ललितः बसंत आया -शैल अग्रवाल


दुनिया के किसी भी कोने में बैठे हों, खिड़की के बाहर बर्फ नजर आती हो या रेगिस्तान का झुलसाता विस्तार, ग्लोबल वार्मिंग हो या डीप फ्रीज, फागुन के नाम पर तो आँखों के आगे बस एक ही छवि उभरती है, और वह है महकते बाग बगीचों की, आम की बौरों पर बैठी कूकती कोयल और रंग-बिरंगी नव प्रष्फुटित कलियों व उन पर गुनगुन करते भंवरों की, डाल-डाल पर चहकते पक्षियों और उनके नन्हे नन्हे फुदकते बच्चों की। हर्ष से दमकते गुलाल लगे युवा कपोलों की। ब्रज की उन्माद भरी रंग और रसिया में डूबी होली की। पुष्प और इत्रों में नहाए, मन्दिरों मे सजे-धजे राधाकृष्ण की …प्रेमपगे पकवानों और मनोहारी मुस्कन और चितवनों की। इस मौसम के तो ख्याल मात्र से बौराई दिखने लग जाती है अमराइयां और सिहराने लग जाती है पुरवाई; वही सोंधी यादों की कोरी और भीनी महक लेकर,

फिर मस्त मलय के झोकों ने
सुरभित फूलों से की मनमानी
पुलक-पुलक महकाती हवा
सहलाती चूमती फिरे फटी बिबाई

फिर जाग उठीं अलस कामनाएँ
फुस्स-फुस्स हंसे किसलय पराग
मुड़ मुड़कर आते तितली-भंवरे
निखरा है रूप खेत खलिहानों का

गांव का बूढा पीपल भी तो
फिर नए पत्तों से सज आया
धरती की धानी चूनर पर
उग आए फिर पीले बूटे

फिर भटकते बादलों का तन
बिखरा बिखरा दिखता रेशे-रेशे
फिर मधुमास की महकती धनक से
मुस्कुरा उठा है रितुराज रूठा

फिर चोली के बंद टूटे
चूनर के रंग छूटे
फिर लजाई शरमाई
संवर उठी है कुंवारी धरती

फिर मनचला एक इशारा
कानों में पपीहे सा कुहका
और धीरे से बोला-
“लो, वह फिर आया।”
क्या कभी ऐसा हुआ है कि फुनगियों पर बसंत हो और आंखों और मन में न हो! प्रकृति का श्रंगार है बसंत, शिशिर की निठुर हवाओं के बाद जीने की आस है बसंत-

कितने बसंत बीते
जीवन घट रीते
सुरभित पर जीवन ये
नित नए रूप में
नए वेश में
नेह की हरित डाल पे

क्यंकि
बसंत एक प्रकरण
सूखी जड़ों में सोते ढूँढ
प्यास बुझाने का,
बसंत एक अहसास
जड़ से पुनः
चेतन हो जाने का
बसंत एक वादा
मौत से जीवन का
फिर फिरके
लौट आने का…
हो सकता है आज शहरों में रहने वालों के मन में प्रकृति के इस हरित प्रष्फुटन के प्रति वह उत्साह न हो, जो सरसों के खेत और कोयल की कूक को सुनकर मन में आता है। क्यंकि,

गमलों में खिल आते हैं
चन्द फूल बालकनी में
और आ ही जाती हैं
कुछ भटकी तितलियाँ भी वहाँ
डालों पर नहीं ड्रेनपाइप पर
चिड़िया ने बनाए हैं घोंसले
इसबार फिर सुरक्षित मानकर
बिल्लियों से बच गए तो
फड़फड़ाएंगे बिजली के तारों पे
पीले कपड़े, पीले मीठे चावल
बातें हैं अब बहुत पुरानी
पीली सरसों के खेत देखे
बस तस्बीरों में
शहरों की तंग गलियाँ और
लाउडस्पीकर पर चीखती सरस्वती वंदना
पूरी करके जैसे-तैसे
आधे दिन की आधी खुशी मनाते
लौट आते हैं बच्चे घर वापस
बसंत पंचमी की छुट्टी लेकर
शहर में

यह शहरी बसंत है …

शैनेल की शीशी में
महकती बेला चमेली
और चित्रों में खिलते
पलाश व कचनार
यह शहरी बसंत है

बेचैनी यह बेबसी ले जाए पर
ए गांव,
शायद तुम्हारी ओर कभी
मिलवा पाऊँ तुम्हें सभी से

किलक-किलक मंडराते
उन तितलियों के झुंडों से
सरसों के पीले खेतों से
और फुदकती गौरैया से

दूर तक फैली होगी वही गन्ध
जहाँ बौराई अमराई की
फूल आते होंगे नदी किनारे
अमलताश और कचनार

कोयल की कूक को सुनता
गुड़ सा मीठा एक अहसास
पीली चटक धूप-सा
रोम रोम को अलसाता होगा आज भी तो निखर निखर

मुस्कुराती है बन्द पलकों में
वही बलखाती पगडंडी
पास बुलाती और ले जाती
फिर बौराए नीम की छांव

महता-गमकता यह यादों का वसंत, वादों का बसंत और प्रकृति का बसंत, तीनों एक ही तो हैं, मानो एक बाण बींध चुका हो सृष्टि के कण कण को। प्रेमपगा कामदेव का पुष्प-बाण तो शिव तक की तपस्या तक भंग कर देता है। शिव ने सजा भी दी थी उसे इस हठ की। तपस्या भंग होते ही, दंड स्वरूप, तीसरी आंख खुल गई थी उनकी और क्रोधाग्नि ने कामदेव को भस्म कर दिया था। परन्तु फिर रति के विलाप से द्रवित भोले बाबा ने अशरीर ही सही, चिरंजीवी होने का आशीर्वाद भी तो दे दिया था। और उस दिन से आज तक प्रकृति और मानव दोनों के ही कण-कण में बसे उस काम के सूक्ष्म शरीर का ही तो महोत्सव मनाते आ रहे हैं हम बसंत महोत्सव के रूप में…इसमें मनाए जाने वाले त्योहारों के रूप में- फाग की रंगभरी ठिठोलियों में, मासूम बरजोरियों में।

यह वसंत ऋतु मदन ऋतु भी तो है और कामदेव के अन्य नामों में एक नाम बसंत और एक नाम मदन भी तो है और मदन कब किसकी सुनता या मानता हैः
बासन्ती वो बयार…
इस पार बही
उस पार बही
तोड़ के बंधन सारे
यह तो हर घर द्वार बही
बासन्ती वो बयार…

क्या कुछ था, साथ रहा
क्या कुछ पीछे छूट गया
सर्दी गरमी बरखा सहती
पगली यह ना पहचानी
खुद से ही लाचार बही।

बासन्ती वो बयार…

फूल-फूल खिल-खिल आई
बिखर-बिखर झर जाने को
खिलने और बिखरने की
जिद भी थी अपनी ही
औरों की कब इसने सुनी
खुद पर ही कर एतबार बही

बासन्ती वो बयार…

पिरो लिए हैं क्यों इसने
पलपल साँसों में गिन-गिन
माला तो पर टूटेगी ही
फिर इसकी ना एक चली
खुद से ही यह हार बही।

बासन्ती वो बयार…

मुस्कानों के वो मोती
आँसू बन बिखरे चहुँ ओर
माला तो माला है आखिर
धागे की रहती मुहताज
नग पुरे या ना पुरे
छूटे जो छूटे रह जाते
बात ना इसने यह मानी
मनमौजी दिन रात बही

बासन्ती वो बयार
इस पार बही उस पार बही–

फाग या मदन महोत्सव की परंपरा भारत में प्राचीन काल से है और आज भी चली आ रही है।
भारत ही क्यों दुनिया के करीब-करीब हर कोने में ऐसे ही समकक्ष परंपरा वाले त्योहारों को अपने-अपने तरीके से मनाने की कई-कई रोचक और भिन्न प्रथाएँ हैं। कहीं टमाटरों से प्रिय को रंगा जाता है, तो कहीं पुष्पों से। कभी लड्डुओं की मार पड़ती है, तो कभी लठ्ठों की। हाँ, राग-रंग के इन त्योहारों में एक सूत्र सब जगह जरूर एक-सा मिलता है…और वह है. प्रियतम का सुखद साथ, उपहार व ठिठोलियों का आपस में आदान-प्रदान। यूरोप के सेंट वेंलेन्टाइन और वैलेन्टाइन डे भी तो यही है और इससे तो अब भारत का बच्चा-बच्चा तक परिचित है और इसकी गुलाब, चौकलेट और वादे, अच्छी-बुरी हर तरंग से आलोड़ित भी हैं बच्चे-बूढ़े सभी।
पाश्चात्य प्रभावों में कितनी फिसलन है, कितनी काई है, और कितना मात्र परिवर्तन का भय है, इतना नीर-क्षीर विवेकी तो अभिवावकों और समाज सुधारकों को होना ही पड़ेगा। आधुनिकता की…भौतिकता की…. आर्थिक प्रगति की इस दौड़ में हमने खुद ही तो घसीटा है अपनी युवा पीढ़ी को, उनकी आंखों में तेजी से बदलती इक्कीसवीं सदी का एक नया और आधुनिक सपना देकर। …बुराई कहाँ है…सोच में, व्यवहार में या फिर विरोध में? साथ साथ युवाओं को भी समझना पड़ेगा कि उत्सव मनाने और इसका आनंद लेने में बुराई नहीं, परन्तु मर्यादा और शालीनता के दायरे में रहकर ही मान्य हैं भारतीय संस्कारी समाज को ये पश्चिमी तौर-तरीके ।

प्रेम शाश्वत है जैसे कि बसंत । जनमते ही रहेंगे- सोहिनी महिवाल, शीरी फरहाद, लैला मजनू और संयोगिता पृथ्वीराज, रोमियो जूलियट…ही नहीं, वही राधा कृष्ण सी दीवानगी और समर्पण लिए नित नए-नए युगल भी। प्यार को जीते, नई-नई प्रेमकहानियाँ लिखते और हमें बासंती करते, जहाँ कोयल की कूक तो है ही, साथ साथ सुरभि की मादकता भी और शूलों की चुभन और कसक भी।
कहाँ भटक गए हम भी। हम तो बात कर रहे थे फगुनाए फाग की, बासंती बसत की। …फलते-फूलते, महकते इस मौसम के प्राकृतिक और नैसर्गिक रास-रंग की। विघ्नों और सोच-समझ…समाज, परंपरा और आधुनिकता के आपसी टकराव की नहीं।

वसंत ऋतु आशा और उल्लास की ऋतु है। संदेश और सृजन की ऋतु है। वसंत ऋतु वह ऋतु है जब सूक्ष्म-साकार से मिलता है, मात्र मिलता ही नहीं, मिलकर खिलने लग जाता है…नए-नए रूप लेकर नए जन्म ले लेता है। वैसे भी प्रकृति के अनुसार ही तो मन भी और मन-माफिक ही हमारे त्योहार, चाहे होली हो या दिवाली.. ये त्योहार ही तो हमारी जीवटता हैं, जीवन का रस और रसायन हैं। मानव स्वभाव और सोच की यही बारीकियां…यही समझ तो उसे अन्य जीवों से प्रथक करती हैं और नीरस, सपाट जीवन को नए रंग, नए रूप देकर आकर्षित और प्रेरित ही नहीं करती, नव स्फूर्ति देती है ।

कालचक्र के साथ घूमता एक बार फिर से वापस आ गया है बसंत। लहलहाती गेहूं की पकी बालियां और महकती पकी सरसों , सबकुछ खुशियों के भंडारों में सिमटने को तैयार हैं। एकबार फिरसे मिल ली है प्रकृति पुरुष से… और प्रकृति के साथ-साथ जीव-जन्तु तक, सब नए उल्लास से भरे दिख रहे हैं। यहाँ इंगलैंड में भले ही अभी पातहीन वृक्षों पर कोपलें न फूटी हों, परन्तु चिड़ियों ने घोसले बनाने शुरु कर दिए हैं। सृजन और संरक्षण की इस ए क और नई नवेली ऋतु में…बाहर बरफ हो या बासंती बयार, तैयारियाँ शुरु हो जाती हैं, नव जीवन की, नव पात ही नहीं, नव विहगों की , उनकी कच्ची कोमल उडानों की। जब प्रथम फिर गाती है पिक पंचम तो एकबार फिरसे तो शुरु हो जाता है वही रूप और रंग का महोत्सव…रंग और रूप जिसके बिना व्यंजन ही नहीं, जीवन भी स्वादहीन है…जिसके हम-आप, हमारी संस्कृति और सभ्यता, सभी चिर दीवाने-से दिखते है-
बसंत आया !

कोयल फिर कुहकी
भंवरे फिर बहके
गेहूँ की बाली पर
सरसों के झुमके

रंगों की रंगोली से
फागुन की ठिठोली से
तारों की चोली से
किसने है मन भरमाया

बसंत आया!

फिर चली
मदमस्त पुरवाई
मदिर मलय वो
संदेशे ले आई

पीहु कहां, पीहु कहां
रूखे तन, सूखे मन
पुलक-पुलक बूटे से फूटे
धरती ने क्यों यह
रूप सजाया

बसंत आया!

धूप छाँव
रुनझुन पायल
धरती-तन
हरियाला आंचल
तारों की छांव में
खुशियों के गांव में
कौन यह नई नवेली
दुल्हन ले आया

बसंत आया!
कली-कली
डाल-डाल
सज आईं गोपिकाएँ
झूम उठे पात पात

बन उपवन
कान्हा बन
किसने फिर यह
रास रचाया

बसंत आया!

शैल अग्रवाल
shailagrawal@hotmail.com

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