माह विशेषः खिलने और महकने की ऋतु में

 
आओ ऋतुराज     
आओ ऋतुराज बसंत लिए हरियाली संग 
भर दो प्रमोद जीवन में और मतवाली तरंग 
बहे समीर, सलिल आनंद का चारों ओर 
हो चेतन में नवसृजन का नव उमंग 
आओ ऋतुराज बसंत लिए हरियाली संग।

मन विह्वल, भाव प्रांजल मिल जाये गति स्नेह को  स्नेहिल हो सब परस्पर अभिमान न हो देह को 
कंटक माल्य से स्वागत अगर हो जीवन पथ पर 
फिर भी सतता से कभी न हो मोह भंग 
आओ ऋतुराज बसंत लिए हरियाली संग।

अधीर भी धीर तुम संग जैसा कि पवन 
कर जाओ हृद-मस्तिष्क में नवगुण रोपण
नवाधार बने जीवन का यह संकल्प हो स्थिर 
जीवन पुष्प भी खिले लिए अशेष रंग 
आओ ऋतुराज बसंत लिए हरियाली संग।

  – मनोज ‘आजिज़’
पता- आदित्यपुर,जमशेदपुर,
       झारखण्ड , भारत 
फोन- 09973680146

 

सनन्-सनन् निनाद कर रहा पवन…

 
सनन्-सनन् निनाद कर रहा पवन ,
अजस्र मर्मरित हुए हैं वन सघन ,
न पर्ण सा बना रहे सिहर-सचल,
ओ मनुज बना रहे सदा सबल |

घनक – घनक घनेरते घनेरे घन ,
नृत्य कर रहे निरत तड़ित चरण ,
मन रहे न यह कभी तेरा विकल
ओ मनुज बना रहे सदा सबल |

झरर-झरर वरिष अदिति  निगल रहा ,
अमित अनिष्ट अग्नि ज्वाल पल रहा ,
सामने अड़े हुए अडिग अचल ,
ओ मनुज बना रहे सदा सबल |

थरर-थरर है काँपती वसुंधरा ,
तीव्र ज्वार ले उदधि उमड़ पड़ा ,
हो रहे विरोध में ये जग सकल ,
ओ मनुज बना रहे सदा सबल |

विजय सिंह , सिडनी आस्ट्रेलिया


बासंती -मन
एक बार फिर लौटा है बसंत ,
मुस्कराईं कलियाँ भावनाओं की ,
रोम रोम पुलकित -आलोकित स्नेह -किरण ,
स्वाति बूंद से छलकेमुक्ता -कण ,
दुःख के अंधेरों का होने लगा है अंत
एक बार फिर लौटा है बसंत ,
सृजन की हथेलियों पर ,
मेंहदी के फूल खिले -नूपुर के गीत बजे ,
थिरक रहा अंतर में ,
हरसिंगार जैसा मन ,
एक बार फिर लौटा है बसंत ,
हरी हरी दूबों पर ,
पाँव मचलना चाहें
मन चाहे किसी की न सुनूं आज ,
झूमूँ,नाचूं,गाऊं ,
साथ लिए गीतों के नवल वृंद!
एक बार फिर लौटा है बसंत!!!!

 

कैसे कह दूँ आया बसंत

कैसे कह दूँ आया बसंत!
सौरभ की सूनी साँझ ढले
मुरझाई आशा की कलियाँ ,
आतंक बिछाती रातों की ,
अब भी जागी हैं स्मृतियाँ,
… बेरंगे सपनों ने देखा ,
जीवन का इतना करूँण अंत,
कैसे कह दूँ आया बसंत
अधनंगे भूखे चेहरों की ,
सहमी सहमी सी आवाजें ,
ममता की प्यास लिए प्रतिपल,
नन्हीं आँखों की फरियादें
आंसू के झिलमिल दर्पण सा,
शबनम में डूबे दिग दिगंत .
कैसे कह दूँ आया बसंत
हर गाँव ,गली हर डगर डगर
हर डाल डाल बिखरा बसंत,
पर जिनकी खुशियाँ रूठी हैं ,
उनके आँगन कैसा बसंत ?
यह एकाकी मन साथ लिए ,
कैसे कह दूँ आया बसंत?
– पद्मा मिश्रा

 
बसंत एक प्रयास
सूखी जड़ों में सोते ढूँढ
प्यास बुझाने का
बसंत एक अहसास
जड़ से पुनः
चेतन हो जाने का

 

कोपल कोपल

हवाओं का यह
महकता अहसास
जाते शिशिर की तसल्ली है
कुछ चीजें
नम अंधेरों से ही तो
उग पाती हैं
कोपल कोपल

 
बसंत है यह
हरहराता लहलहाता
चहुँ ओर
जीवन में प्रकृति में
बसंत है यह।
कब्र के पत्थर फोड़
फूल बन के उगा जो
मौत की कोख से जन्मा
बस-अंत कैसे…
आदि अंत का
नृत्य है यह
बसंत है यह।

आदि अंत से परे
और उसी में समाधिस्त
अंखुआते कोपल में कहीं
नवजात बिहगों की
अधखुली आँखों में कहीं
स्वप्न देता, सृजन करता
मौत पे अट्टाहास करता
जीवन का उद्घोष है यह
बसंत है यह!
-शैल अग्रवाल

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