मुद्दाः उदासी – इंदु झुनझुनवाला

उदासी या अवसादः एक बढ़ता सामाजिक रोग- कारण व निदान!
याद आता है बचपन,,
घर में लोग थे, पर कदम स्कूल से आते ही गली के दोस्तों के लिए बढ़ने लगता था, बस्ता एक तरफ पटका और माँ की पुकार अनसुनी कर दहलीज के बाहर, वो गए हम सभी भाई-बहन हडकंप मचाने पास-पडोस में।
थोड़े बड़े हुए तो घर आकर माँ को पुकारते बाहर से ही,, भूख लगी है,, चिल्लाते और फिर पढ़ने का बहाना, कभी छत पर भागम-भाग।
बिजलीघर गुल होने का इन्तजार बेसब्री से, तभी तो मिलती होमवर्क से छुट्टी और हम खेलते लुका-छिपी, थक जाते तो फिर अन्ताक्षरी।
भाई-बहनों के साथ चचेरे -ममेरे भाई बहनों से खिलखिलाता घर, बुआ और मौसी की नोंक-झोंक पर मुस्कुराता घर, दादाजी की प्यार भरी फटकार और बाबुजी की चुप्पी से डरता मन, माँ के हाथों की सौंधी पूरी और रसभरी मिठाईयों का चटखारे लेता मन, कब सुबह से शाम और रात के आगोश में चैन की नींद लेता तन,,,, फिर से सुबह की मीठी धूप और स्कूल फिर कॉलेज के दोस्तों से मिलने को बेकरार मन,,,,।

हाँ, किसी ने छेड़ा तो चिढ़ गए, किसी ने डाँटा तो मुँह फुला लिया, किसी से गुस्से में कुछ कह दिया तो कान पकड़ कर हँस दिया, हँसा दिया,, बस इतना ही।
बाबूजी ने गुस्सा किया तो माँ को कोने में रोते भी देखा और आँसू पोंछकर सब भूलकर फिर से हँसते खिलखिलाते भी।
नहीं जानता था मन पर उदासी क्या होती है, अवसाद किसे कहते हैं।
अपना-पराया क्या होता है, कजिन किसे कहते हैं, और पड़ोस की छत दूसरों की होती है, उनके आँगन और सुख-दुःख पराए होते हैं!

शादी के बाद भी सभी अपने ही लगे, पराया शब्द से परिचय ज नहीं हुआ था,, शायद इसलिए कभी अकेलापन नहीं खला, फिर अवसाद और रोग भला कौन जानता।

हाँ, बचपन में बुखार होती थी कभी-कभी घर में किसी को। बट्टे बाबू डॉक्टर साहब आते, देखते और कहते दो दिन भोजन मत देना, तीसरे दिन बुखार उतरने पर दाल का पानी ,फुल्का और नींबू का अचार।
बस इतनी-सी बीमारी।

सच कहती हूँ अगर कभी माँ से कह दिया सिर में दर्द है तो हँसकर कहती, बच्चों को कोई सिर में दर्द होता है क्या, भूख होगी, खाना खा लो ठीक हो जाएगा।

आप सोच रहे होंगे , विषय क्या है और ये तो अपना ही किस्सा लेकर बैठ गई।
बात तो ऊपरी तौर पर आपकी ठीक ही है।
पर ये किस्सा आपके विषय का ही हिस्सा है, जरा सा गहराई में उतर कर तो देंखे।

अच्छ चलो, मैं पहेलियाँ नहीं बुझाती। बात उदासी की है न ?
उदासी से पैदा होता और बढ़ता है अवसाद,अवसाद से मन बीमार होता है
और मन से जुड़ा तन जड़ हो जाता है, यानि निष्क्रिय, निढाल।

आखिर ये जो कड़िया गूँथी है मैने, उससे सहमत है न आप?
चलिए उदासी से ही बात शुरु करते हैं।
पारिवारिक व सामाजिक दृष्टि से व्यक्ति कब उदास होता है, जब वो स्वयं को अकेला पाता है।
अकेला पन क्यूँ ?
क्योंकि उसे सब पराए लगते हैं, वो अपने मन को खोल नहीं पाता, स्वयं से ही लड़ता है, झगड़ता है।
पर समाजशास्त्र और विज्ञान कहता है मनुष्य सामाजिक प्राणी है, तब ये अकेलापन कैसे सहन हो।

विज्ञान की दृष्टि से विश्लेषण करूँ तो जब भी आप अकेलापन महसूस करते हो, दुखी होते हो। चूँकि मनुष्य की भावनाओं का सीधा सम्बन्ध मस्तिष्क से भी है अतः जब भी नकारात्मक सोच पैदा होती है, हाइपोथेलेमस आदि ग्रंथियों से होने वाले स्त्राव हानिकारक एसिड का कार्य करते हैं, जो हमारे शरीर में फैलकर शारीरिक रोग का रूप ले लेते हैं।
आधुनिक युग के अनुसंधानों ने इस तथ्य को प्रमाणित किया है कि अधिकतर बीमारियाँ मनोरंजक ही होती हैं।

इतिहास और साहित्य के उदाहरण भी इस तथ्य को प्रमाणित करते हैं कि अकेलापन मानव के जीवन में जीने की चाह को समाप्त करने वाला होता है, जो रोगों का मुख्य कारण बन जाता है।

आधुनिक युग में वैश्वीकरण ने जहाँ दूरी को कम किया है, पहचान को बढ़ाया है, वहीं ये अकेलापन क्यूँ उदासी क्यूँ , बीमारियाँ क्यूँ,,, इस प्रश्न का उत्तर ही मेरी उपर की कथा में छुपा है।

अब आप थोड़ा समझ रहे होंगे मेरे किस्से के महत्व को।

आज व्यवसायीकरण का बाजार इतना गर्म हो गया है कि उसमें अपनत्व के बीज ही जल गए हैं, पास-पड़ोस और मोहल्ला तो बहुत दूर की बात है, पहले रिश्तेदारों ही नहीं जरूरतमंदों की जरूरत को समझकर व्यापार में मुनाफे की बात क्या, मूल धन भी कभी-कभी कबीर जैसे लोग नहीं लेते थे, बिनीता भावे जैसे लोग द्वार पर हों, तो भूमि दान भी निःस्वार्थ भाव से होता था और भोजन के समय किसी भूखे को खिलाकर मन संतुष्ट हो उठता था।
जिसके घर में खेलते थे हम वही खा-पीकर आ गए,, कोई अपने पराए की सोच ही नहीं। कुछ लेकर आए, पास-पडोस में बाँटकर खाया।
मोहल्ले में एक के घर में बैठक में फोन, पूरा मोहल्ला अधिकार से उपयोग करता।
दूरदर्शन का समय आया, पूरा मोहल्ला हर रविवार एक के घर में इकठ्ठा।

कैसे होता कोई अकेला।
घर में अनहोनी,, पूरा मोहल्ला तैयार एक परिवार बनकर।
आज पड़ोस में कौन है पता नहीं।

बात कारण की-
कारण है –
नैतिकता का ह्रास।
शिक्षा पद्धति में बदलाव।
धन की महत्ता मनुष्य से ऊपर।
पहले रिश्ते सम्पत्ति थे अब कागज के टुकड़े।
पहले रूपये-पैसे साधन थे सुख के,
अब साध्य हो गए है अतः सुख खो गया तो आश्चर्य क्यों?

अब जब कारण पता है तो उसका निदान भी तो पता हो ही गया न।
माँ के हाथ के भोजन का स्वाद और उसमें बसा ममता का रस, स्त्री और पुरुष दोनों के घर से बाहर रहने के कारण गुम हो गया।
जैसा खाओ अन्न, वैसा होवे मन, जैसा पीओ पानी, वैसी होवे वाणी।
पुरानी कहावत, बिना विज्ञान के उद्भव के भी वैज्ञानिक होती थी।
व्यवसाय की दृष्टि से बना भोजन व्यवसाय को ही महत्व देगा ना। बात हल्की और मामूली लगती है, है बहुत गहरी, सोचकर देखना।
शिक्षा में साहित्य आदि कलाओं की उपेक्षा, धन कमाने के द्वार तो खलती है, संवेदनाओं के द्वार बन्द कर देती है, अतः उस धन का व्यय नैतिकता का आधार नहीं पा सकता, रिश्तों को जोड़कर नहीं चल सकता।

हमारी अतिरिक्त व्यस्तता, सिर्फ स्वयम के बारें में सोच, ईंट पत्थरों के नक्काशीदार घर तो बना लेते हैं पर रिश्तों की छत नहीं ढाल पातें, जहाँ अपने मन की कही जा सके, दूसरे के मन की बिना बोले भी माँ की भाँति समझा जा सके।
फिर उदासी तो लाजमी है ना? अवसाद घेरेगा ही और तब जिस शरीर के लिए इतना सबकुछ किया ,वही रोगग्रस्त होकर राह तकेगा अपनों की भीड़ में अकेला होकर या धूल-धूसरित होते सपनों को देख मृत्यु की कामना करता हुए जीते जी मरेगा।
समय है अभी भी, जब जागो तभी सवेरा,, धन साधन मात्र है, आवश्यक है , पर साध्य नहीं।
मन की शान्ति और आनंद तन के सुख और आराम के साथ ही अनमोल धन हैं, जो रिश्तों के फूलों की सुगंध से ही सुवासित हो सकते हैं,, सोचना, मुश्किल भी नहीं निदान।

इंदु झुनझुनवाला

पिताः श्री रामकैलाश सरावगी
माताः श्रीमती गीता देवी
पति : श्री संजीव झुनझुनवाला

प्रकाशित पुस्तकेंः
अहसास( साझा काव्य संग्रह)
संस्कृति के दर्पण( साझा काव्य संग्रह)
अनुभूतियों के मोती (एकल काव्य संग्रह )
बूँद का सफर नामा( दो भागों में काव्य संग्रह)
काव्या( उपन्यास)
बुद्ध-यात्रा अन्तर की ( एक नया प्रयोग )
बूँद-बूँद जीवन( गद्य पद्ध के साथ एक कहानी स्त्री अन्तर्मन की – एक नया प्रयोग)
आज की अहिल्या( कहानी संग्रह- नारी मनोविज्ञान पर आधारित)
25 पुस्तकों का सम्पादन
अनेकोंसाझा संकलनों, पत्र पत्रिकाओं में आलेख, कहानियाँ, कविताओं का निरन्तर प्रकाशित

प्रकाशकाधीन पुस्तकेंः
सत्य की ओर एक कदम
क्या मैं धर्म हूँ?
समद समाना बूँद में
भूमिकाएँ
उन्मुक्त कविताओं के पंख
सत्य की ओर एक कदम (शोध विषय पर आधारित)
सत्य की खोज में (शोध पर आधारित)
देहरी के दीप
अयोध्या की पटरानी ( उपन्यास)

प्राप्त सम्मानः
प्रेरणा साहित्य रत्न, प्रेरणा साहित्य प्रहरी आदि से सम्मानित एवम पुरस्कृत 2018, 2019, 2020,2021,
अग्र शारदा अवार्ड प्राप्त 2020
मदर टेरेसा अवार्ड प्राप्त 2020
इटावा हिन्दी सेवा निधि द्वारा
सावित्री देवी गुप्त हिन्दी सेवा सम्मान 2021
प्रेरणा महादेवी वर्मा सम्मान 2021
अन्तराष्ट्रीय महिला काव्य मंच (कलकत्ता, दिल्ली )द्वारा सम्मानित
“सुनो सुनाओ” काव्य मंच (दिल्ली) द्वारा सम्मानित2020
काव्य रंगोली , अग्निशिखा मंच , भव्या फाउंडेशन द्वारा सम्मानित, एवार्ड प्राप्त 2019
“काव्य रंगोली” पत्रिका में अतिथि सम्पादक 2019-2021
साहित्य सृजन धारा, लखनऊ में अतिथि सम्पादक
ई पत्रिका ‘लेखनी’ (लंदन) में लगातार रचनाओं का प्रकाशन व ‘काव्या’ उपन्यास धारावाहिक रूप से प्रकाशित

विशेषः विभिन्न विषयों पर कोरोना काल में लगातार प्रातः 45 मिनट का फेस बुक लाइव मोटिवेशन और साहित्य व संस्कृति के लिए।
अभ्युदय अंतरराष्ट्रीय संस्था की संस्थापक अध्यक्ष।
एक्युप्रेशर की अंग्रेजी पुस्तक का हिन्दी में अनुवाद।
जैन विश्वविद्यालय, बैंगलोर में शोध ग्रंथों का जाँच व सुधार कार्य के लिए नियुक्त शिक्षिका( external examiner)
कॉलेज में असिस्टेंट प्रोफेसर

स्थाई निवासः 94, 3rd E cross, 2nd block, 3rd stage, 4th main, Basheshwarnagar, Banglore- 560079
दूरभाषः 9341218152
ईमेलः induj47@gmail.com

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