तुलसी भरोसे राम के, निर्भय हो के सोए!
अनहोनी होनी नही, होनी हो सो होए!!
”परहित सरिस धरम नहिं भाई ।
पर पीड़ा सम नहिं अधमाई ।।
दया धर्म का मूल है पाप मूल अभिमान |
तुलसी दया न छांड़िए ,जब लग घट में प्राण ||
तुलसी साथी विपत्ति के, विद्या विनय विवेक।
साहस सुकृति सुसत्यव्रत, राम भरोसे एक।
सचिव वैद्य गुरु तीन जो प्रिय बोला ही भय आस ।
राजधर्म तन तीन कर होई बेगी ही नाश।।
तुलसी पावस के समय धरी कोकिलन मौन!
अब तो दादुर बोलिहें हमहीं पूछिहे कौन!!
आवत ही हुलसत नही, नैनन नही सनेह!
तुलसी तिंह न जाइए,कंचन बरसत मेह!!
मुखिया मुखु सो चाहिऐ खान पान कहुँ एक |
पालइ पोषइ सकल अंग तुलसी सहित बिबेक ||
कीरत भनित भूरिमल सोई-
सुरसरि के सम सब कह हित होई
अबला,वेला,बालक ये न गनै लघु जात ,
जा समीप निसदिन रहैं,ताही सों लपटात ।
तुलसी मीठे बचन ते सुख उपजत चहुँ ओर ।
बसीकरन इक मंत्र है परिहरू बचन कठोर ।।
सचिव बैद गुरु तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस।
राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास।।
काम क्रोध मद लोभ की जौ लौं मन में खान ।
तौ लौं पण्डित मूरखौं तुलसी एक समान ।।
आगें कह मृदु वचन बनाई। पाछे अनहित मन कुटिलाई,
जाकर चित अहिगत सम भाई, अस कुमित्र परिहरेहि भलाई
जे न मित्र दुख होहिं दुखारी। तिन्हहि विलोकत पातक भारी।
निज दुख गिरि सम रज करि जाना। मित्रक दुख रज मेरू समाना।
तुलसी इस संसार में, भांति भांति के लोग।
सबसे हस मिल बोलिए, नदी नाव संजोग।।
नामु राम को कलपतरु कलि कल्यान निवासु।
जो सिमरत भयो भांग ते तुलसी तुलसीदास।
-तुलसी दास
(1511 – 1623)