मंगल-आह्वान
भावों के आवेग प्रबल
मचा रहे उर में हलचल।
कहते, उर के बाँध तोड़
स्वर-स्त्रोत्तों में बह-बह अनजान,
तृण, तरु, लता, अनिल, जल-थल को
छा लेंगे हम बनकर गान।
पर, हूँ विवश, गान से कैसे
जग को हाय ! जगाऊँ मैं,
इस तमिस्त्र युग-बीच ज्योति की
कौन रागिनी गाऊँ मैं?
बाट जोहता हूँ लाचार
आओ स्वरसम्राट ! उदार
पल भर को मेरे प्राणों में
ओ विराट् गायक ! आओ,
इस वंशी पर रसमय स्वर में
युग-युग के गायन गाओ।
वे गायन, जिनके न आज तक
गाकर सिरा सका जल-थल,
जिनकी तान-तान पर आकुल
सिहर-सिहर उठता उडु-दल।
आज सरित का कल-कल, छल-छल,
निर्झर का अविरल झर-झर,
पावस की बूँदों की रिम-झिम
पीले पत्तों का मर्मर,
जलधि-साँस, पक्षी के कलरव,
अनिल-सनन, अलि का गुन-गुन
मेरी वंशी के छिद्रों में
भर दो ये मधु-स्वर चुन चुन।
दो आदेश, फूँक दूँ श्रृंगी,
उठें प्रभाती-राग महान,
तीनों काल ध्वनित हो स्वर में
जागें सुप्त भुवन के प्राण।
गत विभूति, भावी की आशा,
ले युगधर्म पुकार उठे,
सिंहों की घन-अंध गुहा में
जागृति की हुंकार उठे।
जिनका लुटा सुहाग, हृदय में
उनके दारुण हूक उठे,
चीखूँ यों कि याद कर ऋतुपति
की कोयल रो कूक उठे।
प्रियदर्शन इतिहास कंठ में
आज ध्वनित हो काव्य बने,
वर्तमान की चित्रपटी पर
भूतकाल सम्भाव्य बने।
जहाँ-जहाँ घन-तिमिर हृदय में
भर दो वहाँ विभा प्यारी,
दुर्बल प्राणों की नस-नस में
देव ! फूँक दो चिनगारी।
ऐसा दो वरदान, कला को
कुछ भी रहे अजेय नहीं,
रजकण से ले पारिजात तक
कोई रूप अगेय नहीं।
प्रथम खिली जो मघुर ज्योति
कविता बन तमसा-कूलों में
जो हँसती आ रही युगों से
नभ-दीपों, वनफूलों में;
सूर-सूर तुलसी-शशि जिसकी
विभा यहाँ फैलाते हैं,
जिसके बुझे कणों को पा कवि
अब खद्योत कहाते हैं;
उसकी विभा प्रदीप्त करे
मेरे उर का कोना-कोना
छू दे यदि लेखनी, धूल भी
चमक उठे बनकर सोना।
दिनकर
जय बोल
जला अस्थियां बारी-बारी
चिटकाई जिनमें चिंगारी,
जो चढ़ गये पुण्यवेदी पर
लिए बिना गर्दन का मोल।
कलम, आज उनकी जय बोल
जो अगणित लघु दीप हमारे
तूफानों में एक किनारे,
जल-जलाकर बुझ गए किसी दिन
मांगा नहीं स्नेह मुंह खोल।
कलम, आज उनकी जय बोल
पीकर जिनकी लाल शिखाएं
उगल रही सौ लपट दिशाएं,
जिनके सिंहनाद से सहमी
धरती रही अभी तक डोल।
कलम, आज उनकी जय बोल
अंधा चकाचौंध का मारा
क्या जाने इतिहास बेचारा,
साखी हैं उनकी महिमा के
सूर्य चन्द्र भूगोल खगोल।
कलम, आज उनकी जय बोल।
रामधारी सिंह ‘दिनकर’
भव्य भारती है यह
शांति बिगुल का उद्घोष
शौर्य भरा मानवता को प्रतिबद्धित
युद्ध नहीं पर देना आता इसे जवाब
हिमालय सा उज्वल उन्नत भाल
गंगा जमुना सी पावन संस्कृति
तारों के रहस्यों से लेकर
सूरज चांद की अनबूझी चाल
शून्य का अविष्कार और
मानवता का देवत्वमय श्रुति गान
पृथ्वी से लेकर आकाश तक
रहस्यों की खोज वैज्ञानिक
खोज लाए ईश्वरीय तत्व
ऋषि मुनियों का यह देश महान
गर्व हमें हम इसकी संतान
मेरे भारत की खोज ही तो
पर हमारे अस्तित्व की खोज
आस्था और आदर्शों की खोज
शिव सत्य और सुंदर यह संसार
इसमें ही बसते मेरे प्राण
यही तो हमारी धर्म-संस्कृति
सारा भूगोल और इतिहास
राम कृष्ण की है भूमि यही
जिज्ञासा ज्ञान पिपासुओं की
बुद्ध महाबीर जीसस पैगंबर
पूजा अर्चना हो दिन प्रतिदिन
जन मानस में बसे
सभी ईश के हैं रूप यहाँ।
शैल अग्रवाल
यू.के.
मंजिल भी राहें वतन है हमारा
इसके जो ऊपर गगन है हमारा!!
करते है सेवा जो प्यारे वतन की
सभी साथियों को नमन है हमारा!!
जहाँ राम-कृष्णा,महाबीर गौतम
लेते जनम हैं , वतन है हमारा!!
कहाँ से कहाँ आके हम जो खड़े हैं
हमारी है कोशिश यतन है हमारा!!
कई जाति धर्मों के इसमें सुमन हैं
गज़ब की है ख़ुशबू चमन है हमारा!!
‘इंडिया’वतन का है खास-ए-दीवाना
इस पे ही तन-मन है अर्पण हमारा!!
राम निवास इंडिया
जी चाहता है
सर कफ़न बाँध लेने को जी चाहता है
जां वतन पे लुटाने को जी चाहता है!!
मक्कार जितने हैं अब भी वतन में
नाम उनका मिटाने को जी चाहता है!!
पत्थर बना है खुदा जो हमारा
मोम उसको बनाने को जी चाहता है!!
कभी दोस्त थे अब जो दुश्मन बने हैं
उन्हें घर बुलाने को जी चाहता है!!
जो हैं मदमस्त आँखें दिल मस्त मौला
उन्हें आजमाने को जी चाहता है !!
‘इंडिया’ रूठे हैं ना माने अभी तक
मिलकर मनाने को जी चाहता है !!
राम निवास ‘इंडिया’
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