मुझे क्या पता था कि एक दिन मैं साहित्य की दुनिया में सदस्यता हासिल कर लूंगी? मैंने कब सोचा था कि कलम और कागज मेरी जुबान हो जाएंगे और मैं मनचाही इबारत दर्ज कर पाऊंगी। हां, इतना जरूर था कि मैं कक्षा में पढ़ाए जाने वाले कवियों-लेखकों के जीवन परिचय अपनी बाल्यावस्था में ही गौर से पढ़ने लगी थी। उनकी तस्वीरें घंटों देखती रहती। तस्वीर के बाद उनकी कविता पढ़ती और फिर चित्र देखती। कैसा विलक्षण समय था। वह अपने आप को भूलकर दूसरों की प्रतिभा क्षमता में खो जाना और फिर नन्ही सी आस संजो लेना।
सुभद्रा कुमारी और मैथिली शरण गुप्त की कविताएं आज तक उस पुराने रजिस्टर में दर्ज हैं, जिसके पन्ने भी पुराने हो चुके हैं। मैथिली शरण गुप्त की पंक्तियां ‘जितने कष्ट-संकटों में, जिनका जीवन पुष्प खिला। गौरवगंध उन्हें उतना ही, यत्र तत्र सर्वत्र मिला’ मेरे हृदय में ऐसे बस गई जैसे कोई कारगर मंत्र हो। यह अनजाने ही मुझे आगे बढ़ाती रही उन मुश्किलों में भी,जिनमें घिरकर मुझे पीछे लौटने का रास्ता न मिलने पर खत्म हो जाना चाहिए था। मगर खत्म तो क्या, मैं तो थमी तक नहीं। लोग कहते हैं, साहित्य क्या करता है? कोई बदलाव करता है क्या? मैं तब क्या कहूं?
मैं तो यही कह सकती हूं कि प्यार करना तो मनुष्य की स्वाभाविक वृत्ति होती है, लेकिन उसको पुष्ट करता चलता है साहित्य। जब किशोरावस्था के दिन शुरू हुए गोपालदास नीरज की कविताएं हाथ लग गई। किशोरी को प्यार करने का हक समाज देता ही कहां है? बार-बार समझाया गया कि विपरीत सेक्स के साथ प्रेम करना अपराध है। फिर यह कौन कह रहा था कि ‘प्यार अगर थामता न उंगली, पथ में इस बीमार उमर की। हर पीड़ा वेश्या बन जाती, हर आंसू बंजारा होता’ यह कविता मुझे ठीक उस वक्त मिली थी जब मेरे कच्चे कोमल प्यार भरे दिल को मनमाने उपदेशों के साथ सजाओं के थपेड़े दिए जाते रहे थे। और मैं बराबर उसी ओर बढ़ती चली जा रही थी, जहां से हाथ-पांव बांधकर मुझे खींचा जा रहा था। मन में ये पंक्तियां पुरजोर तरीके से गुंजायमान थीं-‘वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गीत। निकलकर नयनों से चुपचाप बही होगी कविता अनजान।’ बेशक मैं कच्ची उम्र की वियोगिनी थी और समझ रही थी कि एक दिन मेरे आंसुओं में से किसी कविता का बहना अवश्यंभावी है।
अखबार, पत्रिकाएं और कुछ कविता संग्रहों का खजाना हाथ लगता रहा और मैं मोहर-अशर्फियां चुनती रही। रजिस्टर के पन्नों पर लिख-लिखकर उन कविताओं का कोष तैयार कर लिया। और देखिए, जहां चाह तहां राह! मैं कविता तो नहीं लिख पाई, लेकिन सुंदर अनुपम सौगात सा प्रेम-पत्र आ गया। क्या मेरा विरही प्रेमी मुझसे भी पहले वियोगी कवि बन गया? उसके नयनों से कविता चुपचाप बही और कमल-फूलों के रेखांकन के साथ कापी के पन्ने पर रंगोली सी रच गई। वह काव्यात्मक रंगोली जब मुझ तक आई, मेरी आंखों के सामने अपने स्वास्तिक पद्मों की छवियां बिखरने लगी, मेरी आंखें, आंखें नहीं, आकाश हो गई, जिनमें हजारों सुनहरे सितारे झिलमिलाए। लोग कहते हैं-यह कविता-फविता क्या करती है आखिर? क्यों समय बरबाद करती हो इसमें? उनसे क्या बतलाऊं कि सारे जगत का सौंदर्य, दुनियाभर में जितना सुकून होगा, वह सारा का सारा, दोस्ती का प्रगाढतम जुनून मुझे अपने उस स्कूल में मिला था, जिसके पीछे ऊंचा श्योरा पहाड़ सूरज की रोशनी और चंद्रमा की चांदनी में चमकता-दमकता था।
पहाड़ की चोटी से स्कूल के प्रांगण तक इंद्रधनुषों की डोरियां रंगीन बंदनवार बना देती थीं। मेरे जीवन को सुंदर से सुंदरतम बना दिया था कविता ने। मुझे नहीं पता कि दूसरे लोग कविता के मौसम को आखिर किस कठोरता के शिकंजे में फंसकर नजरंदाज कर जाते हैं? सचमुच जीवन के सुंदर सत्य से वंचित रह जाते हैं क्या इसलिए ही दूसरों से भाषात्मक धरातल पर जुड़ नहीं पाते। फिर वे कल्याणकारी चेतना को कैसे हासिल करेंगे? और लगाव जुड़ाव के बिना जीवन बीहड़ होता जाए तो इसमें किसी का क्या दोष? कविता से लगाव हुआ, कविता लिखने का मन बहुत किया। कविता लिखी तो उसे साधने के यत्न में खुद को अनुशासित करने का संकल्प लिया।
मगर जरूरी तो नहीं कि आप जिसे [कविता को] चाहें, वह भी आपके आगोश में आ जाए। यह तो बेलाग बात है कि कविता लिखने वाला लड़का कविता को साध चुका था और इसी कारण उसका हृदय विशाल था। मेरी बचकानी रचनाओं को भी प्यार सहित स्वीकार कर रहा था। अब यह अलग बात है कि हम साहित्य पर बात करने लगे थे और वह अपने उद्गार गद्य के रूप में मुझे भेजने लगा था। गद्य भी कैसा कि मैं चकित-सी पढ़ती चली जाऊं। क्या वे गद्यात्मक कविताएं थीं? शायद उन पत्रों ने ही मेरी रुचि को आज लिखी जाने वाली कविताओं से जोड़ा है। जो कुछ मैंने लिखा, लगा कि यही मेरे लेखन का रास्ता है। कविता, कहानी, उपन्यास सिर्फ विधाओं के नाम हैं, वरन् हैं ये सब अपने लगाव-जुड़ाव, हमदर्दी और चेतना को व्यक्त करने के रास्ते।
इसी तरह किशोर-किशोरियों का प्रेम, आकर्षण, मिल-बैठने की तीव्र इच्छा, संवाद की सहभागिता को आशनाई कहें या आवारापन, दोस्ती मानें या याराना, महज शब्दों के संबोधन हैं। असलियत में तो मनुष्य होने के नाते सामूहिक और सामाजिक होना ही है। वह भी अपनी-अपनी पहचान के साथ। साहित्य व्यक्ति की पहचान का हिमायती है, वरन इस संसार के तमाम जालों में आदमी को खोते हुए देर नहीं लगती। मुझसे कितनी बार कहा गया है, बार-बार समझाया गया है कि एक शादीशुदा औरत को कुंवारेपन में बने मित्रों/प्रेमियों को भुला देना ही उसके सतीत्व की निशानी है।
‘सतीत्व’ यह शब्द हमारी जिंदगी में उस भारी पत्थर के मानिंद है, जो भावनाओं को बेरहमी से कुचल डालता है। जिसने कविता के रूप में मेरे जीवन में प्रवेश किया और मुझे मोहब्बत का संदेश दे दिया, जिससे हमदर्दी के सोते फूटे, वह क्या साधारण था? साधारण से असाधारण होकर कोई अपना वजूद कायम रखे, क्या यह करिश्मा है? नहीं, करिश्मा तो क्षणजीवी होता है। सब जानते हैं कि साहित्य जो जमीन पर रचा गया, आसमानों तक पहुंचता है। शब्द जो कविता और कथाओं में जज्ब हो गए सदियों तक अपना अस्तित्व कायम रखते हैं। कितनी लंबी उम्र होती है उन हृदयस्पर्शी रचनाओं की जिनको इनके रचयिताओं ने कुछ दिन या महीनों में कागज पर उतार दिया था।
इतनी लंबी कि रचनाकार अपने शारीरिक रूप में भले बूढ़ा हो जाए, स्वर्गवासी हो जाए, हमारे बीच बराबर बना रहता है। जब-जब हम नफरत के जंजालों में फंस जाते हैं, प्रेम हमें एक पंक्ति के सहारे निकाल लेता है। जब कभी हम बाधाओं में रुक जाते हैं, कुछ शब्दों का आह्वान आगे बढ़ने के लिए काफी होता है।
कैसी हास्यास्पद बात है कि साहित्य जगत में ही चिंताएं होने लगती हैं साहित्य के पाठक नहीं रहे। अब साहित्य कौन पढ़ता है? इन बातों के उत्तर में क्या कहा जाए? यही कि जो साहित्य नहीं पढ़ता मनुष्यता से वंचित हो जाता है! प्रवचन और उपदेश देने वालों की अपने समाज में कोई कमी नहीं, लेकिन मनुष्य को मनुष्य बनाए रखने में उपदेशों का दखल सबसे कम होता है। आदमी की प्रवृत्ति ही ऐसी होती है कि वह ऊपर से थोपे हुए को ज्यादा देर वहन नहीं कर पाता। वह उसे आत्मसात कर लेता है, जिसमें अपनी आंतरिक झलक पाता है। बार-बार यही सोचती हूं, वे कौन से मुहूरत होते हैं जिनमें रचना जन्म लेती है, हर बार यही सामने आता है कि जब मैंने कुछ लिखा, रचना तब नहीं हुई थी, बल्कि जब मैंने मन-भावन कुछ पढ़ा रचना वहीं से फूट निकली। यह मेरा अपना किया धरा नहीं, कई कवियों-लेखकों यहां तक कि साहित्य की ओर ले जाने वाले मित्रों का सामूहिक प्रयास था। बीज उन पत्रों में था जो मुझे लिखे या मैंने लिखे।
आज यह दुख तो है कि पत्र लिखने का चलन निरंतर कम हो रहा है, चिंता यह है कि हार्दिक भावनाएं अपने विस्तार में क्षीण होती जा रही हैं। मेरी तरह न जाने कितने साहित्यकार पत्रों से प्रेरणा पाकर रचना में उतरे होंगे। याद करने पर अपने वे प्यारे-दुलारे याद आ जाएं। मोहब्बत के लिए यह भी कम तो नहीं। स्मृतिया रचनाकार का निजी खजाना होती हैं, मगर कितने लोग यादों को सहेज पाते हैं?
अक्सर ही मान लिया जाता है कि पुराने दोस्तों का अब जिंदगी में क्या अर्थ? कि कच्ची उम्र के आकर्षण आदमी की भूल हुआ करते हैं कि भावनाओं से जिंदगी नहीं चला करती ये सारी बातें जिंदगी से जोड़ दी जाती हैं और इनके जुड़ते चले जाने से हमारा जीवन सूखा काठ होता जाता है। जिसे सदा ही मुझे ‘नादानी’ कहकर दरकिनार करने के लिए कहा, सच मानिए इस कृत्य की कल्पना से ही मैं घबरा गई। सोच-समझ वालों से दूर रहकर सुकून मिला, शायद इसलिए कि रचनात्मक जीवन सिद्धांतों पर नहीं चलता, अनुभवों से निकली तपिश ही विचारों को जन्म देती है। और ये विचार कविता कथाओं में ही नहीं, मामूली आदमी की बोली बानी के मुहावरे में बड़ी सहजता से मिल जाते हैं।
जब कोई पूछता है, आपको लेखक बनने की प्रेरणा कहां से मिली तो मैं क्या उत्तर दूं? जिंदगी चली जा रही थी, रास्ते में कवि लेखक ही नहीं, वे लोग भी मिले जो हल चला रहे थे, पत्थर तोड़ रहे थे, पल्लेदारी कर रहे थे, अध्यापक थे और थे डॉक्टर, नायब तहसीलदार, विकास खंड के लोग और मेरे सहपाठी, इनमें से कौन क्या-क्या देता चला, वह सब रचनाओं में शामिल होता गया। मेरे लिए उनकी दी हुई वह ऐसी दौलत थी, जिसे मैंने दोनों हाथ लुटाया और वह निरंतर बढ़ती फैलती चली गई। यहां जो कुछ समृद्ध हुआ, वह था हमारी मोहब्बत का जज्बा।
मैत्रेयी पुष्पा
जन्म ३० नवंबर १९४४ , अलीगढ़ ज़िले के सिकुँरा गाँव में।
शिक्षा एम.ए. हिन्दी साहित्य बुंदेलखंड खंड कालेज, झाँसी
मैत्रेयी पुष्पा के साहित्य में बुंदेलखंड और ब्रज प्रदेश की मिट्टी की सौंधी-सौंधी खुशबू आती है। आपने आधुनिक हिंदी कथा साहित्य में वर्ष 1990 में प्रथम उपन्यास ‘स्मृति दंश’ के साथ आगमन हुआ। उन्होंने हिंदी गद्य साहित्य की सभी विधाओं में साहित्य का सृजन किया जिनमें कहानी, उपन्यास, आत्मकथा और वैचारिक साहित्य शामिल हैं। वहीं उन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से लोक जीवन, लोक संस्कृति, राजनीति व नारी के जीवन का चित्रण किया।
उपन्यास
स्मृति दंश
बेतवा बहती है
इदन्नमम
चाक
झूलानट
अल्मा कबूतरी
अगनपाखी
विज़न
कही इशुरी फाग
खुली खिड़कियाँ
गुनाह बेगुनाह
कहानी संग्रह
चिन्हार
ललमनियां
गोमा हँसती है
पियारी का सपना
फाइटर की डायरी
आत्मकथा
कस्तूरी कुंडल बसै
गुड़िया भीतर गुड़िया
नाटक
मन्दाक्रांता
टेलीफिल्म
वसुमती की चिट्ठी – फैसला कहानी के आधार पर
स्त्री लेखन
सुनो मालिक सुनो
खुली खिड़कियां
तब्दील निगाहें
आवाज़
सम्मान
साहित्य कीर्ति सम्मान – 1991
कथा पुरस्कार
महात्मा गाॅधी सम्मान
सरोजनी नायडू पुरस्कार
प्रेमचंद सम्मान – उत्तर प्रदेश साहित्य संस्थान
सार्क लिटरेरी सम्मान
साहित्यकार सम्मान – हिंदी अकादमी, दिल्ली
मंगला प्रसाद पारितोषिक – 2006
सुधा स्मृति सम्मान – 2009
वीरसिंह जूदेव पुरस्कार – मध्यप्रदेश साहित्य संस्थान
वन माली सम्मान – 2011
आगरा विश्वविद्यालय गौरव सम्मान – 2011
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