तारक हलवाई
कश्मीरी भाषा में पुल को ‘कदल’ कहते हैं।पहले के समय में श्रीनगर शहर सात कदलों यानी पुलों में बंटा हुआ था।वितस्ता/झेलम नदी शहर के बीचोंबीच इन्हीं पुलों के नीचे से बहती है।नदी के दोनों तरफ श्रीनगर शहर बसा हुआ है।पूरे शहर के मुहल्ले या आबादी के क्षेत्र इन्हीं पुलों के नामों से जाने जाते हैं।वैसे ही जैसे चंडीगड़ सेक्टरों में बंटा है वैसे ही श्रीनगर पुलों में बंटा हुआ है।इन पुलों की संख्या में अब बढ़ोतरी हुई है।पहले के बने पुल इस प्रकार से हैं: अमीरा कदल,हब्बा कदल,फतेह कदल,ज़ैना कदल,आली कदल,नवा कदल, और सफा कदल।बाद में दो पुल और बने: ज़ारो ब्रिज और बड़शाह ब्रिज।
श्रीनगर शहर का हब्बा-कदल क्षेत्र अपनी विशेष पहचान रखता है।अधिकांश कश्मीरी पंडितों के घर यहां पर रहे हैं।यह पूरे शहर का घनी आबादी वाला इलाका रहा है।मुझे याद आ रहा है कि हब्बाकदल का चौक हर-हमेशा चहलपहल और भीड़ भाड से भरा रहता था।चौक से एक रास्ता बाना मुहल्ला(फतह-कदल)को,दूसरा बबापोरा को,तीसरा क्रालखोड(गणपत यार)को और चौथा पुरषयार(कनि-कदल) को जाता था।लोगबाग ज़्यादातर पैदल चलते थे।यों साइकिलें और तांगे भी खूब देखने को मिलते थे।
हब्बा-कदल चौक से बाना मुहल्ला को जो मार्ग जाता था उसके शुरू में ही दाएं तरफ एक हलवाई की दुकान हुआ करती थी।मैं बात कर रहा हूँ साठ-सत्तर के दशक की।यह दुकान तारक/तारख हलवाई के नाम से आसपास के समूचे क्षेत्र में विख्यात थी।तारख हलवाई के दूध,दही,मिठाई पकौड़ियों आदि की सर्वत्र चर्चा होती थी।मालिक तारखजू खुद दुकान के अंदर बैठे रहते और सहायकों पर वहीं से नज़र रखते।संयोग से तारखजू का एक सहायक/कारीगर नंदलाल हमारे मुहल्ले से था और बिल्कुल हमारा निकट का पड़ौसी था।उम्र में मुझ से काफी बड़ा था।कई तरह के काम-धन्धे करने के बाद आखिर में तारख हलवाई के यहाँ काम पर लग गया था।कभी जब मैं उधर से निकलता तो दो-चार आने की पकौड़ी(नदिर-मोंजि) उससे खरीदता।मुझे देख उसके चेहरे पर हल्की सी मुस्कान बिखर जाती।पहले अन्य ग्राहकों को निपटाता फिर पकौड़ियों को लिफ़ाफ़े में रखकर या कागज़ में लपेटकर मुझे दे देता।मेरी चवन्नी के बदले में वह मुझे लगभग एक रुपये के बराबर की पकौड़ियां दे देता।शायद पड़ौसी-धर्म निभा रहा था।मेरा उत्साह बढ़ा।अब मैं पकौड़ियां लेने उसके पास आए दिन जाने लगा।ज़्यादातर शाम के समय।घर वाले भी यही समझते रहे कि नंदलाल आखिर है तो अपना पड़ौसी।थोड़ी ज़्यादा देता है तो क्या हुआ?
एक दिन का किस्सा याद आ रहा है।जैसे ही उसने मुझे लिफाफा पकड़ाया तो इशारा कर उस लिफाफे में एक-एक रुपये के दो सिक्के डाले।सेठजी यानी तारखजू कहीं अंदर बैठे हुए थे।पकौड़ी भी ज़्यादा और लिफाफे में दो सिक्के।कुछ समझ में नहीं आ रहा था।इससे पहले कि मैं कुछ पूछता नंदलाल ने मुझे इशारे से समझाया कि मैं वहाँ से चला जाऊं।घर पहुंचने पर नंदलाल की पत्नी ने खिड़की से मुझे आवाज़ देकर बुलाया।जहां तक मुझे याद है नंदलाल की यह दूसरी बीवी थी जिसका नाम निर्मला था और नंदलाल उसे जम्मू-क्षेत्र के किसी ग्रामीण-अंचल से ब्याह कर लाया था।कश्मीरी भाषा उसे कम ही आती थी।टूटी-फूटी भाषा में उसने मुझे जो समझाया उसका भाव यह था कि वे दो रुपये जो लिफाफे में रखे गए थे, वे उसके लिए हैं।साठ के दशक में दो रुपये बहुत होते थे।मेरा हौसला बढ़ता चला गया।अब लगभग रोज़ ही मैं दुकान पर जाने लगा और नन्दलालजी कभी पकौड़ी,कभी मिठाई आदि का बड़ा लिफाफा मुझे पकड़ाते और साथ में कभी एक,कभी दो और कभी-कभी तीन रुपये के तीन सिक्के भी लिफाफे में डाल देते।इस काम में अब मेरा मन रम गया था या यों कहिए चस्का लग गया था।लगभग पांच-चार महीनों तक यह क्रम चलता गया।एक दिन सेठजी को मैं ने नंदलाल की बगल में ही बैठा हुआ पाया।शायद उन्हें कुछ शक हो गया था।इस बीच मेरे अंदर का देवता भी जाग चुका था।मारे ग्लानि के मन भारी हुआ जा था।संयोग कुछ ऐसा बना कि उच्च शिक्षा के लिए मुझे कश्मीर से बाहर जाना पड़ा। (मुफ्त की) पकौड़ियों का सिलसिला भी स्वतः ही टूट गया।
बातें ये पचास/साठ साल पहले की हैं।अब कौन कहाँ है, कुछ नहीं मालूम।पर हाँ,बचपन की यादों और यादों की उन पुरानी गलियों से गुजरना बड़ा ही रोमांच भर देता है।
शिबेन कृष्ण रैना
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