रागरंगः कान्हा-शैल अग्रवाल


अधरं मधुरं वदनं मधुरं नयनं मधुरं हसितं मधुरं।
हृदयं मधुरं गमनं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरं।।

एक तरफ गीता तो दूसरी तरफ गीत गोविंदम्, चक्र और बांसुरी दोनों धारण करने वाले सोलह कलाओं से संपूर्ण अवतारी कृष्ण को जानना एक निरंतर सुख सागर में डूबना है- जहाँ सबकुछ मधुर है। जहां मिलन का उल्लास है तो विरह की कसक भी कम मधुर नहीं- कनाडा की कवियत्री शैलजा सक्सेना की कविता में श्री कृष्ण रुक्मणि जी से कहते हैं- ‘ बींधा प्रिय का हृदय स्वयं, मैं वही तीर हूँ ! आज मिलन की रात और प्रिये मैं अधीर हूँ !’

कर्मयोगी कृष्ण जी भरकर जीने में…शाश्वत आनन्द में विश्वास करते हैं। रास रचाते हैं। मुरली बजाते हैं। परन्तु नीर-क्षीर विवेकी श्री कृष्ण भक्तों के भक्त हैं और दुष्टों के संहारक। उनका तो जन्म ही पाप के विनाश और धर्म की रक्षा के लिए हुआ है।
‘ युग ऐसा आ गया यहां पर, हुई व्यवस्था छिन्न भिन्न। ऐसे युग के लिए कहो, तो क्या करते तब श्री कृष्ण।’
फरीदाबाद के मनिषी डॉ, वेद प्रकाश शर्मा-उर्फ वेद व्यथित जी ने कृष्ण ने अपना सुदर्शन चक्र क्यों उठाया-यह बात हमें स्पष्ट शब्देों में समझाई है।

‘ राधा बिन कृष्ण अकेले, अपूर्ण हैं, राधा तो कान्हा के प्रेम की शहनाई है।‘
ध्यान दें, अधरों की बांसुरी नहीं प्रेम की शहनाई है राधा-एक अनुपम और सशक्त उद्घोष करती हैं अहमदाबाद की कोकिला कवियत्री संगीता अग्रवाल जी अपनी कविता में।

बिहारी ने भी तो यही बात कही थी, जब उन्होंने लिखा-‘मेरी भव बाधा हरो राधानागर सोय, जा तन की छांई परत श्याम हरित दुति होय।’

‘सुदामा से नहीं तन्दुल, न सधती भक्ति मीरा-सी। न अंतरदृष्टि सूरा सी, मग़र ज़िद है कबीरा सी। कहाँ ढूंढूं तुम्हें मोहन कहो किस छोर बसते हो?’- भोपाल की सीमा हरि शर्मा ढूंढ रही हैं हम सभी की तरह अपने कृष्ण को।

रसखान ने लिखा था-‘ काग के फाग कहा कहिए हरि हाथन से लै गयो माखन रोटी’-कौन नहीं मोहित मनमोहन पर, कौन नहीं डूबना चाहता इनकी भक्ति में

‘मीत तू ही, गीत तू ही
प्रीत की वंशी सुना दे प्रीत का माखन लुटा दे
उगा दे उजयार चंदा, ओ गोपाला’…..

यह पंक्तियाँ है लखनऊ की सुषमा सौम्या की ।

सूर तो हमें पूर्णतः वात्सल्य रस में नहला देते हैं जब लिखते हैं -‘मैया कबहिं बढ़ेगी चोटी’ या फिर ‘जशोदा हरि पालने झुलावै।’ या फिर ‘मैया मोरी मैं नहीं बाखन खायो।’

विजय गिरि गोस्वामी बांसवारा , राजस्थान से जो हैं और बालकृष्ण का वर्णन करते हुए लिखते हैं – ‘चारु वदन पंकज सम लोचन, श्याम घटा सी लट। मुख पर माखन लेप किये हैं , कान्हा बड़े नटखट।।’

संतोष भाउवाला बंगलौर से तुलसी दल का कृष्ण के लिए महत्व पर लिखती हैं,
‘तुला दान कर रहे कृष्ण पर रहा पलड़ा भारी, अखंड धन दौलत समक्ष तुलसी महिमा न्यारी।’

‘मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो ना कोई।’ मीरा ने कभी कहा था और

  • सोमनाथ दनायक जो-आइटी कानपुर से हैं, लिखते हैं,

    ‘ खग वंदृ करें छंद, पवन है मदं मदं, आज मेरी बाटिका तरंग में नहाई है।
    पुष्प संग झूम रही, लिए मन मकरंद भ्रमर का नाद सुन कलि मुसकाई है।’

    भाव जितने सुंदर शब्द संयोजन भी उतना ही लयमय।

    ‘राधा देखे चहुओर, कौन है ये चित-चोर कान्हा ने प्रथम आज बंसी बजायी है।’

    कृष्ण आज भी भारतीय चेतना में ज्ञान और आनन्द के प्रतीक हैं। बचपन से ही उन्हें नवनीत यानि कि जो मूल तत्व है, वही पसंद है। नवनीत यानी सदा मूल्य और परिस्थितियों का सार ही गृहण करने वाले और त्वरित बुद्धि के हैं कृष्ण, साथ में नीर क्षीर विवेकी भी। इसीलिए तो योगेश्वर कहलाए। होठों पर सुख -शांति और आनंद का संगीत है। बांसुरी है और उंगलियों पर दुष्ट संहारक चक्र है।
    गाजीपुर के श्री विजयानंद जी अपनी कविता में कहते हैं,
    ‘धरा पर हो अँधेरा इस तरह, कुछ सूझता न हो,
    निज मोह-मद में कोई, किसी को बझूता न हो।
    वहीं कृष्ण आते हैं।’
    सर पर मोरपंख है जिसकी तीसरी आंख, दिव्य दृष्टि की तरह सब देखती और समझती रहती है। नेह, कपट, धूर्तता, सरलता वात्सल्य सब कुछ। ऐसे कृष्ण को समझने और शब्दों में बांधने का प्रयास किया है हर युग में अपनी-अपनी कविताओं द्वारा । और हर बार ही इन्हे पढ़कर, सुनकर हम बहे और डूबे हैं इस रस-धार में। और ज्ञान गंगा में भी।

    कृष्ण समय और परिस्थितियों के पारखी थे और दूरदर्शी भी। गोकुल में माखन खाने वाले ने वृंदावन में रास रचाया और मथुरा जाकर शंखनाद किया चक्र उठाया। चक्र जो असुरों को भ्रमित करता है। नचाता- दौड़ाता है। उनका नाश करता है। ऐसे अलौकिक सखा कृष्ण की तरफ हम आज भी आत्मोत्थान के लिए देखते हैं। शान्ति सुख चैन की प्रार्थना करते हैं। भगवान मानते हैं उन्हें और उनके जन्मोत्सव पर प्रमुख मंदिरों में आज भी कृष्ण लीला की झाकियाँ सजती हैं । जगह-जगह शोभायात्रा निकाली जाती हैं और आधी रात को कृष्ण जन्म के बाद ही श्रद्धालु भोजन करते हैं।

    सहज और हर प्रेमी के लिए सुलभ, चाहे वे गोपिकाएं हों या ग्वाले, परंपरा और प्रपंचों से दूर और बचपन से ही मोरपंख यानी तीसरी आँख से सज्जित जिसे मैं उनकी दूरदर्शिता का ही प्रतीक मानूंगी, ऐसे आनंददायी और लीलाधर कृष्ण के चरणों में प्रस्तुत मेरे भी चन्द भाव-सुमन और जिज्ञासाएँ ।

    कहाँ ढूँढूँ मैं अब तुम्हें
    ————–
    सबके अपने अपने कृष्ण,
    सबकी अपनी अपनी राधा
    बंसीवट का तट भी वही है
    जमुना जी में हरित श्यामल रंग
    बहे आज भी वही नीर सुहाना
    कहाँ ढूँढूँ पर मैं उस कान्हा को
    जो था अपनी राधा का दीवाना…

    मधुर मधुर है वो कान्हा
    —————–
    मधुर कृष्ण की बांसुरी
    मधुर कृष्ण की राधारानी
    इनसे भी अधिक मधुर पर
    प्रीत की है वह रीत पुरानी
    मधुर मुस्कान सजी होठों पर
    बिजुरी सा चंचल भृकुटि विलास
    युद्ध भूमि में या प्रेम पाश में
    कालिया मर्दन और जमुन जल पर
    मधुर लगे हौले हौले डोलता पीतांबर
    गोपी ग्वालों संग नटखट हास परिहास
    मां के हाथों तुरंत खंबे बंध जाना
    और अगले पल ही फिर
    मटकी फोड़ आना
    मोर मुकुट नीचे वह चंचल चितवन
    शरद चांदनी में गोपियों संग रास
    मधुर मधुर अति मधुर है सब
    भावमय और रस से पूर्ण
    बाल कृष्ण की लीला की हो
    या युद्धभूमि में गीता का ज्ञान
    मधुर आज भी हर रूप तुम्हारा
    हर अदा पर हम बलिहारी
    हे मोरपंख धारी, नवनीत के रसिया
    मधुर सदा यह शरण तुम्हारी
    पर दर्शन देना जब भी
    प्यारी राधारानी के ही संग।

    बोलो कान्हा
    ——–
    मंदिर मंदिर आज भी
    तुम बिराजते राधा संग
    पर हैं कितने रूप तुम्हारे

    एक तुम वो सुदामा के कृष्ण
    गरीब अमीर की नहीं थी
    जिसे परवाह, यारों के यार

    एक तुम वो अर्जुन के कृष्ण
    कर्मज्ञान दिया युद्धभूमि में
    निभाया पूरा मित्रता का फर्ज

    एक तुम वो द्रौपदी के सखा
    जब पुकारा तभी आए
    भरी सभा में लाज बचाई

    जिसने भी तुम्हे चाहा
    पूरा ही पाया
    फिर राधा क प्यार ही
    क्यों रह गया आधा?

    हे गोविन्द , हे गो पालक,
    सर्वज्ञ और सृष्टि संचालक
    कैसी लीला है यह तुम्हारी

    कैसा यह रहस्यमय संदेश
    आंसू-सा आंख में नित तैरे
    हृदय में भर दे ज्वार

    कैसी थी वह प्रीत राधा संग
    त्याग ही रहा सुख जिसका
    क्या लौटना था इतना कठिन

    या याद ही नहीं आई
    होठों पर सजी बांसुरी
    वो बृजभूमि और बृंदावन
    जान से प्यारी राधा रानी

    छोड़ जिन्हे द्वारिकाधीश बने
    रुक्मणि से ब्याहे गए
    फिर राधा संग ही क्यों सजी
    सदा जोड़ी तुम्हारी
    हर मन मंदिर में ?’


    भ्रमर गीत
    ——-

    जाकी मुरली पै हम नाचे
    नित नित ही ता-ता थैया
    भूल कै अपनौ घर संसार
    तज लोक लाज बापू मैया
    वही सुध ना लेवै हमारी

    मनमानी कैसी है इसकी
    बहुत छल चुको है हमकू
    छोड़ हमें मथुरा को जावै
    बहलावन को फिर दूत पठावै

    पानी मैं क्यों तुम चांद दिखाओ
    बातों से और ना हमें फुसलाओ
    इतनो ध्यान हमारो तो कह दो
    खुद ही छलिया मिलने आवै

    कहियो तुम निठुर ते जाय
    कान्हा की ये बांसुरी
    कान्हा से ज्यादा निर्मोही है
    बिन कान्हा के
    एक गीत ना गावे है
    पनघट पै बैठी राधा
    अंसुवन गागर भर लावै है

    शब्दन की खिड़की से बिखरी
    कितनी आड़ी-तिरझी धूप
    तिस पर तुम्हारी ये ज्ञान की बातें
    तुम ही कहो कैसे हम अब बूझें

    अंखियन किरकैं भर-भर बरसें
    नयन बावरे दरसन को तरसैं
    भोली हैं बृज की बिरहन बाला
    कैसे ज्ञानभरी बतियन को समझैं
    अंखियन रचे रमे जब मनमोहन
    कान्हा की मुरली ही हमैं सुहावै

    रास रचावैं मनमोहन पलकन बैठे
    तान पै इनकी ही पग नूपुर थिरकैं
    सूनो सूनो उमड़ो बिखरो है पलपल
    प्रतिक्षारत आकुल जमनजी को जल
    तरुवर पंछी तक दिखते व्याकुल
    अगन लगाए हिय में मदिर मलय
    बावरी-सी भटक रही बृषभान लली
    ढूंढती इतउत कन्हा को गली गली!

    जाओ भ्रंमर,
    तुम तो बस वापस जाओ
    बृंदावन की कुंज गलिन में
    महकेंगी ना किलकती कलियाँ
    एक कृष्ण के आने पर ही
    मुस्काएंगी ये बृज की गलियाँ’…

    कृष्ण का मन, कृष्ण का आध्यात्म…चौसठ कलाओं में निपुण योगेश्वर कृष्ण के अवतरण पर भारत ही नहीं , पूरी मानवता कृतज्ञ है। उन्होंने ही तो सिखलाया हमें कि बाँसुरी के साथ-साथ यदि वक्त मांगे तो चक्र भी साधना जरूरी है। मधुबन में रास तो कुरुक्षेत्र में गीता….वक्त की नब्ज पहचानते थे कृष्ण। जगद्गुरु कृष्ण की लीला का आनंद ले रहे हैं हम आज। उनके संदेशों को दोहरा रहे हैं हम। नेहमय और नीर-क्षीर विवेकी कृष्ण ने प्रेम को ही सर्वोपरि रखा सदा चाहे वह सुदामा जैसे दरिद्र बचपन के सखा की स्मृति और सम्मान की बात हो या फिर प्रेम में डूबी जितनी गोपियाँ उतने ही कृष्णा के विह्वल रास की। फिर राधा का ही प्यार क्यों आधा रहा यह बात जबभी सोचती हूँ, मन कचोटती है-
    साझा करना चाहूंगी अंत में अपनी यह एक और कविता,

    चितचोर
    ——
    देवकी नन्दन कहूँ या मैं जसुमति को लाला
    नन्दगांव से बरसाने तक एक तुम्ही तो नंदलाला
    नन्दन वन में गूंज रही पायलिया की रुनझुन
    और दुष्टन हित धारो तुमने वो चक्र सुदर्शन

    सांवली-सलोनी मूरत पे मोहित है हर प्राणी
    गाय-बछिया गोपी-ग्वाले और चतुर राधा रानी।

    सुरों में व्याप्त तुम्ही हो अनहद नाद से
    सूर मीरा रसखान के अंतस बसे निनाद घने
    करते रास तुम्ही जुगल-किशोर के रूप सजे
    शैशव में कपटी बकासुर और पूतना को मारा
    तरुणाई में जितनी गोपी उतने ही थे कान्हा

    माखन चोर चित चोर तुम्ही तो रणछोड़
    बांटा लिया खुद को ही माखन मिश्री-सा
    प्रेम पाश में बंध रिश्तों को दे दी नई परिभाषा
    जितना देखा सुना और जाना तुम्हे छलिया
    बुझती नहीं प्यास अतृप्त अंतस रह जाए प्यासा।

    मुरलीधर, गिरधर, नाग नथैया, रास रचैया
    चंद्र खिलौने पर मचलने वाले अगम अबूझ
    कहीं मातु यशोदा हाथों खम्बों बंध जाते
    कहीं गीता का ज्ञान दे मुंह में बृह्मांड दिखलाते

    हे योगेश्वर, नटखट कितने तुम लीलाधर
    हर रूप तुम्हारा अनूप, आनन्द स्वरूप
    मधुर सुभाषित सोलह कलाओं से पूर्ण।

    एक तुम वो सुदामा के कृष्ण परवाह नहीं
    गरीब-अमीरों की, मुठ्ठी भर चावल पे रीझे
    द्रोपदी के सखा भरी सभा में बचाई लाज
    अबला के अंसुवन पर सदा पसीजे

    एक तुम वो, पार्थसारथी
    निहत्थे ही पूरा कुरुक्षेत्र जीत आए
    सच झूठ की परवाह नहीं की
    मित्र के लिए यारों के यार ने ।

    हर रिश्ता ही तुम्हारा सदा संपूर्ण
    जिसने भी तुम्हें चाहा पूरा ही पाया
    राधा हो या फिर सुदामा

    हे गो-विन्द, गो-पालक, सर्वज्ञ, सृष्टि संचालक
    कैसा था नेह का बंधन जो पूर्ण भी अपूर्ण भी
    ललित करुण रम्य अगम्य पथ पाथेय दोनों
    प्रेम विभोर अंतस में बैठा नित ही झूला झूले
    आत्मा और शरीर-से रिंधे-बिंधे साथ तो
    पर सुधि ही ना ली, दोबारा पलट कर तुमने

    क्या लौटना इतना कठिन था
    या कर्तव्य ही सर्वोपरि रहा कर्मयोगी को
    याद तो आते होंगे पर राधा संग कालिंदी तट
    कदम्ब का पेड़ और बचपन के सखा सारे
    छोड़ जिन्हे तुम द्वारिकाधीश बने
    रुक्मणि संग ब्याहे, नया संसार रच डाला !

    दूधिया चांदनी से धवल विरहन के सारे
    अश्रु मोती ढुलके बिखरे गीतों और तस्बीरों में
    चंदनहार से सुशोभित आज भी ये वक्ष तुम्हारे
    अदभुत तुम अद्भुत इस नेह-लीला के संदेश
    त्याग ही सदा जिसका लक्ष और सुख
    अलौकिक संजोग एक सुंदर मोरपंखी!

    गूंजते बांसुरिया के मूक सुर
    करुण अंतस को नित बींधते
    आंखें गर मीचूँ तो चितचोर
    राधारानी संग तुम मुस्काते
    मधुबन में गूंज उठती बांसुरिया
    जुगल जोड़ी तुम्हारी हिया में बिराजे।

    लड्डू गोपाल
    ———

    कान्हा का बाल रूप
    कितना मोहक और बेमिसाल
    मां उनपर रहती थी निहाल
    नित नहलाती धुलातीं
    सजाती संवारतीं भोग लगातीं
    रमी रहतीं इतना कि लगता
    हम नहीं वही तो असली लाल

    आंखें बंद और मां मगन
    गातीं प्रेम से उनके भजन
    हो-होकर पूरी भाव बिह्वल
    सुनती नहीं हमारी पुकार
    एक दिन तब हमने भी
    अपनी ली ठान गायब हुए
    माँ के प्यारे लड्डू गोपाल

    ना गीत था ना ही छंद
    चुप मां ने जान लिया तुरंत
    हमारे मुंह में वो बंद
    कृष्ण ने बृह्मांड दिखाया था
    हमने एक ही डांटपर
    दिखा दिए लड्डू गोपाल

    देख हमारी विजयी नटखट मुस्कान
    माँ हंसी और गोद में हमें बिठाया
    आंसू पोंछ तुरंत क्षमा मांगी हाथ जोड़
    अबोघ लीला की गंभीरता को समझाया
    गंगाजल से पुनः नहलाए गए लड्डू गोपाल
    पुनः सजाए संवारे जी भर भोग लगाया

    फिर बोलीं,नादान है तू माना
    और है मेरी आंख का तारा
    पर इन्ही के आशीष से तो
    मैं और तू, संसार हमारा सारा
    धारक यही, पालक यही
    छोटे नहीं, खिलौना भी नहीं
    बड़े बहुत है. हम सब के जनक
    एक यही और सब कुछ हैं यही
    इन्ही की कृपा से तो पाया मैंने
    तुझमें अपना संसार…

    संस्मरण जैसी इस कविता के बाद, बिना भक्तों की धार्मिक भावना को आहत करते हुए, आइये देखते हैं किस रूप में पाती हैं आज की पीढ़ी कभी विभोर करने वाली तो कभी ज्ञान देने वाली लीलाओं को ? य़शोदा का दुलारा और गोपियों का नटखट माखनचोर, राधा का मनमोहन, द्रोपदी का सखा, अर्जुन का सारथी या फिर गीता का ज्ञान देनेवाला और बांसुरी से मुग्ध करने वाला गो-पालक, या फिर असुरों का संहारक चक्रधारी कृष्ण…कई रूप हैं देवकी-नंदन के।
    प्रस्तुत है एक चुटकला
    कुछ राजनीति करने वालो से बात हुयी। कृष्ण ने बताया कि चुनाव लड़ रहा हूँ।
    वे बोले ,” हाँ हाँ आप क्यों न लड़िएगा। आप भगवान है। आपका नाम है। आपका भजन होता है। आपका आरती होता है। आपका कथा होता है। आपका फोटू बिकता है। आप नहीं लड़िएगा तो कौन लड़िएगा ? आप तो यादव है न ? ”
    कृष्ण ने कहा ,” मैं ईश्वर हूँ मेरी कोई जाति नहीं है।
    उन्होंने कहा ,” देखिये न , इधर भगवान होने से तो कोई काम नहीं न चलेगा। आपको कोई वोट नहीं देगा। जात नहीं रखिएगा तो कैसे जीतिएगा ?”

    और अंत में एक खबर, कृष्ण की बात हो और चुहुल बाजी न हो तो बात पूरी भी तो नहीं होती,
    पोलैंड में भगवान कृष्ण के खिलाफ केस –

    दुनिया भर में तेजी से बढ़ता हिंदू धर्म का प्रभाव देखिये कि वारसॉ, पोलैंड में एक नन ने इस्कॉन के खिलाफ एक मामला अदालत में दायर किया था !

    नन ने अदालत में टिप्पणी की कि इस्कॉन अपनी गतिविधियों को पोलैंड और दुनिया भर में फैला रहा है, और पोलैंड में इस्कॉन ने अपने बहुत से अनुयायी तैयार कर लिए है ! अत: वह इस्कॉन पर प्रतिबन्ध चाहती हैक्योंकि उसके अनुयायियों द्वारा उस ‘कृष्णा’ को महिमामंडित किया जा रहा है, जो ढीले चरित्र का था और जिसने १६,००० गोपियों से शादी कर रखी थी !

    इस्कॉन के वकील ने न्यायाधीश से अनुरोध किया : “आप कृपया इस नन से वह शपथ दोहराने के लिए कहें, जो उसने नन बनते वक्त ली थी”

    न्यायाधीश ने नन से कहा कि वह जोर से वह शपथ सुनाये, लेकिन वह ऐसा नहीं करना चाहती थी ! फिर इस्कॉन के वकील ने खुद ही वह शपथ पढ़कर सुनाने की न्यायाधीश से अनुमति माँगी !

    न्यायाधीश ने आज्ञादे दी ,

    इस्कॉन के वकील ने कहा पुरे विश्व में नन बनते समय लड़कियां यह शपथ लेती है कि “मै जीजस को अपना पति स्वीकार करती हूँ और उनके अलावा किसी अन्य पुरुष से शारीरिक सम्बन्ध नहीं बनाउंगी”…

    इस्कॉन के वकील ने कहा, “न्यायाधीश महोदय ! तो यह बताइये कि अब से पहले कितने लाख ननों ने जीसस से विवाह किया और भविष्य में कितनी नन जीसस से विवाह और करेंगी.

    भगवान् कृष्ण पर तो सिर्फ यह आरोप है कि उन्होंने 16,000 गोपियों से शादी की थी, मगर दुनिया में दस लाख से भी अधिक नने हैं, जिन्होंने यह शपथ ली है कि उन्होंने यीशु मसीहसे शादी कर रखी है!!!

    अब आप ही बताइये कि यीशु मसीह और श्री कृष्ण में से कौन अधिक लूज कैरेक्टर (निम्न चरित्र) हैं? साथ ही ननो के चरित्र के बारे में आप क्या कहेंगे?

    न्यायाधीश ने दलील सुनने के बाद मामले को खारिज कर दिया !

    अंततः योगेश्वर कृष्ण से प्रार्थना है कि हमारे जीवन में भी वह सहज संयम और मिठास, वह समता और सहकारिता की भावना सदा बनाए रखें।

    शैल अग्रवाल

    संपर्क सूत्रः Shailagrawal@hotmail.com
    shailagrawala@gmail.com

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