माह विशेषः सच-कुछ कवितायें-शैल अग्रवाल


एक और सच
माना कि सच है आज भी
आकाश में खेलता चँदा
फूल-फूल इतराती तितली
और बन्द आींखों में रचे बसे
धुत् ये सपने—-
पर रोज ही तो निकलता है
चाींद को निगले हुए
झुलसाता हुआ सूरज
और लस्त तितली
बिखरे हुए पंखों संग
घास पर तिनके-तिनके
लुढ़की नजर आती है
ले उड़ा है आज फिर क्यों
मेरा टूटा-कांपता जर्जर मन
एक तेज हवा का झोंका
और एक और सच
जिन्दगी-सा
सामने बिखरा पड़ा
एक अध-लिखी चिठ्ठी
एक अध-पढी किताब और
मन की झूठी प्यााली पर
कल की प्यास के कुछ
आधे अधूरे निशान
और थके होठों पर
वही पुरानी
अथक मुस्कान !


सच तो सच बस
एक जुनूँ दीवानों का
समझाया गया रोज ही
जो निकला इसे तलाशता
या फिर इसके फेर में पड़ा
झूठ की ट्रक से जाता कुचला
षड्यंत्र के घेरों में पड़ा
अकेला ही कराहता
पट्टियों में बंधा
पर उसने हौसले बुलंद रखे
खेल कठिन जानकर भी
हंस-हंस सूलियों पर चढ़ा
गोली खाई
और आह तक न भरी
खिलाड़ी था वह सच्चा
बाहरी आवाज़ों से गूँगा बहरा
भविष्य अपना उसे पहले से ही था पता
सच एक दरिया दीवाने डूब गए कितने
झूठ एक पुल लोग समंदर भी लांघ जाते
फिर भी सच तो भगवान-सा साथ सदा
उद्धारक इसे जान चुका था मसीहा ।

एक किताब
आज भी
पन्ने पीले पड़ते जाते
दीमक खा जाते
जर्जर लाचार बेमलब
रद्दी के ढेर पर
पहुँचा दी जातीं किताबें
फिर भी जो पढ़ा था
गुना था वही साथ चलता
साथ रहता
गुरु की तरह
मीत की तरह

सच एक तैनात सिपाही
जीवन के हर मोर्चे पर खड़ा
छोड़े ना यह साथ हमारा
प्रिय की तरह अंतस में गड़ा, 
एक अहसास है यह चैतन्य
और कर्तव्य भरा विश्वास भी  
फिर कैसी यह लड़ाई
अंधेरे और उजाले की
ताकत से जिसकी रूबरू
होते सभी कभी न कभी-
क्यों अक्सर ही
घायल और अकेला
दिखने लग जाता
उगा था जो अंतस से
जलते एक सूरज-सा
अंधियारा दूर करता
क्यों अगले पल ही क्यों
बादलों से ढक जाता
एक अकेला जिसका रूप अनूप
बहरूपिया नजर आने लग जाता।

सत्यमेव जयते एक नारा था
सनातन और विश्वास भरा
क्यों आज बेबस होकर
हारता ही चला जाता है
वह जो मोर्चे पर बेखौफ डटा
वह जो झूठ से अकेला ही लड़ा
वह नायक है मेरे पावन विश्वासों का
वह संचित पूँजी है गूँगे अरमानों की
वही हमारी संरचना का क्रम है
वही हमारे पूर्वजों का श्रम है
इतना ही हमारा प्रण रहे
इसका साथ कभी ना छूटे
चाहे जितनी कठिन दिखे
डगर वह पनघट की…


उसकी खामोश चीखों से
तंग आकर मैं उसे
अपने घर में उठा तो लाई
पर अब सोचती हूँ
इसकी आर्त आँखें
और व्यथित हृदय की
पीड़ा को सुनकर भी
क्या मैं कुछ कर पाऊँगी
मैने तो अभी-अभी
इसे भुलाकर भँवरों पर
तैरना सीखा है
कंटीले कांटे वाले
झाड़ को तोड़ा है
वैसे भी इसका साथ तो
किसी को भी रास नही आया
वन वन भटक कर
अग्नि परीक्षा देकर भी
सीता ने सिर्फ
बनवास ही पाया है
राधा का दीवाना कृष्ण भी तो
उसे छोड़ आया था
कभी मर्यादा के नाम पर
कभी कर्तव्य के नाम पर
हर बार
इसी को तो दफनाया गया है
सूली पर चढ़ाया गया है
असफल कामनाओँ का
कफन ओढ़े
घायल हठीला यह सच
अभी तक जिन्दा है, आश्चर्य है
मर जाए तो शायद अमर हो जाए
बेशर्म, मेरी नींद उड़ाकर
मेरे तकिए पर सर रखे
आराम से सो रहा है
और मैं सोच रही हूँ
इसे जगाऊं, बाहर फेंक आऊँ
पर ऐसा कब होता है
अपनी अस्मत् से
जुदा होकर भी
क्या कोई कभी जिया है
फिर भी सोचने में क्या बुराई है
पर डरती हूँ इस गूंगे सच की
उंगली पकड़े पकड़े
कहीं मैं मुखरित
ना हो जाऊं ? 

शैल अग्रवाल, बरमिंघम

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