मेरा वतन
विविध रंग भरता ये मेरा चमन है.
कोई प्यारा नगमा सा मेरा वतन है.
न हिन्दू है कोई न कोई मुस्लमान,
बस ममता लुटाती मेरी भारती माँ
उस माँ की आँखें ज्यों गंगा जमुन हैं,
कोई प्यारा नगमा सा मेरा वतन है.
ये मंदिर और मस्जिद के झगड़े पुराने,
क्यों भूले हम, रिश्तों के दिन वो सुहाने,
अब भाई से भाई का छूता मिलन है.
कोई प्यारा नगमा सा मेरा वतन है.
वो बापू की धरती, वो झांसी की रानी,
नहीं भूला जग उन शहीदों की कहानी,
जिन कुर्बानियों से हर एक आँख नाम है,
कोई प्यारा नगमा सा मेरा वतन है.
ये किसकी सदा थी क़ि जागे थे हम भी,
ये किसने दुआ की नई रोशनी की,
उस माँ के चरणों में मेरा नमन है,
कोई प्यारा नगमा सा मेरा वतन है.
-पद्मा मिश्रा
अपनी आजादी के नाम
भूले बिसरे संबंधों के सूनेपन में,
नवयुग की किरणों का अद्भुत पैगाम भरें,
एक दिन’ तो अपनी आजादी के नाम करें.
जो धूल भरी आंधियां छा गयी हैं नभ में,
खो गया उजाला जिनसे जग के आँगन में ,
आओ हम नई क्रांति का सूरज एक गढ़ें,
जन-मन के अंतर में एक नया प्रकाश भरें,
‘एक दिन ‘तो अपनी आजादी के नाम करें.
जो छोटी छोटी राहों से होकर गुजरे,
अब राजमार्ग पर भटक गए मेरे साथी,
अपनी माटी की प्यार भरी भाषा भूली,
अब सपनो का संसार बुना करते साथी.
हम सत्ता क़ि उन अंधी गलियों से चलकर ,
एक नव प्रभात के नए सूर्य के साथ बढ़ें,
‘एक दिन’ तो अपनी आजादी के नाम करें.
हमने अपनी पहचान नहीं खोई अब तक,
अब भी जागे हैं, ऊँचे पर्वत शिखरों पर,
बर्फीले झंझावातों के सूनेपन में,
हम देश प्रेम के सपने बुनते हैं मन में,
जो लुटा गए प्राणों का बलिदानी सावन,
उनमर शहीदों क़ि गाथाएं याद करें
‘एक दिन तो अपनी आजादी के नाम करें.
नन्हीं आखे पूछा करती हैं सवाल,
कब तक मिल पायेगा अपना अधिकार हमें?
हम नहीं चाहते ऊँचे महलों क़ि दुनियां,
अपनी छोटी सी कुटिया ही स्वीकार हमें.
हम नव युग क़ि इन भोली आशाओं में,
उनके सपनो का एक सुदृढ़ आधार बनें,
‘एक दिन ‘तो अपनी आजादी के नाम करें?
दिनेश गुप्ता
मेरे देश की मिट्टी को मेरा सलाम देना,
वहाँ की हवा और पानी को ये पैग़ाम देना
वो गलियाँ वो झरोखे जो छोड़ के आयी
मुद्दत तलक कुछ भी नहीं यहाँ मैं भूल पायी
शामिल नहीं में उसके किसी उत्सव और त्योहार में
सुना ही रहता है ये परदेसी मन हर बहार में
होता है जब भी ज़िक्र मेरे देश की शान का
गौरव से ऊँचा हो जाता है सर मेरे मान का
दूर भले ही उसके एहसास से हूँ मैं
लेकिन ज़िंदा अभी तलक इसी आस पर हूँ
जल्दी ही कोई ऐसा वक्त भी आएगा
मेरा माथा भी तेरे दर पे शीश झुकाएगा
मेरे वतन की मिट्टी को मेरा सलाम देना
वहाँ की हवा और पानी को ये पैग़ाम देना ।
मंजु कुमार, यू.ए.ई.
दीया अंतिम आस का
[ एक सिपाही की शहादत के अंतिम क्षण ]
दीया अंतिम आस का, प्याला अंतिम प्यास का
वक्त नहीं अब, हास परिहास उपहास का
कदम बढाकर मंजिल छु लुं, हाथ उठाकर आसमाँ
पहर अंतिम रात का, इंतज़ार प्रभात का
बस एक बार उठ जाऊं, उठकर संभल जाऊं
दोनों हाथ उठाकर, फिर एक बार तिरंगा लहराऊं
दुआ अंतिम रब से, कण अंतिम अहसास का
कतरा अंतिम लहू का, क्षण अंतिम श्वास का
बस एक बुंद लहू की भरदे मेरी शिराओं मे
लहरा दूँ तिरंगा मे इन हवाओं मे
फहरा दूँ विजय पताका चारों दिशाओ मे
महकती रहे वतन की मिटटी, गुँजती रहे गुँज जीत की
सदियों तक इन फिजाओं मे
सपना अंतिम आँखों मे, ज़स्बा अंतिम साँसों मे
शब्द अंतिम होठों पर, कर्ज अंतिम रगों पर
बुंद आखरी पानी की, इंतज़ार बरसात का
पहर अंतिम रात का, इंतज़ार प्रभात का
अँधेरा गहरा, शोर मंद
साँसें चंद, होसलां बुलंद,
रगों मे तुफ़ान, जस्बों मे उफान
आँखों मे ऊँचाई, सपनो मे उड़ान
दो कदम पर मंजिल, हर मोड़ पर कातिल
दो साँसें उधार दे, कर लु मे सब कुछ हासिल
जस्बा अंतिम सरफरोशी का, लम्हा अंतिम गर्मजोशी का
सपना अंतिम आँखों मे, ज़र्रा अंतिम साँसों मे
तपिश आखरी अगन की, इंतज़ार बरसात का
पहर अंतिम रात का, इंतज़ार प्रभात का
फिर एक बार जनम लेकर इस धरा पर आऊं
सरफरोशी मे फिर एक बार फ़ना हो जाऊं
गिरने लगूँ तो थाम लेना, टूटने लगूँ तो बांध लेना
मिट्टी वतन की भाल पर लगाऊं
मे एक बार फिर तिरंगा लहराऊं
दुआ अंतिम रब से, कण अंतिम अहसास का
कतरा अंतिम लहू का, क्षण अंतिम श्वास का
-दिनेश गुप्ता
तिरंगा मेरे देश का
तिरंगा मेरे देश का, युंही नही मुझे भाया है,
लाखों शहीदों का रक्त, इसका सरमाया है,
चढ. गये जो फाँसी हसँते हसँते, इसके लिये,
तभी मेरा मुल्क, आज मुस्काराया है,
रही ये आरजू, मैं भी पैदा होता, गुलाम वतन में,
लड़ता दुश्मन से, जो वो लड़े,
दर्द भी सहता, जो सहा उन्होनें,
मरता भी तो, शहीद कहलाता,
तिरंगे मे होता लिपटा और गर्व से मै इठलाता,
मेरा क्या है, आखं खोली है खुली हवा में,
पूछे कोई उनसे, क्या क्या न सहा उन्होने
फंदो पर झुले हैं,
सीने पर गोलियां खायी है,
तभी तो घर घर में, हसीं खिलखिलायी है,
है अभी भी वक़्त, समझ ले इस नाजुक वक़्त को
संभाल ले वो धरोहर, जो मिली है आज़ाद तुझको,
वरना काबिज़ होगा दुश्मन, फिर से इस मुल्क पर,
धरती होगी रक्त रंजित
खामोश होगा आसमाँ हर हद तक,
फिर बजेगा बिगुल, जंग -ए – आज़ादी का,
फिर बहेगा लहू, सड़क पर हिंदुस्तानी का,
रोक ले इस रक्त को, अब न बहने दे,
उठ, खडा हो, अर्जुन बन,
देश को अब और न बँटने दे,
मिटा दे उनकी हस्ती, जो करते है बात देश को तोड़ने की,
समझा दे उन्हें परिभाषा, देश और धर्म – युद्ध की.
तिरंगा मेरे देश का, युं ही नही मुझे भाया है,
लाखों शहीदों का रक्त, इसका सरमाया है,
चढ. गये जो फाँसी हसँते हसँते, इसके लिये,
तभी तो मेरा मुल्क आज मुस्काराया है।
विवेक शर्मा , मुंबई
क्या हो गया ज़रा देश का हाल तो देखो
बहुत हुआ अपना अपना घर बार, माँ का प्यार दुलार
क्या हो गया ज़रा देश का हाल तो देखो
क्या कर लेगा अकेला अन्ना, कहते थे सियासी गलियारे
एक बुढे ने बदल दी युवाओं की चाल तो देखो
होसलों के खजानों को खंगाल कर तो देखो
अपनी रगों के लहू को उबाल कर तो देखो
झुक जाएगा आसमाँ, कदम चूमेगी मंजिले
अपनी आँखों मे सपनो को पाल कर तो देखो
सत्ता के नशे मे चूर कितना इन्सान तो देखो
भ्रस्टाचार की अग्नि मे जल रहा अरमान तो देखो
इरादों मे होती है जीत, ताकतों मे नहीं
बुंद बुंद बढता, होसलों का तूफान तो देखो
सत्तायें पलट सकती है, तस्वीरें बदल सकती है
भटके हैं रास्ते मगर, मंजिले फिर भी मिल सकती है
ज़रा बदल कर अपनी चाल तो देखो
क्या हो गया ज़रा देश का हाल तो देखो।
-दिनेश गुप्ता
कवि अपना कर्तव्य निभा तू
छा रहे निराशा के बादल,
अंधियारा बढ़ रहा प्रतिपल ।
घुट-घुट कर जी रहा आदमी
आदमी नचा रहा आदमी ।
आशा के कुछ गीत सजा तू,
कवि अपना कर्तव्य निभा तू।
मानवता लहू लुहान पड़ी,
बुद्धि चेतना से बनी बड़ी ।
रक्त पिपाशा है पशु समान,
हेय मनुज अन्य, निज अभिमान ।
सुन धरती का यह रोना तू,
कवि अपना कर्तव्य निभा तू।
कर्म क्रूर, पाखण्ड, धूर्तता,
विध्वंस, वासना, दानवता ।
लुप्त मानव का जन से प्यार,
निज स्वार्थ वश करता संहार ।
जागरण के अब गीत गा तू,
कवि अपना कर्तव्य निभा तू।
भोग में है खॊया इंसान,
भूल गया है स्नेह, बलिदान ।
उन्माद, शोषण, कुमति विचार,
बना यही मानव व्यवहार ।
पथ मानव को उचित बता तू,
कवि अपना कर्तव्य निभा तू।
है जेबें भर रहे कुशासक,
जनता पिस रही क्यों नाहक ।
सुविधाओं की खस्ता हालत,
पग-पग, पल-पल जीवन आहत।
उनींदी आँखे खोल अब तू,
कवि अपना कर्तव्य निभा तू ।
अर्थ सभी कृत्यों का तल है,
ज्ञान, तेज, तप सब निर्बल है ।
विस्मित सभ्यता, मौन आघात,
कैसे मिटे यह काली रात ?
ज्योति पुंज कोई बिखरा तू,
कवि अपना कर्तव्य निभा तू ।
वाणी – अमृत, अंतर – विष है,
जीवन बना छल साजिश है ।
धमनी रक्त श्वेत हुआ है,
प्रस्तर मानव हृदय हुआ है ।
प्राणों में नव रुधिर बहा तू,
कवि अपना कर्तव्य निभा तू।
-कवि कुलवंत सिंह
मुद्दे
मुद्दों की बात करते-करते
वे अक्सर रोने लगते हैं.
उनका रोना उस वक्त
कुछ ज्यादा बड़ा आकार लेने लगता है
जब कटोरी में से दाल खाने के लिए
चम्मच भी नहीं हिलाई जाती उनसे,
मुद्दों की बात करते-करते
कई बार वे हंसने भी लगते हैं
क्योंकि उनकी कुर्सी के नीचे
काफी हवा भर गयी होती है
मुद्दों की बात करते-करते
वे काफी थक गए हैं फिलहाल
बरसों से लोगों को
खिला रहे हैं मुद्दे
पिला रहे हैं मुद्दे
जबकि आम आदमी उन मुद्दों को
खाते-पीते काफी कमजोर
और गुस्सैल नजर आने लगा है
मुद्दों की बात करते-करते
उनकी सारी योजनाएं भी साल-दर-साल
असफलताओं की फाईलों पर चढी
धूल चाटने लगी हैं
जबकि आम आदमी गले में बंधी
घंटी को हिलाए जा रहा है
मुद्दों की बात-करते
उन्हें इस बात की चिंता है कि
आने वाले समय में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर
आम लोगों की भूख को कैसे
काबू में रखा जा सकेगा ?
मुद्दों की बात करते-करते
वे कभी-कभी बडबडाने भी लगते हैं कि
उनके निर्यात की योजना
आयात की योजना में उलझ गयी है
रुपये की तरह हर साल अवमूल्यन की स्थिति में खडी
उनकी राजनीति लालची बच्चे की तरह लार टपका रही है
आजकल मुद्दे लगातार मंदी के दौर से गुजर रहे हैं ।
-अशोक आंद्रे
जब से मेरे देश में
जब से मेरे देश में स्वराज हो गया,
सस्ता हो गया आदमी मंहगा प्याज हो गया,
कितनी ईमानदारी से करते है बेईमानी देखो,
भ्रष्टाचार में नंबर वन हिन्दुस्तान हो गया,
और बारिश से अब डरने लगे है लोग,
क्यों की पिछली बरसात में पूरा शहर टाइटेनिक जहाज… हो गया,
दुहाई देते है सब इंसानियत की मगर,
न जाने कितने बच्चो का कत्ले आम हो गया,
सुन कर अब तालियाँ मत बजाओ लोगो,
मेरा ये पैगाम भी बदनाम हो गया,
मल्टीमिडिया सेट अब बच्चे भी रखते है जेब में,
इसीलिए तो मित्रो नेटवर्क जाम हो गया,
अब तो स्कूल में होता है बलात्कार,
ये कैसी शिक्षा का प्रचार हो गया,
कटे हांथो से देश की पकडे हो बागडोर,
तभी तो कही संसद भवन कही अक्षरधाम हो गया,
हवाओ में भी यारो घुल रहा है अब जहर,
फिर भी मेरा भारत महान हो गया.
-राजेन्द्र अवस्थी
व्यथा की आत्मकथा
(एक ढाई वर्ष की बालिका के साथ हुए
दुष्कर्म की करुण कथा )
ऐ सजल नयनों बताओ,
क्योंकर बिलखती है व्यथा?
जब बुझे नयनों ने छेड़ी,
यन्त्रणा की दारुण कथा.
सुनने वालों थाम लो दिल,
मैं सुनाती उसकी कथा.
थर्रायेगा पाषाण भी सुन,
एक दानव ने जो किया.
ढाई बरस की बालिका थी,
प्यारी सी मुस्कान मुख की.
नादान थी वह मासूम थी,
थी तोतली ज़ुबान उसकी.
भोली थी न जानती थी,
आ गई है विपदा बड़ी.
छल,छद्म से अनजान थी,
संग परिचित के चल पड़ी.
जानकर आत्मीय उसे वह,
खिलखिला कर हंस पड़ी.
टौफ़ी पकड़ लीं हाथ में,
गलबहियां डाल चुम्मी जड़ी.
हाय रे वह वहशी दरिन्दा
उसे ले गया एकान्त में.
कुकृत्य कर छोड़ा उसे जब,
कैसे बताऊं किस हाल में?
थी रक्त से लथपथ बालिका,
आंख भर न जिसने जग देखा.
इन्द्रियों से अन्भिग्य तन का,
बन चुका था लोथ मांस का.
तड़प-तड़प जब प्राण निकले,
अश्रुओं ने लिख दी थी कथा.
थे नयन चकित, पथरा चले,
अधरों ने पढ़ी थी चिर व्यथा.
उन चकित नयनों से बही जब,
तड़प- तड़प कर दारुण व्यथा,
काश पढ़ पाता वो कामुक,
बिलखती व्यथा की आत्मकथा.
– नीरजा द्विवेदी
नारी की द्रोही नारी है
देखो दहेज की बलिवेदी पर,
धू-धू जलती वह नारी है.
जो पीड़ित करती वह नारी है,
जो पीड़ित होती वह नारी है.
जो सास बनी वह नारी है,
जो बहू बनी वह नारी है.
नारी के हाथों ही देखो,
प्राण त्यागती वह नारी है.
आज बनी है मां पिशाचिनी,
भ्रूणों की हत्यारी नारी है.
जो शोषण करती वह नारी है,
जो शोषित होती वह नारी है.
दुर्दैव! भारतीय समाज में,
नारी की द्रोही नारी ही है.
-नीरजा द्विवेदी
एक स्लम की व्यंग्योक्ति
किसी महानगर में प्रवेश करती
रेलगाड़ी के डिब्बे से निहारते हुए
अथवा
उतरते जहाज़ से नीचे झांकते हुए
आप ने मुझे देखा होगा
भंवें सिकोड़ी होंगी
नाक बंद की होगी
और
पास में बैठी पत्नी या मित्र से
सहानुभूति के स्वर में कहा होगा
कैसे जीते हैं इस स्लम में लोग?
फिर कुछ राजनीतिग्यों, कुछ नौकरशाहों पर
अपने मन की भड़ास निकालकर
किसी दुःस्वप्न की तरह भूल गये होंगे मुझे
और प्रारम्भ कर दी होगी
उद्देश्यहीन वार्ता
देश की ग़रीबी एवं भ्रष्टाचार पर.
पर क्या कभी आप ने जानने का प्रयत्न किया
कि मैं
क्या हूं, क्यों हूं और किसके लिये हूं?
क्यों बसा हूं मैं नगर के गंदे नाले के किनारे?
क्यों प्रत्येक तीन गुणे तीन मीटर के क्षेत्रफल में
बना है एक झोपड़ा मुझ पर?
सर्कंडों की दीवालों पर रखी है एक तिरपाल,
जो बीरबल के चिराग़ की तरह,
केवल मानसिक सांत्वना देती है
वर्षा, शीत या सांप से सुरक्षा की.
क्यों रहते है प्रत्येक नौ वर्गमीटर के झोंपड़े में
नौ प्राणी
कुत्तों और पिल्लों की तरह,
और गाय भैंस भी जिस पानी को सूंघकर
नथुने फैलाकर आगे बढ़ जाते हैं
ये कपड़े धोते और नहाते हैं उसी में.
मैं जानता हूं कि तुम मुझे
महानगर की सुंदरता में बदनुमा दाग़ समझकर
स्वर्गलोक के बीच श्मशान मानकर
भुला देना चाहते हो
और अपने भावलोक से
मिटा देना चाहते हो मेरा अस्तित्व.
पर चाहे तुम्हारी प्रगति ने
या तुम्हारी स्वार्थी संचयी प्रवृत्ति ने
छोड़ा है मेरे लिये एक छोटा सा भूखंड,
फिर भी मेरे प्रत्येक वर्गमीटर में
बसता है एक प्राणी.
क्षिति, जल, पावक, गगन, समीर से ही
तुम्हारे सम बना है उसका शरीर.
वह शरीर जो बचपन से ही बीनने लगता है
गंदे ढेरों में कुछ रद्दी टुकड़े
जो नित्य क्रिया हेतु
बैठता है सड़क के किनारे
जो चलाता है रिक्शा और ढोता है बोझा
अथवा तुम्हारे घरों में लगाता है पोंछा.
नहीं तो पेट भरने हेतु
तरह तरह के नाटक कर मांगता है भीख
या स्वयं को बेचता है तुम्हें कुछ टकों के लिये.
कितनी बार सोचा है तुमने
तुम्हारी प्रगति ने, तुम्हारी सभ्यता ने
कि मेरे इन प्राणियों के शरीरों में भी
बसती है एक आत्मा.
इन्हें भी शीत, ग्रीष्म व बर्षा
सताती है तुम्हारी ही तरह.
भूख प्यास की इनकी भी तड़प
तुमसे कम नहीं है.
इन्हें भी लगती है चोट
इनका भी होता है क्लांत शरीर
इनका भी दुखता है मन
रोग क्लेश और मृत्यु से
भयभीत होते हैं ये तुम्हारी ही तरह.
और चांद पर उतरने की इनकी भी कामना
तुमसे कम नहीं,
इन्हें भी भाते हैं सुस्वादु भोजन
गद्देदार बिस्तर, टी. वी. और फ़र्नीचर.
इन्हें है भान कि
ये तुम्हारी बीस मंज़िली अट्टालिका
बनाने में अपना पसीना तो बहा सकते हैं
पर उसमें विश्राम नहीं कर सकते हैं.
पर यह तो न समझो
कि ये निःस्प्रह हैं, निर्लिप्त हैं, मृतप्राय हैं
और सुख पाने की इच्छा भी नहीं कर सकते हैं.
इन्हें भी सताता है काम,
आता है क्रोध
लगता है मोह
और कामना है मोक्ष की.
यदि यह बात याद रख सको
तो जाकर लिख देना
विधान भवन की दीवारों पर
न्यायालयों की चौखटों पर
मंत्रियों के घरों पर
अफ़सरों की कालोनियों पर
और सेठों की कोठियों पर
कि
हर महानगर के बाहर एक स्लम है
जो मृतकों का श्मशान नहीं है
वरन उसी में रहने वाले लोगों ने ही
बनायी हैं तुम्हारी
कालोनियां कोठियां और महल.
क्या तुम उन्हें एक आउटहाउस भी नहीं दी सकते हो?
क्या सचमुच तुम उनका
कीड़ों मकड़ों की तरह जीना ही उचित समझते हो?
क्या इस कृतघ्नता पर नहीं धिक्कारती है
कभी तुम्हारी चेतना तुम्हें?
और क्या समाज के आभिजात्य समूह
अपने अपने में एक माफ़िया गिरोह हैं
जो आते हैं एक दिन
हूणों और चंगेज़ों की तरह,
लगाते जाते हैं आग
मेरे हर झोपड़े में
जला देते हैं
इन इन्सानों की जीवन भर की कमाई.
जो हैं कुछ चीथड़े, टोकरे और दो-चार बर्तन.
कुछ इन्सान भी जल-भुन जाते हैं
चीखते हैं
पुकारते हैं बहरे ईश्वर को
अंधे न्याय को
और भाग जाते हैं बसाने एक नया स्लम
जहां बहता होता है
किसी फ़ैक्टरी से निकलता
बदबू भरा एक नाला.
और फिर यही इन्सान खड़ी करते हैं
इसी स्थान पर
ऊंची सी अट्टालिकायें.
अपने ही लहू से
अपने ही उजाड़े घरों पर.
फिर भी नहीं पसीजता है तुम्हारा हृदय
तुम्हारी आत्मा;
रहते हो तुम इसके एक एयर-कन्डीशंड फ़्लैट में
ऊचाई से देखते हो मुझे
और बोलते हो पत्नी या मित्र से
जाने कैसे ये लोग इस स्लम में जीते हैं?
और पुनः प्रारम्भ कर देते हो
बढ़ती आबादी, ग़रीबी एवं भ्रष्टाचार पर एक अर्थहीन वार्ता.
– महेश चन्द्र द्विवेदी
असीम आरक्षण
भारत में शासन चाहे किसी दल का हो,
आरक्षण का क्षेत्र व सीमा बढ़ाये जाते हैं;
श्रेष्टता व परिश्रम हैं यहां टके सेर बिकते,
आरक्षित भ्रष्ट-कनिष्ठ ज्येष्ठ बनाये जाते हैं;
ऐ चुनाव! कहां तक तेरा गुणगान करुं, देश
जाति-धर्म में बांटकर वोट कमाये जाते हैं.
भ्रष्ट नेता और अफ़सर सीना तानकर चलें,
सत्यनिष्ठ अफ़सर सब मुंह छिपाये जाते हैं;
पेट हैं जिन लोगों के फटने तक भरे हुए,
ऐसे अफ़सर ग़रीबों का गेंहूं खाये जाते हैं;
ऐ आरक्षण! धन्य है तू और तेरा जातिवाद,
घोटालेबाज़ नेता तेरे कारण जिताये जाते हैं।
-महेश चन्द्र द्विवेदी
किसकी नजर लगी
मेरे देश की सीमा
पहाण और धरती
आज जैसे
गरीब की लुगाई
खंगाल रहे, रौंद रहे
आते जाते हक जताते
बुरी नजर से देख रहे लोग
और यह सब सहती ,
आग-पानी के सहारे
कोप जताती,
अस्तित्व, उर्वरता…
अपना हरियाला
संतुलन बचाती
जैसे-तैसे बस
जिए जा रही है…
-शैल अग्रवाल
तिरंग फहरा लो।
तारा है वो, सितारा है वो
झिलमिल आँखों में
चंदामामा सा प्यारा है वो
जागती आँखों का सपना
देश वो हमारा है
तस्बीर यह आँखों में सजा लो,
तिरंग फहरा लो।
दूर हैं तो क्या
मजबूर हैं तो क्या
मन में कुछ यादे हैं
वादे और इरादे हैं
इरादों को आजमा लो,
तिरंग फहरा लो।
मिट्टी वह पुरखों के खून सनी
मिट्टी वह जिससे यह देह बनी
मिट्टी वह अपनी पहचान है
मिट्टी वह पूज्यनीय
माथे से लगा लो
तिरंग फहरा लो।
सूखा कहीं, बाढ कहीं
भूखे कई, नंगे कई
लालच और गुर्बत के मारे हैं
अपने पर सारे हैं
अपनों को बचा लो
तिरंग फहरा लो।
तन मन धन सब अर्पण
यही तो पूर्वजों का तर्पण
मां का आवाहन है
वादों का जल दो
कर्मों की आहुति
जीवन एक यज्ञ बना लो
तिरंग फहरा लो।
-शैल अग्रवाल
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