पुरोचन
मानव सभ्यता संप्रेषण प्रधान सभ्यता है। मानव का सबसे महत्वपूर्ण गुण यही है कि वह सहजता से एक भाषा में अपनी बात को दूसरे तक पहुंचा सकता है, यानी कि उसके विचारों का अभिव्यक्त होना पूर्ण रूप से सशक्त है। किंतु इस सभ्यता में अभिव्यक्ति का माध्यम केवल एक ही नहीं बहुत सारे हैं, जिनमें से एक नृत्य भी है। यह एक सार्वभौमिक कला है जोकि आंगिक क्रियाओं से उत्पन्न होती है। मानव अपने जीवन के आरंभ के बिंदु पर ही जब वह एक शिशु होता है अपनी क्षुब्धा और अकुलता आदि को स्पष्ट करने के लिए अपने हाथ पैरों को हिलाता है, रोता है और अपने भावों को अभिव्यक्त करता है। इसी से स्पष्ट होता है कि नृत्य करना कोई नवीन क्रिया या कोई नवीन उत्पत्ति नहीं है।
भारतीय हिंदू परंपरा में नृत्य के वर्णन सभी पौराणिक कथाओं में देखने को मिलते हैं जिसमें देवी-देवता, दैत्य-दानव, पशु, पक्षी सभी के वर्णन हैं। देवी देवताओं में भगवान श्री विष्णु का मोहिनी रूप, देवराज इंद्र की राज दरबार में उर्वशी, रंभा और मेनका जैसी नृत्यांगनाओं का होना, पशु पक्षियों में मयूर नृत्य का वर्णन, महादेव का प्रलय नृत्य और नटराज स्वरूप, श्री कृष्ण की नृत्य रासलीला इन सब की ज्वलंत उदाहरण है।
भारतीय नृत्य में अनेकानेक शैलियां प्रचलित हैं। अमूमन इन्हें शास्त्रीय तथा लोक नृत्य में विभक्त किया जाता है। भारतीय संस्कृति के अन्यत्र पहलुओं में, विभिन्न हिस्सों में, विभिन्न प्रकार की नृत्यों की उत्पत्ति हुई, जो कहीं ना कहीं वहां की स्थानीय परंपराओं और तत्वों के अनुसार ही विकसित हुए हैं। भारत में कला प्रदर्शन की राष्ट्रीय अकादमी और संगीत नाटक अकादमी ने भारत में 8 शास्त्रीय पारंपरिक नृत्य को मान्यता दी है। इनका मूल संस्कृत पाठ नाट्यशास्त्र और हिंदू धर्म की धार्मिक ग्रंथ प्रदर्शन कलाओं में निहित है। भारतीय लोक नृत्य और शैलियों संख्या और शैलियां असंख्य है। यह विभिन्न राज्य, जातीय और भौगोलिक क्षेत्रों की स्थानीय परंपरा के अनुसार अलग-अलग होते हैं। समकालीन समय के नृत्यों में शास्त्रीय परंपरा, लोक नृत्य परंपरा के पश्चिमी परिष्कृत रूपों का प्रयोगात्मक संलयन देखने को मिलता है। भारत की नृत्य परंपराओं का प्रभाव ना केवल पूरे दक्षिण एशिया में बल्कि दक्षिण पूर्व एशिया के नृत्यों में भी दिखायी देता है। भारतीय सिनेमा में प्रचलित बॉलीवुड नृत्य इन दोनों ही धाराओं से मुक्त है और लोकप्रिय सांस्कृतिक नृत्य के रूप में स्थापित है।
इतिहास
भारतीय परंपरा में नृत्य का प्राचीनतम ग्रंथ भरतमुनि का नाट्यशास्त्र है। इसके अतिरिक्त सभी वेदों और धार्मिक ग्रंथों में इसके उल्लेख मिलते हैं और यह भी स्पष्ट है कि प्रागैतिहासिक काल में भी नृत्य प्रचलित था। जिसका साक्ष्य आदिमानव की गुफाओं में उकेरे गए चित्र, हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की खुदाई में प्राप्त नर्तकी की मूर्तियां यह बात दावे के साथ स्पष्ट करती हैं। वेदों के शीर्ष ऋग्वेद में नृत्य शब्द का प्रयोग अनेकों बार हुआ है जिसमें अनेकानेक श्लोकों में नृत्य कला, नृत्य से संबंधित देवी देवताओं का वर्णन तथा नृत्य के लिए वाद्य यंत्रों का वर्णन भी देखने को मिलता है। इसके साथ ही यजुर्वेद में भी नृत्य से संबंधित सामग्री विद्यमान है। इसके अंतर्गत एक मंत्र से यह भी पता चलता है कि वैदिक समय में नृत्य प्रस्तुत करने वाले को सूत तथा नृत्य में प्रयुक्त गायन करने वालों को शैलूष कहा जाता था। यह मुख्य रूप से एक वर्ग होता था जो नाच कर गा-बजाकर अपना जीवन यापन करता था और उस समय उस समाज में नृत्य और गायन के कार्य मुख्य रूप से सूत और शैलूष ही करते थे। इस युग में देवी देवताओं के साथ ही सभी वर्गों के लिए नृत्य और सभी सांस्कृतिक कलाओं का स्थान श्रेष्ठतम था। सामवेद में अनेकानेक गान मिलते हैं यह गान कहीं ना कहीं नृत्य प्रस्तुतीकरण से ही संबंधित है। इसमें नाटक एक चतुर्थ अंक गति को नाट्य वेद के निर्माता परम पिता ब्रह्मा ने सामवेद से प्राप्त किया है। निसंदेह यह भी स्पष्ट है कि तांडव और लास्य नृत्य उद्भव अथवा बीजारोपण कहीं ना कहीं वैदिक काल में ही संपन्न हुआ होगा।
संभवतः उस समय नृत्य व्यायाम का एक भाग माना जाता था और शरीर को आरोग्य रखने के लिए नृत्य कलाओं का प्रयोग प्रबल रूप से प्रचलित है। श्रीमद् भागवत गीता, महापुराण, कूर्म पुराण, शिव पुराण आदि पुराणों में नृत्य का उल्लेख बहुत सी जगहों पर हैं। रामायण और महाभारत में समय-समय पर नृत्य की प्रबल शक्तियों और कलाओं के वर्णन नृत्त, नृत्य और नाट्य के रूप में परिलक्षित होते हैं। संस्कृत के सबसे प्राचीनतम ग्रंथ कालिदास के शाकुंतलम्, मेघदूतम, वात्सायन की कामसूत्र तथा मृच्छकटिकम आदि ग्रंथों में नृत्य का विरल विवरण भारतीय संस्कृति की कलात्मकता का शीर्ष चिन्ह है। भारत की सभी कलाओं में मुख्य रूप से शास्त्रीय नृत्य कला में गुरु शिष्य परंपरा भी चरम पर रही है।
प्रारंभिक नृत्य संबंधित साक्ष्य ग्रंथ नाट्य सूत्र में भी उल्लेखित है। जिसका उल्लेख पाणिनि के एक पाठ में मिलता है। इन्होंने संस्कृत व्याकरण शास्त्रीय भागों की भी रचना की और प्रदर्शन कला से संबंधित सूत्र पाठ्य का उल्लेख वैदिक ग्रंथों में किया। जिसमें शीलालीन और कृष्णश्र्व ने प्राचीन नाटक, गायनज़ नृत्य और संस्कृत रचनाओं के अध्ययन का अग्रणी माना जाता है। अनुमानितः इन नाट्य सूत्रों की रचना लगभग 600 ईसा पूर्व की गई थी, जिनकी पूरी पांडुलिपि आधुनिक युग में उपलब्ध नहीं है। इसका मुख्य भाग जो बचा हुआ है वही भरतमुनि का नाट्यशास्त्र संकलन है।
पाषाण काल मे नृत्य
पाषाण काल में नृत्य का संदर्भ मध्य प्रदेश की भीमबेटका की गुफाओं में तथा यूनेस्को की विश्व सांस्कृतिक धरोहर स्थल जैसी प्राचीनतम पुरापाषाण और नवपाषाण कालीन गुफा के चित्रों में अनेकानेक नृत्य के दृश्य दिखाई देते हैं। इसके साथ ही सिंधु घाटी की सभ्यता के पुरातात्विक स्थलों में मिली मूर्तियां उस समय नृत्य के प्रारूप को स्पष्ट करती हैं। डांसिंग गर्ल की मूर्ति जो लगभग 2500 इसमें प्राप्त हुई एक नृत्य की मुद्रा में 10.5 मीटर ऊंची है। इसके साथ ही अन्य गुफाओं में भी हाथ पैरों की थिरकन और एक विशेष मुद्रा में खड़े होना या बैठना नृत्य के ही प्रारूप है।
नृत्यनाम
भारतीय परंपरा के दोनों नृत्य शास्त्रीय और लोक की नाम पद्धति का विश्लेषण उनकी परिभाषाओं के आधार पर ही किया जा सकता है। कोई भी शास्त्रीय नृत्य वह नृत्य होता है – जिसका सिद्धांत, प्रशिक्षण, अभिव्यंजक अभ्यास और साधन के तर्क प्राचीन शास्त्रों के ग्रंथों और पुराणों में लिखित हैं। भारतीय शास्त्रों में ऐतिहासिक रूप से गुरु शिष्य परंपरा भी प्रचलित है जिसमें अध्ययन, शारीरिक व्यायाम, अंतर्निहित नाटकों की रचना, गायन आदि की प्रस्तुति की प्रदर्शनीयां भी व्यापक रूप से संलग्न है। मुख्य रूप से यह शास्त्रों के अनुसार होता है।
भारतीय लोक नृत्य कहीं अधिक मौखिक परंपरा पर आधारित होते हैं। इन्हें सिखा तो सांस्कृतिक और ऐतिहासिक रूप से ही गया है किंतु कभी कभी इन्हें एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक मौखिक या आकस्मिक संयुक्त अभ्यास के माध्यम से सीखा जाता हैं। इन्हें अर्द्ध शास्त्रीय भारतीय नृत्यों की संज्ञा भी दी जाती है क्योंकि इनमें शास्त्रीयता का लेष भी विद्यमान होता है किंतु गुरु शिष्य परंपरा दूर-दूर तक नहीं दिखाई देती। यह आदिवासी लोक नृत्यों के रूप में भी बनकर उभरे हैं किंतु यह एक विशेष स्थान तथा विशेष आबादी तक ही सीमित रह गए हैं। इसी कारण इनमें चपलता तो अधिक है किंतु शास्त्रीय आधार बिंदु कम।
नृत्य के स्वरूप
भारतीय परंपरा में नृत्य के दो स्वरूप मुख्य रूप से प्रचलित हैं – लास्य और तांडव नृत्य। लास्य स्वरूप के अंतर्गत ललित्य भाव से अभिव्यक्ति, रस, अभिनय आदि रेखांकित होते हैं। नृत्य कला का यह रूप मुख्य रूप से नारी सुलभ विशेषताओं का प्रतीक हैम वहीं दूसरी ओर तांडव नृत्य नर की अभिमुखताओं का स्वरूप है। इसमें लय तथा गति पर अधिक बल दिया जाता है। नंदीकेश्वर के प्रसिद्ध ग्रंथ अभिनय दर्पण के अनुसार किसी भी अभिनय के तीन प्रमुख तत्व होते हैं नृत्त, नाट्य और नृत्य। नृत्य में लयबद्धता का संचालन पैरों पर केंद्रित होता है जिसमें अभिव्यक्ति तथा मनोदशा का समावेश उपलब्ध नहीं होता। नाट्य में नाटकीय निरूपणों को महत्व दिया जाता है जो नृत्य की प्रस्तुति के माध्यम से विस्तृत।कथा का चित्रांकन करता है। नृत्य का आशय वर्णित रस, भाव और मूक अभिनय मुद्राओं सहित अभिव्यक्ति प्रधान विधियों का समावेश है।
शास्त्रीय नृत्य
भारत के शास्त्रीय नृत्य नाटकों का ही विकसित रूप हैं जिसका संबंध मुख्य रूप से रंगमंच से है। इसके अंतर्गत नर्तक लगभग विशेष रूप में अभिव्यक्त इशारों के माध्यम से एक विस्तृत कहानी का अभिनय प्रदर्शित करता है जो कि अधिकांशतः भारत की पारंपरिक हिंदू पौराणिक कथाओं से संदर्भित होती हैं और इसका प्रतीक रूप एक विशेष क्षेत्र के लोगों के समूह की संस्कृति और लोक आचरण का प्रतिनिधित्व करता है। ये शास्त्रों में निर्धारित दिशा निर्देशों का पालन करते हैं और अभिनय की भारतीय कला का व्याख्यान प्रदर्शित करते हैं। इन आठ भारतीय शास्त्रीय नृत्य शैलियों में भरतनाट्यम (तमिलनाडु), कथक (उत्तर, पश्चिम और मध्य भारत), कथकली (केरल), कुचिपुड़ी (आंध्र और तेलंगाना), ओडीसी (उड़ीसा), मणिपुरी (मणिपुर), मोहिनीअट्टम (केरल) और सत्त्रिया (असम) आदि हैं। यह सभी शास्त्रीय नृत्य हिंदू पौराणिक एवं धार्मिक कथाओं से संबंध रखते हैं। नृत्य की परंपरा नाट्यशास्त्र की संहिता में ही निहित है और इसका दर्शन है की मुख में इशारों, भावों आदि का आवाहन करके दर्शकों के बीच की भावना को उत्पन्न करना हैं। शास्त्रीय नृत्य मुख्य रूप से लोक नृत्य से भिन्न इस आधार पर होते हैं क्योंकि उनका नियंत्रण मुख्य रूप से नाट्यशास्त्र द्वारा ही किया जाता है।
लोक नृत्य
भारतीय लोक नृत्य किसी विशेष समुदाय कि दैनिक कार्य और अनुष्ठानों को अभिव्यक्त करते हैं मध्यकाल में संस्कृत साहित्य समूह नृत्य के कई व्यापक रूपों का वर्णन है जैसे – मध्ययुगीन काल का संस्कृत साहित्य समूह नृत्यों के कई रूपों का वर्णन करता है जैसे हल्लीसाका, रसक, दंड रसक और चरचारी। नाट्य शास्त्र में महिलाओं के समूह नृत्य शामिल हैं, जो एक नाटक की प्रस्तावना में किए गए प्रारंभिक नृत्य के रूप में होते हैं। हर राज्य के अपने लोक नृत्य हैं जैसे असम में बिहू और बगुरुम्बा, गुजरात में गरबा, गगरी (नृत्य), घोड़ाखुंड और डांडिया, हिमाचल प्रदेश में नाटी, जम्मू और कश्मीर में नेयोपा, बच्चा नगमा, झारखंड में झुमैर, डोमकच, बेदारा वेशा , कर्नाटक में डोलू कुनिथा, केरल में थिरयट्टम और थेयम, ओडिशा में दलखाई, पंजाब में भांगड़ा और गिद्दा, राजस्थान में कालबेलिया, घूमर, रसिया, तेलंगाना में पेरिनी नृत्य, उत्तराखंड में छोलिया नृत्य और इसी तरह प्रत्येक राज्य और इसके छोटे क्षेत्रों के लिए तथा लावणी, और लेज़िम, और कोली नृत्य महाराष्ट्र में सबसे लोकप्रिय नृत्य हैं।
भारत में जनजातीय नृत्य भी प्रचलित हैं जिनमें मुख्य रुप से मिथकों, किंवदंतियों, कहानियों, कहावतों, पहेलियों, लोकगीतों, गाथागीतों आदि का अलग-अलग मात्रा में संयोजन होता है। इन नृत्यों को प्रस्तुत करने वाले अनिवार्य रूप से आदिवासी नहीं होते हालांकि कहीं कहीं पर ये नृत्य उनके जीवन के सामाजिक संबंधों कार्य और धार्मिक चुनावों की बारीकी को दर्शाते हैं और इनमें वे अपने नृत्य के माध्यम से शरीर की जटल गतिविधियों से अपनी जन्म भूमि की समृद्ध संस्कृति और रीति-रिवाजों का प्रतिनिधित्व करते हैं। इन नृत्यों की तीव्रता में भिन्नता देखी जा सकती है। नृत्य के संगीत के रूप में मुख्य रूप से स्थानीय वाद्य यंत्रों का प्रयोग किया जाता है जो ताल तथा राग प्रदान करते हैं। लोकगीतों में प्रयुक्त समस्त वाद्य यंत्र स्वदेशी होते हैं और अपनी अपनी विविधता सौम्यता पर आधारित होते हैं। इनकी वेशभूषा एक विशेष पैटर्न की पारंपरिक होती है जो कि अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग होती है। इनमें से बहुत सी नृत्य शैलियां जातीय समूह की क्षेत्रीय ता स्थिति पर भी आधारित होती हैं जो धार्मिक संबद्धता गीतों की सामग्री को प्रभावित करती है और इसलिए नृत्य अनुक्रम की क्रियाओं पर भी इनका प्रभाव पड़ता है। इनका प्रस्तुतीकरण बहुत बड़े त्योहारों पर किया जाता हैम ऐसा अनिवार्य तो नहीं किंतु इनमें से अधिकतम त्यौहार फसल आने की खुशी में मनाए जाते हैं। अपने नृत्य के माध्यम से यह श्रम, सुख – दुख और एकजुटता को व्यक्त करते हैं।
समकालीन नृत्य
समकालीन नृत्यों में तो अभी बॉलीवुड लोकप्रिय सांस्कृतिक नृत्य का शासन है। जिसमें एक विस्तृत गतिविधियों की संख्या शामिल है। इसमें मुख्य रूप से भारतीय सिनेमा के लिए कोरियोग्राफी, आधुनिक भारतीय बेले और विभिन्न प्रकार के कलाकारों द्वारा नृत्य के मौजूदा शास्त्रीय और अर्द्धशास्त्रीय प्रयोग देखने को मिलते हैं। यह नृत्य भारत के शास्त्रीय, अर्द्धशास्त्रीय और पाश्चात्य के कुछ प्रमुख नृत्य जैसे बैले, जाज, हिप हॉप, स्विंग, कॉन्ट्रा, बेली, आधुनिक, लैटिन, सालसा, लाइन और बॉलरूम का मिश्रण है।
निष्कर्ष
सम्मिलित रूप से आज भारतीय शास्त्रीय तथा लोक नृत्यों पुनः मूल्यांकन की आवश्यकता है। हमारे देश की परंपरा और संस्कृति सर्वाधिक समृद्ध है, हमें बस एक बार उसका पूरा मूल्यांकन करना है जिससे हम अपने इतिहास पर गर्व कर सकते हैं; वर्तमान पर शोक कर सकते हैं और आने वाले भविष्य के लिए फिर से उत्साहित हो सकते हैं। यदि हमारी यह शास्त्रीय और अर्द्धशास्त्रीय नृत्य परम्परा एक बार फिर वैश्विक पटल पर आ जाएं तो सर्वत्र हमारी ही संस्कृति का बोलबाला होगा क्योंकि हमारी संस्कृति भावात्मक होने के साथ ही साथ तथ्यात्मक भी है। शास्त्रीय नृत्य में केवल मुख की विभिन्न भावनाओं के माध्यम से ही सैकड़ों शब्दों को अभिव्यंजना कर देना, ऐसा किसी और संस्कृति में मिलना तो दूर मिलने की बात सोचना भी व्यर्थ है।
स्त्रोत –
Books –
Indian Classical Dance
By Leela Venkatraman
Indian Classical Dance
By Kapila
Readings of BharatMuni’s Natyashstra
J store Research Reference
Wikipedia
Culture India net
CCRT
आयूष पॉल
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