सिया राम मय सब जग जानी….
वाल्मीक कृत रामायण न केवल इस अर्थ में अद्वितीय है कि यह देश-विदेश की अनेक भाषाओं के साहित्य की विभिन्न विधाओं में रचित तीन सौ से भी अधिक मौलिक रचनाओं का उपजीव्य है, बल्कि इस संदर्भ में भी कि इसने भारत के अतिरिक्त अनेक देशों के नाट्य, संगीत, मूर्ति तथा चित्र कलाओं को प्रभावित किया है और भारतीय इतिहास के प्राचीन स्रोतों में इसके मूल को तलाशने के सारे प्रयासों की विफलता के बावजूद भी यह होमर कृत ‘इलियाड’ तथा ‘ओडिसी’, वर्जिल कृत ‘आइनाइड’ और दांते कृत ‘डिवाइन कॉमेडी’ की तरह संसार का एक श्रेष्ठ महाकाव्य है।
कई सौ साल बाद तुलसीदास ने इसी कथा को दोबारा एक अभियान की तरह कर्तव्यबद्ध होकर पुन-रचा। राम के रूप में उन्होंने एक ऐसे जननायक के चरित्र को उकेरा, जिसने अपनी निस्वार्थ सोच और उद्दाम चरित्र के बल पर त्याग, सूझबूझ व साहस के अभूतपूर्व आदर्श रखे; जिनके बल पर मानव होते हुए भी ईश्वरीय यश और सम्मान पाया राजा राम ने। तुलसी के महानायक राम मर्यादा पूरुषोत्तम हैं। उसकी पुरुषोत्मता यथार्थ में जीकर मानवीय मूल्यों की रक्षा करती है, तो ईश्वरीयता उस चिरंतन सत्य से अवतरित होती है , जो सबल, निर्बल, छोटे-बड़े, सभी प्राणियों के लिए हितकर है।
‘सत्यं भूतहितं प्रोक्तम्’।
निर्गुण निर्पेक्ष सत्य का यही सगुण-सापेक्ष रुप हैं राम । सहज रूप में एक आदर्श राजा, आदर्श पुत्र और समाजसेवी के रूप में उभरते हैं मर्यादा पुरुषोत्तम राम जिन्होंने अपार कष्ट तो सहे पर मर्यादा का उल्लंघन कभी नहीं किया, और ना ही जनहित के आगे निजी स्वार्थ को कोई महत्व ही दिया कभी। यदि तुलसी की रामायण का सत्य और सौंदर्य उसकी शिवता में समाहित है, तो उसका मंगलघर अपरिमित आनंद रस से परिपूर्ण है। कृष्ण की कहानी से जुड़ी “गीता” को यदि हिन्दू जीवन शैली का दर्शन कहा जाए, तो तुलसी के महाकाव्य ” राम चरित मानस” को हिन्दुओं की बाइबल कहना अतिशयोक्ति न होगी। रामायण की आज भी हिन्दू परिवारों में वही जगह है जो अन्य धर्मग्रन्थ; बाइबल, कुरान या गुरुग्रन्थ साहिब की अन्य धर्मों में है। भारतीय चेतना और जनोत्थान में तुलसी के योगदान को आज भी नकारा नहीं जा सकता।
वाल्मीकि की संस्कृत रामायण ही नहीं, अब तो तुलसी की रामायण भी करीब-करीब पाँच सौ साल पुरानी हो चुकी है और जब इतनी नई-नई और रोमाँचक कहानियाँ चारो तरफ बिखरी पड़ी हैं, तो राम-कथा में ही ऐसी क्या विशेशता है जो आज भी सोच और समाज के ताने-बाने तक को बदलने की क्षमता रखती है यह? क्यों आज भी, इस इक्कीसवीं सदी में भी हम, भारत से हजारों मील दूर विश्व के कोने-कोने में इसे अपने घरों में संजोये बैठे हैं और बड़ी ही श्रद्धा के साथ पढ़ते और गुनते-बुनते हैं?
तुलसी के राम सोलहवीं शताब्दी में उस समय अवतरित हुए, जब पुरानी मान्यताएँ और आस्थाएँ टूट रही थीं। चारोतरफ नए शाषकों की नई संस्कृति का नया और बेहद उथल-पुथलकारी माहौल था। पुराना न इतना पुराना था कि लोग भूल पाएँ और ना ही नए से जनता इतनी अभ्यस्त ही हुई थी कि खोए का दुख महसूस न करे। हम प्रवासियों सी ही स्थिति रही होगी। आज इंगलैंड अमेरिका और गल्फ आदि विभिन्न देशों में बसे भारतीयों की तरह ही सोलहवीं शताब्दी भी विलासिता की फिसलन का काल था…जब सब कुछ प्रचुर मात्रा में उपलब्ध था, सिवाय आत्म-संतुष्टि के। भोग की यह संस्कृति कूच घास की तरह तेजी-से अपनी जड़ें फैला रही थी और हमारी सिंची-सिंचाई शान्ति, त्याग व परोपकार की सनातन संस्कृति को कूचघास-सी निगलने को तैयार खड़ी थी। चारो तरफ बिखरी इस अराजकता और निराशा से घबराए तुलसी ने समाज को आशा और एक नई दिशा देना चाही। वे जानते थे कि ऐसी किंकर्तव्य-विमूढ़ मन:स्थिति में एक आदर्श—एक प्रेरणा-स्रोत्र की जरूरत है समाज को। एक नायक चाहिए प्रजा को, जो उसका आदर्श बन सके। सही मार्ग दर्शन दे सके, दुखों में संबल बने और साथ साथ जिसकी भक्ति भी की जा सके। तुलसी ने समाज को मर्यादा पुरुषोत्तम राम देकर एक नया आत्म-बल, और परिष्कृत सोच देने की कोशिश की। बाहर से आई भौतिकता की संस्कृति के खिलाफ वैदिक जीवन पद्धति का एक सशक्त आदर्श और विकल्प रखा। हिन्दुत्व में पुन: गौरव जगाया। भारतीयों को उनके अपने सगुण भगवान दिए। “सबमें राम और सबमें राम” कहकर तुलसी ने राम को सर्वव्यापी बनाया और घर घर में लाकर बिठा दिया। “ह्रदय राखि कोसलपुर राजा” काम करोगे तो विजय तुम्हारी ही होगी, किसी संदेह व दुविधा की गुंजाइश नहीं रहेगी– यह संदेश देकर देश के टूटे आत्म विश्वास पर मरहम लगाया।
ग्रन्थ के आरम्भ में ही सरस्वती और गणेश की वन्दना के बाद तुलसीदास पार्वती और शिव की वन्दना करते हैं जो कि क्रमश: श्रद्धा और विश्वास के ही प्रतीक हैं। तुलसी की आँख में विश्वास और श्रद्धा ही ऐसे दो गुण हैं जो विचारों में ही नहीं रिश्तों में भी जरूरी हैं। जहाँ विश्वास हो, श्रद्धा खुद ही आ जाती है। इन दोनों से ही चित् स्थिर होकर अंतस् में बसे ईश्वरीय तत्व को देख पाता है और इन्ही के मिलन से सर्व विघ्न विनाशी प्रेम या कल्याण का जन्म और ‘ ‘श्रीगणेश’ होता है। तुलसी दास कहते हैं, ” भवानी शंकरौ वन्दे श्रद्धा विश्वास रूपिणौ।”
तुलसी का रामचरित-मानस लोक-धर्म और आध्यात्म को सामने रखकर भी मुख्यत: जीवन का सरस काव्य है। और यही वजह है कि सबको एक नए रास्ते पर डालते हुए, बिना जाने ही सबके दिलों में और घर-घर बस गया। जो संसार के फंदे में फंसे थे उन्हें धर्म की तरफ खींचा और जो धर्म के चक्कर में वैराग ले चुके थे, उन्हें सांसारिक कर्तव्यों की याद दिलाई। और इस सारी उथल पुथल के बाद भी तुलसीदास विनम्र थे, ” अर्थ अमित अति आखर थोड़े।”
तुलसी ने लोक व्याप्त माया, काम और क्रोध के विनाशकारी प्रभाव की भी कम भर्तस्ना नहीं की, परन्तु वे कबीर की तरह मुँहफट नही हुए और दो टूक बात कहने में विश्वास नहीं रखते थे। अपने इष्ट श्री राम का चरित्र उन्होंने इस ढंग से पेश किया कि जो संदेश वह देश के आगे रखना चाहते थे, वह स्वयं ही प्रकट हो गया और यही वजह है कि बिना किसी रागद्वेष के सामान्य गृहस्थ और विद्वान दोनों ने ही समान सम्मान दिया। आज भी हे राम, हरे राम, अरे राम, और रामराम व हायराम से लेकर ‘ राम नाम सत्य’ तक, राम का नाम भारतीय चेतना की बात-बात में गहराई तक पैठा हुआ है। राम कथा हजारों साल के अंतराल के बाद भी इस देश के मानस पर वैसे ही जीवन शक्ति-सी छाई हुई है जैसे कि तुलसी के युग में रही होगी। आज भी बड़े बड़े विचारकों और सन्तों की प्रेरणा है। भारत ही नहीं दक्षिणी-पूर्वी एशिया के करीब करीब सभी देशों में (बर्मा , थाइलैंड, मलेशिया, कम्पूचिया, चीन, फिलिपीन, लंका आदि कई-कई देशों में आज भी थोड़े बहुत बदलाव के साथ यह विभिन्न नामों से प्रचलित है। रामकथा जहाँ कहीं भी गयी, वहाँ के हवा-पानी में घुल-मिल गयी। संभवत: इसी कारण रामकथा पर आधारित जितनी मौलिक कृतियों का सृजन हुआ है, संसार के किसी भी अन्य कथा को यह सौभाग्य प्राप्त नहीं। कहीं इसे बौद्ध जातकों के सांचे में ढाला गया, तो कहीं इसका इस्लामीकरण हुआ और राम चरित अनेक देशों के प्राकृतिक परिवेश, सामाजिक संदर्भ और सांस्कृतिक आदर्शों के अनुरुप ढलता-सँवरता चला गया। परन्तु अनगिनत इन परिवर्तनों के बीच भी न सिर्फ यह कथा जीवित रही, अपितु अपने मूल रूप को भी इसने काफी हद तक बनाए रखा ।
हिन्दुओं में तो मानो राम नाम मुक्ति का पर्याय ही बन गया है। आज भी दुख या आपदा का वक्त हो या भ्रम का, शक्ति के लिए भारतीय परिवारों में रामायण ही निकाली जाती है। इसके अखंड पाठ होते हैं। आज भी इसी नाम के सहारे दुखों के सागर ही नहीं, भवसागर तक को पार कर पाएंगे, ऐसी अटूट जनधारणा है। सुनते हैं जब भारतीयों को फिज़ी, मौरिशस और अन्य देशों में बन्धुआ मज़दूर बनाकर ले जाया जा रहा था तो वे उस अनजान और असुरक्षित यात्रा पर मात्र रामायण और हनुमान चालीसा के सहारे ही चल पड़े थे। ये किताबें ही हर विपदा में उनकी गुरु और कवच थीं। भारतीय संस्कृति में जो कुछ जानने या बचाने लायक है, उसका सार थीं। आज भी सोते-जागते, शुभ-अशुभ, हर परिस्थिति में प्राय: राम का ही स्मरण किया जाता है। राम और हनुमान कितने भारतीय परिवार और व्यक्ति विशेश के संबल हैं इसका सही मापदंड मेरी तुच्छ लेखनी के लिए स्वयं उस राम या परम शक्ति के वर्णन जैसा ही दुरूह है परन्तु इतना अवश्य जानती हूँ कि आजभी हर जुबाँ पर राम हैं और आजभी हजारों साल के बाद भी रामकथा ही भारत की सर्वोपरि सर्वव्यापी कथा है। जन-जीवन की संजीवनी है। और तो और आजभी रामकथा या रामायण ” सुरधेनु समाना” ही है और सोच-समझकर अपनाओ तो” दायक अभिमत फल कल्याणा” भी । आज जब पुराने वस्त्रों-से तारतार परिवार और देश को त्यागनीय समझ, चारोतरफ युवा मौसमी उड़ानें ले रहे हैं, सनातन मूल्यों में आस्था और विश्वास खो चुके हैं, तो क्या जरूरी नहीं कि ये त्याग और शौर्य की गाथाएँ पुनः दोहराई जाएं…चरित्र को दृढ़ किया जाए। कल और आज के खोए आत्मबल और आत्मसम्मान को वापस लेने की एक ईमानदार कोशिश की जाए!
राम का न्याय , राम का त्याग, राम की प्रतिबद्धता, राम का शौर्य और समर्थता सब प्रभावित करते है हमें। और यही वजह है कि राम आज भी भारतीय जन-मानस के आदर्श हैं, परन्तु इससे भी ज्यादा आकर्षित करती है राम की परिवार और परिवेश के प्रति जागरुकता। प्रजा के हितों की संरक्षण भावना। आज जब अधिकांशत: समाज ” दिस इज माई लाइफ” के मूलमंत्र पर चलता है और” आइ लिव्ड इट माइ वे ” की जीवन शैली पर ही गौरान्वित महसूस करता है तो रामकथा निश्चय ही भारत और भारत से दूर बैठे भारत वंशियों के लिए एक अटूट प्रेरणा स्रोत्र है। राम न सिर्फ हमें प्यार और त्याग करना सिखलाते हैं वरन् सामाजिक जिम्मेदारियों का अनूठा बोध देते हैं। आज जब बूढ़े माँ बाप को मैले पुरानों कपड़ों की तरह निढाल छोड़कर युवा पीढ़ी आगे बढ़जाती है तो वचनों की रक्षा के लिए बन बन भटकते पुत्र की कल्पना तक किसी भी पिता के लिए दुरूह स्वप्न-सी ही अकल्पनीय है। श्रवण कुमार तो सुपर मैन की तरह पूरे ही काल्पनिक प्रतीत होते हैं। आज जब सामाजिक और पारिवारिक लोकलाज की सीमाएँ टूटती जा रही हैं, रिश्तों का कोई मूल्य नहीं और जन्मभूमि भी अन्य भूमिओं की तरह मात्र एक मिट्टी का ढेला ही है जिसे चन्द सिक्कों के लिए कभी भी त्यागा या बेचा जा सकता है, तो क्या जरूरत नहीं कि एकबार फिरसे वे गौरव गाथा दोहराई जाएँ जो कभी ” जननी जन्मभूमि स्वर्गातपि गरीयसी” का उद्बोध करती थीं। भाईयों में पारस्परिक प्रेम की बजाय आज जब धोखा और झूठ ही अधिकांश रिश्तों का तानाबाना है और परिवार ताश के पत्ते से ढहरहे हैं, पलपल तलाक होते हैं, तो क्या इस फिसलन और टूटन को रोकने के लिए एकबार फिर ईमानदारी और प्रतिबद्धता, सामंजस्स्य और त्याग की सोच ही जरूरी नहीं ? पर इसके लिए खुद हमारा अपनी कथनी में पूर्ण विश्वास होना बेहद जरूरी है, वरना बात दूसरों की समझ में नहीं आएगी। दृढ़ और विश्वनीय सोच के साथ ही कोई आदर्श दूसरों के आगे रखा जा सकता है और किसी भी परिवार या समाज में यदि अग्रजों की सोच सही हो तो छोटे भी स्वयँ ही सुधर ही जाते हैं।
वाणी अंतस का प्रतिबिंबित करती है जैसे कि नैतिकता विचारों की। अगर विचार शुद्ध हैं तो आचरण भी खुद ही शुद्ध हो जाता है। कथनी और करनी का फरक बस एक अस्वस्थ और डरी मानसिकता का ही परिचय देता है। अक्षर जो अ-क्षर हैं, भगवान सा ही सशक्त और शाश्वत हैं, इसलिए खूब सोचसमझकर ही इसका इस्तेमाल करना चाहिए, यही तुलसी ने समझाया। ” प्राण जाए पर वचन न जाई” कहा, वह भी तब जब मुगल राजाओं के विलासी दरबारों में सब अपनी ढपली अपनी-अपनी राग सुना रहे थे। तुलसी के रघुवंशी राजा मितभाषी थे। उनके लिए “टॉक वाज नौट चीप।” अविवेकी वचन बन्दी बनाकर रख सकते हैं, साख मिटा देते हैं, दूसरों की आँख में ही नहीं, खुद अपनी में भी, भलीभांति जानते थे वे। जीवन-धारा तक बदल सकते हैं वचन। दशरथ-कैकयी प्रसंग गवाह हैं इसका।
न सिर्फ राम की कहानी का भाव और कलापक्ष सम्मोहित करता है, अपितु आज भी जीने की एक सहज और आदर्श प्रणाली देता है यह महाकाव्य हमें। असल में तो वेदों में जिन चरित्र संहिताओं का वर्णन किया गया है वे सभी सकारात्मक और विश्वसनीय गुण राम में हैं। अविस्मरणीय बात यह भी है कि राम हमारे अपने राम हैं…हमारे आदर्शों और प्रतिमानों के मानक; सहज और सच्चे । चाहे जिस मन:स्थिति में पढ़ो या जानो, राम अपने ही लगते हैं। अलौकिक होकर भी तुलसी के राम का यही मानवीय पक्ष है, जो छूता और बाँधता है और कहानी को और भी रोचक और विश्वसनीय बनाता है। वे भी हमारी तरह ही रिश्तों में बंधे है और रिश्तों की मर्यादा के भीतर ही रहकर जीते हैं। पिता, पुत्र और पति हैं वे भी, और उन्हें भी जीवन ने कई बार कर्तव्य के दुरूह चौराहे पर लाकर खड़ा किया है। बस हमारी तरह कमजोर नहीं हैं। टूटते नहीं।
रामायण के सभी पात्र वैदिक भारतीय मर्यादाओं से अनुप्राणित हैं और लोक मंगलकारी मूल्यों की प्रतिष्ठा करते हैं। आजभी दैनिक आचार-संहिता से लेकर राजनीति और वेद पुराण सभी की समझ रामायण से ली जा सकती है। कई आधुनिक समस्याओं का समाधान कर सकती है यह काव्य-कथा। राजा राम अपने भाइयों और प्रजा को उपदेश देते हुए कहते हैं कि ” परहित सरिस धरम नहि भाई, परपीड़ा सम नहिं अधमाई।” हरेक के अन्दर छुपे ईश्वरीय तत्व (गुणों को) पहचानकर प्रणाम करना सिखलाती है यह हमें। जब ” सिया राममय सब जगजानी, करहु प्रणाम जोरि जुग पानी।” तो फिर कौन अधम या पराया, या नफरत करने योग्य?-सभी बस अपने हैं और पूज्यनीय हैं। तुलसी ने दिखाया कैसे आजभी स्नेह और सच्चा सेवाभाव निर्बल और नासमझ कपि को बजरंग बली बना सकता है और विनय की चमड़ी में न हो तो अहंकार बड़े से बड़े ज्ञानी को भी दस मुँह से बुलवाता है और पतन की ओर ले जाता है।
विंदा करंदीकर के शब्दों में कहूं, तो शायद कुछ और कहने की जरूरत ही नहीं रहती ;
“क्या सिखलाता है रामायण?
रामचंद्र जी जैसा हो नायक
तो बंदर भी मार सकेगा रावण।”
तुलसीदास के ‘ हरि अनंत हरिकथा अनंता ‘ की तरह ही विविध आयामी और नवों रसों से भरपूर रामकथा आजतक भारत ही नहीं, विश्व के कई देशों में न सिर्फ प्रचलित है, बल्कि नित नए रूप लेती अमरबेल-सी फल-फूल रही है। असल में देखा जाए तो आदिकवि वाल्मीकि कृत रामायण में जिन-जिन स्थानों का उल्लेख है, भौगोलिक उन सभी क्षेत्रों के साहित्य और संस्कृति के किसी न किसी रूप में रामकथा का समावेश आज भी है। यह बात दूसरी है कि रामकथा पर आधारित ये विदेशी कृतियाँ विचित्र तथ्यों से परिपूर्ण हैं। स्थानीय संस्कृति और मान्यताओं से पूर्णतः अनुरंजित इन राम कथाओं को कहीं तो बोद्ध जातक कथाओं का जामा पहनाया गया है, तो कहीं उनका इस्लामीकरण हुआ है। इनमें से कुछ तो संक्षिप्त हैं, कुछ अत्यधिक विस्तृत भी।
राम कथा की विदेश-यात्रा के संदर्भ में वाल्मीकि रामायण का उल्लेख इस अर्थ में भी प्रासंगिक होगा कि यह कथा उन सभी स्थलों पर आज भी न सिर्फ किसी न किसी रूप में जीवित है, अपित स्थानीय व दर्शक जनसमुदाय को लुभाती रही है। बर्मा, थाईलैंड, कंपूचिया, लाओस, वियतनाम, मलयेशिया, इंडोनेशिया, फिलिपींस, तिब्बत, चीन, जापान, मंगोलिया, तुर्किस्तान, श्रीलंका और नेपाल की प्राचीन भाषाओं में राम कथा पर आधारित बहुत सारी साहित्यिक कृतियाँ मौजूद है। अनेक देशों में यह कथा शिलाचित्रों की विशाल श्रृखलाओं में अंकित है और इसके शिलालेखी प्रमाण भी मिलते है। कई देशों में प्राचीन काल से ही विवध रूपों में रामलीला का प्रचलन है और कुछ देशों में रामायण के घटना स्थलों का स्थानीकरण भी हुआ है।
रामकथा साहित्य के विदेश गमन की तिथि और दिशा निर्धारित करना कठिन काम है, फिर भी दिक्षिण-पूर्व एशिया के शिलालेखों से तिथि की समस्या का निराकरण कुछ हद तक तो हो ही जाता है। अनुमान है कि ईसा की प्रारंभिक शताब्दियों में ही रामायण वहाँ पहुँच गयी थी। अन्य साक्ष्यों से यह भी प्रतीत होता है कि रामकथा की प्रारंभिक धारा सर्वप्रथम दक्षिण-पूर्व एशिया की ओर ही बही थी।
दक्षिण-पूर्व एशिया की सबसे प्राचीन और सर्वाधिक महत्वपूर्ण कृति प्राचीन जावानी भाषा में रचित रामायण काकाबीन है जिसकी तिथि नौवीं शताब्दी का पूर्वार्ध है। रचनाकार महाकवि योगीश्वर हैं। पंद्रहवी शताब्दी में इंडोनेशिया के इस्लामीकरण के बावजूद वहाँ जवानी भाषा में सेरतराम, सेरत कांड, राम केलिंग आदि अनेक रामकथा काव्यों की रचना हुई, जिनके आधार पर अनेक विद्वानों द्वारा वहाँ के राम साहित्य का विस्तृत अध्ययन भी किया गया।
इंडोनेशिया के बाद हिंद-चीन भारतीय संस्कृति का गढ़ माना जाता रहा है। इस क्षेत्र में पहली से पंद्रहवीं शताब्दी तक भारतीय संस्कृति का प्रभाव था। पर चौंकाने वाली बात यह है कि कंपूचिया के अनेक शिलालेखों में रामकथा की चर्चा तो हुई है, किंतु उस पर आधारित मात्र एक कृति रामकेर्ति ही अब उपलब्ध है, और वह भी खंडित रुप में। इससे भी अधिक आश्चर्य की बात यह हे कि चंपा (वर्तमान वियतनाम) के एक प्राचीन शिलालेख में वाल्मीकि के मंदिर का तो उल्लेख है, किंतु वहाँ रामकथा के नाम पर मात्र लोक कथाएँ ही उपलब्ध हैं।
लाओस के निवासी स्वयं को भारतवंशी मानते हैं। उनका कहना हे कि कलिंग युद्ध के बाद उनके पूर्वज इस क्षेत्र में आकर बस गये थे। लाओस की संस्कृति पर भारतीयता की गहरी छाप है। यहाँ रामकथा पर आधारित चार रचनाएँ उपलब्ध है- फ्रलक फ्रलाम (रामजातक), ख्वाय थोरफी, ब्रह्मचक्र और लंका नोई। लाओस की रामकथा का अध्ययन कई भारत के विद्वानों ने भी किया है।
थाईलैंड का रामकथा साहित्य बहुत समृद्ध है। रामकथा पर आधारित कई रचनाएँ वहाँ उपलब्ध हैं- (१) तासकिन रामायण, (२) सम्राट राम प्रथम की रामायण, (३) सम्राट राम द्वितीय की रामायण, (४) सम्राट राम चतुर्थ की रामायण (पद्यात्मक), (५) सम्राट रामचतुर्थ की रामायण (संवादात्मक), (६) सम्राट राम षष्ठ की रामायण (गीति-संवादात्मक)।
आधुनिक खोजों के अनुसार बर्मा में रामकथा साहित्य की १६ रचनाएं हैं, जिनमें रामवत्थु प्राचीनतम कृति है।
मलयेशिया में रामकथा से संबद्ध चार रचनाएँ उपलब्ध है- (१) हिकायत सेरी राम, (२) सेरी राम, (३) पातानी रामकथा और (४) हिकायत महाराज रावण। फिलिपींस की रचना महालादिया लावन का स्वरुप रामकथा से बहुत मिलता-जुलता है, किंतु इसका कथ्य बिल्कुल विकृत है।
चीन में रामकथा बौद्ध जातकों के माध्यम से पहुँची थीं। वहाँ अनामक जातक और दशरथ कथानम का क्रमश: तीसरी और पाँचवीं शताब्दी में अनुवाद किया गया था। दोनों रचनाओं के चीनी अनुवाद तो उपलब्ध हैं, किंतु जिन रचनाओं से चीनी अनुवाद हुआ, वे अनुपलब्ध हैं। तिब्बती रामायण की छह पांडुलिपियाँ तुन-हुआन नामक स्थल से प्राप्त हुई हैं। इनके अतिरिक्त वहाँ राम कथा पर आधारित दमर-स्टोन तथा संघ श्री द्वारा रचित दो अन्य रचनाएँ भी मिलती हैं।
एशिया के पश्चिमोत्तर सीमा पर स्थित तुर्किस्तान के पूर्वी भाग को खोतान कहा जाता है। इस क्षेत्र की भाषा खोतानी है। खोतानी रामायण की प्रति पेरिस पांडुलिपि संग्रहालय से प्राप्त हुई है। इस पर तिब्बत्ती रामायण का प्रभाव साफ दिखता है। चीन के उत्तर-पश्चिम में स्थित मंगोलिया में राम कथा पर आधारित जीवक जातक नामक रचना है। इसके अतिरिक्त वहाँ तीन अन्य रचनाएँ भी हैं जिनमें रामचरित का विवरण मिलता है। जापान के एक लोकप्रिय कथा संग्रह होबुत्सुशु में भी संक्षिप्त रामकथा संकलित है। इसके अतिरिक्त वहाँ अंधमुनिपुत्रवध की कथा भी है। श्री लंका में कुमार दास के द्वारा संस्कृत में जानकीहरण की रचना हुई थी। वहाँ सिंहली भाषा में भी एक रचना है, मलयराजकथाव। नेपाल में रामकथा पर आधारित अनेकानेक रचनाएँ हैं जिनमें भानुभक्त कृत रामायण सर्वाधिक लोकप्रिय है।
रामायण शब्द का यदि हम संधिविच्छेद करें तो राम और अयन दो शब्द निकलते हैं। अयन का अर्थ है यात्रा; अर्थात् ‘रामायण’ का विश्लेषित रुप ‘राम का अयन’ है जिसका अर्थ है ‘राम का यात्रा पथ’,. यह मूलत: राम की दो विजय यात्राओं पर आधारित है जिसमें प्रथम यात्रा यदि प्रेम-संयोग तथा आनंद-उल्लास से परिपूर्ण है, तो दूसरी क्लेश, क्लांति, वियोग, व्याकुलता, विवशता और वेदना से आवृत्त। विश्व के अधिकतर विद्वान दूसरी यात्रा को ही रामकथा का मूल आधार मानते हैं। एक श्लोकी रामायण में राम वन गमन से रावण वध तक की कथा ही वर्णित है।
अदौ राम तपोवनादि गमनं हत्वा मृगं कांचनम्।
वैदेही हरणं जटायु मरणं सुग्रीव संभाषणम्।
वालि निग्रहणं समुद्र तरणं लंका पुरी दास्हम्।
पाश्चाद् रावण कुंभकर्ण हननं तद्धि रामायणम्।
जीवन के पेचीदा यथार्थ को रुपायित करने वाली राम कथा में सीता का अपहरण और उनकी खोज अत्यधिक रोमांचक व मार्मिक है। रामकथा की विदेश-यात्रा के संदर्भ में सीता की खोज-यात्रा को विशेष महत्व भी दिया गया है। वाल्मीकि रामायण के किष्किंधा कांड के चालीस से तेतालीस अध्यायों के बीच इसका विस्तृत वर्णन हमें मिलता है जो ‘दिग्वर्णन’ के नाम से विख्यात है। वानर राज बालि ने विभिन्न दिशाओं में जाने वाले दूतों को अलग-अलग दिशा निर्देश दिए थे, इन निर्देशों से हमें एशिया के तत्कालीन भूगोल की जानकारी मिलती है।
कपिराज सुग्रीव ने पूर्व दिशा में जाने वाले दूतों के सात राज्यों से सुशोभित यवद्वीप (जावा), सुवर्ण द्वीप (सुमात्रा) तथा रुप्यक द्वीप में यत्नपूर्वक जनकसुता को तलाशने का आदेश दिया। इस क्रम में यह भी कहा गया कि यव द्वीप के आगे शिशिर नामक पर्वत है जिसका शिखर स्वर्ग को स्पर्श करता है और जिसके ऊपर देवता तथा दानवों का निवास है।
यनिवन्तों यव द्वीपं सप्तराज्योपशोभितम्।
सुवर्ण रुप्यक द्वीपं सुवर्णाकर मंडितम्।
जवद्वीप अतिक्रम्य शिशिरो नाम पर्वत:।
दिवं स्पृशति श्रृंगं देवदानव सेवित:।१
दक्षिण-पूर्व एशिया के इतिहास का आरंभ इसी दस्तावेती सबूत से होता है। इंडोनेशिया के बोर्नियो द्वीप में तीसरी शताब्दी को उत्तरार्ध से ही भारतीय संस्कृति की उपस्थिति के ठोस सबूत मिलते हैं। बोर्नियों द्वीप के एक संस्कृत शिलालेख में मूलवर्मा की प्रशस्ति उत्कीर्ण है जो इस प्रकार है-
श्रीमत: श्री नरेन्द्रस्य कुंडगस्य महात्मन:।
पुत्रोश्ववर्मा विख्यात: वंशकर्ता यथांशुमान्।।
तस्य पुत्रा महात्मान: तपोबलदमान्वित:।
तेषांत्रयानाम्प्रवर: तपोबलदमान्वित:।।
श्री मूलवम्र्मा राजन्द्रोयष्ट्वा वहुसुवर्णकम्।
तस्य यज्ञस्य यूपोयं द्विजेन्द्रस्सम्प्रकल्पित:।।२
इसी शिला लेख में मूल वर्मा के पिता अश्ववर्मा तथा पितामह कुंडग का उल्लेख है। बोर्नियों में भारतीय संस्कृति और संस्कृत भाषा के स्थापित होने में भी काफी समय लगा होगा। तात्पर्य यह कि भारतवासी मूल वर्मा के राजत्वकाल से बहुत पहले उस क्षेत्र में पहुँच चुके थे।
जावा द्वीप और उसके निकटवर्ती क्षेत्र के वर्णन के बाद द्रुतगामी शोणनद तथा काले मेघ के समान दिलाई दिखाई देने वाले समुद्र का उल्लेख हुआ है जिसमें भारी गर्जना होती रहती है। इसी समुद्र के तट पर गरुड़ की निवास भूमि शल्मलीक द्वीप है जहाँ भयंकर मानदेह नामक राक्षस रहते हैं जो सुरा समुद्र के मध्यवर्ती पर्वत शिखरों पर लटके रहते है। सुरा समुद्र के आगे घृत और दधि के समुद्र हैं। फिर, श्वेत आभावाले क्षीर समुद्र के दर्शन होते हैं। उस समुद्र के मध्य ॠषभ नामक श्वेत पर्वत है जिसके ऊपर सुदर्शन नामक सरोवर है। क्षीर समुद्र के बाद स्वादिष्ट जलवाला एक भयावह समुद्र है जिसके बीच एक विशाल घोड़े का मुख है जिससे आग निकलती रहती है।
‘महाभारत’ में एक कथा है कि भृगुवंशी और्व ॠषि के क्रोध से जो अग्नि ज्वाला उत्पन्न हुई, उससे संसार के विनाश की संभावना थी। ऐसी स्थिति में उन्होंने उस अग्नि को समुद्र में डाल दिया। सागर में जहाँ वह अग्नि विसर्जित हुई, घोड़े की मुखाकृति (वड़वामुख) बन गयी और उससे लपटें निकलने लगीं। इसी कारण उसका नाम वड़वानल पड़ा। आधुनिक समीक्षकों की मान्यता है कि इससे प्रशांत महासागर क्षेत्र के किसी ज्वालामुखी का संकेत मिलता है। वह स्थल मलस्क्का से फिलिप्पींस जाने वाले जलमार्ग के बीच का हो सकता है। यथार्थ यह है कि इंडोनेशिया से फिलिप्पींस द्वीप समूहों के बीच अक्सर ज्वालामुखी के विस्फोट होते रहे हैं जिसके अनेक ऐतिहासिक प्रमाण भी मिलते हैं। दधि, धृत और सुरा समुद्र का संबंध श्वेत आभा वाले क्षीर सागर की तरह जल के रंगों के संकेतात्मक प्रतीक मात्र भी हो सकते हैं।
बड़वामुख से तेरह योजना उत्तर जातरुप नामक सोने का पहाड़ है जहाँ पृथ्वी को धारण करने वाले शेष नाग बैठे हैं। उस पर्वत के ऊपर ताड़ के चिन्हों वाला सुवर्ण ध्वज फहराता है। यही ताड़ ध्वज पूर्व दिशा की सीमा है। उसके बाद सुवर्णमय उदय पर्वत है जिसके शिखर का नाम सौमनस है। सूर्य उत्तर से घूमकर जम्बू द्वीप की परिक्रमा करते हुए जब सौमनस पर स्थित होते हैं, तब इस क्षेत्र में स्पष्ट रूप में उनके दर्शन होते हैं और सौमनस सूर्य के समान प्रकाशमान हो उठता हैं। उस पर्वत के आगे का क्षेत्र अज्ञात है।
जातरुप का अर्थ सोना है। अनुमान किया जाता है कि जातरुप पर्वत का संबंध प्रशांत महासागर के पार मैक्सिको के स्वर्ण-उत्पादक पर्वतों से ही रहा होगा। मक्षिका का अर्थ सोना होता है। मैक्सिको शब्द भी मक्षिका से ही विकसित माना गया है। यह भी संभव है कि मैक्सिको की उत्पत्ति सोने के खान में काम करने वाली आदिम जाति मैक्सिका से हुई है। मैक्सिको में एशियाई संस्कृति के प्राचीन अवशेष मिलने से इस अवधारणा की और भी पुष्टि हुई है।
बालखिल्य ॠषियों का उल्लेख विष्णु-पुराण और रघुवंश, दोनों में हुआ है, जहाँ उनकी संख्या साठ हज़ार और आकृति अँगूठे से भी छोटी बतलायी गयी है। कहा गया है कि वे सभी सूर्य के रथ के घोड़े हैं। इससे अनुमान किया जाता है कि यह सूर्य की असंख्य किरणों का ही मानवीकरण है। उदय पर्वत का सौमनस नामक सुवर्णमय शिखर और प्रकाशपुंज के रुप में बालखिल्य ॠषियों के वर्णन से प्रतीत होता है कि यह प्रशांत महासागर में सूर्योदय के भव्य दृश्य का ही भावभीना एवं अतिरंजित चित्रण है।
वाल्मीकि रामायण में पूर्व दिशा में जाने वाले दूतों के दिशा निर्देशन की तरह ही, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर दिशा में जाने वाले दूतों को भी मार्ग का निर्देश दिया गया। उत्तर में ध्रुव प्रदेश, दक्षिण में लंका के दक्षिण के हिंद महासागर क्षेत्र और पश्चिम में अटलांटिक तक की भू-आकृतियों का काव्यमय चित्रण है, जिससे समकालीन एशिया महादेश के भूगोल की भरपूर जानकारी मिलती है। इस संदर्भ में उत्तर-ध्रुव प्रदेश का एक मनोरंजक चित्र उल्लेखनीय है।
बैखानस सरोवर के आगे न तो सूर्य तथा ना ही चंद्रमा दिखाई पड़ते हैं और न कोई नक्षत्र या मेघमाला ही। उस प्रदेश के बाद शैलोदा नामक नदी है, जिसके तट पर वंशी की ध्वनि करने वाले कीचक नाम के बाँस मिलते हैं। इन्हीं बाँसों का बेड़ा बनाकर लोग शैलोदा को पारकर उत्तर-कुरु तक जाते है, जहाँ सिद्ध पुरुष निवास करते हैं। उत्तर-कुरु के बाद समुद्र है जिसके मध्य भाग में सोमगिरि का सुवर्णमय शिखर दिखाई पड़ता है। वह क्षेत्र सूर्य से रहित है, फिर भी वह सोमगिरि के प्रभा से सदा दैदीप्य रहता है। लगता है कि यह उत्तरीध्रुव प्रदेश का वर्णन है, जहाँ छह महीनों तक सूर्य दिखाई नहीं पड़ता और छह महीनों तक क्षितिज के छोर पर उसके दर्शन भी होते हैं, तो तुरंत ही आँखों से ओझल हो जाता है। ऐसी स्थिति में सूर्य की प्रभा से उद्भासित सोमगिरि के हिमशिखर निश्चय ही स्वर्णमय ही दिखते होंगे और सूर्य से रहित होने पर भी उत्तर-ध्रुव पूरी तरह से अंधकारमय नहीं।
सतु देशो विसूर्योऽपि तस्य मासा प्रकाशते।
सूर्य लक्ष्याभिविज्ञेयस्तपतेव विवास्वता।
इस विषय में कई महत्वपूर्ण शोध भी हुए हैं जिनके द्वारा वाल्मीकी द्वारा वर्णित स्थानों को विश्व के आधुनिक मानचित्र पर पहचानने का प्रयत्न किया गया है। बोर्नियो द्वीप, जावा–सुमात्रा और प्रशान्त महासागर से लेकर उत्तरी ध्रुव जहां छह-छह महीने सूरज नहीं निकलता; इन सभी जगहों को पहचाना जा सकता है इस महाकाव्य में।
भारतवासी जहाँ कहीं भी गये वहाँ की सभ्यता और संस्कृति को तो प्रभावित किया ही, वहाँ के स्थानों के नाम आदि भी बदलकर उनका भारतीयकरण किया। इंडोनेशिया के सुमात्रा द्वीप का नामकरण सुमित्रा के ही नाम पर हुआ था। जावा के एक मुख्य नगर का नाम योग्याकार्टा है। ‘योग्या’ संस्कृत के अयोध्या का विकसित रुप है और जावानी भाषा में कार्टा का अर्थ नगर होता है। इस प्रकार योग्याकार्टा का अर्थ अयोध्या नगर हुआ। मध्य जावा की एक नदी का नाम सेरयू है और उसी क्षेत्र के निकट स्थित एक गुफा का नाम किस्केंदा अर्थात् किष्किंधा है। जावा के पूर्वीछोर पर स्थित एक शहर का नाम सेतुविंदा है जो निश्चय ही सेतुबंध का जावानी रुप है। इंडोनेशिया में रामायणीय संस्कृति से संबद्ध इन स्थानों का नामकरण कब हुआ, यह तो कहना कठिन है, किंतु मुसलमान बहुल इस देश का प्रतीक चिन्ह गरुड़ निश्चय ही भारतीय संस्कृति से अपने सरोकार को जरूर उजागर करता है।
मलाया स्थित लंग्या सुक अर्थात् लंका के राजकुमार ने चीन के सम्राट को ५१५ई. में दूत के माध्यम से एक पत्र भेजा था जिसमें लिखा था कि उसके देश को एक मूल्यवान संस्कृति की जानकारी है, जिसके भव्य नगर के महल और प्राचीर गंधमादन पर्वत की तरह ऊँचे और विशाल हैं। मलाया के राजदरबार के पंडितों को संस्कृत का ज्ञान था, इसकी पुष्टि संस्कृत में उत्कीर्ण वहाँ के प्राचीन शिला लेखों से हो जाती है। गंधमादन उस पर्वत का नाम था जिसे मेघनाद के वाण से आहत हुए लक्ष्मण के उपचार हेतु, हनुमान औषधि लाने के लिए उखाड़कर लाये थे। मलाया स्थित लंका की भौगोलिक स्थिति के संबंध में क्रोम नामक डच विद्वान का मत है कि यह राज्य सुमत्रा द्वीप में था, किंतु ह्मिवटले ने प्रमाणित किया है कि यह मलाया द्वीप में था।
बर्मा का पोपा पर्वत ओषधियों के लिए विख्यात है। वहाँ के निवासियों का विश्वास है कि लक्ष्मण के उपचार हेतु पोपा पर्वत के ही एक भाग को हनुमान उखाड़कर ले गये थे और उस पर्वत के मध्यवर्ती खाली स्थान को दिखाकर आज भी पर्यटकों को बताया जाता है कि पर्वत के इसी भाग को हनुमान उखाड़ कर लंका ले गये थे और वापसी यात्रा के दौरान उनका संतुलन बिगड़ जाने से वे पहाड़ के साथ जमीन पर आ गिरे थे और यहां पर एक बहुत बड़ी झील बन गयी। इनवोंग नाम से विख्यात यह झील अभी भी बर्मा के योमेथिन जिले में है। बर्मा के इस लोकाख्यान से इतना तो स्पष्ट है ही , कि वहाँ के लोग प्राचीन काल से ही रामायण से परिचित थे और उन लोगों ने उससे अपने को जोड़े रखने का भी प्रयत्न रखा है।
थाईलैंड का प्राचीन नाम स्याम था और द्वारावती (द्वारिका) उसका एक प्राचीन नगर था। थाई सम्राट रामातिबोदी ने १३५०ई. में अपनी राजधानी का नाम अयुध्या (अयोध्या) रखा था, जिसपर ३३ राजाओं ने राज्य किया। ७ अप्रैल १७६७ई. को बर्मा के आक्रमण से इसका पतन हुआ। अयुध्या का भग्नावशेष थाईलैंड की एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक धरोहर है। अयुध्या के पतन के बाद थाई नरेश दक्षिण के सेनापति चाओ-फ्रा-चक्री को नागरिकों द्वारा १७८५ई. में राजा घोषित कर दिया गया, जिसका अभिषेक भी राम प्रथम के नाम से ही हुआ। राम प्रथम ने बैंकॉक में अपनी राजधानी की स्थापना की। राम प्रथम के बाद चक्री वंश के सभी राजाओं द्वारा अभिषेक के समय राम की उपाधि धारण की जाती है। वर्तमान थाई सम्राट राम नवम हैं।
थाईलैंड में लौपबुरी (लवपुरी) नामक एक प्रांत है। इसके अंतर्गत वांग-प्र नामक स्थान के निकट फाली (वालि) नामक एक गुफा है। कहा जाता है कि वालि ने इसी गुफा में थोरफी नामक महिष का वध किया था। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि थाई रामायण रामकियेन में दुंदुभि दानव की कथा में थोड़ा परिवर्तन है। इसमें दुंदुभि राक्षस के स्थान पर थोरफी नामक एक महाशक्तिशाली महिष है जिसका वालि द्वारा वध किया जाता है। वालि नामक गुफा से प्रवाहित होने वाली जलधारा का नाम सुग्रीव है। थाईलैंड के ही नखोन-रचसीमा प्रांत के पाक-थांग-चाई के निकट थोरफी पर्वत है जहाँ से वालि ने थोरफी के मृत शरीर को उठाकर २००कि.मी. दूर लौपबुरी में फेंक दिया था। सुखो थाई के निकट संपत नदी के पास फ्राराम गुफा है। उसके पास ही एक सीता नामक गुफा भी है।
दक्षिणी थाईलैंड और मलयेशिया के रामलीला कलाकारों का विश्वास है कि रामायण के पात्र मूलत: दक्षिण-पूर्व एशिया के निवासी थे और रामायण की सारी घटनाएँ इसी क्षेत्र में घटी थी। ये मलाया के उत्तर-पश्चिम स्थित एक छोटे द्वीप को लंका मानते हैं। उनका विश्वास है कि दक्षिणी थाईलैंड के सिंग्गोरा नामक स्थान पर सीता का स्वयंवर रचाया गया था जहाँ राम ने एक ही बाण से सात ताल वृक्षों को बेधा था। सिंग्गोरा में आज भी सात ताल वृक्ष हैं। जिस प्रकार भारत और नेपाल के लोग जनकपुर के निकट स्थित एक प्राचीन शिलाखंड को राम द्वारा तोड़े गये धनुष का टुकड़ा मानते हैं, उसी प्रकार थाईलैंड और मलेशिया के लोगों को भी विश्वास है कि राम ने उन्हीं ताल वृक्षों को बेध कर सीता को प्राप्त किया था।
वियतनाम का प्राचीन नाम चंपा है। थाई वासियों की तरह वहाँ के लोग भी अपने देश को राम की लीलभूमि मानते है। उनकी इस मान्यता की पुष्टि सातवीं शताब्दी के एक शिलालेख से भी होती है जिसमें आदिकवि वाल्मीकि के मंदिर का उल्लेख है जिसका पुनर्निमाण प्रकाश धर्म नामक सम्राट ने करवाया था। प्रकाशधर्म (६५३-६७९ई.) का यह शिलालेख अपने आप में अनूठा है, क्योंकि आदिकवि की जन्मभूमि भारत में भी उनके किसी प्राचीन मंदिर का अवशेष उपलब्ध नहीं है।
परमात्मा की खोज में भटकती आत्मा की अनंत यात्रा की तरह ही राम की यह कहानी भी कई-कई परिवर्तन और रहस्यमय रूपों से गुजरी है और प्रमाणिकता के अनगिनत वाद-विवादों के बावजूद, आज भी अपना वर्चस्व बनाए हुए है । अतः इस संदर्भ में कम-से-कम यह तो पूर्ण विश्वास से कहा ही जा सकता है कि मनसा वाचा कर्मणा हमें प्रेरित करने वाले और भारतीय संस्कृति के आदर्श राम मात्र एक काल्पनिक चरित्र नहीं थे, उनका सशरीर अवतरण अवश्य ही हुआ था और ईश्वर की तरह भौतिक रूप में भले ही वे आज हमारे बीच न भी हों, परन्तु रामकीर्ति की सुवासित मलय आज भी दसों दिशाओं में बह रही है…हमें महका रही है।
मनुष्य, समाज या परिवार को वही लौटाता है जो समाज या परिवार उसे देता है, इसतरह से अगर दीन हीनों पर ध्यान न दिया जाए, तो सामाजिक अपराधों की साझेदारी भी सबकी ही होनी चाहिए और बुराइयों को दूर करने की भी। यदि हमारी तश्तरी में जरूरत से ज्यादा है और पड़ौसी दाने दाने को भटक रहा है तो संघर्ष और बगावत तो होंगे ही. अराजकता बढ़ेगी ही, परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि निर्बलों को आलसी और निकम्मा कर दें इसीलिए तो वानर और रीछ प्रवृत्तियों के लोगों को भी संगठित करके उनकी सेना बना डाली थी रामजी ने, जो बड़े से बड़े राक्षसों से लड़े ही नहीं, उन्हें जीतकर भी लौटे। आदर्श राम-राज्य की परि-कल्पना दलित अछूत हरेक को साथ लेकर ही कर पाए थे तुलसी दास । मारे गए हर राक्षस को मोक्ष देने में भी उनके राम नही चूकते, क्योंकि वैमनस्य बुराई से था, व्यक्ति विशेष से नही। जाति और वर्ण के भेद को भूल प्रेमवश राम शबरी के झूठे बेर खाते हैं और उच्चकुलीन वशिष्ठ व अछूत निषाद दोनों को ही गले लगाते हैं।
विध्वंसकारी परिवेश में ऋषि या विद्वानों को शान्त और मनोनीत पर्यावरण दिया जा सके, आजभी तो यही समाज के हित में है। तभी समाज की अच्छी सोच और आचरण के आदर्श उदाहरण सामने आ पाएँगे और उनके तप को भंग करने वाली राक्षसी प्रवृत्तियों का कैसे शमन किया जाए, यह जिम्मेदारी शाषक या समाज के संरक्षकों की ही होनी चाहिए। क्योंकि न्याय के लिए भी एक संतुलित समझ की जरूरत है और न्याय भी तभी तक न्याय है जबतक क्षमा के महत्व को समझकर दिया जाए। सुधार की गुँजाइश तो हर जगह ही होती है। बार बार समझाने पर भी न समझे, तभी अपराधी दंड का भागी है और दंड में भी सामूहिक हित में ही होना चाहिए, निजी वैमनस्य से नहीं।
पूरी रामायण ही अनेक सामाजिक और पारिवारिक अनुसरणीय उदाहरणों से भरी पड़ी है जो वेदकालीन भारत के सशक्त और सुगढ़ जीवन-दर्शन को प्रस्तुत करते हैं। एकबार फिर उन्ही सिद्धान्तों पर चलकर हम विश्व को सार्थक, सफल और सुखमय तो बना ही सकते हैं, साथ में सच्चा भारतवंशी कहलाने का गौरव भी हासिल कर सकते हैं।
प्यार, त्याग, शौर्य और सहिष्णुता के चारों स्तम्भों पर खड़ी रामायण आज भी एक किताब न होकर भारतीयों के लिए आचार-संहिता है। उपनिषद और भारतीय संस्कृति में संरक्षणीय व स्पृहणीय का सार है। जीवन के इन मूलमंत्रों का खुद अनुसरण करना और भावी पीढ़ी तक पहुँचाना हर अभिभावक व जागरूक भारतीय की जिम्मेदारी है।
शैल अग्रवाल
बरमिंघम , यू.के.
Email:shailagrawal@hotmail.com