आजाद भारत का स्वप्न संजोए भारत लौटे और अंतिम सांस तक उसी के लिए लड़ते, उसी को समर्पित, हमारी सदी के सर्वाधिक प्रभावी और महत्वपूर्ण प्रवासी हैं मोहन दास करम चन्द गांधी। इन्होंने दक्षिण-अफ्रीका के आवास दौरान ही अश्वेत-नागरिकों के प्रति हो रहे अत्याचार और उत्पीड़न से विचलित होकर हर प्राणी के लिए एक स्वालंबी और स्वतंत्र जीवन का न सिर्फ सपना देखा, अपितु निस्वार्थ सेवाभाव की प्रतिमूर्ति फीनिक्स और टौल्सटौय फार्म जैसे आश्रमों की स्थापना करके इन कुरुतियों के खिलाफ ठोस और सकारात्मक कदम उठाए। पीड़ितों को स्वाभिमान और आत्मविश्वास के साथ जीने का विकल्प समझाया। यही कालांतर में भारत में उनके सत्याग्रह और अहिंसा के आवाहन का ढांचा बना, स्वतंत्र होने की चाह जगाई लम्बी गुलामी और विदेशी शासन से जड़ और निरीह भारत में।
भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन में गांधीजी का योगदान अविस्मरणीय तो है ही, एक पिता की तरह ही सोचा-समझा और कड़े अनुशासन से भरपूर, सुगठित और वात्सल्यमय भी है।
और शायद यही वजह है कि राम और कृष्ण के बाद गांधी ही हैं जिन्हें भारत ने आज भी अपनी चेतना में परोक्ष या अपरोक्ष रूप से जीवित रखा है, आदर्श और अपना बापू माना है । एक पिता की तरह उन्होंने 200 साल से पराधीन और अपंगु भारतीय चेतना के कानों में सत्य और अहिंसा की ताकत का मंत्र फूंका। सोते लाचार गरीबो की कोल्हू के बैल की तरह काम करती, फिर भी भूखे पेट सोती और बात-बेबात पर कोड़े खाती अस्मिता को जगाया। कितनी भी जोर-जबर्दस्ती हो गलत बात न मानने का, अत्याचार के विरुद्ध असहयोग करना सिखलाया। गांधी जी के तीन बंदर प्रतीक थे एक आदर्श समाज के, जहाँ बुरी या गलत बात को बिना देखे बिना सुने, बिना दोहराए पूर्ण अवहेलना करनी ही होगी।
बाहर के बदलाव तो क्षणिक होते हैं, परन्तु यदि हम अपना और दूसरों का आंतरिक बदलाव कर सकें तो यह स्थायी होगा। उनका टाल्यटौय फार्म स्वावलंबी तरीके से जीने का एक अद्भुत प्रयोग था जहाँ अपनी ही नहीं दूसरों की भी परवाह की जाती थी, और पूर्णतः स्वावलंबी होकर जीना सिखलाया जाता था। हर काम सहयोग व सेवा भाव से होता था।
नमक आंदोलन, भारत छोड़ो आंदोलन आदि उनके ऐसे आंदोलन थे जिनके आगे दुनिया के सर्वाधिक चतुर और क्रूर शासकों को भी घुटने टेकने पड़े। उनका चरखा आंदोलन एक ऐसा आंदोलन था जिसने मैनचेस्टर की मंहगी मिलों के दांत खट्टे कर दिए। तत्कालीन ब्रिटेन के प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल गांधीजी से मात्र इसलिए चिढ़ते थे क्योंकि उन्होंने गांधी जी को अप्रतिम रूप से चतुर पाया। गरीबों की, दीन दुखियों की सेवा करके उन्होंने पूरे देश का मन और विश्वास जीता। महात्मा कहलाए क्योंकि उन्हें वाकई में इन्सानों से प्यार था। हरेक का दुख दर्द उनका अपना था। विदेश के भी कई राजनेता, दार्शनिक व साहित्यकार गांधी जी से प्रभावित हुए बगैर नहीं रह सके। कुछ ने तो गांधी जी के आदर्शों को इस हदतक अपनाया कि उन्हें आज भी उनके देश का गांधी ही कहा जाता है जैसे कि अफगानिस्तान के नेता खान गफ्फार खान।
रुडयार्ड किपलिंग, अलबर्ट आंइस्टाइन, मार्टिन लूथर किंग, रविन्द्रनाथ टैगोर से लेकर जौन एफ कैनेडी, बैरेक ओबामा और हमारे आज के प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी तक गांधी जी के प्रशंशक और अनुयाइयों की सूची बेहद लम्बी, रोचक और विविध रही है।
गांधी अब एक व्यक्ति नहीं विचारधारा की तरह जीवित हैं हमारे बीच। देश के खोए वर्चस्व के साथ-साथ सच की ताकत से भी अवगत कराया बापू ने हमें। हर गलत बात का अहिंसक और संयमी विरोध करना सिखलाया। समझाया कि कैसे यहीं आकर हम पशुओं से अलग और अधिक सक्षम हैं! शारीरिक बल से तो पशु संसार चलता है, मानवता की ताकत मन जीतने या मनचाहे परिवर्तन में है। शत्रु को नष्ट तो किया ही जा सकता है परन्तु यदि उसे मित्र बना सकें तो यही सबसे बड़ी जीत होगी और आजीवन ऐसा करके दिखाया भी उन्होंने। कमज़ोरी या किसी अभाव से डर पैदा होता है और डर से शत्रुता व हिंसा। यदि हम दूसरे के डर और कमज़ोरी, ज़रूरत और अभाव को समझ सकें (साथ-साथ अपने डर और कमजोरियां को भी), तो संभवतः दुनिया से वैमनस्य, सारी हिंसा स्वयं ही खत्म हो जाएगी ! परन्तु यह सब इतना आसान भी तो नहीं, कभी ‘स्व’ आगे आ जाता है, तो कभी ‘कमजोरी’ या कोई और अन्य ‘ युक्ति’ ! यहीं पर धैर्य की जरूरत है जो आज शायद कहीं है ही नहीं, क्योंकि धैर्य या सहन-शक्ति तो तभी आएगी जब हम दूसरों को भी अपना-सा ही समझ पाएँगे, उनसे जुड़ेंगे!
भारतीय मनीषा के लिए ये विचार नए नहीं हैं। राम और कृष्ण की लड़ाई भी सच की ही थी। निर्बलों के उद्धार की थी। गौतम और महाबीर की खोज का विषय और संदेश भी सच का ही साथ देना था। करुणा को सदा हृदय में जीवित रखने का था। आश्चर्य नहीं कि गांधी जी के विचारों का प्रभाव दूर-दूर तक पहुँचा। कई कहानियाँ कविता और उपन्यास हैं जिनमें सीधे या अपरोक्ष रूप से विश्व बन्धुत्व, सत्य और अहिंसा को उकेरा गया। सादा जीवन और उच्च विचार को अपनाने को कहा गया। बंकिम बाबू का आनंदमठ उपन्यास दिमाग में आता है, शिवमंगल सिंह सुमन, द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी, सियारामशरण गुप्त , भवानी प्रसाद मिश्र आदि की कई कविताएँ याद आती हैं जो गांधी जी या उनके आदर्शों से प्रेरित जान पड़ती हैं। भारत के बाहर भी गांधी जी ने ध्यान आकर्षित किया। बीसवीं सदी में नेल्सन मंडेला, दलाई लामा, मदर टेरेसा, मार्टिन लूथर किंग, आंग सांग सू की आदि नेता गाँधी जी की अहिंसा विचारधारा का प्रयोग करते हुए अपने देश या क्षेत्र में परिवर्तन ला पाए, यही गांधीवाद की सफलता है, उसका उत्कर्ष है।
अमरीकी लेखक लुईस फिशर ने अपनी किताब ‘ द लाइफ औफ महात्मा गांधी’ में लिखा कि – गांधी जैसे महात्मा रोज नहीं जनमते जैसे कि राम, कृष्ण, बुद्ध , महाबीर , पैगम्बर या क्राइस्ट रोज नहीं आते। और यह भी एक दुःख की ही बात है कि प्रायः ऐसे सहृदय समाज सुधारकों की जिन्दगी के इर्द-गिर्द कहानियाँ गढ़ दी जाती हैं, उन्हें इतना ऊंचा स्थान और देवत्व दे दिया जाता है कि इन्सान इनकी भक्ति तो करता है, अनुसरण नहीं कर पाता। इसीलिए फिशर ने गांधीजी की जीवनी में सिर्फ घटनाओं का चित्रण किया , जैसे वे घटीं, उनका सामाजिक, राजनैतिक और दार्शनिक विश्लेषण नहीं। विदेशी आलोचकों के हिसाब से गांधी जी की आत्मकथा जैसी किताबों से घटनाओं का क्रमबद्ध रिकौर्ड तो मिलता है परन्तु महात्मा की विश्व पटल पर उभरने की छवि नहीं। हम उनकी मानस यात्रा के तो साक्षी बनते हैं पर एक साधारण बालक मोहनदास महात्मा कैसे बना यह जानकारी पूर्णतः नहीं मिल पाती। उनकी इसी किताब पर आठवें दशक में गांधी नाम की फिल्म भी बनाई थी रिचर्ड एटेनबरो ने, जिसे आठ-आठ औस्कर से नवाजा गया।
गांधी जी सदा बाहर की ही नहीं, अपनी आंतरिक कमजोरियों से भी लड़ते रहे। तरह-तरह के प्रयोग किए उन्होंने खुद पर । अपने संयम और इरादों की बारबार खुदही परीक्षा ली। कमजोरियों को जीतना चाहा। जिसमें से एक इंद्रियों पर नियंत्रण या बृह्मचर्यव्रत का पालन भी था। गांधी जी के चेस्टिटी चैलेंज व्यवहार को पश्चिम में स्कूलों तक में प्रचारित किया गया, दो-दो किताबें आईं और खूब बिकी भीं। गांधीजी को पश्चिम की भौतिकवादी समझ से समझना इतना आसान भी तो नहीं। वह अपने सिद्धान्तों में इतना अधिक विश्वास करते थे कि उन्ही के सहारे उनके व्यक्तित्व का पूरा विकास हुआ। वह इस बदलाव को ला सकते हैं या नहीं, इसके लिए उन्होंने पल-पल अपनी परीक्षा ली। आत्म अवलोकन किया। अगर कहीं खुदको गलत पाते तो तुरंत ही गलती मानने और रास्ता बदलने में भी नहीं हिचकिचाए गांधी जी। और यह कम साहस की बात नहीं। सबका हित ही सबसे बड़ी चाह थी गांधी जी की। दोस्त इस गुण से सम्मोहित होते थे और आलोचक गलतियाँ निकालने का मौका ढूंढते थे। पर गांधी जी कभी अपने लक्ष और सिद्धान्तों से भटके नहीं।
गांधी जी अपनी आत्मकथा में कुछ ऐसे दुरुह पलों का उल्लेख करते हैं, जहाँ वे एक आम इनसान की भांति कमजोर हुए, आहत हुए पर अपने इन्ही दुर्बल पलों से संयम और संकल्प के साथ चरित्र-निर्माण किया गांधी जी ने। दक्षिण अफ्रीका में गान्धी जी को भी अन्य भारतीयों की भांति भेदभाव का सामना करना पड़ा था। प्रथम श्रेणी कोच की वैध टिकट होने के बाद, तीसरी श्रेणी के डिब्बे में जाने से इनकार करने पर उन्हें ट्रेन से बाहर फेंक दिया गया था। इतना ही नहीं पायदान पर शेष यात्रा करते हुए एक यूरोपियन यात्री के अन्दर आने पर चालक की मार तक झेलनी पड़ी थी। कई होटलों में प्रवेश वर्जित था उन दिनों एशियाई और अफ्रिकन नागरिकों का। कुत्ते और कालों का प्रवेश निषेध है-ऐसी सूचनायें आम बात थीं तब। यही नहीं, एकबार अदालत में न्यायाधीश ने उन्हें अपनी पगड़ी उतारने का भी आदेश दिया था जिसे उन्होंने नहीं माना। ये सारी घटनाएँ गान्धीजी के जीवन में एक मोड़ बनकर आईं और समाज में मौजूद अन्याय के प्रति जागरुकता का कारण बनीं तथा उन्हें सामाजिक रूप से पूर्णतः सक्रिय कर दिया । दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों पर हो रहे अन्याय को देखकर गान्धी जी ने अंग्रेजों के खिलाफ अपने देशवासियों के सम्मान तथा देश में स्वयं अपनी स्थिति के लिए प्रश्न उठाने शुरु कर दिए और वह धरनों पर बैठने लगे।
रंगभेद व दुर्व्यवहार ने न सिर्फ उनके अपने आत्मसम्मान को जगाया अपितु निर्बल और वंचितों का मसीहा बना दिया उन्हें। इन घटना क्रम से गांधी जी के चरित्र की हमें एक समग्र और वैचारिक व्याख्या मिलती है और कई अफवाह और भ्रंतियों का खंडन भी होता है, जिनमें गांधी जी को जिद्दी, गैर जिम्मेदार व लम्पट तक कहा गया है। अधिकांश पाश्चात्य लोगों की सोच थी कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के गांधी मुख्य नेता व सूत्रधार थे. जबकि गांधी जी का परोक्ष योगदान इतना अधिक नहीं था। हाँ उनके देश प्रेम, सुधार की दृढ मान्यता और सिद्धांतों का था। भारत के लिए देखे गए सपनों का था, जो कि बिना स्वाधीनता के संभव ही नहीं थे। गांधी जी भी तुलसी दास की तरह मानते थे कि ‘पराधीन सपनेहु सुख नाहीं’। दो किताबें जिन्हें गांधी जी ने हमेशा अपने साथ रखा वह थीं गीता और रामायण। इनसे वह आजीवन बहुत कुछ सीखते रहे और इन्हें अपने जीवन में उतारा भी। कबीर का प्रभाव भी देखा जाता है गांधी जी के विचारों पर, कई कबीर के दोहे कंठस्थ थे उन्हें। यह उनकी मां पुतली बाई का प्रभाव था, जो कि एक धार्मिक महिला थीं और व्रत-उपवास आदि से आत्म शुद्धि में विश्वास करती थीं। गांधी जी अछूत प्रथा के खिलाफ लड़े। कौमी एकता पर जोर दिया । घर घर में चरखा चलाने का मूलमंत्र देकर लड़खड़ाते देश को आत्मनिर्भर बनाने की कोशिश की। खुदको हिन्दू मुस्लिम सिख इसाई हर धर्म का माना, सबसे सहानुभूति रखी और सबका संरक्षण हर नागरिक की जिम्मेदारी बताई। इसके बावजूद उन्होंने 1947 का विभाजन देखा और हिन्दू मुसलमानों के बीच भयानक झगड़े देखे। अगस्त 1947 स्वाधीनता दिवस की शाम वह आजादी के उत्सव में न होकर, टूटे बिखरे परिवारों के साथ थे। अर्थहीन खून-खराबे को रोकने की कोशिश में लगे रहे। इससे ही उनके दुख का अन्दाज लगाया जा सकता है। इसी प्रयास में उन्हें प्राणों तक की आहुति देनी पड़ी। दंगों के बीच भी वह हिन्दू और मुसलमान दोनों के घरों में जाकर दोनों के ही साथ रहे।
पश्चिम ने उनके उपवासों को भी राजनैतिक चाल समझा जबकि वह उनके लिए मानसिक और शारीरिक शुद्धि का ही तरीका थे। ये उपवास दबाव के बीच एकांत और थमने व सोचने का समय देते थे उन्हें। समस्याओं और घटनाओं से उनकी तेजी और गरमी खींचते थे। जब बापू उपवास करते तो लोग न सिर्फ इसलिए परेशान होते थे कि बापू कैसे हैं , अपितु इसलिए भी कि अगर इन्हें कुछ हो गया तो उनके हित की लड़ाई कौन लड़ेगा। और तब वह अपनी चेतना को भी खंगालने लग जाते, बेहतर सोचते और सहयोग देते जिसके परिणाण भी उपयुक्त और हितकारी ही होते। सामूहिक प्रार्थना की ताकत में गहन विश्वास था उनका। भगवान तक गांधी जी के सही सलाहकार और मित्र थे। सही विचार और निर्णय ही देते थे उन्हें। नियम और संयम निर्धारित करते थे। पश्चिम में शायद इसे ही ‘इनर कौंशशनेस’ कहते हैं। सुबह की प्रार्थना गांधी जी के लिए दिन भर की रूपरेखा होती थी और शाम की आने वाले कल के सपनों का ढांचा।
गांधी जी ने अपने बारे में लिखा कि मैं कोई स्वप्न दृष्टा नहीं, वरन् एक आम और बेहद व्यवहारिक इनसान हूँ जो मानवता का, दीन-दुखियों का उत्थान चाहता है…उनके जीवन की असह्य पीड़ा का अन्त चाहता है। समाज के अत्याचार और अन्याय का उन्मूलन चाहता है। और इसे मानवता शान्ति और अहिंसा से सच के मार्ग पर चलकर ही पा सकती है। यह रास्ता सिर्फ ऋषि-मुनियों का ही नहीं, आम आदमियों का भी है। जानवरों के पास शारीरिक बल के अलावा और कुछ नहीं होता परन्तु इन्सान के पास आत्मिक या आध्यात्मिक शक्ति है, जो शारीरिक शक्ति से ज्यादा ताकतवर और स्थाई है।
कईबार ऐसा होता है कि हम विद्रोह करना चाहते हैं। सामने वाले की अभद्रता से उद्विग्न होकर उसे मारना या डांटना…दंड देना चाहते हैं। परन्तु यदि उस एक पल में अपने को रोक सकें तो यही होगी, गांधी जी की अहिंसा मेरी समझ में। गांधी जी की अहिंसा का अर्थ था अत्याचार और अन्याय का शांत व संयमी विरोध। पाप को नष्ट करने के लिए पापी को नष्ट करने की जरूरत नहीं। यदि अत्याचारी के आगे बिना झुके हम उसे बता सकें कि वह गलत है। उसकी सोच, उसकी करनी गलत है, तो यही गांधी का सत्याग्रह है…सत्य की जीत है।
सत्य और अहिंसा का यह सिद्धांत जिस दिन व्यक्तिगत स्तर से उठकर विश्व-व्यापी हो जाएगा उस दिन सारी लड़ाइयाँ खुद-ब-खुद खतम हो जाएँगीं।
आखिर क्या था गांधी जी का यह सत्य और अहिंसा का आग्रह…सत्याग्रह और इसकी ताकत ! गांधी जी अकेले व्यक्ति नहीं थे जिन्होंने अहिंसा पर जोर दिया परन्तु अहिंसा से आजादी दिलाने वाले पहले व्यक्ति अवश्य थे- दे दी हमें आजादी बिना खड्ग बिना ढाल, साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल। युद्ध तो सिर्फ विनाश ही लाता है, उससे मसले नहीं सुलझते। पर इसके साथ-साथ गांधी जी ने यह भी कहा कि मैं मानता हूं कि जहां डरपोक और हिंसा में से किसी एक को चुनना हो तो मैं हिंसा के पक्ष में ही अपनी राय दूंगा। शेर अहिंसा की बात करता ठीक लगता है, चूहा नहीं।
देशवासियों में आत्मिक और शारीरिक दोनों विकास चाहते थे गांधी जी। अहिंसा उनके लिए एक राजनैतिक विचारधारा या ओढ़ी हुई आदत नहीं, प्राणियों के प्रति प्रेम से उत्पन्न हुई थी। करुणा से उत्पन्न और जनसाधारण के हित में किया गया उनका सत्य और अहिंसा का आवाहन अत्यधिक आत्म-संयम और आत्मबल के सहारे ही सफल हो पाया था। कायर और निर्बल मानसिकता के व्यक्ति के बस का नहीं अपने इरादों पर दृढ रह पाना। और बिना उद्देश्य या आवेश वश किया काम पशुवत् ही था उनकी निगाह में। कर्म और विचार दोनों को एक मानकर दोनों पर ही जोर दिया था उन्होंने।
सबकी परवाह की व्यस्तता में वह अपने परिवार को उतना वक्त नहीं दे पाए जितना होना चाहिए। परन्तु उनके चरित्र पर अपना अंतिम निर्णय देने से पहले हमें सवाल पूछने चाहिएँ खुद से कि क्या थीं वे परिस्थितियाँ जिनकी वजह से गांधी , गांधी बने। और क्या गांधी जी के सिद्धांतों को आज भी अपनाया जा सकता है, क्या उनका उतना ही महत्व है आज भी? क्या यह अहिंसा की नीति आज भी भला करेगी विश्व का? क्या आज भी निर्बल और पिछड़ों की मदद करने की जरूरत नहीं ? क्या निशस्त्रीकरण में ही इस युद्ध से जर्जर धरती की सुख-शांति नहीं!
उपरोक्त प्रश्नों के उत्तर में ही गांधी जीवित हैं आज भी हमारे बीच और सदा रहेंगे। यह बात दूसरी है कि आज हममें से अधिकांश का गांधीजी से परिचय मात्र बड़ों के मुँह से सुना या किताबों से जाना-पढ़ा ही है… बचपन में मनाए गए चन्द विद्यालय के उत्सव…चन्द गाने और भजनों तक ही सीमित है। माना कुछ सफल हिन्दी फिल्म जैसे ‘लगे रहो मुन्ना भाई ‘ और ‘ गांधी माई फादर ‘ आदि ने युवा पीढ़ी का ध्यान महात्मा की ओर पुनः आकर्षित किया है और गांधीजी व गाँधीवाद एक बार फिरसे चर्चा का विषय बने हैं ।
पर गांधी जी खुद कभी किसी आडंबर या अपनी ‘फैन-फौलोइँग ‘ या किसी भी तरह के गांधीवाद में विश्वास नहीं करते थे । उनका कहना था मन और दिमाग की खिड़की खुली रखो और ताजी हवा को अंदर आने दो। परन्तु उनकी म़त्यु उपरान्त अवसरवादियों ने गांधी से जुड़ी हर चीज का बैसाखी की तरह खूब इस्तेमाल किया। गांधी के बाद गांधीवाद के युग में गांधी से जुड़ी खादी तक भृष्टाचार और बेइमानी का प्रतीक बनकर रह गई। इसे भी खूब भुनाया और चमकाया गया और इसका सहारा लेकर खूनी पाखंडी सभी ताकत की कुरसियों पर जा बैठे। जबकि गाँधीजी खुद यह मानते थे कि तुम एक बार शक के दायरे में आ जाओ तो फिर तुम्हारे हर आशय को संदिग्ध ही समझा जाएगा और बारबार परखा जाएगा। कोशिश यही रहनी चाहिए कि कथनी और करनी ही नहीं, सोच तक एक हो… बुरा मत सोचो, बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो, गांधी जी के तीनों बंदर भला किसे याद नहीं ! पर हजार अच्छाइयों के बावजूद भी यह वही गांधी थे जिन्हें ईसा मसीह की तरह ही अपने सिद्धान्तों के लिए जान गंवानी पड़ी। बापू के प्रति अनन्य श्रद्धा के साथ-साथ कइयों के मन में कुछ अनुत्तरित और विवादास्पद सवाल भी रहे हैं – जैसे कि भारत का विभाजन और देशप्रेमी भगतसिंह को फांसी। लोग कहते हैं कि गांधी जी चाहते तो इन दोनों ही धटनाओं को रोक सकते थे। एक शेर याद आ रहा है, कोई तो मजबूरी रही होगी उनकी भी, वरना कोई यूँ ही बेवफा नहीं हो जाता…
दुरूह इन सभी सवालों का जवाब गांधीजी ने खुद ही अपने लेखनी से बार-बार दिया है।
अपने चरित्र और जीवन से बारबार समझाया है हमें और कथनी व करनी की एकरूपता मरते दमतक कायम रखी है। सत्य के बारे में लिखते हुए कहा कि यदि हम सच को समझ नहीं पाते तो यह हमारी अपनी हार है, सच की नहीं। गांधीजी के तीन बंदर आँख, कान, और जिह्वा के विवेक और संयम का प्रतीक बनकर आज भी गांधी जी के अनुयाइयों के बीच बैठे हुए हैं।
गांधी जी के अनुसार हमारे ऋषि -मुनि, जिन्होंने हिंसा के बीच रहकर अहिंसा वृत आजीवन पालन किया वो न्यूटन से बड़े विचारक और वेलिंगटन से बड़े योद्धा थे। अहिंसा क्रियाशील रूप में आत्मसंयम के साथ की गई आत्म संशोधन की एक निरंतर प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया में मानसिक यातना और शारीरिक कष्ट दोनों ही हैं पर इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि अहिंसा कमजोर करती है। यह अत्याचारी के सामने मूक समर्पण नहीं …अहिंसा का सेनानी तो अपने समस्त आत्मबल के साथ अपने सम्मान, धर्म और राष्ट्र के लिए आखिरी सांस तक लड़ता है और साथ-साथ अन्याय के अन्त की और अन्यायी के पुनःनिर्माण की नींव भी रख जाता है।
गांधी जी अनेकता की एकता में विश्वास करते थे। उन्होंने कहा कि मैं सिर्फ भारत की एकता नहीं, विश्व एकता का सपना देख रहा हूँ। यह वही सपना था जो हजारों साल पहले हमारे ऋषि मुनियों ने ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ के रूप में देखा था।
गांधीजी के लिए स्वराज सिर्फ भारत की ही आजादी नहीं, दीन-दुखियों की आजादी थी। भारत के गांवों में बसे निरक्षरों और असहायों की आजादी थी। गांधी जी का मानना था कि जब मन पूरी तरह से निर्मल हो जाता है…स्वार्थ, घृणा और पाप की वहाँ जगह नहीं रहती, तब हमारे विचार दूसरों को छूने लगते हैं। परन्तु बुद्धिमान और व्यवहारिक गांधीजी यह भी जानते थे कि अपनी कोई भी इच्छा दूसरों पर लादी नहीं जा सकती। एक उनके सोचने या चाहने से कुछ नहीं होगा जबतक कि भारत और विश्व के मानस का हृदय परिवर्तन न हो। फिर भी उनका कहना था कि मुझे अपना यह सत्याग्रह तो जारी रखना ही होगा…मानवता को यह तो बताना ही होगा कि यह दुनिया, यह जीवन कितना सुन्दर और बहुमूल्य है…और इसे यूँ नष्ट मत होने दो !
गांधी को जानना इन्सानों के, भारत के सच्चे हितैषी और प्रेमी को जानना है, एक दृढ़ जीवन शैली को जानना है आश्चर्य नहीं कि आंइस्टाइन ने उन्हें बीसवीं सदी का सबसे महान पुरुष कहा। बहुत कुछ दिया और समझाया है गांधी ने हमें। एक लंबी वैचारिक धरोहर है गांधी दर्शन की आज हमारे पास। महात्मा गांधी ने स्वाधीनता आंदोलन के लिए एक राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी को प्राथमिकता दी थी और स्वदेशी अपनाओ यह भी गांधी जी का ही नारा था। गांधी का राम राज्य, ग्राम राज्य की परिकल्पना पर ही आधारित था। वह विकास को जनजीवन में देखना चाहते थे। आज की जरूरतों को देखते हुए गांधी जी के सत्याग्रह और स्वच्छता अभियान, स्वभाषा की नीति पर पुनः बल देने की जरूरत है। राष्ट्रभाषा के बिना यदि राष्ट्र गूंगा है तो आत्मनिर्भरता के बिना रीढ़हीन। हरिजन जैसे सुंदर शब्द उनकी उद्दात्त और सर्वहिताय सोच के परिचायक हैं। गांधी जी ही थे जिन्होंने क्रुद्ध हिंसक भारतीयों को समझाया कि आंख के बदले आँख की नीति तो पूरे राष्ट्र को ही अंधा कर देगी। निशस्त्रीकरण पर जोर दिया क्योंकि वह जानते थे कि शस्त्रों की यह होड़ पूरी मानवता को खतरे में डाल देगी। कैसे भी, कुछ बच भी गए तो उनका जीवन मौत से भी बदतर होगा। गांधी जी का भारत की स्वतंत्रता ही नहीं, आजाद भारत के लिए देखे गए सपने और सिद्धांतों का अनुदान भी अप्रतिम है। सच्चे अर्थों में राष्ट्रपिता थे बापू, जिन्हें आज भी हम भारतवासी और भारतवंशी गौरव से याद करते हैं, श्रद्धा से नमन करते हैं।
एक शब्द में यदि गांधीजी के प्रति अपने सारे भावों को समेट पाऊँ तो यही कहूँगी कि बापू सच्चे अर्थ में विश्व-बंधु थे इसीलिए तो सबके अपने और विश्व-वंदनीय हो पाए,
गांधी जी की मृत्यु पर लूईस फिशर ने लिखा- “एक अर्धनग्न बूढ़ा जो ग्रामीण भारत में बसता था, उसके निधन पर संपूर्ण मानवता रोई ।”
भारत के अपने समय के शीर्षस्थ उद्योगपति घनश्याम दास बिरला ने गांधीजी की मृत्यु पर श्रद्धांजली देते हुए कहा “मानवीय इतिहास में यह अनोखी बात है कि एक अकेला व्यक्ति एक ही समय योद्धा, मसीहा और संत तीनों था और उससे भी अधिक वह विनम्र और मानवीय था।”
और शायद यही विनम्रता और मानवीयता ही थी जिसके बल पर गांधी जी हम सबके अपने बने और उससे भी बड़ी बात है कि आजतक हैं।
शैल अग्रवाल
1ए ब्लैकरूट रोड
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