ललितः आलोक पर्व की ज्योतिर्मय देवीः हजारी प्रसाद द्विवेदी

मारकंडेय पुराण’ के अनुसार समस्त सृष्टि की मूलभूत आद्याशक्ति महालक्ष्मी है। वह सत्व, रज और तम तीनों गुणों का मूल समन्वय है। वही आद्याशक्ति है। वह समस्त विश्व में व्याप्त होकर विराजमान है। वह लक्ष्य और अलक्ष्य, इन दो रूपों में रहती है। लक्ष्यरूप में यह चराचर जगत ही उसका स्वरूप है और अलक्ष्य रूप में यह समस्त सृष्टि का मूल कारण है। उसी से विभिन्न शक्तियों का प्रादुर्भाव होता है। दीपावली को इसी महालक्ष्मी का पूजन होता है। तामसिक रूप में वह क्षुधा, तृष्णा, निद्रा, कालरात्रि, महामारी के रूप में अभिव्यक्त होती है; राजसिक रूप में वह जगत का भरण-पोषण करने वाली ‘श्री’ के रूप में उन लोगों के घर में आती है, जिन्होंने पूर्व-जन्म में शुभ कर्म किये होते हैं; परन्तु यदि इस जन्म में उनकी वृत्ति पाप की ओर जाती है तो वह भयंकर अलक्ष्मी बन जाती है। सात्विक रूप में वह महाविद्या, महावाणी, भारती, वाक्, सरस्वती के रूप में अभिव्यक्त होती है। मूल आद्याशक्ति ही महालक्ष्मी है।

शास्त्रों में ऐसे वचन भी मिल जाते हैं , जिनमें महालक्ष्मी या महासरस्वती को ही आद्याशक्ति कहा गया है। जो लोग हिन्दू शास्त्रों की पद्धति से परिचित नहीं होते हैं, वे साधारणतः इस प्रकार की बातों को देखकर कह उठते हैं कि यह बहुदेववाद है। यूरोपिय पण्डितों ने इसके लिये ‘ पालिथीज्म ‘ शब्द का प्रयोग किया है। पालिथीज्म या बहुदेववाद से एक ऐसे धर्म का बोध होता है, जिसमें अनेक छोटे-बड़े देवताओं की मण्डली में विश्वास किया जाता है। इन देवताओं की मर्यादा और अधिकार निश्चित होते हैं। जो लोग हिन्दू शब्दों की थोड़ी भी गहराई में जाना आवश्यक समझते हैं, वे इस बात को कभी नहीं स्वीकार कर सकते। मैक्समूलर ने बहुत पहले बताया था कि वेदों में पाया जाने वाला ‘ बहुदेववाद’ वस्तुतः बहुदेववाद है ही नहीं, क्योंकि न तो वह ग्रीक-रोमन बहुदेववाद के समान है, जिसमें बहुत-से देव-देवी एक महादेवता के अधीन होते हैं और न अफ्रीका आदि देशों की आदिम जातियों में पाये जाने वाले बहुदेववाद के समान है, जिसमें छोटे-मोटे अनेक देवता स्वतंत्र होते हैं। मैक्समूलर ने इस विश्वास के लिये एक शब्द सुझाया था-हेनोथीज्म, जिसे हिन्दी में ‘ एकैकदेववाद ‘ शब्द से कुछ-कुछ स्पष्ट किया जा सकता है। इस प्रकार के धार्मिक विश्वास में अनेक देवताओं की उपासना होती अवश्य है, पर जिस देवता की उपासना चलती रहती है, उसे ही सारे देवताओं से श्रेष्ठ और सबका हेतुभूत माना जाता है। जैसे, जब इन्द्र की प्रार्थना का प्रसंग होगा, तो कहा जाएगा कि इन्द्र ही आदिदेव है; वरुण, यम, सूर्य, चन्द्र, अग्नि सबका वह स्वामी है और सबका मूलभूत है। पर जब अग्नि की उपासना का प्रसंग होगा, तो कहा जायेगा कि अग्नि ही मुख्य देवता है और इन्द्र, वरुण आदि का स्वामी है और सबका मूलभूत देवता है, इत्यादि।

परन्तु थोड़ी और गहराई में जाकर देखा जाये तो इसका स्पष्ट रूप अद्वैतवाद है। एक ही देवता है, जो विभिन्न रूपों में अभिव्यक्त हो रहा है। उपासना के समय उसके जिस विशिष्ट रूप का ध्यान किया जाता है, वही समस्त अन्य रूपों में मुख्य और आदिभूत माना जाता है। इसका रहस्य यह है कि साधक सदा मूल अद्वैत सत्ता के प्रति सजग रहता है। अपनी रुचि और संस्कारों और कभी-कभी प्रयोजन के अनुसार वह उपास्य के विशिष्ट रूप की उपासना अवश्य करता है, परन्तु शास्त्र उसे कभी भूलने नहीं देना चाहता कि रूप कोई हो, है वह मूल अद्वैत सत्ता की ही अभिव्यक्ति। इस प्रकार हिन्दू शास्त्रों की इस पद्धति का रहस्य यही है कि उपास्य वस्तुतः मूल अद्वैत सत्ता का ही रूप है। इसी बात को और भी स्पष्ट करके वैदिक ऋषि ने कहा था कि ‘ जो देवता अग्नि में है, जल में है, वायु में है, औषधियों में है, वनस्पतियों में है, उसी महादेव को मैं प्रणाम करता हूँ।’

आज से कोई दो हजार वर्ष पहले से इस देश के धार्मिक साहित्य में और शिल्प और कला में यह विश्वास मुखर हो उठा है कि उपास्य वस्तुतः देवता की शक्ति होती है। यह नहीं है कि यह विचार नया है, पहले था ही नहीं, पर उपलब्ध धार्मिक साहित्य और शिल्प और कला सामग्री में यह बात इस समय से अधिक व्यापक रूप में और अत्याधिक मुखर भाव से प्रकट हुई दिखती है। इस विश्वास का सबसे बड़ा आवश्यक अँग यह है कि शक्ति और शक्तिमान में कोई तात्विक भेद नहीं है, दोनों एक हैं। चन्द्रमा और चन्द्रिका की भाँति वे अलग अलग प्रतीत होकर भी एक हैं- ‘ अन्तरं नैव जानीमश्चन्द्र-चन्द्रिकयोरिव।’ परन्तु उपास्य शक्ति ही है। जो लोग इस विश्वास को अपनी तर्कसम्मत सीमा तक खींचकर ले जाते हैं, वे शाक्त कहलाते हैं। जो शक्ति और शक्तिमान् के एकत्व पर अधिक जोर देते हैं, वे शाक्त नहीं कहलाते। मगर कहलाते हों या न कहलाते हों, शक्ति की उपासना पर विश्वास दोनों का है। जिन लोगों ने संसार की भरण-पोषण करने वाली वैष्णवी शक्ति को मुख्य रूप से उपास्य माना है, उन्होंने उस आदिभूता शक्ति का नाम ‘ महालक्ष्मी’ स्वीकार किया है। दीपावली के पुण्य-पर्व पर इसी आद्याशक्ति की पूजा होती है। देश के पूर्वी हिस्सों में इस दिन महाकाली की पूजा होती है। दोनों बातों में कोई विरोध नहीं है। केवल रुचि और संस्कार के अनुसार आद्याशक्ति के विशिष्ट रूपों पर बल दिया जाता है। पूजा आद्याशक्ति की ही होती है। मुझे यह ठीक-ठीक नहीं मालूम कि देश के किसी कोने में इस दिन महासरस्वती की पूजा होती है या नहीं। होती हो तो कुछ अचरज क बात नहीं होगी। दीपावली का पर्व आद्याशक्ति के विभिन्न रूपों के स्मरण का दिन है। यह सारा दृश्यमान जगत-ज्ञान, इच्छा और क्रिया के रूप में त्रिपुटीकृत है। ब्रह्म की मूल शक्ति में इन तीनों का सूक्ष्म रूप में अवस्थान होगा। त्रिपुटीकृत जगत की मूल कारणभूता इस शक्ति को ‘ त्रिपुरा’ भी कहा जाता है। आरम्भ में जिसे महालक्ष्मी कहा गया है उससे यह अभिन्न है। ज्ञान रूप में अभिव्यक्त होने पर यह सत्वगुणप्रधान सरस्वती के रूप में, इच्छा-रूप में रजोगुण-प्रधान लक्ष्मी के रूप में और क्रियारूप में तमोगुण-प्रधान काली के रूप में उपास्य होती है। लक्ष्मी इच्छा रूप में अभिव्यक्त होती है। जो साधक लक्ष्मी-रूप में आद्याशक्ति की उपासना करते हैं, उनके चित्त में इच्छाशक्ति की प्रधानता होती है, पर बाकी दो तत्व ज्ञान और क्रिया भी उसमें सहायक होते हैं। इसीलिए लक्ष्मी की उपासना ‘ज्ञानपूर्वा क्रियापरा’ होती है, अर्थात वह ज्ञान द्वारा चलित और क्रिया द्वारा अनुगमित इच्छा-शक्ति की उपासना होती है। ‘ज्ञानपूर्वा क्रियापरा’ का मतलब है कि यद्यपि इच्छाशक्ति ही मुख्यतः उपास्य है, पर पहले ज्ञान की सहयता और बाद में क्रिया का समर्थन इसमें आवश्यक है। यदि उलटा हो जाये, अर्थात इच्छा-शक्ति की उपासना क्रियापूर्वा और ज्ञानपरा हो जाए, तो उपासना का रूप बदल जाता है। पहली अवस्था में उपास्या लक्ष्मी समस्त जगत के उपकार के लिये होती है। उस लक्ष्मी का वाहन गरुण होता है। गरुण शक्ति, वेग और सेवावृत्ति का प्रतीक है। दूसरी अवस्था में उसका वाहन उल्लू होता है। उल्लू स्वार्थ, अन्धकारप्रियता और विच्छिन्नता का प्रतीक है। लक्ष्मी तभी उपास्य होकर भक्त को ठीक-ठीक कृतकृतय करती है जब उसके चित्त में सबके कल्याण की कामना रहती है। यदि केवल अपना स्वार्थ ही साधक के चित्त में प्रधान हो, तो वह उलूक-वाहिनी शक्ति की ही कृपा पा सकता है। फिर तो वह तमोगुण का शिकार हो जाता है। उसकी उपासना लोककल्याण मार्ग से विच्छिन्न होकर बन्ध्या हो जाती है। दीपावली प्रकाश का पर्व है। इस दिन जिस लक्ष्मी की पूजा होती है, वह गरुण-वाहिनी है-शक्ति, सेवा और गतिशीलता उसके प्रमुख गुण हैं। प्रकाश और अन्धकार का नियत विरोध है। अमावस्या की रात को प्रयत्नपूर्वक लाख-लाख प्रदीपों को जलाकर हम लख्मी के उलूकवाहिनी रूप की नहीं, गरुणवाहिनी रूप की उपासना करते हैं। हम अन्धकार का, समाज में कटकर रहने का, स्वार्थपरता का प्रयत्नपूर्वक प्रात्याख्यान करते हैं और प्रकाश का, सामाजिकता का और सेवावृत्ति का आव्हान करते हैं। हमें भूलना न चाहिए कि यह उपासना ज्ञान द्वारा चलित और क्रिया द्वारा अनुगमित होकर ही सार्थक होती है।सर्वहया दया महालक्ष्मीस्त्रीगुणा परमेश्वरी।लक्ष्यालक्षस्वरूपा या व्याप्त कुत्सनं व्यवस्थिता।।

हजारी प्रसाद द्विवेदी

(19-8-1907-19-5-1979

१९३० में ज्योतिष विषय लेकर शास्राचार्य की उपाधि पाई। ८ नवंबर, १९३० को हिन्दी शिक्षक के रुप में शांतिनिकेतन में कार्यरंभ। वहीं अध्यापन १९३० से १९५० तक। अभिनव भारती ग्रंथमाला का संपादन, कलकत्ता १९४०-४६। विश्वभारती पत्रिका का संपादन, १९४१-४७। हिंदी भवन, विश्वभारती, के संचालक १९४५-५०। लखनऊ विश्वविद्यालय से सम्मानार्थ डॉक्टर आॅफ लिट्रेचर की उपाधि, १९४९। सन् १९५० में काशी हिंदू विश्वविद्यालय में हिंदी प्रोफेसर और हिंदी विभागध्यक्ष के पद पर नियुक्ति। विश्वभारती विश्वविद्यालय की एक्जीक्यूटिव कांउसिल के सदस्य, १९५०-५३। काशी नागरी प्रचारिणी सभा के अध्यक्ष, १९५२-५३। साहित्य अकादमी दिल्ली की साधारण सभा और प्रबंध-समिति के सदस्य। नागरी प्रचारिणी सभा, काशी, के हस्तलेखों की खोज (१९५२) तथा साहित्य अकादमी से प्रकाशित नेशनल बिब्लियोग्रैफी (१९५४) के निरिक्षक। राजभाषा आयोग के राष्ट्रपति-मनोनीत सदस्य, १९५५ ई.। सन् १९५७ में राष्ट्रपति द्वारा पद्मभूषण उपाधि से सम्मानित। १९६०-६७ के दोरान, पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़, में हिंदी प्रोफेसर और विभागध्यक्ष। सन् १९६२ में पश्चिम बंग साहित्य अकादमी द्वारा टैगोर पुरस्कार। १९६७ के बाद पुन: काशी हिंदू विश्वविद्यालय में, जहाँ कुछ समय तक रैक्टर के पद पर भी रहे। १९७३ साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत। जीवन के अंतिम दिनों में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के उपाध्यक्ष रहे।

आपका हिन्दी निबंध और आलोचनाक्मक क्षेत्र में महत्वपूर्ण स्थान व योगदान है। हिन्दी संस्कृत और बांगला के विद्वान द्विवेदी जी की सभी रचनाओं में उनके मौलिक चिंतन व गहन ज्ञान की छाप है। भारतीय संस्कृति और धर्म में इनकी गहन रुचि थी और इन्होंने सूर, कबीर, और तुलसी पर गहन और सारगर्भित आलचना की हैं। द्विवेदी जी का निबंध-साहित्य हिन्दी की अनमोल धरो हर है।

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