कविता आज और अभीः नारी मन-3


एक औरत
——–

एक औरत
जब अपने अन्दर खंगालती है
तो पाती है
टूटी फूटी
इच्छाओं की सड़क ,,
भावनाओं का
उजड़ा बगीचा ,

और
लम्हा लम्हा मरती उसकी
कोशिकाओं की लाशें
लेकिन
इन सब के बीच भी
एक गुडिया
बदरंग कपड़ों मे मुस्काती है

ये औरत
टूटती है ,बिखरती है
काँटों से अपने जख्म सीती है
पर इस गुडिया को
खोने नहीं देती
शायद इसीलिए
तूफान की गर्जना को
गुनगुनाहट में बदल देती है
औरत
रचना श्रीवास्तव

मां मुझे भी उगने दे
————-
बनकर कली आंगन में तुम्हारे मां
मैं खिलना और महकना चाहती हूं,
पुत्र मोह की चाह में
अपनी ममता को मत घुटने दे,

मां, मुझे भी उगने दे।

गर्भ में ही मारकर
चीथड़ों में लपेटकर
खोद गढ्ढे में दफनाकर,
पुत्रवान होने का
सपना पूरा किया जाता है,
किसी के सपनों की कब्र पर
सपने संवारना क्या पाप नहीं?
मुझे भी मेरा जहां ढूंढने दे

मां, मुझे भी उगने दे।

मां, सोच
तेरी मां ने भी तो
तुझे जिन्दगी दी
सपने दिए,
खिली है तू
इस बगिया का
बनकर एक फूल,
कहां गए?
वह संस्कार
जो नानी ने तुझे दिए,
छेड़छाड़ न कर
कुदरत का चाक घूमने दे

मां, मुझे भी उगने दे।

मैने क्या कुछ नहीं किया
आकर इस जग में
प्रधानमंत्री मैं बनी
बनी मैं वैत्रानिक
अनमोल रतन भी
दिए जगत को,
कब भाई से जली मैं?
कब तुम्ही पर पली मैं ?
पालने में आकर मुझे भी झूलने दे

मां मुझे भी उगने दे।

क्या सोचेगा भाई?
रक्षाबंधन जब आएगा
मां, तुझे कौन
तेरा बचपन लौटाएगा?
बिन मेरे क्या संसार चल पाएगा?
आंधी में ‘ चिराग ‘ न बुझने दे

मां मुझे भी उगने दे।

एच. आर. चिराग

वह लड़की
——–
पकड़ कर लाई गई थी वह… चुपके से… रेलवे स्टेशन से,
उतर गई थी वह लड़की न जाने क्यों सबके मन से!
सवालिया नजरों से बिंधी जा रही थी उसकी देह,
किसी को न रह गया था उससे कोई भी मोह-नेह,
सबकी आँखों में उसको लेकर थे तरह -तरह के सवाल,
हर नजर उतार लेना चाहती थी उसके जिस्म से खाल,
यही सवाल कि लड़की क्या कुछ घर से भी लेकर भागी थी?
वह अकेली ही भागी थी या किसी लड़के के साथ भागी थी?
रह -रह कर अंदेशाओं के बादल फूट रहे थे,
मन ही मन लोग उसकी छीछालेदर के मजे लूट रहे थे,
उसकी चुप्पी से बढ़ रही थी लोगों की तल्खियाँ,
वैसे उस लड़की ने बटोर रखी थीं ऊँची-ऊँची डिग्रियां,
फिर भी वह ठहरी एक लड़की ही तो आखिर,
ऐसे -कैसे वह इस द्वंद में गई इतना गिर?
पहले वह उलझी रहती थी अपने कैरियर के सपनों में ,
उसकी दुनिया भी सीमित थी उसके अपनों में,
न जाने कैसे फिर उसके भी दिन फिरे,
जिस उम्र में युवतियां दिखाती हैं नखरे,
पालती हैं सपने रहती हैं जैसे बनफूल,
करती हैं विद्रोही बातें फूंकती हैं क्रांति का बिगुल,
उसी उम्र में न जाने कैसे अचानक यह लड़की बदल गई,
उसमें आये हुए बदलावों की बातें गली- मोहल्ले को खल गई।
कभी -कभी उसके घरवाले उस लड़की पर गुर्राते थे,
फिर उस लड़की से घिघियाते हुए,
उसके विदा हो जाने की खैर मनाते थे,
ऐसे ही मुक्त आकाश की विचरणी वह अल्हड़ युवती,
सबकी सुनती रहती थी पर अपनी किसी से न कहती,
कहाँ उलझ गई लड़की अध्यात्म के जाल में ,
क्यों खो बैठी वो साम्य अपना, इस लोक -परलोक के बवाल में?
लोग मुस्करा कर दबी जुबान में बताते हैं,
कि उसे अक्सर ही न जाने क्यों चक्कर आते थे,
नौजवान लड़के उसके पेट दर्द से मनमाफिक अंदाजा लगाते थे,
औरतें कहती थीं ये तो सिर्फ माहवारी की तकलीफ है,
बड़े -बुजुर्ग कहा करते थे कि कोई अनहोनी करीब है,
इन्हीं आशाओं,सरोकारों से वह चकरघिन्नी बनी ,
उसके और घरवालों के बीच में थी कोई रार ठनी।
दुआ करने के लिए कुछ दिन उसने, बाबा की संगत में बिताये थे,
ऐसा भी लोग बताते हैं कि बाबा ने, देवी -देवताओं के फोटो घर से हटवाए थे ,
जब तक बाबा की साधना चली,
वो रही खुशमिजाज और चंगी- भली,
अचानक बाबा के चले जाने से टूट गया था उसका मन,
क्योंकि बाबा को जुटाना था किसी नई साधना का साधन।
वो बहुत व्याकुल हुई ,परेशान रही,
उसने दीन -दुनिया की बहुत सही,
लोगों के तानों ने उसे बहुत रुलाया था,
कहीं भाग जाने का विचार तब उसके मन में आया था,
खुद से लड़कर मजबूरी में उसने ये कदम उठाया था ,
यूँ तो भागी थी वह घर में सबसे लड़कर,
बहुत बुरे हाल में कोई स्टेशन से पकड़कर,
चुपके से उसको कोई घर लाया था।
लोग कहते हैं कि उसके सिर पर,
किसी भूत या प्रेत का साया था,
वह किसके लिए भागी थी, उसके घर मे कोई भी ये,
अब तक न जान पाया था?
फिलहाल उसे दवा दे दी गई है,
वह शायद बेसुध सी है, या आराम कर रही है,
ताकि भागने के प्रश्नों से कुछ और देर तक बच सके,
लेकिन अपने सपनों में वह निरन्तर भाग ही रही है,
और एक अनजान कस्तूरी की, उसकी तलाश जारी है ।

दिलीप कुमार

औरतें नहीं करती प्राणायाम
———————-
न सूर्य नमस्कार, न देती हैं अर्घ्य
मुँह अँधेरे उठ कूटती-पछाड़ती
फींचती हैं मैले कपड़े
रात की मैल धो उजसा देती हैं
आँगन के बाहर रस्सियों पर
सूरज नहीं चमकता उनके माथे पर
पीठ पर पड़ती हैं किरणें
सूखे भीगे बालों को बाहती-काढ़ती हैं

निवृत्त हो रसोई से
दो घड़ी बाद आ उलटती – पलटती हैं
धूप को बटोरती हैं कपड़ों पर

उतरता है सूरज आँगन में
खिलखिलाती है धूप
वे नहीं बढ़ातीं हाथ
अधसूखे वस्त्रों को संभालती
बिला जाती हैं भीतर

रंग-बिरंगे सपने बिखरा
सूरज अब लेता है विदा
वे नहीं बुनतीं सपने
उतारती हैं रस्सियों से सूखे वस्त्र
बंद कर लेती हैं किवाड़
बंद दरवाज़ों के भीतर
उगता और मुरझा जाता है सूरज
वे रहती हैं निर्विकार।
-कमल कुमार

माँ

टुकड़ा-टुकड़ा धूप
बटोरती है माँ आँगन में
सूखते अनाज, मसालों और
अचार के मर्तबानों में

एक टुकड़े धूप पर बैठ
बुनती है सलाइयों पर समय
एक-एक फंदे में, सीधा-उल्टा
उल्टा-सीधा बनता है पैटर्न
छत पर खुली धूप में
भीगी निचोड़ी देह-सा
फैला सुखाती है कपड़ों को

जब हम छोटे थे
माँ नाचती थी फिरकनी-सी
धूप का रंग
नल की धार पर कपड़े धोती
हमें नहलाती, दुलराती, फुसलाती
बहलाती खेलती थी
हमारे संग-साथ

समय के पंखों पर उठती गईं
इमारतें, पेड़ और हम बड़े हुए
धूप अब टुकड़ा-टुकड़ा कटती
आती है आँगन में

माँ खटोले पर बैठकर
तुपका-तुपका चुनती है धूप
अचार और मसालों पर
जिन्हें वह सील और पैक कर भेजेगी
देश और विदेश में हमारे पास
फिर बैठ जाएगी
धूप के एक टुकड़े पर
सलाइयों पर उतारती समय को
झुर्राई देह और सफ़ेद बालों में
हड्डियों में टीसते दर्द को सहलाने
लेट जाएगी धूप में
सूखते जाते एक टुकड़े पर
धूप-सी माँ !
– कमल कुमार

औरतों की ख्वाइशें
मानो आकाश का चंदा
सुंदर तो पर आधा-अधूरा
नित-नित घंटता और बढ़ता
कभी ख़ुशी में चमके-दमके
कभी अंधेरी परछाइयाँ ले डूबें
शून्य में अतृप्त लटका
लहरों सी उछाह खाती ये औरतें
दौड़ती-भागतीं, उठती गिरती
दारुण हाहाकार मचातीं
पर बौनी हथेलियों में
कब खुद को समेट पातीं…

शैल अग्रवाल


इस धरती पर
जाने कैसी मिट्टी थी वह
किन सपनों के बीज भरी
जीवन ताप से झुलसी
उम्मीद की बारिश से
भरपूर सिंची और भीगी
जब एक औरत
गेहूँ की बाल-सी
पहली बार उग आई होगी
अचंभित होंगे सभी
पाना चाहते होंगे सभी

धान-सा ही
रोप दिया गया होगा
तब इसे भी घर-घर
माँ बहन पत्नी
और सहचरी बना
बाँट दिया गया होगा
कई-कई हिस्सों में
रच लिया होगा इसने अपना
रंग-रूप से बुना मायाजाल

पर उस दिन से आज तक
वैसे ही तो कटती-छँटती
आ रही है यह तृप्त-अतृप्त
मकड़ी-सी उलटी-लटकी
खुद को ही काटती-छांटती
उबालती और उफानती

आंसुओं ने आटे सा गूंथा है इसे
रोटी-सी बिली है जीवन चकले पे
सुबह शाम जीवन भट्टी चढ़ी
चारो तरफ से झुलसी-सिकी है

पर दुःखी मत होना तुम
सहज आदत है यह भी इसकी
परसी ही जाती रहेगी थाली में
हर आकर की छोटी-बड़ी

जीवन ताप से डरती नहीं यह
दिन एक कड़ाही है इसके लिए
जहाँ गुलगुले सी फूलती हैं खुशियाँ
और रातें हैं मोगरा हार सिंगार

फूलों की सेज पर भी
कांटे ही बीनती चुनती
परिस्थितियाँ चाहे जो भी हों
रच ही लेगी यह
ख़ुशियों से भरा संसार
सिर्फ तुम्हारे लिए…
शैल अग्रवाल

बुद्ध तुम पुरुष थे
घर छोड़कर जा सकते थे
सत्य की खोज में
पर यशोधरा नहीं
मां थी वह राहुल की
औरत खुद के लिए नहीं
अपनों के लिए ही सोच पाती है
यही है उसका
पहला कर्म और धर्म
राम तुम पुरुष थे
तज सकते थे सीता को
लोकमर्यादा की खातिर
पर सीता कब तुम्हे तज पाई
गर्भ में लेकर गई थी जिन्हें
पाला पोसा अकेले बड़ा किया
इतना समर्थ और साहसी बनाया
कि तुम्हारा अश्वमेध घोड़ा रोक बैठे
तुम्हें ही सोचने पर मजबूर कर सकें
कि नारी से बड़ा सर्जक नहीं,
शिक्षक नहीं, पोषक नहीं,
दुष्यंत तुम पुरुष थे
छोड़ आए शकुन्तला को
मात्र एक अंगूठी की निशानी देकर
पर शकुन्तला ने भरत दिया भारत को
और सिद्ध कर दिया नारी से बढ़कर कोई
साहसी नहीं सहचरी और प्रेयसी नहीं…
मेनका रंभा और उर्वशी के नाम पर
साधन और हथियार भले ही बनाता रहे
जमाना इन्हें
पांचाली सा पांच पतियों में बांट दे भले ही
सिंहनी सी खड़ी और लड़ी है नारी आज भी
स्वाभिमान के लिए अपनों के लिए
गुर्बत, अपमान, हर जलन सहती
साथ देती , साथ निभाती
सीढ़ी और पायदान भले ही बनाया तुमने
पर इसने तुम्हें पाला पोसा बड़ा किया
साथ दिया सेज पर भी
और खाने की मेज पर भी
धरती आकाश नदिया सागर सी
अबला नहीं सबला है यह
आधार तुम्हारे घर की
छत सा इसे सुरक्षित रखती
प्रेम जरूरत नहीं
आदत और जरूरत है इसकी

सुंदर पुष्प सी सुरभित जो
तुम्हारी बगिया में
औषधि सी पोषक जो व्याधि में
ग्रंथों में सबसे कोमल, सबसे व्यापक
सबसे रहस्यमय और आकर्षक अक्षर
तुम्हारी जिह्वा पर
प्यार करो, इसका उपहास नहीं
सींचो संभालो जलाओ नहीं इसे
फेंको नहीं कूड़े के ढेर पर
पहिया भले ही कह लो तुम इसे
पर सूना है इसके बिना
घर संसार तुम्हारा
ढो पाओगे जीवन भार नहीं
तुम्हारी भोर की पहली किरन है यही
और रात का चांद भी तो यही!
शैल अग्रवाल

आखिर क्यों
कहते थे बाबा
संभालकर रखना सदा
आंगन की चिड़िया
होती हैं ये बेटियाँ
जाने कब और कौन
जल्लाद इन्हे ले जाए
जब जब रुनझुन
इतराती-शरमाती-सी
वह उनकी गोदी में आ बैठी

आखिर क्यों

आँसू पोंछती रहीं अम्मा

पराया धन होती हैं बेटियाँ
ले जाएगा हकदार एकदिन
जब जब नन्हे हाथों से
बेटी उनकी रसोई संवार आई

आखिर क्यों
बेटे और बेटी में फर्क तो नहीं
कहा था सिर्फ पिता ने
सीना तानकर
हथेली पर जब रुनझुन
पूरी तनख्वाह रख आई

आखिर क्यों

खुशी उसकी यह भी
ज्यादा दिन तक ना टिकी
जब उसने अपनी पसंद बतलाई
कलंकिनी कहकर चीखे थे बाप-भाई –
कहा था-कहाँ मुंह काला कर आई

आखिर क्यों
पैदा होते ही गला न घोंटा
पर दिनरात ही श्रापा उसे
‘ डूब मर कलमुंही ’ कहा

आखिर क्यों

अपनों ने भी रखी एक दूरी
पराए इस धन से
किसी ने भी ना इसे अपनाया
बेटियों से भी कहीं वंश चलता है
बात-बात पर बस यही समझाया

ससुराल में भी तो पर
पराई ही रही पराए घर से आई
‘अपनों सा प्यार कैसे कर पाएगी’
जी-जान छिड़ककर भी
यही उलाहना देता रहा सुनाई

आखिर क्यों, आखिऱ क्यों…

कैसे अपनाए, कैसे प्यार करे
कि शक न करे समाज
निष्ठा पर इस औरत की
परित्याग और अग्नि परीक्षा
तलाक तलाक तलाक आज भी

आखिर क्यों, आखिऱ क्यों…

‘सती हो जाती पति के संग
बृद्धाश्रम में जाकर क्यों नहीं रही
रहते हैं अब तो सभी
काम की न काज की
ढाई मन अनाज की ‘

धिक्कारा खुद बेटों ने
बहुओं के संग
तब भी झुकी कमर से
बासी रोटी खाती आंसू पीती
घर-आंगन रही बुहारती

पोंछती चौबारे की तुलसी
पालती पिछवारे के पशु-पाहन
सोचती वह नहीं करेगी तो
कौन करेगा ये सारे काम
घर उसका बच्चे उसके
यही तो है उसका बैकुण्ठ धाम

एक सहारे से दूसरे रहम तक
भटकती लाडली यह औरत
कब किसकी पर लाडली रह पाई

आखिर क्यों, आखिऱ क्यों…

अवांछित और उपेक्षित
फिर भी परिवार का जरूरी
और इस्तेमाली हिस्सा
दरवाजे पर पड़ी पायदान-सी
जीती रही, इस्तेमाल होती रही
नित नई परीक्षा देती रही

पूछा नहीं कभी जिन्दगी से
कैसे जिए क्यों शोक न करे
धिक्कारते जब अपने ही
बोझ रही सदा अपनों पर
बेड़ियाँ तोड़ीं तो
आवारा और वैश्या कहलाई

परीक्षा अपनेपन की और
अस्तित्व की लड़ाई बारबार
अपनों के ही संग क्यों…

लुटाती रही हंस-हंसके खुद को जो
अर्जुन की तरह औरत को भी तो
बात यह समझ में ना आई

आखिर क्यों, आखिर क्यों….

शैल अग्रवाल

आसान नहीं
———-

तुमने मुझे कितना प्यार किया
मैंने तुम्हें कितना प्यार किया
कितने बेमानी हो जाते हैं ये
सारे प्रश्न गुजरते वक्त के साथ

जिन्दगी कितनी आगे निकल आई है
जाना-पहचाना सब कुछ पीछे छोड़
मानो भाग रहे हों हम रणभूमि से
जूझ रहे हो निरंतर एक नए समर में
मोर्चे पर तैनात जीने की यह ललक
और फड़फड़ाते बेचैन अहसास
खुशी गम मोह और लगाव
कुछ भी तो नहीं रहेगा शेष
निगल लेंगी सब
आने वाले कल की परछांइयॉँ
उगते डूबते सूरज संग ही
बढ़ती और घटतीं
न जरूरत, न चाहत, न कोई विशेष होड़
दुर्गम एक पहाणी पर बस चढ़ते ही जाना
पीठ पर लादे जरूरी और भारी सामान संग
दोहराते रहते हम ही क्यों फिर इसे
एक मंत्र की तरह, प्रार्थना की तरह

एक नाटक ही तो है जिन्दगी
अन्य नाटकों की तरह
अधिक गंभीरता से लेना ठीक नहीं
अभिनय तक जब यहाँ निर्देशित
हंसना रोना सब पूर्व निर्धारित
पूर्व निर्धारित पटकथा पर
और परदा गिरते ही
सब खतम भी
जानते-समझते हुए भी
पर आसान तो नहीं होता
इन नाटकों को भूल पाना…

शैल अग्रवाल

हिन्दुस्तानी औरत

हिन्दुस्तानी औरत यानी
घर भर की खातिर कुर्बानी

गृहलक्ष्मी पद की व्याख्या है
चौका – चूल्हा – रोटी – पानी

रुख़सत करने में रजिया को
टूट गए चाचा रमजानी

जीवन में अंगारे बांधे
पीहर लौटी गुड़िया रानी

कत्ल हुआ कन्या-भ्रूणों का
तहजीबें दीखीं बेमानी

निर्धन को बेटी मत देना
घट घट वासी अवढरदानी

– शिवओम अम्बर

मैं अबला नहीं हूँ

मैं स्त्री हूँ
मैं आन हूँ सम्मान हूँ
मैं ममता हूँ संस्कार हूँ
संस्कृति की धरोहर हूँ
परंपरा निर्वाहक हूँ
सर्जक हूँ मैं पालक हूँ
पर टूट गई मैं
चकनाचूर हो गई
एक ही पल में
मिलती रही मिट्टी में
सिमटती रही स्वयं में
लूटा मुझे खसोटा मुझे
नंगा कर घसीटा मुझे
निर्लज्जता की सीमा पार करते रहे
बीच सड़क पर
भेड़ियों ने
कहते हैं इंसानियत एक फ़ितरत है
तभी तो इंसान है
पर ताकती रही
मनुष्यता को
लाखों की भीड़ में
कि जागेगी इंसानियत
खून खौलेगा मानवता का
प्रमाण देंगे वे
इस धरा पर अभी भी
अपने होने का
इज्जत बचाएंगे
ऋषियों के देश का
सनातन धर्म का
पर नहीं
देवता नहीं तो देवत्व कहाँ
मनुष्य ही नहीं तो मानवता कहाँ
उधेड़ी गई
सिर्फ़ मैं नहीं
मेरी चमड़ी नहीं
मेरी अंतरात्मा

चेतना जागेगी कभी
जागेगा देश,
लहरायेंगे झंडे
निकलेंगी रैलियाँ
मिलेगा न्याय मुझे शायद एक दिन
पर घाव जो रिश रहा है
आत्मा में
रिषता रहेगा
पीप टपकता रहेगा बूँद बूँद
जीवन पर्यंत
मनुष्य न सही पर धरा रोती रहेगी

नया कुछ नहीं है
सदियों से अपमानित होती रही हूँ
निर्वस्त हुई थी
द्रौपदी
कौरव की सभा में
बुलाया कृष्ण को
बचाया लाज अपना
खोज रही हूँ
मैं भी
साथ दौड़ती भीड़ में
एक कृष्ण,
एक अर्जुन और एक भीम को
चक्र गांडीव और गदा को
पर नहीं
कोई नहीं
ललचाई नज़रों के सिवा
थक चुकी हूँ
हार गई हूँ
बचाते हुए इज्जत अपनी
सदियों से
प्रतीक्षा में उस कृष्ण की
जो बचाये मुझे और करे रक्षा
अपमान का बदला ले पाये
सदा के लिए

पर नहीं
अब नहीं
क्यों चाहिए मुझे
कोई कृष्ण
कोई भीम
कोई अर्जुन
जगत जननी हूँ मैं
शक्ति हूँ
सृष्टि समाहित है मुझमें
रक्षक हूँ
करूँगी रक्षा
लड़ूँगी स्वयं ही
जैसे लड़ी थी सावित्री यमराज से
जैसे किया सत्यानाश
कौरव कुल का
द्रौपदी ने
जैसे लड़ी थी लक्ष्मी बाई
लूँगी अपमान का बदला स्वयं ही
क्योंकि मैं अबला नहीं हूँ।

डॉ आशा मिश्रा “मुक्ता”

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