तुम जब हँसती हो
तुम जब हँसती हो तो आ जाती है
धूप में अनोखी चमक
जल में विरल तरलता
हवा में अद्भुत उल्लास
गुलाबों में सिहरन
पेड़ों में हरा उजास
तुम जब हँसती हो तो बढ़ जाती है
नक्षत्रों की कांति
नदियों में विपुल जल
खबरों में अवकाश
बादलों में बारिश
घरों में सुख-चैन
तुम जब हँसती हो तो गाती है
देह में सर्पिलता
लहू में रक्तिम आभा
मन में अनन्त इच्छाएँ
आत्मा में अमरता
अस्थि-मज्जा में जिजीविषा
तुम जब हँसती हो तो भर जाता है
स्त्रियों में लबालब प्यार
पुरूषों में विनम्र अनुरोध
पिता में पुरुषार्थ
माँ में मनुहार
संतति में परिष्कार
तुम जब हँसती हो तो उठती है
मिट्टी से सौंधी गमक
बस्तियों से भोज की गंध
दिनों में मशक्कत और अट्टहास
रातों में स्वप्न और आमंत्रण
धमनियों में उद्दाम वेग
तुम जब हँसती हो तो जागती है
घोड़ों में हिनहिनाहट
दोस्तों में दोस्ती
दुश्मनों में दुश्मनी
पण्डितों में चतुराई
ईश्वर में करूणा
तुम जब हँसती हो तो ढँक जाती है
नग्नता आवरण से
आवरण निर्वस्त्रता से
होठ चुम्बनों से
आकाश ग्रह नक्षत्रों से
धरती धन-धान्य से
सीढ़ियौं
सीढ़ियाँ नापना चाहती हैं चोटी के रहस्य
तहखानों की गहराई
वैसे उनका ताल्लुक शिखर से अधिक है
रपट कर भी जा सकता है आदमी पाताल में
वे जुड़ी रहना चाहती हैं उस बच्चे से
जिसे फिक्र है बढ़ने-बडरने की
उनकी स्मृतियों में संचित हैं
चढ़ने-उतरने के तमाम नक्शे
सीढ़ियाँ चढ़ते हुए हमेशा लगता है
कि हमें कहीं पहुँचना है
कैसा लगता है सीढ़ियाँ उतरते हुए
झाँक कर देखें गहरी घाटी में
चढ़ने उतरने के सिलसिले के बीच
सीढ़ियाँ ठहरी हैं शताब्दियों से
उनकी ख्वाहिश है वे उड़ कर चली जाएं
सातवें आसमान से परे
गुरुत्वाकर्षण
कुछ लोग नापना चाहते हैं
आकाश की अन्तिम ऊँचाई
वे छलाँग लगाते हैं ब्रह्माण्ड में
और लौट आते हैं धरती पर निरुपाय
गुरुत्वाकर्षण का नियम उनके आड़े आता है
कितना उचित है उनका यह सोचना
कि आदमी कहाँ पहुँच गया होता
यदि नहीं होता गुरुत्व का अवरोध
ऊँचाई हो या नीचाई
अस्तित्व का मूलाधार है गुरुत्व ही
अनंत ब्रह्माण्ड में
हम बिखर जाते छिछड़ों की तरह
यदि नहीं होती गुरुत्व की कशिश
हर ऊँचाई के लिए
द़न करनी होती है नींव में
अपनी सबसे बड़ी ख़्वाहिश
वह जो दिख रहा है
शिखर लाँघता हुआ
कब से द़न था अतल में
कौन जानता है
सन्त-जन कहते आये हैं
केवल गुरू ही दिलाता है
भव सागर से मुक्ति
कबीर ने यूं ही नहीं किया
गोविन्द से पहले उसका पा-लागन
ब्रह्माण्ड की यात्रा शुरू करने से पहले
मैं पूरी करता हूँ अपनी प्रार्थना
…स्वस्ति नो बृहस्पतिर्ददातु!’
जीवन का जादू
साँसो ने जल से जाना
जीवन का जादू
‘जायते इति’
‘लीयते इति’
आती हुई साँस सृष्टि है
जाती हुई प्रलय
शिव ने पार्वती से कहा
तू इनके मध्य ठहर जा
अमृत को उपलब्ध हो जाएगी।
ॉ
घर
उजाड़–बियाबान में बनाया मैंने
एक माटी का घर
घरों से घिरी दुनिया
कुछ और भरी–पूरी हुई
अगले दिन मैंने पूछी
रहमत चाचा की खैर–कुशल
सुदूर पड़ौस तक फैला
मेरा घर–द्वार
मैं जब–जब सोचता हूँ
तमाम चीज़ों तमाम लोगों के बारे में
तो गाँव, जिला, प्रान्त और राष्ट्र की सीमा में ही
सिमट कर नहीं रह जाता घर–संसार
मैं रोज प्रार्थना करता हूँ
‘हे पिता विश्व का कल्याण करो
सभी को आरोग्य दो! अभय दो! सन्मति दो!’
मेरी दिली ख्वाहिश है
कि अगली बार मैं चीखूँ
आकाशगंगा के सीमान्त पे
ताकि गैलेक्सियों के आर–पार बिखर जाएं
घरों की सरहदें
मॉं
मेरे लिए माँ को जानना
जख्म के बीचों बीच से गुजरना है।
आज ही बड़े तड़के
मुझे माँ का खयाल आया
चूल्हे की मंद आग पर
बटलोही में सीझती
माँ हौले-हौले गुनगुना रही थी
चपाती के गोल फूले पेट पर चमकता
उनका बड़ा काला मस्सा
मंद-मंद हँस रहा था
ब्यालू करते हुए मैं खुश था
माँ का होना
ब्यालू का मुकम्मिल होना है
बड़े तड़के ही मैं लौटा था
गूगन कहार की गाय को बिवाकर
ब्याने के पहले की पीड़ा से छटपटाती
हाँफती-काँपती थरथराती
रंभाती डकराती वह गाय
तड़पती सदी के आखिरी मुहाने पर पहुँच
एक सुन्दर सलौने बछड़े में बदल गयी
लहू कीच-कादे से सनी
एक आत्मीय आग्रही हौंक
किलक कर उठी
और बाड़े को फाँद मेड़ पर आ गई
जहाँ दूब थी हरी-हरी
हरी-भरी कल्ले फोड़ती
खुश खिली-खिली सी
अभिलाषा
‘जन का, जन के द्वारा,
और जन के लिए’
चमकता है संसद की दीवार पे लिखा
लिंकन का प्रसिद्ध सूत्रवाक्य
गण और तंत्र की गरिमा से दीप्त
मेरी अभिलाषा है
इसका मर्म बिंधे मेरे राष्ट्र के प्राणों में
गणतंत्र की गुनगुनी धूप में
होते हुए होना
जड़ें ठीक से बताती हैं
होने के बारे में
मूल की महिमा को
छिपाये रहते हैं वृक्ष
दिखने से दूर
होते हुए होना
स्वाभाविक और जरूरी
कुछ लोग मुझे पसंद करेंगे
कुछ नापसंद
यह स्वाभाविक है
और जरूरी भी
दुनिया के सन्तुलन के लिए
लगभग लुच्चापन है यह कोशिश
कि सभी मुझे पसंद करें
ग़ज़लआग की आँख में पानी की तरह।
आँख का नूर निग्हेबानी की तरह।
हर हथेली में रस्म जि़न्दा है,
दोस्त रिश्तों की रवानी की तरह।
रेत में दूब, दूब में दरिया
एक मुसलसल–सी कहानी की तरह।
धूप धरती की पाँव बच्चे का,
सुर्ख़ सूरज पे निशानी की तरह।
आँत में रात है ब्यालू का बखत,
रोटियाँ रात की रानी की तरह।
प्रेम मेंप्रेम करते पुरुष के लहू में
चीखते हैं भेड़िये
उग आती हैं दाढ़ें
पंजे और नाखून
प्यार में पुरुष बेतरह गुर्राता है
हाँफता है काँपता है
और शिथिल हो जाता है
प्रेम करने की कला
केवल स्त्री जानती है
वह बेसुध भीगती है
प्रेम की बारिश में
फिर कीलित कर देती है उस क्षण को
देखी है कभी ग्लेशियर से फूटती
पीन उज्ज्वल जल-धार
एक स्त्री ही गुदवा सकती है
अपने वक्षस्थल पर
अपने प्रेमी का नाम
नीले हरफ़ों में
सवाई सिंह शेखावत