मेरी पसंदः शिवमंगल सिंह सुमन

वरदान मांगूंगा नहीं….

यह हार एक विराम है
जीवन महासंग्राम है
तिल-तिल मिटूंगा पर दया की भीख मैं लूंगा नहीं
वरदान मांगूंगा नहीं।

स्मृति सुखद प्रहरों के लिए
अपने खंडहरों के लिए
यह जान लो मैं विश्व की संपत्ति चाहूंगा नहीं
वरदान मांगूंगा नहीं।

क्या हार में क्या जीत में
किंचित नहीं भयभीत मैं
संधर्ष पथ पर जो मिले यह भी सही वह भी सही
वरदान मांगूंगा नहीं।

लघुता न अब मेरी छुओ
तुम हो महान बने रहो
अपने हृदय की वेदना मैं व्यर्थ त्यागूंगा नहीं
वरदान मांगूंगा नहीं।

चाहे हृदय को ताप दो
चाहे मुझे अभिशाप दो
कुछ भी करो कर्तव्य पथ से किंतु भागूंगा नहीं
वरदान मांगूंगा नहीं।

सांसों का हिसाब
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तुम जो जीवित कहलाने के हो आदी
तुम जिसको दफ़ना नहीं सकी बरबादी
तुम जिनकी धड़कन में गति का वन्दन है
तुम जिसकी कसकन में चिर संवेदन है
तुम जो पथ पर अरमान भरे आते हो
तुम जो हस्ती की मस्ती में गाते हो
तुम जिनने अपना रथ सरपट दौड़ाया
कुछ क्षण हाँफे, कुछ साँस रोककर गाया
तुमने जितनी रासें तानी, मोड़ी हैं
तुमने जितनी सांसें खींची, छोड़ी हैं
उनका हिसाब दो और करो रखवाली
कल आने वाला है साँसों का माली
कितनी साँसों की अलकें धूल सनी हैं
कितनी साँसों की पलकें फूल बनी हैं?
कितनी साँसों को सुनकर मूक हुए हो?
कितनी साँसों को गिनना चूक गये हो?
कितनी सांसें दुविधा के तम में रोयीं?
कितनी सांसें जमुहाई लेकर खोयीं?
जो सांसें सपनों में आबाद हुई हैं
जो सांसें सोने में बर्बाद हुई हैं
जो सांसें साँसों से मिल बहुत लजाईं
जो सांसें अपनी होकर बनी पराई
जो सांसें साँसों को छूकर गरमाई
जो सांसें सहसा बिछुड़ गईं ठंडाई
जिन साँसों को छल लिया किसी छलिया ने
उन सबको आज सहेजो इस डलिया में
तुम इनको निर्रखो परखो या अवरेखो
फिर साँस रोककर उलट पलट कर देखो
क्या तुम इन साँसों में कुछ रह पाये हो?
क्या तुम इन साँसों से कुछ कह पाये हो?
इनमें कितनी ,हाथों में गह सकते हो?
इनमें किन किन को अपनी कह सकते हो?
तुम चाहोगे टालना प्रश्न यह जी भर
शायद हंस दोगे मेरे पागलपन पर
कवि तो अदना बातों पर भी रोता है
पगले साँसों का भी हिसाब होता है?
कुछ हद तक तुम भी ठीक कह रहे लेकिन
सांसें हैं केवल नहीं हवाई स्पंदन
यह जो विराट में उठा बबंडर जैसा
यह जो हिमगिरि पर है प्रलयंकर जैसा
इसके व्याघातों को क्या समझ रहे हो?
इसके संघातों को क्या समझ रहे हो?
यह सब साँसों की नई शोध है भाई!
यह सब साँसों का मूक रोध है भाई
जब सब अंदर अंदर घुटने लगती है
जब ये ज्वालाओं पर चढ़कर जगती है
तब होता है भूकंप श्रृंग हिलते हैं
ज्वालामुखियों के वो फूट पड़ते हैं
पौराणिक कहते दुर्गा मचल रही है
आगन्तुक कहते दुनिया बदल रही है
यह साँसों के सम्मिलित स्वरों की बोली
कुछ ऐसी लगती नई नई अनमोली
पहचान जान में समय समय लगा करता है
पग पग नूतन इतिहास जगा करता है
जन जन का पारावार बहा करता है
जो बनता है दीवार ढहा करता है
सागर में ऐसा ज्वार उठा करता है
तल के मोती का प्यार तुला करता है
सांसें शीतल समीर भी बड़वानल भी
सांसें हैं मलयानिल भी दावानल भी
इसलिए सहेजो तुम इनको चुन चुन कर
इसलिए संजोओइनको तुम गिन गिन कर
अबतक गफ़लत में जो खोया सो खोया
अब तक अंतर में जो बोया सो बोया
अब तो साँसों की फ़सल उगाओ भाई
अब तो साँसों के दीप जलाओ भाई
तुमको चंदा से चाव हुआ तो होगा
तुमको सूरज ने कभी छुआ तो होगा?
उसकी ठंडी गरमी का क्या कर डाला?
जलनिधि का आकुल ज्वार कहाँ पर पाला?
मरुथल की उड़ती बालू का लेखा दो
प्याले अधर्रों की अकुलाई रेखा दो
तुमने पी ली कितनी संध्या की लाली?
ऊषा ने कितनी शबनम तुममें ढालीं?
मधुऋुतु को तुमने क्या उपहार दिया था?
पतझर को तुमने कितना प्यार किया था?
क्या किसी साँस की रगड़ ज्वाला में बदली?
क्या कभी वाष्प सी साँस बन गई बदली?
फिर बरसी भी तो कितनी कैसी बरसी?
चातकी बिचारी कितनी कैसी तरसी?
साँसों का फ़ौलादी पौरुष भी देखा?
कितनी साँसों ने की पत्थर पर रेखा
हर साँस साँस की देनी होगी गिनती
तुम इनको जोड़ों बैठ कहीं एकाकी
बेकार गईं जो उनकी कर दो बाक़ी
जो शेष बचे उनका मीजान लगा लो
जीवित रहने का अब अभिमान जगा लो
मृत से जीवित का अब अनुपात बता दो
साँसों की सार्थकता का मुझे पता दो
लज्जित क्यों होने लगा गुमान तुम्हारा?
क्या कहता है बोलो ईमानदार तुम्हारा?
तुम समझे थे तुम सचमुच मैं जीते हो
तुम ख़ुद ही देखो भरे या कि रीते हो
जीवन की लज्जा है तो अब भी चेतो
जो जंग लगी उनको ख़राद पर रेतो
जितनी बाक़ी हैं सार्थक उन्हें बना लो
पछताओ मत आगे की रक़म भुना लो
अब काल न तुमसे बाज़ी पाने पाये
अब एक साँस भी व्यर्थ न जाने पाये
तब जीवन का सच्चा सम्मान रहेगा
यह जिया न अपने लिए मौत से जीता
यह सदा भरा ही रहा न ढुलका रीता

मिट्टी की महिमा
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निर्मम कुम्हार की थापी से
कितने रूपों में कुटी-पिटी,
हर बार बिखेरी गई, किंतु
मिट्टी फिर भी तो नहीं मिटी!

आशा में निश्छल पल जाए, छलना में पड़ कर छल जाए
सूरज दमके तो तप जाए, रजनी ठुमकी तो ढल जाए,
यों तो बच्चों की गुडिया सी, भोली मिट्टी की हस्ती क्या
आँधी आये तो उड़ जाए, पानी बरसे तो गल जाए!

फसलें उगतीं, फसलें कटती लेकिन धरती चिर उर्वर है
सौ बार बने सौ बर मिटे लेकिन धरती अविनश्वर है।
मिट्टी गल जाती पर उसका विश्वास अमर हो जाता है।

विरचे शिव, विष्णु विरंचि विपुल
अगणित ब्रम्हाण्ड हिलाए हैं।
पलने में प्रलय झुलाया है
गोदी में कल्प खिलाए हैं!

रो दे तो पतझर आ जाए, हँस दे तो मधुरितु छा जाए
झूमे तो नंदन झूम उठे, थिरके तो तांड़व शरमाए
यों मदिरालय के प्याले सी मिट्टी की मोहक मस्ती क्या
अधरों को छू कर सकुचाए, ठोकर लग जाये छहराए!

उनचास मेघ, उनचास पवन, अंबर अवनि कर देते सम
वर्षा थमती, आँधी रुकती, मिट्टी हँसती रहती हरदम,
कोयल उड़ जाती पर उसका निश्वास अमर हो जाता है
मिट्टी गल जाती पर उसका विश्वास अमर हो जाता है!

मिट्टी की महिमा मिटने में
मिट मिट हर बार सँवरती है
मिट्टी मिट्टी पर मिटती है
मिट्टी मिट्टी को रचती है

मिट्टी में स्वर है, संयम है, होनी अनहोनी कह जाए
हँसकर हालाहल पी जाए, छाती पर सब कुछ सह जाए,
यों तो ताशों के महलों सी मिट्टी की वैभव बस्ती क्या
भूकम्प उठे तो ढह जाए, बूड़ा आ जाए, बह जाए!

लेकिन मानव का फूल खिला, अब से आ कर वाणी का वर
विधि का विधान लुट गया स्वर्ग अपवर्ग हो गए निछावर,
कवि मिट जाता लेकिन उसका उच्छ्वास अमर हो जाता है
मिट्टी गल जाती पर उसका विश्वास अमर हो जाता है।

शिव मंगल सिंह सुमन

हिंदी साहित्य में प्रगतिशील लेखन के अग्रणी कवि सुमन का जन्म 5 अगस्त 1915 को उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले में हुआ था। सुमन का निधन 27 नवंबर 2002 को उज्जैन में हुआ। स्वतंत्रता, देशभक्ति और स्वाभिमान पर सुमन के बोल काफी ओजस्वी रहे हैं।

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