“ऐ सँभाल कर…..अरे वह कुंदा पकड़ लच्छू…!” बबलू चीखा।
“देख, सँभाल, तिरपाल सरक न जाए…।” “हओ…उतारो…लो खैंचो बेटे को…।”
“काए गुड्डू! का कर रै बे…ताकत तो लगाओ यार।”
“जो का है, अबहीं गुटका मसकना है का…!
उतई हींच…!”
“धीरे…जै बात…।”
खट….कड़-कड़….घड़-घड़….धम्म…! झूले के स्टैंड में कसा जहाज, झूलता-झूमता कचनार सिटी के नेक्स्ट लेवल जिम के सामने के खाली प्लॉट में फ़िक्स हो गया। झूला कंपनी के आदमियों के प्रयासों से अब घूमने वाला झूला, मोटर-कार झूला, सीसॉ झूला, फ़िसल पट्टी, कूदने वाली जाली सभी कुछ इस उजाड़ प्लॉट के अकेले पन को दूर कर रही हैं; तीन-चार दिनों के साथी हैं यह।
यह झूले अभी शांत, मौन खड़े हैं। वहाँ सामने जो हरे कपड़े से बंधा लोह-छड़ का जंगला है न, वह टिकिट काउंटर है। दो दिनों बाद इस काउंटर का रिक्त मुख निगले का रुपया और उगलेगा टिकटें तब सामने खड़े यह मौन झूले हो जाएँगे गतिशील और गूँजेगी चीख़-पुकार, हँसी, ठहाके बच्चों के, स्त्री-पुरुषों के क्यों कि अवसर है, ‘माहाशिवरात्री पर्व’ का जो आने वाला है दो दिनों पश्चयात अर्थात माघ माह के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी। 2022 में यह तिथि 1 मार्च को पड़ रही है।
कोरोना विभीषिका की द्विवर्षी मृत्यु भय की अवस्था के बाद ऐसे सक्रीय धार्मिक आयोजनों में धन व्यय करते समय कहाँ कोई सोचता है उचित-अनुचित ख़र्च के विषय में। भले तंगी चीख़-चीख़ कर कुछ और ही क्यों न कहे…! मेला लगता है यहॉं जबलपुर के विजय नगर, कचनार सिटी के शिव मंदिर में। ऐसा मेला कि नगर के अलावा आन गाँव से भी लोग येन-केन-प्रकारेण पहुँचते हैं भोले बाबा को प्रसाद चढ़ाने।
कचनार शिव मंदिर से लेकर अहिंसा चौक तक मेला अपना एकक्षत्र राज्य स्थापित करेगा। चाहे फिर आस-पास के उप मार्ग बंद क्यों न हो जाऍं। आकस्मिक स्थिति में कालोनी में फँसे लोग क्या करेंगे इस नागरिकीय समस्या के अनुत्तरित प्रश्न की चिंता संभवतः संबंधित अधिकारियों को हो, पर उनकी उपाय विहीन बेचारगी जनता द्वारा क्षमा कर दी जाती है, हर वर्ष, भारी मन से, छिपी आस के साथ।
विजय नगर मुख्य मार्ग के उभय पक्ष (फुट पाथ) मानो पहले आओ, पहले पाओ के प्रतिनिधि हैं। अभी दो दिवस पूर्व से ही फुटकर दुकानदार चूने से अपनी-अपनी सीमाएँ सुनिश्चित कर, अपना नाम लिख रहे हैं। कैलाश ने अपनी दुकान के लिए चूने से एक चौकोर बना, बीच में अपना नाम लिख दिया है। मेले के लिए यह उसका स्वनिर्मित, सर्वमान्य आरक्षण है। यह सर्व स्वीकार्य विधि है। उसके बाद राजू, दिनेश, मुन्ना, फूलचंद, बड़ी मौसी, टोपी वाले चाचा, बड्डन फूल-माला इत्यादि सभी ने अपनी-अपनी आरक्षित भूमि में नाम लिख दिया है।
यह तो यात्रा काल में जनरल कंपार्टमेंट में रूमाल बिछा कर अधिकार प्रक्षेपण की व्यवस्था जैसा है। एक अबोली सत्ता का लोकनिर्मित माध्यम या यों कहें, क़ानून व्यवस्था को अपनी सुविधाओं के बाद मानने की प्रवृत्ति। हाँ, इस विधी में अद्भुत एकता अवश्य दिखती है। एक बात कहूँ, एकता का पाठ यहॉं से भी सीखा जा सकता है, यदि सीखना हो तो अन्यथा औपचारिकताओं के नगाड़े तो बज ही रही हैं।
कुछ लोग तो अभी से दुकानों के डंडे गड़ा रहे हैं। फंचटों से रैक बना रहे हैं कि इसी में लटकेंगे लोक-लुभावन सामान और घेर लेंगीं इन्हें चहकती बालाएँ, कूदते बाल-गोपाल, खनकती चूड़ियाँ पहनी महिलाएँ मानो यही सृष्टि का सर्वाधिक सुंदर बाज़ार हो। ऐसे में नगर पालिक निगम जबलपुर भी कहाँ पीछे रहेगा। महिला-पुरुषों की एक टोली ने पूरे मेला क्षेत्र को साफ़-सुधरा कर दिया। क्षेत्र के कितने ही स्थानो में टैंट खिंच गए हैं; जहाँ भंडारा चलेगा। खिचड़ी, अलूबोंडा, शरबत और हाँ चाय की भी व्यवस्था रहेगी।
क्षेत्र के रहवासियों का कौतुक देखने योग्य है। बच्चे तो अपनी सायकिल पर इस मार्ग को बार-बार नाप रहे हैं। सड़क किनारे रखीं बड़ी-छोटी पोटलियाँ साक्ष्य हैं इस बात का कि ग्वारीघाट, भेड़ाघाट, तिलवाराघाट के फुटकर व्यापारी अपनी चलित दुकानें यहाँ लगाएँगे। उधर डी, भोलू, कलुआ, झबरू और साथी कचनार क्लब की दीवाल के पास डेरा डाले हैं क्यों कि यहाँ भी भंडारा चलेगा। यह कौन हैं… आप यही सोच रहे हैं न…! साहब जी, यह कचनार सिटी, बाँके बिहारी पार्क क्षेत्र का श्वान समूह है। भौं-भौं करता सारमेय झुंड। इनका नामकरण यहाँ के बाल-गोपालों ने किया है।
अब तनिक शिव मंदिर में भी देखें। अद्भुत है कचनार का शिव मंदिर। मंदिर का प्रवेश द्वार बहुरंगी चित्रकारी और मूर्तिकारी से सज्जित है। मुख्य द्वार के तोरण मध्य शिव-पार्वती और गणेश की प्रतिमा बनी है, पर कार्तिकेय नहीं दिखे। यह बिंदु विचारणीय है कि शिव मंदिर में कार्तिकेय की अनुपस्थिति! क्यों…? जबकी शिव के सिद्धांतों का प्रसार, प्रचार जितना कार्तिकेय ने किया, किसी ने न किया होगा; जैसे- कलरीपायट्टु, व्याकरण, शस्त्र-शास्त्र इत्यादि।
नीले गगन के तले विराजे शशिशेखर, कपर्दी, विषमाक्ष, शर्व, भस्मोद्धूलितविग्रह, अहिर्बुध्न्य अर्थात शिव-शंकर की विशाल भव्य प्रतिमा, सुंदर रंग सज्जा से अद्भुत दिख रही है। मंदिर प्रांगण में ज़ोर-शोर से स्वच्छता अभियान चल रहा है। वाटिका स्वच्छता टोली की महिला श्रमिकों की बातों से स्पष्ट हो रहा है कि वह आज घास उखाड़ने एवं झरी पत्तियाँ बुहारने का कार्य पूर्ण कर लेंगीं क्यों कि वह भी त्योहार की तैयारी अपने-अपने घर में करेंगीं फिर मेला भी तो आना है। जबकि लाइटिंग, बेरिकेट, आवागमन, पूजा आदि की व्यवस्था सुनिश्चित करने वाले पुरुष, मेले की भीड़ नियंत्रण के प्रति चिंतित हैं। सत्य भी है, कोरोना के बाद अब खुल कर भर रहा है यह प्रतीक्षित मेला।
धीरे-धीरे वह दिवस भी आ गया। कल महाशिवरात्री है। कचनार-विजय नगर मार्ग सुंदर लाइटिंग, दुकानों आदि से सज गया है। मेले की पूर्व संघ्या से जगमगाती रौशनी की सुंदरता देखते बनती है। मंदिर का प्रवेश द्वार लाल, पीली, जामुनी, हरी झालरों से सजा है। परिसर में प्रवेश के साथ मंदिर पथ पर सुंदर-सुंदर मूर्तियाँ हैं जो अलग-अलग प्रकाश व्यवस्था के चलते सजीव-सी लग रहीं हैं। इनमें गण, ऋषि, वैदिक-विद्वानों, नृत्यरता नायिकाओं इत्यादि की मूर्तियाँ प्रमुख हैं।
मंदिर उद्यान का एक-एक वृक्ष एकरूप छाँटा गया है और सुंदर पुष्पों के पौधों में घनी लाइटों की लड़ें लिपटीं हैं जो कभी लाल-तो-कभी हरी हो रही हैं। टाइल्स निर्मित प्रवेश मार्ग चमचमा रहा है। इसी से होकर सामने चबूतरे पर पहुँचा जाता है, जहाँ शिव की ओर मुख करे विशाल नंदी की मूर्ति स्थापित है। लोग इसके कान में मन्नत माँगते हैं। मान्यता है कि नंदी-कर्ण में करी प्रार्थना नंदी स्वयं शिव तक पहुँचाते हैं। लोक मान्यताओं का रूप पूरे विश्व में अलग-अलग देखने को मिलता है; यही लोक मान्यताएँ तो आस्था की नींव हैं।
अतल, वितल, सतल, रसातल, तलातल, महातल, पाताल- सातों तलों के स्वामी सर्वलंकारभूषिता शिव की छवि अवर्णनातीत है। मृगचर्म में विराजे, त्रिनेत्रधारी शिव, इनके ध्यानमग्न नेत्र उनकी गगन छूती विशाल मूर्ति को सौम्य रूप प्रदान कर रही है। शिव-प्रतिमा उसका शरीर-शैष्ठव, भंगिमा, भाव सभी आश्चर्य चकित करने वाले हैं। धन्य है वह मूर्तिकार जिसने इसे बनाया। देव-दर्शन से भक्तगण अकुतोभय हो, सर्व बाधाओं से मुक्त अनुभासित करते हैं। निशा-प्रभात के संधिकाल में कुछ मेघ, वारिद मालाएँ बन शिव परिक्रमा कर गए हैं। अतः मौसम में शीतलता सी है। शिव दर्शन ज्ञान चक्षु से करें तो निरादृत भी समादृत हो जाता है। महादेव की कृपा तृण-तरूशून्य भूमि को उपवन बना देती है। पूर्व संध्या से धूप, अगरबत्तियों की मन आह्लादित सुगंध, वायु क्रीड़ा करती कचनार के हर गृह मंदिर को सुगंधित कर रही है।
माहाशिवरात्री की भोर प्रतिदिन जैसी नहीं है। आज तो विहान-लालिमा श्रद्धालुओं की पदचाप के साथ आई है। प्रभात से दर्शन के लिए पंक्ति बनी है। इसीलिए मंदिर प्रशासन ने मुख्य प्रतिमा के पहले बैरिकेटिंग कर भीड़ नियंत्रण को सुनिश्चित किया है। “थामें हैं लोग हाथों में जलपात्र, लगाए हैं माथे में त्रिपुंड, संजोय हैं मन में विश्वास कि शुभघड़ी आई है शिव-अर्चन की।” देखते-ही-देखते प्रातः की लालिमा दिनकर प्रकाश के विस्तारण से ओझल हो गई। भक्तों के मुख पर तैरते सीकर बता रहे हैं कि ग्रीष्म की तपन पूर्व वर्षों की तुलना में इस वर्ष अधिक है। चिलचिलाता यह निदाध…! पर इस बात की किसे चिंता है बस एक उद्देश्य शिव दर्शन। काश! हम मानवता के प्रति भी ऐसे ही लक्षित हो जाएँ…तो शिव कितने प्रसन्न होंगे!
इधर देव-दर्शन के लिए पंक्ति बद्ध लोग ‘ॐ नमः शिवाय’ का जाप कर रहे हैं और उधर भीड़ का सैलाब जैसे बाँध तोड़ कर उमड़ रहा है। मार्ग पर आने-जाने वालों की तीन पंक्तियाँ बन रही हैं। इतनी भीड़ है कि एक कदम बढ़ाने पर दूसरे से टकरा जाएँ। तिस पर मुख्य मार्ग पर लगी दुकानें और भंडारा-पेंडाल भीड़ बढ़ाने का कार्य कर रहे हैं। फ्लोटिंग मॉब अर्थात चलती भीड़ उतनी कष्टदाई नहीं रहती जितनी रुकी होती है। धक्के के साथ भीड़ में बहता मैं सहसा एक स्थान पर रुक गया, देखा सामने आलूबोंडे बंट रहे हैं। उड़ती सुगंध से बंधा मैं भी भीड़ वृद्धि का हिस्सा बन गया और तब तक पंक्तिबद्ध रहा जब तक उसे प्राप्त न कर लिया। इस दौरान जन संवाद से अनुमान लगाया कि कितने लोग तो केवल भंडारा आनंद के लिए आए हैं। मेरे पीछे खड़ा बरगी से आया एक परिवार तो भंडारा संग्रहण के लिए छोटी थैलियाँ भी रखा है। छोटा फुहारा क्षेत्र से आई युवा मित्र मंडली हर भंडारे में रुक रही है। जहाँ स्वाद मनचाहा मिला वहाँ दो या तीन बार भी लाइन में लग लिए। यह बात उन्हीं से तब पता चली जब वे आलूबोंडा वितरण पंक्ति में मेरे आगे खड़े थे। उनके अनुसार, यह उनका तीसरा राउंड है। ऐसे दृश्य खिचड़ी और चाय के स्टॉल में भी दिखना सामान्य है। है न मनोरंजक बात…!
मैं, प्रसाद पाकर सामने मनहारी की दुकान ओर बढ़ा ही था कि एक युवा स्त्री की करुण पुकार हृदय को हिला गई। उसका बच्चा इस सैलाब में कहीं खो गया। मन काँप गया सुनकर। ऐसे मेलों में अपराधी भी सक्रीय रहते हैं। लोगों ने भंडारों से घोषणा करवाई और उस महिला को वहीं बिठा लिया। मैंने आस-पास पूछताछ करी, पर कुछ पता नहीं चला। इसी बीच वह बिलखती माँ कहाँ चली गई किसी ने नहीं देखा। सभी की जान सांसत में थी! रिपोर्टिंग करती मेरी आँखें कहीं-न-कहीं उस स्त्री को ढूंढ रहीं थीं, पर वह न दिखी। भोलेनाथ से यही प्रार्थना करी कि माँ-बच्चा मिल जाएँ।
उधर एक रोती माँ अपने बच्चे के लिए सब भूल गई इधर एक चहकती माँ अपनी बच्ची के खिलौने के लिए सब भूल गई। समीप गाँव का लगता है यह परिवार। युवा माता-पिता और प्रथम संतान। पिता की भूरे रंग की सफ़ारी पर हल्दी के निशान कह रहे हैं कि यह विवाह पाश्च्यात अब निकली है, अवसर विशेष पर जबकि उसकी बहुरिया की गुलाबी शाटिका की चम-चमाहट उसके नए होने का सजीव साक्ष्य है। दोनो अपनी नन्ही गुड़िया के लिए प्लास्टिक के गुड्डा-गुड़िया ऐसे पसंद कर रहे हैं जैसे उसके ब्याह के लिए लड़का। वैसे ध्यान से देखें तो भाव तो वही है, बिटिया के लिए जो भी पसंद करो अच्छा करो।
मार्ग के उभय पक्ष मानो मनहरण केंद्र हैं। न जाने कितनी आशाएँ-निराशाएँ नयन द्वारों से आवागमन कर रही हैं। सामने चूड़ियों का रंगीन संसार सजा है जिन पर पड़ कर सूर्य प्रकाश भी सतरंगी हो रहा है। आगे की दुकानें भाँती-भाँति की मालाओं, बिंदिया, जूड़े की जाली, नेलपॉलिश, लिपस्टिक, फुंदरी, इत्र, परफ़्यूम इत्यादिक अंगरागों के कारण श्रृंगार संवर्धन केंद्र-सी हैं। उधर प्लास्टिक के सामान की दुकान तो मानो मुख्याकर्षण है। लगभग हर आदमी हर माल 10 रुपये के आमंत्रण मूल्य से प्रभावित है। देखिए, श्वेत वस्त्रों से सज्जित, प्रथम द्रष्टा उच्च-भ्रू परिवार भी प्लास्टिक की जाली वाली टोकनी, बर्तन माँजने का गूँजा और अगरबत्ती स्टैंड क्रय के मोह से न बच सका।
लोग सामान लें-न-लें, पर हर दुकान में रुकते अवश्य हैं। कौड़ियों, सीपियों, सोफ़्ट स्टोन की मूर्तियों की दुकानों से भले सामान कम बिके पर भीड़ बराबर है। हाँ, 30-40 रुपये में पत्थर पर नाम लिखने वाले की दुकान पर अनेक उम्मीदवार प्रतीक्षारत हैं। हो सकता है उन्हें डॉ. विष्णु सक्सेना की पंक्तियाँ पता हैं कि “रेत पर नाम लिखने से क्या फ़ायदा….पत्थरों पर लिखोगे मिटेगा नहीं।” मैंने देखा, एक प्रेमी युगल बाजू से अपने नाम की चिट्ठी दे गया है। उनकी छिपी मुस्कुराहट बहुत कुछ अभिव्यक्त कर गई।
अचानक मेरा ध्यान गया, शिशु रोग विशेषज्ञ, डॉ विजय प्रताप सिंह के साइन बोर्ड पर एक झोली टंगी है और उसमें से दो नन्हें पाँव सृष्टि को ‘ता’ कर रहे हैं। मैं, झट वहाँ पहुँचा और झाँका। एक चन्द्रमुख मुस्कान ने मेरा स्वागत किया। कितना प्यारा दृश्य है। ध्यान आया, उस बरसात की रात में भी टोकनी से ऐसे ही पाँव झाँक रहे होंगे जिसको छूने के लिए यमुना जी उफ़न रहीं थीं और शेष नाग छत्र का दायित्व निभा रहे थे। कुछ ऐसा ही तो आज भी है; मानव दल उफ़ान के मध्य यह नन्हें पाँव और यह बोर्ड। तभी उसकी माँ ने पुचकार कर झोली उठा ली। यह एक श्रमिक परिवार है जो मेला घूमने आया है। विचार आया, बच्चों के डॉक्टर के बोर्ड ने भी बच्चे की सहायता करी। कितना सुखद संजोग है न यह!
मित्रो! इस गूढ़ रहस्य को तो सुलझाइए, इतने भंडारे चलने के बाद भी चाट-फुलकी, चाय-नाश्ता, मोमोस और भी अन्य खान-पान की दुकानें लोगों से खचाखच भरी हैं। आश्चर्य! चाट, गोलगप्पे, पानी पुरी के प्रति लोगों का मोह….लोभ…! क्या धूप; क्या गर्मी; क्या कोरोना; क्या इन्फ़ेक्शन ‘बस फुलकी ही चाहिए, फुलकी की मस्ती चाहिए, दस की बस फुलकी चाहिए…!’ बच्चा, बूढ़ा और जवान गप्प…गपा…गप्प…गप्प! साथ में झूले, फिसलपट्टी, फुग्गे, कैंडी (बचपन में मैं इसे बुड्ढी के बाल कहता था) तो मेला आनंद के केंद्रीय भाव हैं।
कितने मुख, कितने लोग, कितने जीवन, सबकी अलग सोच, अलग आचार, बड़े-छोटे, धनी-निर्धन का अंतर। कुछ विशिष्ठ लोगों का आम जन को तुच्छ मनाने का दृष्टिकोण, कोई अंगपूर्ण तो कोई अपूर्ण। किसी की समस्या धनाधिक्य तो कोई तंग हाथ, एक अबोला संग्राम। कैसा बिखराव भरा जीवन है यह!
इतनी अनेकता के बाद भी लगभग सभी का जीवन एक-सा है; जैसे- परिवार, नातेदार, पड़ोसी, मित्र, दायित्व और सबसे बड़ी बात सभी की प्रार्थनाओं की सुनवाई यथा समय होना। उस परमपिता के सम्मुख तो सभी एक हैं। सुदूर बैठा एकांत वासी और सभा मध्य बैठा लोकनायक सभी तो समान हैं उस देवाधिदेव महादेव के लिए। वह तो संपुंजित कर्मों की प्रत्यंचा से सुख-दुख शर संधान करता है। अधर्मी का सहस्त्र दीप प्रज्ज्वलन भी व्यर्थ है जबकि सत्कर्मी, बिन दीप प्रज्ज्वलन ईश-प्रिय होता है। यही तो है उसकी व्याप्य, व्यापकता, विराटता और न्यायप्रियता। आज इस मेले में त्रिनेत्र के समक्ष सब स्पष्ट है। सर्वदा श्रीप्रभु से निज स्वार्थ पूर्ति की कामना उसके आशीष से दूर ही ले जाती है। ऐसा मेरा मानना है। उसने स्वास्थ, शिक्षा, समुचित सामर्थ्य दिया है तो लोभ पूरित याचना क्यों!
लीजिए, समय रथ और रवि किरण कदमताल करती दिन-दोपहरी-तिपहरी पार कर चौपहरी व्यतीत की प्रतीक्षा में है। सिंधु-सी मानव लहर बिरली हो चली है। पँछी-सा मानुस लौट रहा है अपने घरौंदों को; दिनभर की तपन का शीतल रूप गृह मंदिर ही है। मार्ग में शनः – शनः पदचापों और हो-हल्ले के स्थान पर दुकान बढ़ाने (बंद करने) की ध्वनि अधिक सुनाई पड़ रही है। बम भोले के भजन बंद हो गए हैं क्यों कि स्मृतियाँ छोड़ता दिन सोने जा रहा है। मेरा घर भी कचनार सिटी में है सो टहलता-डोलता अपनी रपट को रिपोर्ताज बनाने के विचारों के साथ मैं भी लौट चला, पर मेले के चक्षुदर्शन का अंत कल प्रातः के दृश्य-दर्शन के साथ होगा।
अगला अरुणोदय भी बीती भोर-सा ही है। वही सौम्यता; वही खगदल कलरव; वही कोमल शीत-सा वातावरण। गगन पर अंशुमान अपने मान वर्धन के लिए रथारूढ़ हो रहे हैं। इसी प्राकृतिक सौंदर्य के मध्य मैं कचनार शिव मंदिर के समक्ष खड़ा हूँ; परंतु स्तभ्द, आश्चर्यचकित, दुःख-क्रोध के मिश्रित भाव लिए।
मन का प्रश्न- “कल माहाशिवरात्री थी न!”
मन का उत्तर- “हाँ।”
“कितनी स्वच्छता थी कल सुबह और आज बिल्कुल उल्टा।” मन ने तड़प कर पूछा।
“कल त्योहार था, पालिका ने अपना दायित्व निभाते हुए सर्वस्व स्वच्छता सुनिश्चित करी थी।” उत्तर स्पष्ट था।
“और आज…!”
“त्योहार समाप्त। वह अपना दायित्व पुनः निभाएगी। देखो, वह सफ़ाई वाले आ रहे हैं।” मन-चक्षु साथ-साथ उस ओर ताकने लगे।
“पर श्रद्धालुओं का दायित्व!” पुनः याचित प्रश्न।
“यही तो दुर्भाग्य है। हम केवल सरकार से सुविधा चाहते हैं, स्वयं अपने दायित्व से उन्मुक्त हो कर। तभी तो यहाँ बद-से-बत्तर हाल है उसी स्थल का जहाँ कल मालाएँ सजी थीं।” मन मौन हो गया, लेखनी सक्रीय।
कचनार मंदिर के सामने इतनी गंदगी है कि खड़े होना दूभर है। कल जहाँ सुगंध थी आज दुर्गंध फैली है। जगह-जगह पन्नियाँ पड़ी हैं। गुटके के खाली पाउच का अंबार है। लोग देव दर्शन को आए थे या गुटका खाने पता नहीं। भंडारे का प्रसाद असत्तियों जैसा अपने पेट और पन्नियों में भरने वाले भक्त गण आधा खा कर आधा सड़क पर फेंक गए। मुफ़्त खोरी हर जगह है। मेरा मानना है, प्रसाद भी सशुल्क मिलना चाहिए। भंडारा पेंडालों के सामने कितने अध खाए दौने पड़े हैं। शिव मंदिर से लगी दीवार पर गुटके की पिचकारी मारने वाले श्रद्धालुओं के यह कैसे संस्कार…?
कल जहाँ झूले डोल रहे थे वहाँ भी बेहाली है। सहस्त्रों की संख्या में पोलिथिलीन बिखरे हैं और देखिए गाय भी वहाँ चर रही है। मैंने उसे यहाँ से हँकेल कर अलग किया। भय था कि कहीं झूठन के साथ पन्नी न खा ले। फिसल पट्टी के पास कुछ चाट के ठेले थे जो कीचड़ मचा गए हैं यहाँ। सुअरों का झुंड घूम रहा है। इतना दुःखद; इतनी गंदगी। पालिका की टीम सफ़ाई में भिड़ी है। धूल का बवंडर उठ रहा है, तीखी दुर्गंध के साथ।
आस्था का यह कैसा रूप, समझ से परे है!इससे तो अच्छा है मेला लगे ही न। जब लोगों में नागरिकीय कर्तव्य बोध संज्ञा शून्य हो जाएँ तो उनसे सुविधा का अधिकार छीनना कुछ अनुचित नहीं। कचरे के डिब्बे पर पान की पीक थूकने वाले महानुभावों को यह भान भी न होगा कि उनकी मूर्खता कितना बड़ा प्रश्न खड़ा कर रही है। यह किसी के प्रति गर्हा भाव नहीं, कोई निंदा-बुराई नहीं यह तो वेदना है हम सभी की यदि सत्य हृदय से सोचें तो।
मैं थोड़ी देर इन स्वच्छता के योद्धाओं को सम्मान के साथ देखता रहा जो इतनी गंदगी, धूल के मध्य सफ़ाई कर रहे हैं। उनके चेहरों में कोई तनाव नहीं। एक से पूछा तो उत्तर मिला, “अरे बाबूजी यह तो हमेशा का हाल है। कोई सुधार होने वाला नहीं।” इस पँक्ति ने मुझे हिला दिया। मैंने कलम बंद कर दी। अब और क्या लिखूँ? क्या यह उचित है…?
शिव का दिन उसकी रात्री तो सदैव है। धर्म की रक्षा के लिए भरने वाले मेलों की मर्यादा समझना होगी। ईश आराधना का प्रथम भाव स्वच्छता और प्रार्थना है। मैं खड़ा हूँ नभ छूती विशाल शिव-प्रतिमा के समक्ष उन्हें निर्निमेष देखता और सोच रहा हूँ कि क्या सोच रहे होंगे भोले बाबा हमारे आचार-विचार पर। आह…! वह सुंदर शकुंत भी मुझे देख रहा है; समझ रहा है मेरे मन की पीड़ा। समय परिवर्तन काँक्षाणी है। दर्शनीय मेले का अदर्शनीय स्वरूप अवश्य सुधरेगा। सुगंधित प्रातः पुनः आएगी यह आस ही विश्वास है। यह सोचता मैं श्रीनंदी के कान की ओर झुक गया।
वंदे…!
अखिलेश ‘दादूभाई’
कथेतर लेखक
मो- 9425175861