक जाती बेचैन उन लहरों की तरह ही आकर्षित करता था। सब, जो तब बेहद रहस्यमय था। यह भी लुका-छिपी की तरह ही एक बेहद स्फूर्ति-दायक खेल था उन दिनों भी, जिसकी अच्छी-खासी लत पड़ चुकी थी। अक्सर ही वह भी तो दिख ही जाती थी…वह यानी वही दिन-रात जलती चिताओं में से एक। या फिर तरह-तरह के रंगबिरंगे कफ़नों में लिपटी लाशें, जिनका चौबीसों घंटे मेला-सा लगा रहता था। शहर के कोने-कोने में हर वाहन पर आती थीं ये दूर-दराज गाँव और शहरों से। साइकिल और ठेले पर भी। सारा उत्साह और उमंग रोककर मन को सन्नाटे से भर देती थीं तुरंत ही। कई-कई सवाल और उलझन पैदा कर देती थीं- क्यों, आख़िर क्यों यह जीवन मृत्यु का चक्कर लगाया भगवान ने? मन तुरंत ही जबाव भी चाहता। बचपन से लगे इस शमशान वैराग से आज भी तो मुक्त नहीं हो पाई हूँ, बावजूद इसके कि जीवन से बहुत प्यार है, इसके हर राग-रंग में डूबा रहता है चौबीसों घंटे।
उन जलती चिताओं के बारे में ही सोचते-सोचते कई-कई दिन निकल जाते थे। सफ़ेद कपड़े में लिपटी लाशों का मामूली-सा स्पर्श भी जड़वत् सिहरन पैदा कर देता था, फिर भी उन सवालों के जबाव किसी से कभी नहीं माँगे। सब कुछ व्यक्तिगत और निजी था उस उम्र में भी। कई गुत्थियाँ ख़ुद ही सुलझानी पड़ती हैं। खास करके वो जो दिल या दिमाग़ को एंठ कर ही रख दें- जैसे कि एक दिन पड़ोस के एक पंद्रह साल के लड़के की लाश आई थी, जिसे गोताखोरी का शौक था और गोता लगाते वक्त ही किसी पत्थर से सिर टकराकर उसकी मौत हो गई थी। जैसे कि बारह साल की उम्र में, घर पर पढ़ाने आने वाले मास्टर साहब ने अचानक ही पीठ पर अजीब तरह से हाथ फेरा था और मैंने उसके बाद पिताजी से उनसे क्या किसी भी टीचर से पढ़ने-से मना कर दिया था।
जीना है तो संभलना भी जरूरी है, सिर्फ बहना ही नहीं। तभी यह भी सीखा।
ऐसी ही उधेड़बुन में लिखने का शौक़ लगा। आराम-सा मिलता था सब कुछ बाहर निकालकर। वैसे भी कोई था ही नहीं कहने-सुनने को और ना ही आदत ही थी किसी से कुछ कहने या बाँटने की। माँ थीं उनका सारा शेष वक़्त अपनी इकलौती बेटी को खिलाने-पिलाने के लाड़-चाव में ही निकल जाता। इससे ज़्यादा बेटी की कोई ज़रूरत होगी कभी समझ में ही नहीं आ पाया उन्हें। या फिर एक बड़े संयुक्त परिवार की ज़िम्मेदारियों ने फ़ुरसत ही नहीं दी इतनी। आदर्शवादी पिता जी के लिए बेटी उनके सपनों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने वाली जादुई चिराग़ थी। पूरे परिवार का परिवार के हर बच्चे का बराबर का ख़्याल था उन्हें। हाँ मन के किसी चोर कोने में, हर कला में , हर चीज में निपुण करना चाहते थे वह अपनी इकलौती लाड़ली बेटी को। इतना कि आते जाते उसे उनके नाम से नहीं, अपितु उन्हें बेटी के नाम से जानें। पर सपने किसके पूरे हुए हैं। यह भी तो एक मकड़ जाल ही है।
अपनी-अपनी दुनिया में क़ैद बड़े हो रहे थे हम तीनों, तीनों यानी मैं, पिताजी और माँ। पर किसको मुकम्मल जहाँ मिला है। कहीं ज़मीं नहीं होती तो कहीं आसमाँ नहीं होता।
हाँ, घर को महकाता खूबसूरत बनाता बगीचा खूब समझता था मुझे और बिठाता भी था अपनी गोदी में बेहद प्यार के साथ ही। ज़िन्दगी के शुरु के बीस वर्ष का वह वक़्त जो घर में गुजरा, मुख्यतः बगीचे में ही गुजरा। तरह-तरह के पौधे, तरह-तरह के परिंदे बहुत कुछ था वहाँ जानने समझने को, मन बहलाने को, दोस्ती करने को। मेंहदी और शहतूत के पेड़ जिनपर चुड़ैल रहती थीं, जिनसे हमें डराया जाता था, पर जो कभी दिखती ही नहीं थीं। एक दिन तो थक-हारकर ख़ुद ही सफ़ेद चादर ओढ़कर चुड़ैल बन गई और सबको डराने लग गई। बड़े भाईसाहब ने डरकर थपप्पड़ भी मार दिया था और फिर बेहद लाड़ले और स्वाभिमानी हमने जब तुरंत चद्दर हटाकर आंसूभरी आँखों से उन्हें देखा तो गोदी में उठाकर प्यार भी किया और माफ़ी भी माँगी। उस मासूम से अभिनय भरे खेल की ऐसे निष्कर्ष की हम दोनों को ही उम्मीद नहीं थी।
वह करौंदे और गुलाबों के कँटीले झाड़ जिनमें घुसकर छुपना बहुत अच्छा लगता था , भले ही अक्सर फ्राक फट जाए और घुटने छिल जाएँ। अमरूद, पपीता और नींबू व चकोतरे के पेड़ थे जिनपर चढ़कर फल तोड़ने का अलग ही आनंद था। केले और पीपल व तुलसी के पेड़ों के साथ खिलवाड़ करने की सख़्त मनाही थी दादी द्वारा , क्योंकि उनमें तो साक्षात वासुदेव का वास था। फिर भी हमारी बानर टोली कभी-कभी उनको भी काट-छाँट और सूँघ ही आती थी। विशेषकर तब जब पीपल के पत्तों को पानी में गला-गलाकर उनपर तस्बीरें बानाना सीख लिया था। कंकड़-पत्थर घास-पूस सभी कुछ रहस्य और ख़ज़ाना था तब हमारे लिए और कलात्मक सजावट की सामग्री भी। और क़िस्मत कुछ ऐसी कि उलटा-सीधा कुछ भी चिपका देते, घर-बाहर खूब वाहवाही मिलती। जिससे हमारे सृजनशील हाथ दुगने उत्साह से भर जाते।
घर के बड़ों को गीता रामायण पड़ते-सुनाते, कबीर, रहीम और तुलसी के दोहों को सुनते-समझते कब हम समझदार हो गए पता ही नहीं चला। हर रात दादी की कहानियों ने पूरा पंचतंत्र और जादुई संसार रच रखा था आँखों के आगे। और हर रात हम अलीबाबा के साथ जादुई कालीन पर सैर कर आते थे।
हमारे बगीचे में भी एक तरफ़ मज़ार थी और दूसरी तरफ़ मंदिर। हम दोनों को बराबर की श्रद्धा से हाथ जोड़ते। धर्म का भेद हमें ना तब पता था और ना आज ही चल पाया है। हाँ, इन बेमतलब के झगड़े-फसाद से आज भी मन बेहद दुखता अवश्य है।
बगीचे में तरह तरह की चिड़िया थीं। कबूतर की गुटरगूं सुनते-सुनते तो हम भी उनकी तरह गला आगे पीछे मटकाने लगे थे। इतनी वार देखा था उन्हें , स्केच किया था शांति दा (पेंटिंग टीचर) के कहने पर कि कबूतर और मुर्ग़ों में पूरी तरह से रम गए थे। हो भी क्यों न, शांति दा ने बताया था कि जापान में कई ऐसे पेंटर थे, जिन्होंने पूरी ज़िन्दगी बस मुर्ग़े और कबूतर ही बनाए।
हम चाहकर भी अपने तितली-भँवरे जैसे स्वभाव की वजह से कभी सिर्फ़ कबूतर और मुर्ग़ों पर ही नहीं टिक पाए, पर। किसी भी विषय में पूर्ण दक्षता न पाने के लिए आज भी उन सभी शिक्षकों की गुनहगार हूँ और उनसे माफ़ी भी माँगती हूँ, जिन्हें अपनी इस शिष्या में टैगोर और पिकासो नज़र आए थे, कभी। एक ही तो ज़िन्दगी मिलती है और यह खुली धार सी स्वच्छंद और निर्बाध होनी चाहिए, कोई महत्वाकांक्षा या थोपे अनुशासन के तटबन्ध नहीं इस पर, ऐसा आज भी मानना चाहता है उड़ान भरता मन।
सूरजमुखी के उन थाली जैसे बड़े-बड़े फूलों पर झुंड-के झुंड तोते आ जाते थे और मन भर-भरकर बीज खाते थे। एक बार तो भाई ने कोलतार लगा दिया था बीजों पर ताकि तोतों को पकड़ा जा सके। और फिर हमने वह पकड़े तोते उड़ा भी दिए थे। रोते भाई को और रुलाकर। फिर तो हर शुक्रवार को हम दोनों दो पसंद की चिड़िया नौकर के साथ ख़रीदकर लाते उसके लिए, उनके साथ जी भरकर खेलते कमरे के अंदर और फिर उन्हें उड़ा देते।
बचपन से ही आज़ादी की क़ीमत और इज़्ज़त दोनों ही बड़ों ने मन में कूट-कूटकर भर दी थी।
बंदरों का झुंड कभी खून बहता तो कभी पेट मलता बगीचे में जाने कैसी-कैसी औषधियाँ ढूँढता, अपना उपचार करता रहता था। उन्हीं से हमने सीखा कि अगर छोटी-मोटी खरोंच लग जाए तो कैस्ट्रूला की पत्ती को घाव पर घिस लो, तो खून का बहना बन्द हो जाता है। एक कौतुक, एक विद्यालय , एक मीत था वह बगीचा, जहाँ ज़िन्दगी के मूलभूत सिद्धान्तों की, जिज्ञासा और समझ की नींव पड़ रही थी। उड़ते बादल तो साक्षात परीलोक ही थे। और पलपल रंग बदलता आसमान, मौसम के अनुसार रूप बदलता आसमान, अद्भुत रंगमंच। जाने क्या-क्या दिखाई देता था तब उन बादलों में जो आज भी किसी कौमिक, किसी टेलिविज़न के शो या फ़िल्म में नहीं देखा। मुन्ना-मुन्नी, चंदामामा और पराग में नहीं देखा। कल्पना शक्ति इतनी उर्वर खि सबकुछ जीवित और असली लगते । कभी लगता चाँद लुढ़क-पुड़ककर नीचे आ जाएगा तो कभी बादल से हाथ हिलाती , बाल लहराती सारी परियाँ बुलाती-सी। एकबारगी तो २६ जनवरी की परेड का आँखों देखा हाल सुनते-सुनते लगा कि हाथी-घोड़े और घुड़-सवार रेडिओ से निकलकर कमरे में आ गए हैं। सब कुछ इतना सच, कि आज भी विश्वास नहीं होता कि वाक़ई में ऐसा नहीं हुआ था।
हरेक की ख़बर रहती है आज भी मन की आँखों को जो आँखों के आगे है और जो नहीं है उसकी भी। कैसे , बस यह मत पूछिए, सुना तो होगा आपने भी जहाँ न पहुँचे रवि वहाँ पहुँचे कवि। खुदको कवि तो आज भी नहीं मानती, पर कल्पना की उड़ान यत्र-तत्र-सर्वत्र पहुँचा देती है।
घर में किसी को फ़ुरसत नहीं थी, पर शिक्षक और सहपाठियों को भाती थी हमारी यह काल्पनिक उड़ान और बावरापन। खूब प्रशंशा और स्नेह की दृष्टि व वाहवाही बटोरी थी बालमन ने तब । विशिष्ट महसूस किया था।
किताबों से दोस्ती हुई तो रात को भी पूरा बिस्तर घेरे रहतीं । संग सोती और जगतीं, खाती-पीतीं सब साथ-साथ ही। हर रहस्य की कुंजी जो थी उनमें। यह पता नहीं था कि मरते दमनक उलझाए रखेंगे ये बचपन के शौक़। हाँ कुछ थे जिनके पदचिन्हों पर चलने को मन करता था तब भी, इनमें टैगोर , व्डिवेकानंद और कबीर प्रमुख रहे। क्यों, नहीं जानती। मन करता काश मुझमें भी इतनी सामर्थ हो कि सभी का दुख बाँट पाऊँ, जिनको न्याय नहीं मिला उन्हें न्याय दिलवा पाऊँ, उनकी लड़ाई लड़ूँ, यह भी ख्वाइश रहती। पर भाई के जजों के गंजे होने वाले मज़ाक़ ने पूरी तरह से डरा दिया और जज बनने का सपना छोड़ दिया । हाँ यह कलम और कूँची आज भी साथ हैं। और लड़ाई लड़ रही है , साथ-साथ मनभावन रंग और अर्थों के साथ सूनेपन की अभिन्न सहेली भी है।
वह बीस का खोया नोट, जिसकी वजह से एक गरीब को खूब पिटता देखा था बचपन में, वह आँखों के आगे मरता आदमी और आँख बचाकर हमारी गाड़ी का बग़ल से निकल जाना क्योंकि किसी की मदद करने की वजह से ड्राइवर का जेल में रात गुज़ारनी पड़ी थी,वह बीमार की मदद में चन्द मिनटों का आलस, कई यादें, लिखने की कई वजहें रही हैं और आगे भी रहेंगी ही क्योंकि जीवन रेखा सीधी कब, सदा वक्र ही तो रही है। जैसे चीनी का शौक़ीन चीन ढूँढ लेता है, कलम भी तो मनमाफिक ढूँढ ही लेती है।
जैसे कीचड़ सनी गलियाँ सबसे बड़ा अवरोध थीं घाट तक पहुँचने में, वैसे ही कई मर्यादा और संस्कार भी रहे हैं , जो हर विषय पर कलम को नहीं उठने देते। रोक देते हैं। ख़ास करके वह जो सहज नहीं। पर कभी-कभी जब पीड़ा बर्दाश्त के बाहर हुई है, तो पके फोड़े-से फूटे मवाद की तरह ही कलम बही है, जैसे कि कहानी खारा समंदर। एक वर्ष की उहापोह के बाद-लिखूँ या न लिखूँ, लिख पाई थी इसे। लिखने के बाद अच्छा लगा था और कहानी को कइयों ने बहुत पसंद भी किया। कुछ ने तो तब इसे मेरी सर्वश्रेष्ठ कहानी तक कहा। ज्यूरी की तरह ही सही, आधे सच और आधी कल्पना पर बुनी गई यह कहानी जीवन का घिनौना सच सामने रखती है।
पचास वर्षों से अधिक के इस इंग्लैंड वास और यूरोपियन संस्कृति ने दोधारी दृष्टि दे दी है, जिसमें पूरब और पश्चिम मिलकर एक विस्तृत गगन बनते जा रहे हैं। चाहती तो हूँ दोनों संस्कृतियों का उत्कृष्ट और सार्थक नवनीत ही परोसूँ। पर आज भी सब कुछ साफ़-सुथरा और सहज ही भाता है। बदबू कैसी भी हो बेचैन तो करेगी ही, पर। यह भी जानती हूँ कि कभी-कभी अंधेरा भी ज़रूरी है रौशनी की पूरी अहमियत के लिए।
सपनों की धूनी लगाए बैठे रहना तब भी अच्छा लगता था और आज भी । अवरोधों के राक्षस तब भी आते थे आज भी आते हैं। कभी निपट लेती हूँ तो कभी फिरसे जुट जाती हूँ पर हारना आज भी नहीं जान पाई, जैसे कि वह बचपन का सपना, जिसमें बारंबार कोई सिर काटता था और सिर वापस जुड़ जाता था। तब सोचती थी विभाजन के वर्ष में जन्मी, इसलिए ये सपने आते थे। आस-पास सुनी कहानियों का असर था शायद ।
आज जानती हूँ दृढ़ इच्छा शक्ति और लगन ही है, जो हज़ार अवरोधों के बावजूद भी जोड़े हुए है लेखन से, आँख पर पट्टी बंधे कोल्हू के बैल की तरह ही इसकी चाकरी में मुझे घुमाए जा रही है।…
शैल अग्रवाल
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